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आम का फल

MORE BYअली अब्बास हुसैनी

    स्टोरीलाइन

    निचले तबक़े की नफ़्सियात को इस कहानी में बयान किया गया है। बदलिया चमारिन जाति की है जो शादी के तीन माह बाद ही विधवा हो गई है। उसकी सास और ननदें बजाय इसके कि उसे सांत्वना देतीं उसको डायन वग़ैरा कह कर घर से निकाल कर बैलों के बाड़े में रहने के लिए मजबूर कर देती हैं। छोटे से गाँव में इस घटना की ख़बर हर शख़्स को हो जाती है, इसीलिए हर नौजवान बदलिया के लिए हमदर्दी के जज़्बात से लबरेज़ नज़र आता है और रात के अँधेरे में उसके खाने के लिए छोटी मोटी चीज़ें दे जाता है। उसी सिलसिले में गाँव का बदमाश चन्दी, जो एक दिन पहले ही एक साल की जेल काट कर आया है, वो ठाकुर के बाग़ से आम चुरा कर बदलिया के लिए ले जाता है। बदलिया उसे देखकर डर से चीख़ पड़ती है। उसकी ननदें और सास उस पर बदकिरदारी का इल्ज़ाम लगाती हैं और मारना पीटना शुरू करती हैं। वो घबरा कर भागती है तो उसे रास्ते में चन्दी मिल जाता है और वो समझा बुझा कर उसे अपनी बीवी बनने पर राज़ी कर लेता है। जब वो चमर टोली से गुज़रता है तो जैसे सबको साँप सूंघ जाता है और कोई भी चन्दी का रास्ता रोकने की हिम्मत नहीं करता।

    सावन का महीना था। काली काली घटाएं झूम-झूम के उठती और टूट टूट के बरसती थीं। ठाकुर साहब के आमों के बाग़ में टपका लगा था। लड़के लड़कियां इसी ताक में रहते कि रहीमन खटिक की आँख बचे और आम ले उड़ें। मगर वो भी सत्रह बहतरा होने पर भी उतना टांठा था कि अपनी एक पलिया छोटे छप्पर में बैठा, वो डाँट बताता कि लौंडों के औसान ख़ता होते थे और उनको भागते ही बन पड़ती थी। अगर कोई लड़का किसी तरह उसकी आँखें बचा कर एक आध ज़मीन पर पड़े हुए फल उठा लेने में कामयाब भी हो जाता तो कुबडिए का कुत्ता उसकी टांगें लेता था।

    ये पाजी अपने मालिक से भी ज़्यादा एक एक आम की रखवाली करता था, उसने लड़कों का नाक में दम कर रखा था। गाँव भर में सबसे अच्छे और मीठे आम और कोई बग़ैर पैसा ख़र्च किए उन्हें खा सके, और पैसा उनके माँ-बाप के पास नहीं! किसानों के घर में दो-चार मन गल्ला तो पड़ा हो सकता है मगर नक़दी अलैहिस-सलाम, ज़र्द-ओ-सपीद सिक्के, उनका वहाँ कहाँ गुज़र? इसलिए उचक लेने और चोरी करने को जी क्यों चाहे? और वो भी ऐसे ज़माने में जबकि सिवाए इस बाग़ के गाँव में कहीं और आम रह गया हो।

    चुनांचे इन आमों के हासिल करने की तदबीरों पर ग़ौर करने के लिए सभाएं होतीं, जलसे किए जाते और तज्वीज़ें पास होतीं। इन फलों के चुरा लाने के लिए बाज़ियां लगतीं और इनाम मुक़र्रर होते और कभी कभी तो उन दो-चार गिरे पड़े आमों के ला देने पर वो कुछ मिल जाता जो मजनूं को जंगलों की ख़ाक छानने और फ़र्हाद को पहाड़ की चट्टानें काटने के बाद मिल सका था!

