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नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
ग़ुंचा-ओ-गुल थे यही लेकिन ये रानाई न थी
इस गुलिस्ताँ में बहार इस धूम से आई न थी
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
ज़ुल्फ़ की छाँव में आरिज़ की तब-ओ-ताब लिए
लब पे अफ़्सूँ लिए आँखों में मय-ए-नाब लिए
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
वो ख़ाक हो कि जिस में मिलें रेज़ा-हा-ए-ज़र
वो संग बन कि जिस से निकलते हैं लाल-ए-नाब