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ख़्वाजा अहमद अब्बास की कहानियाँ
ज़ाफ़रान के फूल
कश्मीर के सियासी संघर्ष को बुनियाद बनाकर लिखी गई कहानी है। सड़क से गुज़रते एक ड्राईवर की गाड़ी ख़राब हो जाती है। गाड़ी के ठीक होने तक वह पास ही लगे ज़ाफ़रान के फूल के खेत के पास जाकर खड़ा हो जाता है। वहाँ काम कर रही एक बुढ़िया उसे बताती है कि ज़ाफ़रान के फूल का रंग लहू जैसे लाल सुर्ख़ क्यों नहीं है? इनकी सुर्ख़ी में उसके तीन बेटों और एक बेटी का खू़न है जो एक-एक करके कश्मीर की आज़ादी की लड़ाई के भेंट चढ़ जाते हैं।
बारह घंटे
"बारह घंटे एक इन्क़लाबी विजय सिंह की कहानी है जो सोलह साल बाद जेल से छूट कर आता है और अगले ही दिन फिर उसकी गिरफ़्तारी निश्चित है। इन्क़लाबी पार्टी की सदस्य बीना के घर वो रात गुज़ारता है और बीना उसकी सेवाओं, देश भक्ति की भावना, उसके त्याग और बलिदान तथा उसकी यौन असंतुष्टि को याद करके एक बलिदान भावना के तहत उसकी यौन इच्छा पूरी कर देती है।"
माँ का दिल
कहानी एक फ़िल्म के एक सीन की शूटिंग के गिर्द घूमती है, जिसमें हीरो को एक बच्चे को गोद में लेकर डायलॉग बोलना होता है। स्टूडियों में जितने भी बच्चे लाए जाते हैं हीरो किसी न किसी वजह से उनके साथ काम करने से मना कर देता है। फिर बाहर झाड़ू लगा रही स्टूडियों की भंगन को उसका बच्चा लाने के लिए कहा जाता है, जो कई दिन से बुख़ार में तप रहा होता है। पैसे न होने के कारण वह उसे अच्छी डॉक्टर को भी नहीं दिखा पाती। हीरो बच्चे के साथ सीन शूट करा देता है। मगर जब भंगन स्टूडियों से पैसे लेकर उसे डॉक्टर के पास लेकर जाती है तब तक बच्चा मर चुका होता है।
मेरी मौत
एक सच्ची घटना पर आधारित कहानी है। इसका मुख्य किरदार एक साम्प्रदायिक मुसलमान है। वह मुसलमान सरदारों से डरता भी है और उनसे नफरत भी करता है। वह अपने पड़ोसी सरदार पर बिल्कुल भी भरोसा नहीं करता। लेकिन विभाजन के दौरान जब दंगे भड़क उठते हैं तब यही पड़ोसी सरदार उस मुसलमान को बचाता है।
टिड्डी
यह एक व्यंग्यात्मक कहानी है। किसान सारे साल दिन-रात मेहनत करके बंजर खेतों में फ़सल तैयार करता है। फ़सल के तैयार होने पर टिड्डियों का एक दल उस पर हमला करता है, वह टिड्डी दल से अपनी फ़सल को बचा लेता है, लेकिन वह समाज में बैठे रिश्वत-ख़ोर पटवारी और साहूकार जैसे टिड्डियों से खु़द की हिफ़ाज़त नहीं कर पाता। इन्हीं सामाजिक टिड्डियों की वजह से वह अपनी पत्नी के हँसुली बनाकर देने के सपने को भी साकार नहीं कर पाता और उसे अगले साल के लिए टाल देता है।
सलमा और समुन्दर
माँ-बाप की ओर से बच्चों पर अनावश्यक पाबंदियों के नतीजे में पैदा होने वाली मनोवैज्ञानिक उलझनों को इस कहानी में प्रस्तुत किया गया है। प्रसिद्ध वकील सर अज़ीम-उल्लाह अपनी बेटी के महावत की लड़की झुनिया से मिलने पर न सिर्फ सख़्त पाबंदी लगाते हैं बल्कि उसे समुंद्री जहाज़ से लंदन पढ़ने के लिए भेज देते हैं। सफ़र के दौरान मासूम ज़ेहन में उठने वाले सवालों, विचारों, अनुभवों के नतीजे में उसके अचेतन में समुंद्र का ऐसा ख़ौफ़ बैठ जाता है कि कैम्ब्रिज से दर्शनशास्त्र में पी.एच.डी करने के बाद भी वह डर नहीं निकलता। जब डाक्टर अनवर से उसकी लव मैरिज हो जाती है तो अनवर कश्ती में ही बिठा कर उसका मनोवैज्ञानिक इलाज करता है, और समुंद्र के किनारे प्रसव पीड़ा में मुब्तला जो मछेरन उससे मिलती है उसका नाम भी झुनिया होता है।
