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नज़्म
दरख़्तों के तने दीवार फाटक या मुँडेरें हों
पनपती हैं सहारों पर तो ये सरसब्ज़ रहती हैं
शहनाज़ परवीन शाज़ी
नज़्म
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा