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अबाबील

MORE BYख़्वाजा अहमद अब्बास

    स्टोरीलाइन

    इंसानी स्वभाव की परतें खोलती एक ऐसे किसान की कहानी है जिसके ग़ुस्से की वजह से। गाँव के लोग हमेशा उससे फ़ासला बना कर रखते हैं। उसकी बेवजह और शदीद ग़ुस्से की वजह से एक दिन उसकी बीवी अपने बच्चों के साथ घर छोड़कर चली जाती है। किसान जब अपने खेत से वापस आता है तो उसे पता चलता है कि अब वह घर में अकेला है। एक दिन उसे अपने घर के छप्पर में अबाबील का घोंसला दिखाई देता है। घोंसले में अबाबील के छोटे-छोटे बच्चे हैं। अबाबील के बच्चों से एक ऐसा गहरा रिश्ता हो जाता है कि उन्हें बारिश से बचाने के लिए वह बारिश में भीगता हुआ छप्पर को ठीक करता है। बारिश में भीग जाने की वजह से वह बीमार हो जाता है और उसकी मौत हो जाती है।

    उसका नाम तो रहीम ख़ाँ था मगर उस जैसा ज़ालिम भी शायद ही कोई हो। गाँव भर उसके नाम से काँपता था। आदमी पर तरस खाए जानवर पर। एक दिन रामू लुहार के बच्चे ने उसके बैल की दुम में काँटे बाँध दिए थे तो मारते मारते उसको अधमुआ कर दिया। अगले दिन ज़ैलदार की घोड़ी उसके खेत में घुस आई तो लाठी लेकर इतना मारा कि लहू-लुहान कर दिया।

    लोग कहते थे कि कम्बख़्त को ख़ुदा का ख़ौफ़ भी तो नहीं है। मा’सूम बच्चों और बे-ज़बान जानवरों तक को मुआ'फ़ नहीं करता। ये ज़रूर जहन्नम में जलेगा। मगर ये सब उसकी पीठ के पीछे कहा जाता था। सामने किसी की हिम्मत ज़बान हिलाने की होती थी।

    एक दिन बिंदू की जो शामत आई तो उसने कह दिया, “अरे भई रहीम ख़ाँ तू क्यों बच्चों को मारता है।” बस उस ग़रीब की वो दुर्गत बनाई कि उस दिन से लोगों ने बात भी करनी छोड़ दी कि मा’लूम नहीं किस बात पर बिगड़ पड़े। बा’ज़ का ख़याल था कि उसका दिमाग़ ख़राब हो गया है। इसको पागलख़ाने भेजना चाहिए। कोई कहता था अब के किसी को मारे तो थाने में रपट लिखवा दो। मगर किस की मजाल थी कि उसके ख़िलाफ़ गवाही देकर उससे दुश्मनी मोल लेता।

    गाँव भर ने उससे बात करनी छोड़ दी। मगर उस पर कोई असर हुआ। सुब्ह-सवेरे वो हल कांधे पर धरे अपने खेत की तरफ़ जाता दिखाई देता था। रास्ते में किसी से बोलता। खेत में जा कर बैलों से आदमियों की तरह बातें करता। उसने दोनों के नाम रखे हुए थे। एक को कहता था नत्थू, दूसरे को छद्दू। हल चलाते हुए बोलता जाता, “क्यूँ-बे नत्थू तू सीधा नहीं चलता। ये खेत आज तेरा बाप पूरे करेगा। और अबे छद्दू तेरी भी शामत आई है क्या।” और फिर उन ग़रीबों की शामत ही जाती। सूत की रस्सी की मार। दोनों बैलों की कमर पर ज़ख़्म पड़ गए थे।

    शाम को घर आता तो वहाँ अपने बीवी-बच्चों पर ग़ुस्सा उतारता। दाल या साग में नमक है, बीवी को उधेड़ डाला। कोई बच्चा शरारत कर रहा है, उसको उल्टा लटका कर बैलों वाली रस्सी से मारते-मारते बे-होश कर दिया। ग़रज़ हर-रोज़ एक आफ़त बपा रहती थी। आस-पास के झोंपड़ों वाले रोज़ रात को रहीम ख़ाँ की गालियों, उसके बीवी और बच्चों के मार खाने और रोने की आवाज़ सुनते मगर बेचारे क्या कर सकते थे। अगर कोई मना करने जाए तो वो भी मार खाए।