    चन्दी जो उस बाग़ में एक अँधेरी रात में घुसा था वो इसी ग़रज़ से। उसके बचपन ही में माँ-बाप मर गए थे। बिरादरी वालों ने उसके सारे खेतों पर क़ब्ज़ा करके उसे इस तरह बेसहारा कर दिया था कि वो चोरी करने और डाका डालने का आदी सा हो गया था। पहले ये हरकतें मुदाफ़िआना थीं। उसे ज़िंदा रहना था और इसके लिए जंग ज़रूरी थी, लेकिन जैसे जैसे वो बढ़ता गया और उसके बाज़ुओं में क़ुव्वत और दिमाग़ में अक़्ल आती गई, उसकी दिफ़ाई तदबीरें जारिहाना कार्यवाईयों की सूरत इख़्तियार करती गईं। वो एक पेशेवर फ़सादी, चोर और डाकू बन गया। अभी कुछ ही दिन पहले वो बदचलनी के सिलसिले में महज़ शुबहा पर एक साल की सज़ा काट कर छूटा था। मगर जेल हो आने से उसकी “मज़मूम सिफ़तें” उसमें और रासिख़ हो गई थीं। जेल की नामालूम सख़्तियां डरावनी रह गई थीं। भूके के लिए गाँव से ज़्यादा क़ैदख़ाने में राहत थी, इसीलिए अब उसकी क़ता उस सांड की थी जो दाग़ कर छोड़ दिया गया हो और जो ये समझने लगा हो कि उसे उसका फ़ित्री हक़ है कि वो हर एक हरे-भरे खेत को चर डाले।

    मगर आज इस अँधेरी रात और मूसलाधार बारिश में चन्दी को भूक इस बाग़ में लाई थी। उसकी ग़रज़ अपने लिए आम चुराना थी, उसका मक़सद, उन आमों को दिल की देवी की भेंट चढ़ाना था। उसने जल्दी जल्दी “अंगोछे” के एक कोने में गिरह दी और उसे थैले की शक्ल का बना लिया, फिर आहिस्ता आहिस्ता बिल्ली की चाल चल कर उसने दस बारह आम मुख़्तलिफ़ थालों से उठा कर उस थैले में रखे। उस शातिर ने ये काम कुछ इस सफ़ाई और एहतियात से किया कि तो खटिक जागा और कुत्ते को ख़बर हुई, फिर वो अपना “प्रशाद” लेकर उस तरफ़ रवाना हो गया जिधर बदलिया रहती थी।

    बदलिया उसी की ज़ात बिरादरी की एक चमारिन थी। अप्रैल में “गौना” करा के ससुराल आई और जून में ठाकुर की बेगार ने उसे दुल्हन की जगह बेवा बना दिया था। पति को छः कोस ठीक दोपहर में शहर तक नंगे पाँव जाना पड़ा। ज़मींदार का हुक्म मौत की तरह टाला जा सकता था। पलटेतों में लू लगी और गाँव पहुँचने से पहले ही जलती भुनती ज़मीन पर गिर कर ठंडा हो गया। बदलिया ने मांग का सींदूर धो डाला। रंगीन सारी उतारकर वो फटी पुरानी सारी पहन ली, जिसके सिवा उसके पास जिस्म ढाँकने को और कोई कपड़ा था।

    और कई वक़्त मारे रंज के एक दाना तक मुँह में डाला, लेकिन इस सोग मनाने से सास ननदों का कलेजा ठंडा हुआ। उन्होंने उसे “डायन” “घर उजाड़न” और “भुन फेरी” ठहरा दिया और उसे अपने फूस के महल से निकाल कर बैलों के छप्पर में जगह दी ताकि उसका मनहूस साया उनकी “पवित्र” दहलीज़ पर पड़े। यहीं एक खरे खाट पर बदलिया पड़ी रहती थी। दिन रात में सास ननदों में से किसी का अगर जी चाहता तो वो उसे थोड़ा सा सत्तू, मुट्ठी भर चना या थोड़ी सी मटर दे जाती थीं, वरना वो थी, बैल थे, मच्छर थे, गोबर था और सडे हुए भूसे की बू थी।

