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नज़्म
वही कि जिस की महार बाँधी थी तुम ने बोसीदा उस्तुख़्वाँ से
वो अस्प-ए-ताज़ी के उस्तुख़्वाँ थे
अली अकबर नातिक़
नज़्म
जिस वक़्त महार उठाई थी मेरा ऊँट भी प्यासा था
मश्कीज़े में ख़ून भरा था आँख में सहरा फैला था
अली अकबर नातिक़
नज़्म
ख़ुर्शीद रिज़वी
नज़्म
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
तुझ से खेली हैं वो महबूब हवाएँ जिन में
उस के मल्बूस की अफ़्सुर्दा महक बाक़ी है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
इस गुलिस्ताँ में मगर देखने वाले ही नहीं
दाग़ जो सीने में रखते हों वो लाले ही नहीं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मगर गुज़ारने वालों के दिन गुज़रते हैं
तिरे फ़िराक़ में यूँ सुब्ह ओ शाम करते हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मेरे सीने पर मगर रखी हुई शमशीर सी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