    मार खाते-खाते बीवी ग़रीब तो अधमुई हो गई थी। चालीस बरस की उ'म्र में साठ साल की मा’लूम होती थी। बच्चे जब छोटे-छोटे थे तो पिटते रहे। बड़ा जब बारह बरस का हुआ तो एक दिन मार खा कर जो भागा तो फिर वापस लौटा। क़रीब के गाँव में एक रिश्ते का चचा रहता था। उसने अपने पास रख लिया। बीवी ने एक दिन डरते-डरते कहा, “बिलासपुर की तरफ़ जाओ ज़रा नूरू को लेते आना।” बस फिर क्या था आग बगूला हो गया। “मैं उस बदमा’श को लेने जाऊँ। अब वो ख़ुद भी आया तो टाँगें चीर कर फेंक दूँगा।”

    वो बदमाश क्यों मौत के मुँह में वापस आने लगा था। दो साल के बा'द छोटा लड़का बिंदू भी भाग गया और भाई के पास रहने लगा। रहीम ख़ाँ को ग़ुस्सा उतारने के लिए फ़क़त बीवी रह गई थी सो वो ग़रीब इतनी पिट चुकी थी कि अब आ’दी हो चली थी। मगर एक दिन उसको इतना मारा कि उससे भी रहा गया। और मौक़ा’ पा कर जब रहीम ख़ाँ खेत पर गया हुआ था वो अपने भाई को बुला कर उसके साथ अपनी माँ के हाँ चली गई। हम-साये की औरत से कह गई कि आएँ तो कह देना कि मैं चंद रोज़ के लिए अपनी माँ के पास रामनगर जा रही हूँ।

    शाम को रहीम ख़ाँ बैलों को लिए वापस आया तो पड़ोसन ने डरते-डरते बताया कि उसकी बीवी अपनी माँ के हाँ चंद रोज़ के लिए गयी है। रहीम ख़ाँ ने ख़िलाफ़ मा’मूल ख़ामोशी से बात सुनी और बैल बाँधने चला गया। उसको यक़ीन था कि उसकी बीवी अब कभी आएगी।

    अहाते में बैल बाँध कर झोंपड़े के अंदर गया तो एक बिल्ली म्याऊँ-म्याऊँ कर रही थी। कोई और नज़र आया तो उसकी ही दुम पकड़ कर दरवाज़े से बाहर फेंक दिया। चूल्हे को जा कर देखा तो ठंडा पड़ा हुआ था। आग जला कर रोटी कौन डालता। बग़ैर कुछ खाए-पिए ही पड़ कर सो रहा।

    अगले दिन रहीम ख़ाँ जब सो कर उठा तो दिन चढ़ चुका था। लेकिन आज उसे खेत पर जाने की जल्दी थी। बकरियों का दूध दूह कर पिया और हुक़्क़ा भर कर पलंग पर बैठ गया। अब झोंपड़े में धूप भर आई थी। एक कोने में देखा तो जाले लगे हुए थे। सोचा कि लाओ सफ़ाई ही कर डालूँ। एक बाँस में कपड़ा बाँध कर जाले उतार रहा था कि खपरैल में अबाबीलों का एक घोंसला नज़र आया। दो अबाबीलें कभी अंदर जाती थीं कभी बाहर आती थीं। पहले उसने इरादा किया कि बाँस से घोंसला तोड़ डाले। फिर मा’लूम नहीं क्या सोचा। एक घड़ौंची ला कर उस पर चढ़ा और घोंसले में झाँक कर देखा। अंदर दो लाल बूटी से बच्चे पड़े चूँ-चूँ कर रहे थे। और उनके माँ बाप अपनी औलाद की हिफ़ाज़त के लिए उसके सर पर मंडला रहे थे। घोंसले की तरफ़ उसने हाथ बढ़ाया ही था कि मादा अबाबील अपनी चोंच से उस पर हमला-आवर हुई।

    “अरी, आँख फोड़ेगी”, उसने अपना ख़ौफ़नाक क़हक़हा मार कर कहा। और घड़ौंची पर से उतर आया। अबाबीलों का घोंसला सलामत रहा।