    गाँव की चमरटोली बहुत छोटी सी जगह होती है, वहाँ एक दिल के धड़कने की आवाज़ दूसरे दिल आसानी से सूं लेते हैं। वहाँ कोई काम राज़ में नहीं रह सकता। हर बात फूट निकलती है। चुनांचे दूसरे ही दिन इस घर निकाला और नई सज़ा की ख़बर सबको मिल गई। बड़े बूढ़े तो सर हिला कर चुप रहे लेकिन लड़कों और नौजवानों में हमदर्दी की एक लहर दौड़ गई, हर एक ने बदलिया की मदद अपने ऊपर फ़र्ज़ करली, कोई लड़का बड़ों की आँखें बचा कर अपने घर से गुड़ का टुकड़ा उड़ा देता और उसमें से अपना हिस्सा निकाल कर बदलिया को दे आता। कोई अपने हिस्सा का सत्तू ख़त्म करके अपने किसी भाई या बहन का सत्तू घुमा देता, और उसे नई भौजी तक पहुंचा आता। कोई दूसरे लड़कों की कोई खाने की चीज़ चुरा लेता और उसे इस दुख की देवी के चरणों में चढ़ा आता था। नौजवान इधर से गुनगुनाते “भौजी” कह के बदलिया को मुतवज्जा करते और दूसरों की नज़रें बचा कर एक-आध आम, या दो एक अमरूद फेंक आते थे।

    चन्दी भी उस छप्पर के कई फेरे लगा चुका था। वो अपने करतूतों अब तक कँवारा था। इसीलिए दूसरों की निस्बतन उसकी हमदर्दी भी ज़्यादा थी। मगर बदलिया उसकी सूरत से वैसा ही सहम जाती थी, जैसे कबूतर बहरी को देखकर डर जाता है। इसलिए रात की डरावनी तारीकी में जब वो तन्हाई, गरज और चमक से घबरा घबरा कर करवटें ले रही थी, चन्दी का दबे-पाँव उसके छप्पर में आना, उसके लिए किसी तरह तस्कीनदेह नहीं हो सकता था। यक़ीनी अकेले में साथी की बड़ी ख़्वाहिश बढ़ जाती है। जी चाहता है कि कोई हमदर्द पहलू में होता। उससे मिलकर बैठते, अपनी बीती कहते, पराई बीती सुनते, पर ये बातें हम-जिंसों से मुम्किन हैं। भीड़ और भैरिए या चिड़िया और शुक्रे में नहीं हो सकती हैं।

    बदलिया, इसीलिए चन्दी को पहचानते ही घबरा कर खाट पर उठ बैठी और उसने बड़ा सा घूँघट निकाल लिया। चन्दी मुस्कुरा कर बोला, “लो, भौजी, तुम्हारे लिए ठाकुर के बाग़ के आम लाया हूँ।” ये कहते कहते उसने अंगोछे की गिरह खोल के बिल्कुल एक पूंजीपति के अंदाज़ से खाट पर आम ढेर कर दिए। लंगड़े, दसहरी, सफेदे के फल, डाल पर पक्के हुए, पूरे रस पर, वो ख़ुशबू फैली कि जुगाली करते हुए बैलों ने भी बंद आँखें खोल दीं और शीशे की तरह चमकती आँखों से उनकी तरफ़ तकने लगे, बदलिया जानती थी कि चन्दी का ये तोहफ़ा बेग़रज़ नहीं है, मगर आमों को देखकर मुँह में पानी भर आया। फिर भी चन्दी का डर ग़ालिब था। इसलिए उसने उन्हें हाथ नहीं लगाया। चन्दी ने इतनी देर में अंगोछे को निचोड़ कर उस से भीगा हुआ जिस्म पोंछा, फिर उसे बांध कर गीली धोती उतार कर निचोड़ी और बांध ली।

