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नज़्म
शिद्दत-ए-दर्द-ओ-अलम से जब भी घबराता हूँ मैं
तेरे नग़्मों की घनी छाँव में आ जाता हूँ मैं
ओम प्रकाश बजाज
नज़्म
ये नज़्म मैं तिरे क़दमों में डाल दूँ कैसे
नवा-ए-दर्द से कुछ जी तो हो गया हल्का
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
लिखा गया है बहुत लुतफ़-ए-वस्ल ओ दर्द-ए-फ़िराक़
मगर ये कैफ़ियत अपनी रक़म नहीं है कहीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
सड़ चुके इस के अनासिर हट चुका सोज़-ए-हयात
अब तुझे फ़िक्र-ए-इलाज-ए-दर्द-ए-इंसाँ है तो क्या