    अगले दिन से उसने फिर खेत पर जाना शुरू' कर दिया। गाँव वालों में से अब भी कोई उससे बात करता था। दिन-भर हल चलाता, पानी देता या खेती काटता। लेकिन शाम को सूरज छिपने से कुछ पहले ही घर जाता। हुक़्क़ा भर कर पलंग के पास लेट कर अबाबीलों के घोंसले की सैर देखता रहता। अब दोनों बच्चे भी उड़ने के क़ाबिल हो गए थे।

    उसने उन दोनों के नाम अपने बच्चों के नाम पर नूरो और बिंदू रख दिए थे। अब दुनिया में उसके दोस्त ये चार अबाबील ही रह गए थे। लेकिन उनको ये हैरत ज़रूर थी कि मुद्दत से किसी ने उसको अपने बैलों को मारते देखा था। नत्थू और छद्दू ख़ुश थे। उनकी कमरों पर से ज़ख़्मों के निशान भी तक़रीबन ग़ाइब हो गए थे।

    रहीम ख़ाँ एक दिन खेत से ज़रा सवेरे चला रहा था कि चंद बच्चे सड़क पर कुंडी खेलते हुए मिले। उसको देखना था कि सब अपने जूते छोड़कर भाग गए। वो कहता ही रहा, “अरे मैं कोई मारता थोड़ा ही हूँ।” आसमान पर बादल छाए हुए थे। जल्दी जल्दी बैलों को हाँकता हुआ घर लाया। उनको बाँधा ही था कि बादल ज़ोर से गरजा और और बारिश शुरू' हो गई।

    अंदर कर किवाड़ बंद किए और चराग़ जला कर उजाला किया। हस्ब-ए-मा’मूल बासी रोटी के टुकड़े कर के अबाबीलों के घोंसले के क़रीब एक ताक़ में डाल दिए। “अरे बिंदू। अरे नूरो” पुकारा मगर वो निकले। घोंसले में जो झाँका तो चारों अपने परों में सर दिए सहमे बैठे थे। ऐ'न जिस जगह छत में घोंसला था वहाँ एक सूराख़ था और बारिश का पानी टपक रहा था।

    अगर कुछ देर ये पानी इस तरह ही आता रहा तो घोंसला तबाह हो जाएगा और अबाबीलें बे-चारी बे-घर हो जाएँगी। ये सोच कर उसने किवाड़ खोले और मूसलाधार बारिश में सीढ़ी लगा कर छत पर चढ़ गया। जब तक मिट्टी डाल कर सूराख़ को बंद कर के वो उतरा तो शराबोर था। पलंग पर जा कर बैठा तो कई छींकें आईं। मगर उसने परवाह की और गीले कपड़ों को निचोड़ चादर ओढ़ कर सो गया। अगले दिन सुब्ह को उठा तो तमाम बदन में दर्द और सख़्त बुख़ार था। कौन हाल पूछता और कौन दवा लाता। दो दिन उसी हालत में पड़ा रहा।

    जब दो दिन उसको खेत पर जाते हुए देखा तो गाँव वालो को तशवीश हुई। कालू ज़ैलदार और कई किसान शाम को उसके झोंपड़े में देखने आए। झाँक कर देखा तो पलंग पर पड़ा आप ही आप बातें कर रहा था, “अरे बिंदू। अरे नूरू। कहाँ मर गए। आज तुम्हें कौन खाना देगा।” चंद अबाबीलें कमरे में फड़फड़ा रही थीं।

    “बेचारा पागल हो गया है।” कालू ज़मींदार ने सर हिला कर कहा। “सुब्ह को शिफ़ा-ख़ाने वालों को पता देंगे कि पागलख़ाने भिजवा दें।”

    अगले दिन सुब्ह को जब उसके पड़ोसी शिफ़ाख़ाने वालों को लेकर आए और उसके झोंपड़े का दरवाज़ा खोला तो वो मर चुका था। उसकी पाएँती चार अबाबीलें सर झुकाए ख़ामोश बैठी थीं।

    स्रोत:

    Kahaniyan (Pg. 211)

      • प्रकाशक: उर्दू कलासिक, मुम्बई

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