    बदलिया का धड़कता हुआ दिल ज़रा ठहरा ही था कि चन्दी इस काम से फ़राग़त कर के बड़ी बे-तकल्लुफ़ी से खाट के पाएती बैठ गया। बदलिया फ़ौरन खाट से उतर कर उस तरफ़ ज़मीन पर बैठ गई, जिधर बैल बंधे थे, पास वाले बैल ने दो मर्तबा “फ़ूं, फ़ूं” कर के उसकी इस हरकत पर अपना ताज्जुब ज़ाहिर किया, मगर उसकी मानूस बू सूंघ कर फिर जुगाली करने लगा। चन्दी बदलिया के इस पैतरे पर ज़रा हंसा, बोला, “हम काट लेंगे भौजी, हम तो तुमसे ये कहने आए हैं कि हमारी तुम्हारी जोड़ी अच्छी रहेगी।”

    बदलिया के हाँ गहरे कोहरे की तरह सुकूत छाया रहा। चन्दी समझाने वाले अंदाज़ में बोला, “मेरा झोंपड़ा बिन घर वाली के सूना लगता है, और तुम बिन मर्द के दुखी हो।” मगर गोया बदलिया गूँगी थी, उसने कोई जवाब दिया। चन्दी ने आधे धड़ से खाट पर लेट के उसकी ठोढ़ी की तरफ़ हाथ बढ़ाते हुए कहा, “बोलती क्यों नहीं बदली?” वो हाथ झटक के आहिस्ते से बोली, “हमें ऐसी बातें नापसंद हैं तुम यहाँ से चले जाओ!” चन्दी पर इस झड़की का उल्टा असर हुआ। वो खाट पर घूम कर उस तरफ़ पाँव लटका के बैठा जिधर बदलिया थी, वो सहम कर पीछे हटी। चन्दी फिर हंसा। उसने अचानक झुक कर बदलिया की कलाई पकड़ कर अपनी तरफ़ घसीटा, बदलिया चीख़ पड़ी। वो इतने ज़ोर से चीख़ी कि बैठे हुए बैल फपकारियां मारते उठ कर खड़े हो गए और बदलिया की सास ननदें जाग उठीं।

    चन्दी ने बदलिया के हाथ छोड़ दिए और घबरा कर कहा, “अच्छा, अच्छा, चीख़ मत। ले हम जाते हैं पर देख आम ज़रूर खा लेना।” ये कह कर वो झपट कर बाहर निकल गया। मगर वैसे ही बदलिया की सास झोंपड़े में “अरे क्या है डायन?” कहती हुई दाख़िल हुई। उसे किसी के भागने की आहट मिल ही चुकी थी। अब जो दिया जला कर उसने देखा तो ये समां नज़र आया कि बदलिया खाट से अलग खड़ी, बड़े बड़े दीदे निकाले, डरी सहमी उसे देख रही है और खाट पर अच्छे अच्छे आम ढेर हैं। बस बरस पड़ी, “डायन, बेसवा, हरजॉइन, मेरे कलुवा को खा कर अब यार बुलाती है, रह तो जा, सवेरा होने दे, बिरादरी भर के सामने तेरी मांग मूंड दी तो अपने बाप की जनी कहना।”

    इतने में ननदें भी अपने अपने बच्चे बग़लों में दबाए पहुंचीं, वो भी माँ के साथ मिल के भुन भुनाने लगीं। फूस के छप्परों में रहने वाली चमरटोली यूँही मेंह बरसने और छप्पर के टपकने से जाग रही थी। ये शोर सुन के दौड़ पड़ी, पानी थम गया था, इस हंगामे की आवाज़ दूर तक बाआसानी पहुंची। बारे बड़ी देर झक-झक, बक-बक के बाद तै हुआ कि सुबह पर मुआमला उठा रखा जाये और इस वक़्त पूरी तफ़तीश कर के बिरादरी सज़ा दे। इस फ़ैसले के बाद और सब तो चन्दी के लाए हुए आमों पर हसरत भरी निगाह डालते घर सिधारे, मगर छोटी ननद ने ठिटक के इस ढेर से चुन के चार आम उठा लिए, फिर वो एक को दाँत से छीलती चल दी।