अबाबील
इंसानी स्वभाव की परतें खोलती एक ऐसे किसान की कहानी है जिसके ग़ुस्से की वजह से। गाँव के लोग हमेशा उससे फ़ासला बना कर रखते हैं। उसकी बेवजह और शदीद ग़ुस्से की वजह से एक दिन उसकी बीवी अपने बच्चों के साथ घर छोड़कर चली जाती है। किसान जब अपने खेत से वापस आता है तो उसे पता चलता है कि अब वह घर में अकेला है। एक दिन उसे अपने घर के छप्पर में अबाबील का घोंसला दिखाई देता है। घोंसले में अबाबील के छोटे-छोटे बच्चे हैं। अबाबील के बच्चों से एक ऐसा गहरा रिश्ता हो जाता है कि उन्हें बारिश से बचाने के लिए वह बारिश में भीगता हुआ छप्पर को ठीक करता है। बारिश में भीग जाने की वजह से वह बीमार हो जाता है और उसकी मौत हो जाती है।
भोली
"शिक्षा के द्वारा महिलाओं में आत्मविश्वास पैदा होने की कहानी। नंबरदार की सबसे छोटी बेटी भोली जन्म से ही हकलाती है। गाँव में जब स्कूल खुलता है तो तहसीलदार के हुक्म पर वो भोली को स्कूल में दाख़िल करा देता है, हालाँकि उसे उसकी शिक्षा की तनिक भी परवाह नहीं होती। स्कूल की उस्तानी के स्नेह और तवज्जो से भोली की झिझक दूर हो जाती है। उस्तानी उसे दिलासा देती है कि एक दिन तुम बोलना सीख जाओगी। इस तरह सात साल गुज़र जाते हैं। भोली की तरफ़ से अब भी सब ग़ाफ़िल हैं और उसे हुकली, कम-अक़्ल और गाय ही समझते हैं, जिसके चेचक के दाग़ हैं और जिससे कोई शादी करने के लिए तैयार नहीं होगा। नंबरदार एक बूढ़े और लंगड़े आदमी से भोली की शादी तय कर देता है लेकिन वो हार डालने से पहले जब भोली के चेहरे पर चेचक के दाग़ देखता है तो पाँच हज़ार रुपये की मांग करता है। नंबरदार इज़्ज़त बचाने की ख़ातिर पाँच हज़ार रुपये ला कर उसके क़दमों में डाल देता है लेकिन भोली शादी करने से इंकार कर देती है और बरात वापस चली जाती है। भोली की बोलने की इस शक्ति को देखकर गाँव वाले हैरान और उस्तानी आनंदित होती है।"
वापसी का टिकट
इंसान ने इंसान को ईज़ा पहुँचाने के लिए जो मुख़्तलिफ़ आले और तरीक़े इख़्तियार किए हैं उनमें सबसे ज़ियादा ख़तरनाक है टेलीफ़ोन साँप के काटे का मंत्र तो हो सकता है मगर टेलीफ़ोन के मारे को तो पानी भी नहीं मिलता। मुझे तो रात-भर इस कम्बख़्त के डर से नींद नहीं
काली घटा
टैक्सी रवाना हुई तो बिमला ने सोचा, ये सीन बिल्कुल ऐसा है जैसा फ़िल्मों में होता है। सामने उसके अपने माधव के चेहरे का क्लोज़-अप है। इतने क़रीब कि वो उसके हल्के साँवले गालों पर ख़ूब अच्छी तरह घुटी हुई दाढ़ी की नीलाहट को देख सकती है। उसके रेशमी सफ़ेद क़मीज़
एक लड़की
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में शुरुआती ज़माने में लड़कियों को दाखिला नहीं दिया जाता था। इसके लिए एक पत्रकार ने यूनिवर्सिटी के ख़िलाफ मुक़दमा किया। यह मुक़दमा 99 साल और पत्रकार की तीन नस्लों तक चला। इसके भी कई साल बाद तक लड़कियों को यूनिवर्सिटी ने दाख़िला नहीं दिया। लेकिन फिर एक लड़की वहाँ दाख़िला लेने में कामयाब रही और उसके आने के बाद जो तब्दीलियाँ वहाँ के माहौल में हुई वह आप इस कहानी में पढ़ सकते हैं।
तीन औरतें
