aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "nahraa"
जो मंज़र भी है नाज़िर भीउट्ठेगा अनल-हक़ का नारा
आसमाँ-गीर हुआ नारा-ए-मस्ताना तिराकिस क़दर शोख़-ज़बाँ है दिल-ए-दीवाना तिरा
फ़रहाद भी जो इक नहर सी खोद के लाया हैसब माया है
आज वो कूचा ओ बाज़ार में आ निकला हैकहीं शोला कहीं नारा कहीं पत्थर बन कर
वो बिजली कि थी नारा-ए-ला-तज़र मेंअज़ाएम को सीनों में बेदार कर दे
मरने में आदमी ही कफ़न करते हैं तयारनहला-धुला उठाते हैं काँधे पे कर सवार
फिर नारा-ए-मस्तानाऐ हिम्मत-ए-मर्दाना
नारा-ए-हुब्ब-ए-वतन माल-ए-तिजारत की तरहजिंस-ए-अर्ज़ां की तरह दीन-ए-ख़ुदा की बातें
इसी सियाही में रूनुमा हैवो नहर-ए-ख़ूँ जो मिरी सदा है
एक नारा-ए-तहसीनउस के नाम पर हो जाए
तो मैं कहता हूँ के लो आज नहा कर निकला!वर्ना इस घर में कोई सेज नहीं इत्र नहीं है
तेरे आँगन मेंमुर्दा सूरज नहला के गए हैं
चारों तरफ़ से नारा-ए-सल्ले-अला उठेतेरे मुजस्समों से ज़मीं जगमगा उठे
इसी ज़बाँ को चमकते हीरों से इल्म की झोलियाँ भरी हैंइसी ज़बाँ से वतन के होंटों ने नारा-ए-इन्क़िलाब पाया
चाँदनी और ये महल आलम-ए-हैरत की क़समदूध की नहर में जिस तरह उबाल आ जाए
गुलज़ार भीगते हैं सब्ज़े नहा रहे हैंक्या क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें
जिस ने लगाया दहर मेंनारा ये बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर
मुझे नवम्बर की धूप की तरह मत चाहोकि इस में डूबो तो तमाज़त में नहा जाओ
वो रू-ए-रंगीं ओ माैजा-ए-यम, कि जैसे दामान-ए-गुल पे शबनमये गरमी-ए-हुस्न का है आलम, अरक़ अरक़ में नहा रहे हैं
इस हज़ीं ख़ामुशी में न लौटेगा क्याशोर-ए-आवाज़-ए-हक़, नारा-ए-गीर-ओ-दार
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