    बदलिया ने वही इत्मीनान महसूस किया, जो बहरी मुसाफ़िर, तूफ़ान के बख़ैर-ओ-ख़ूबी ख़त्म हो जाने पर महसूस करते हैं, लेकिन इस इत्मीनान से उसे किसी क़िस्म की ख़ुशी नहीं हुई बल्कि रंज का एहसास और ज़्यादा हुआ। वो थोड़ी देर तो बैठी अपनी फूटी तक़दीर पर रोती रही। फिर वो उठी और उसने झपट कर एक एक कर के आम उठाए और उन्हें छप्पर के बाहर फेंकना शुरू किया। दो तीन फल ग़ुस्से में फेंके थे कि एक दसहरी हाथ में आगई, वो ख़ुशबू, वो रायहा, वो नरम नरम फिसलती हुई जिल्द कि तौबा भली! फेंकने के लिए उठा हुआ हाथ रुक गया।

    उसने बेसाख़्ता उसे नाक के क़रीब ले जा कर सूँघा। मालूम हुआ जैसे बिफरी हुई नागिन को जड़ी सूँघा दी गई हो। वो झूमने लगी। उसने दो एक-बार ज़बान का सिरा होंटों पर फिराया। फिर उठकर के ज़मीन पर उकड़ूं बैठ के उसे दाँत से छील कर के खाने लगी। छप्पर में बड़ी देर तक बैलों की जुगाली और बदलिया के चटख़ारों की आवाज़ में मुक़ाबला होता रहा। अलबत्ता ये चटख़ारे दरमियान में सिर्फ़ इतनी देर तक रुकते थे जितनी देर कि बदलिया को अपने फेंके हुए आमों को फिर से चुन कर लाने में लगती थी, फिर तो बैलों को मेंढ़कों की ग़र्ग़र्राहट सुनना पड़ी बल्कि बदलिया के ख़र्राटे भी... और उन्होंने जुगाली कर के ये सब अंगेज़ किया।

    दूसरे दिन सुबह-सवेरे “जंगल” से पलटते ही सास ननदों ने मरे हुए बेटे भाई का नाम ले-ले कर वो “कव्वा गुहार” मचाई की बिरादरी की चमारिनें इकट्ठा हो गईं। बदलिया ख़ुमारआलूद आँखें लिये उनके बीच में चुप बैठी रही। बार-बार पूछने पर उसने गऊ की सौगन्द खाई कि उसका कोई यार नहीं है और उसने किसी से कह के आम मंगाए थे।

    “तू ये क्यों नहीं बताती कि कौन लाया था।” सास ने चमक कर कहा। बदलिया ने आहिस्ते से कहा, “चन्दी आम लाए और हम पर हाथ डाला। हम चीख़े, वो भाग गए, सास आगईं।” छोटी ननद जिससे चन्दी से एक ज़माने में दोस्ती रह चुकी थी, कूल्हे पर हाथ रख के बोली, “पराए घर में जब तक कोई बुलाया जाये, आएगा काहे को।” एक चमारिन बोली, “अरे नहीं, वो बड़ा पाजी है।” दूसरी ने कहा, “पर ये भी सच है कि इसमें कल्लू बहू का भी दोश है।” सास चीख़ी, “दोश सा दोश है, अरे लोगो इस डायन ने मेरे कलुवा को खा लिया। अब ये यार ढूँढती है, चोरी का माल उड़ाती है। अरे, ये हम लोगों की नाक ही कटवाएगी, ये हम लोगों को जेल भिजवाएगी जेल!”