यह एक ऐसी औरत की कहानी है, जो ज़िंदगी की दुश्वारियों से तंग आकर खुदकुशी करने चल पड़ती है। वह रेलवे ट्रैक पर चली जा रही है और उसके पीछे दो औरतें उसे समझा रही हैं। मगर वह उनकी हर दलील को अपने तर्कों से काटती जाती है और आख़िर में ट्रेन के नीचे आकर मर जाती है। बाद में पता चलता है मरने वाली एक नहीं, तीन औरते थीं।
शुक्र अल्लाह का
इस कहानी में प्रतिक्रियावाद को तंज़ का निशाना बनाया गया है। ममदू जो एक दुर्घटना में अपनी एक टांग गंवा बैठा है, हर हाल में अल्लाह का शुक्र अदा करता रहता है। जवानी के दिनों में जिस तहसीलदार के यहाँ वो मुलाज़िम था उसकी बेटी बानो ने अपनी सौतेली माँ के अत्याचार से तंग आकर ममदू से भाग चलने की विनती की थी लेकिन ममदू तहसीलदार के डर से बीमार हो कर घर आ गया था। लम्बे समय के बाद बानो उसको एक कोठे पर मिलती है, वो बानो को वहाँ से निकाल लाता है और अपनी पत्नी के रूप में साथ रखता है। उम्र के आख़िरी दिनों में बानो की दिमाग़ी हालत ख़राब हो जाती है और वो ममदू को पहचान भी नहीं पाती है। ममदू ख़ुदा का शुक्र अदा करता है कि बानो साथ में है और वो कम से कम उसे देख तो सकता है।
दिवाली के तीन दीये
यह कहानी धन की देवी लक्ष्मी को आकर्षित करने के लिए दीवाली पर जलाए गए तीन दीयों की है जो अपनी हैसियत के अनुसार तीन घरों में जल रहे हैं। सेठ जी के यहाँ एक बहुत बड़ा दीया जल रहा है और उसके साथ ही हज़ारों दीये भी जल रहे हैं। दूसरे अफ़सर के यहाँ उससे कम और एक ग़रीब के घर में महज़ एक दीया जल रहा है। सिर पर गठरी रखे एक ग़रीब औरत सेठ के यहाँ रात भर के लिए आसरा माँगने आती है मगर सेठ उसे दुत्कार देता है। वह दूसरे घर भी जाती है मगर उसने भी इनकार कर दिया। फिर वह ग़रीब के घर में जाती है और उसके आते ही झोंपड़ी का दीया बाक़ी दोनों घरों से ज्यादा तेज़ जलने लगता है।
नीली साड़ी
यह कहानी वेश्यालय से बरामद की गई एक लड़की के बयान के गिर्द घूमती है, जो फ़िल्म में स्टार बनने के चक्कर में एक वेश्यालय में पहुँच जाती है और जब वह वहाँ से भागने की कोशिश करती है तो उसके चेहरे पर तेज़ाब डालकर उसे जला दिया जाता है।
दिया जले सारी रात
यह मुहब्बत को एक नए रूप में पेश करती हुई कहानी है। त्रावणकोर में कश्ती में बैठकर समुंद्र में घूमते हुए कब शाम ढल गई उसे पता ही नहीं चला। शाम धीरे-धीरे रात में तब्दील होती गई और कश्ती आगे बढ़ती गई। किनारे से बहुत दूर निकल आने पर उसने पास की एक दूसरी कश्ती को देखा, जिसमें एक लालटेन जल रही थी। किश्ती जब पास आई तो उसमें एक औरत बैठी हुई थी और वह एक पेड़ पर दिया जलाकर वापस चली गई। इस औरत के बारे में जब उसने अपने नाविक से पूछा तो उसने बताया कि वह औरत पिछले तीन साल से अपने उस प्रेमी का इंतिज़ार कर रही है, जो मर चुका है। उसको रास्ता दिखाने के लिए वह हर रात आकर उस पेड़ पर दिया जलाती है।
अजंता
यह कहानी सच्ची घटना पर आधारित है। इसमें अजंता के द्वारा गीता के उपदेशों को बहुत सुंदर ढंग से मूर्तियों के माध्यम से पेश किया गया है। कहानी का हीरो दंगा-फ़साद से भागकर अजंता की गुफ़ाओं में पनाह लेता है। वहाँ उसे गुफ़ाओं के माध्यम से गीता का उपदेश मिलता है, ‘कर्म कर, फल की चिंता मत कर।’ उपदेश पढ़कर हीरो को अपने कर्तव्य का बोध होता है वह वापस बंबई चला आता है।
