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नज़्म
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
यूँ तो सय्यद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़्ग़ान भी हो
तुम सभी कुछ हो बताओ तो मुसलमान भी हो
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मगर गुज़ारने वालों के दिन गुज़रते हैं
तिरे फ़िराक़ में यूँ सुब्ह ओ शाम करते हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
यूँ गुमाँ होता है गरचे है अभी सुब्ह-ए-फ़िराक़
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
हैं माजूनें मुफ़ीद ''अर्वाह'' को माजून यूँ होता
सुनो तफ़रीक़ कैसे हो भला अश्ख़ास ओ अश्या में
जौन एलिया
नज़्म
क़िस्मत का सितम ही कम नहीं कुछ ये ताज़ा सितम ईजाद न कर
यूँ ज़ुल्म न कर बे-दाद न कर
अख़्तर शीरानी
नज़्म
मस्ताना हाथ में हाथ दिए ये एक कगर पर बैठे थे
यूँ शाम हुई फिर रात हुई जब सैलानी घर लौट गए
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
हाँ बे-कल बे-कल रहता है हो पीत में जिस ने जी हारा
पर शाम से ले कर सुब्ह तलक यूँ कौन फिरेगा आवारा
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
उस दिल की वुसअ'तों में कहीं खो गया हूँ मैं
यूँ है कि इस ज़मीं से बड़ा हो गया हूँ मैं
अशफ़ाक़ हुसैन
नज़्म
जहाँ-ज़ाद नौ साल का दौर यूँ मुझ पे गुज़रा
कि जैसे किसी शहर-ए-मदफ़ून पर वक़्त गुज़रे