    बड़ी ननद ने बदलिया की तरफ़ झपटते हुए कहा, “तो मार के निकाल दो इस पाजन को।” और ये कहते कहते उसने बदलिया को एक तमांचा रसीद ही तो कर दिया। बदलिया बौखला गई। मगर क़ब्ल इसके कि अपने को बचाने की कोई तदबीर कर सके, छोटी ने बढ़कर एक धौल रसीद कर दी, अब तो सारी चमरटोली पिल पड़ी, कोई चमारिन कोस रही है, कोई बाल नोच रही है। बदलिया ने जब जान बचती देखी तो उठ कर खड़ी हो गई और मौक़ा पाते ही मज्मा से निकल कर दीवानावार भागी। उसका साँवला चेहरा पुख़्ता ईंट की तरह सुर्ख़ था, उसके बाल की लटें सेवार की तरह उलझी हुई, बेक़रीना, मुँह और कंधों पर पड़ी हुई थीं। और उसका जिस्म रह-रह कर इस तरह काँप उठता था जिस तरह ज़लज़ला के हर झटके में मकान और दरख़्त हिल जाते हैं। उसके नथुनों से गर्म गर्म सांस निकल रही थी, उसका हलक़ बिल्कुल ख़ुश्क था और उसकी आँखें सामने के रास्ते को देखती थीं, बल्कि बहुत दूर किसी मंज़िल की जुस्तजू में थीं, वो उसी तरह बदहवास पक्कड़ के दरख़्त तक पहुंची, जो चमरटोली के क़रीब ही था। उसने उसकी उभरी हुई जड़ से ठोकर खाई और मुँह के बल ज़मीन पर गिर पड़ी।

    इस अचानक गिरने ने दिल में भरी हुई सारी तकलीफों को एक लड़ी में गूँध दिया और वह ज़मीन पर मुँह रखे सिसक सिसक कर रोने लगी, गोया ज़मीन थी बल्कि माँ का सीना था, जिससे सर लगा कर रो लेने में आराम मिलता है। वो यूँही पड़ी सिसक रही थी कि पत्तों में खड़खड़ाहट हुई और चन्दी पक्कड़ की मोटी मोटी शाख़ों से उतरता हुआ ज़मीन पर मा अपनी लाठी के धम से कूदा। बदलिया इस धमाके पर एक हल्की सी चीख़ के साथ उठ बैठी, एक नामालूम ख़तरे के ख़्याल ने उसके दिल में हद दर्जा डर पैदा कर दिया। उसके दिमाग़ ने चन्दी को एक नए हमला आवर की शक्ल में पेश किया, वो जल्दी से उठकर फिर बेतहाशा भागी। उसकी क़ता इस पानी से भरी सुराही की थी, जो किसी ढालवां मक़ाम पर लुढका दी जाये। सुराही की तरह उसके मुँह से कफ़ जारी था। उसके हलक़ से आवाज़ निकलती जाती थी और उसकी चाल कावाक और टेढ़ी थी।

    चन्दी चंद सेकंड बदलिया के अचानक भागने पर उसे मुँह खोले देखा किया। फिर वो उसके पीछे इस तरह दौड़ा जिस तरह शिकारी किसी चिड़िया को ज़ख़्मी कर के पकड़ने दौड़ता है। बदलिया लड़खड़ाती, बिलकती, सिसकती, पास वाले तुख़्मी आमों के बाग़ तक दौड़ी, फिर उसे चक्कर सा आने और बाग़ लट्टू की तरह घूमने लगा। वो लपक कर सबसे पहले दरख़्त के तने से इस तरह जा कर चिमट गई जिस तरह बच्चे किसी अजनबी से डर कर बाप की टांगों से लिपट जाते हैं। चन्दी क़रीब पहुँच कर ठिटक कर खड़ा हो गया। उसने दिलासा देने वाले अंदाज़ में कहा, “अरे कहाँ जाती है बदली? क्या मैके में सास ननदें तुझको रहने देंगी, उन्होंने तुझको अपने घर से निकाल दिया, वो तुझको वहाँ से भी बदनाम कर के निकलवा देंगे, अरे पगली कहना मान, दूसरा घर बना!”

