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नज़्म
पेश-तर इस के कि हम फिर से मुख़ालिफ़ सम्त को
बे-ख़ुदा-हाफ़िज़ कहे चल दें झुका कर गर्दनें
अहमद फ़राज़
नज़्म
शराब-ए-नौ की मस्तियाँ, कि अल-हफ़ीज़-ओ-अल-अमाँ
मगर वो इक लतीफ़ सा सुरूर-ए-बादा-ए-कुहन
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
ये शेर-ए-हाफ़िज़-ए-शीराज़, ऐ सबा! कहना
मिले जो तुझ से कहीं वो हबीब-ए-अम्बर-दस्त
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
वो इक फ़ानी बशर था मैं ये बावर कर नहीं सकता
बशर इक़बाल हो जाए तो हरगिज़ मर नहीं सकता
हफ़ीज़ जालंधरी
नज़्म
गया तो हम तुम्हें फ़ौरन बुला लेंगे चले जाओ''
(अगर मर जाऊँ मैं तो सब्र कर लेना... ख़ुदा-हाफ़िज़)