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नज़्म
क्यूँ ज़ियाँ-कार बनूँ सूद-फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फ़र्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
तिफ़्ली में आरज़ू थी किसी दिल में हम भी हों
इक रोज़ सोज़-ओ-साज़ की महफ़िल में हम भी हों
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
नहीं मालूम 'ज़रयून' अब तुम्हारी उम्र क्या होगी
वो किन ख़्वाबों से जाने आश्ना ना-आश्ना होगी
जौन एलिया
नज़्म
नज़र उठाओ सफ़ीर-ए-लैला बुरे तमाशों का शहर देखो
ये मेरा क़र्या ये वहशतों का अमीन क़र्या
अली अकबर नातिक़
नज़्म
कितनी ऊँची उठा दी है हिज्र की संगीन दीवार तू ने
लम्बी बहुत लम्बी मशरिक़ैन से मग़रबीन तक