    बदलिया भद्द से ज़मीन पर बैठ गई, और बड़ी बेबसी से रोने लगी। चन्दी उसे समझाता रहा। मगर हमदर्दी की आवाज़ ताज़ियाना का काम देती रही, गोया चन्दी के अलफ़ाज़ थे बल्कि डाक्टर का नश्तर था, जो जिगर के नासूर को फैला और बढ़ा कर मवाद के निकलने में मदद दे रहा था, लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता बेकसी-ओ-नाकसी का तूफ़ानी एहसास कम होना शुरू हुआ। मद की जगह जज़र ने ली। चन्दी ने क़रीब खिसक कर कहा, “अरे बदली, इस रोने धोने का कोई फ़ायदा नहीं है। तू हमारे साथ चल के रह, फिर किसी की इतनी हिम्मत पड़ेगी कि तुझे आधी बात भी कह सके।”

    बदलिया ने एक दुज़दीदा निगाह चन्दी पर डाली। अच्छा-ख़ासा जवान था। आम चमारों की तरह सूखा, लाग़र, भूका नहीं मालूम होता था, सूरत शक्ल भी बुरी थी, चेहरे से जुर्रत और निडरी के आसार नुमायां थे, आँखों में पसंदीदगी की चमक पैदा हुई। उसने जल्दी से सर झुका लिया, चन्दी मुस्कुराया, “अरे पगली, जब सब तुझको दोश ही लगाते हैं, तो फिर कर के क्यों दिखा दे? किसी का दिया खाते हैं कि डर है?”

    बदलिया ने और गर्दन झुका ली। चन्दी ने आगे बढ़कर ठोढ़ी में हाथ देकर झुके सर को उठाया और आँखों में आँखें डाल कर घूरा, उस नज़र में ख़ुशामद भी थी, हमदर्दी भी थी, और दुनिया भर से बदलिया के लिए लड़ जाने वाला इरादा भी था। फिर बदलिया की भीगी हुई पलकें उसके आँचल से पोंछ कर बोला, “ले अब उठ, चल।” वो कांधे पर लाठी रखे आगे आगे चला, बदलिया घूँघट निकाले उसके पीछे पीछे हो ली। जब दोनों चमरटोली से हो कर गुज़रे तो बदलिया की सास और बड़ी ननद ने रास्ता रोका। वो झिड़क कर बोला, “हट जाओ रास्ता से, नहीं तो सर फोड़ देंगे।” वो डर के पीछे हटीं, तो छोटी हाथ चमका कर बोली, “अरे यही रात को आम लाया था।”

    चन्दी पलट पड़ा, उसकी आँखें शरारत से चमक रही थीं, “हाँ हाँ, हमीं लाए थे। वो रात की चोरी थी ठाकुर के बाग़ की, ये दिन का डाका है तुम्हारे घर का!”

    बड़ी ननद ने कहा, “वो पहले ही समझ गए थे कि ये डायन नाक कटवा के छोड़ेगी।”

    चन्दी ने कंधे पर रखी हुई लाठी ज़मीन पर ज़ोर से खींच मारी, तीनों औरतें जल्दी से छप्पर में घुस कर दरवाज़े से झाँकने लगीं, चन्दी ने डाँट कर कहा, “ख़बरदार जो कभी डायन कहा, ये अब हमारी मेहरिया है।” फिर एक बार लाठी घुमा दी। तीनों ने जल्दी से अपने सर अंदर कर लिये और ये सपेरा मा अपनी नई नागिन के मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ गया।

    स्रोत:

    Basi Phool (Pg. 148)

    • लेखक: अली अब्बास हुसैनी
      • प्रकाशक: मकतबा उर्दू, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 1942

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