सोने की चार चूड़ियाँ
यह एक ऐसे शख़्स की कहानी है जो बचपन में ही यतीम हो गया था और सड़क पर गाड़ियों के पीछे दौड़कर रोज़ी कमाता था। मगर उसकी प्रेमिका के बाप को उसका यह काम पसंद नहीं था। फिर वह इस काम से उसकी बेटे को चार सोने की चूड़ियाँ भी नहीं ख़रीद कर दे सकता था। अपनी प्रेमिका के लिए चार सोने की चूड़ियाँ ख़रीदने के लिए उसने हर तरह के काम किए। शराब की ब्लैकमेलिंग की, चोरी की और लोगों को लूटा भी। मगर कामयाब न हो सका। फिर एक रोज़ नीमगिरी की पहाड़ी से एक हवाई जहाज़ क्रैश हो गया और उस हादसे ने उसकी पूरी ज़िंदगी ही बदल दी।
दिल ही तो है
"इंसान के जुनून और बदले की भावना को इस कहानी में चित्रित किया गया है। क़त्ल के मुजरिम फ़ौजी को अदालत जब फांसी की सज़ा सुनाती है तो वो आख़िरी इच्छा के रूप में अपने घर जाने की इच्छा प्रकट करता है और वहाँ से अपनी फ़ौजी ट्रेनिंग की बदौलत फ़रार होने में कामयाब हो जाता है। शिकारी कुत्तों की मदद से जब वो गिरफ़्तार होता है तो उसके दिल में गोली मार दी जाती है। जज के बहुत आग्रह के बाद डाक्टर ऑप्रेशन के ज़रिये उसके नया दिल लगा देता है। पत्रकार मुजरिम से उसके अगले प्रोग्राम के बारे में पूछते हैं तो वो कहता है कि मैं सिर्फ ज़िंदा रहना चाहता हूँ। तीन महीने के बाद हॉस्पिटल से उसकी छुट्टी हो जाती है और उसके बाद अदालत के आदेश के अनुसार फांसी।"
आईना ख़ाने में
"ये एक जीवनी से संबद्ध अफ़साना है जिसमें लेखक ने अपने पारिवारिक परिदृश्य, सृजनात्मक प्रेरणाओं और मानवीय मूल्यों पर अपने विश्वास का वर्णन किया है।"
आज के लैला मजनूँ
एक थी लैला, एक था मजनूँ। मगर लैला का नाम लैला नहीं था, लिली था, लिली डी सूज़ा। वो दोनों और उनके क़बीले सहरा-ए-अरब में नहीं रहते थे। माहिम और बांद्रा के बीच में सड़क के नीचे और खारी पानी की खाड़ी के किनारे जो झोंपड़ियों की बस्ती है वहाँ रहते थे। मगर सहरा-ए-अरब
भूक
कहानी एक मूर्ति के गिर्द घूमती है, जिसका नाम उसके बनाने वाले ने "भूक" रखा है। एक रोज़ वह मूर्ति चोरी हो जाती है। पुलिस उसकी तलाश में हर उस जगह जाती हैं जहाँ उन्हें शक होता है कि वह मिल सकती है। मूर्तिकार भी पुलिस के साथ-साथ होता है जो "भूक" की तालश में अपनी भूक को मिटाता जाता है।
बनारस का ठग
कहानी एक ऐसे शख़्स की है जो बनारस घूमते आता है तो उसे हर जगह वाराणसी लिखा दिखाई देता है। वह शहर में घूमता है और देखता है कि एक तरफ कुछ लोग हैं जो बहुत अमीर और दूसरे लोगों के पास इतना भी नहीं कि वे अपना तन ढक सकें। वह उन लोगों से कपड़े लेकर गरीबों को दे देता है। वह सारनाथ जाता है और वहाँ गौतम बुद्ध की सोने की मूर्ति देखता है। जिससे वह बहुत क्रोधित हो जाता है और मूर्ति को तोड़ देता है। वह शहर में इसी तरह और कई काम करता है। आख़िर में उसे पुलिस पकड़ लेती है और पागलख़ाने वालों को सौंपते वक़्त जब उसका नाम पूछा जाता है तो वह अपना नाम बताता है, कबीर।
एक लड़की सात दीवाने
एक सियासी प्रतिकात्मक कहानी है। एक खू़बसूरत जवान लड़की है जिससे अलग-अलग किस्म के सात लोग शादी करने आते हैं। आने वालों में पंडित है, राजा है, अफ़सर है, सेठ है, क्रांतिकारी है, किसान है और खद्दर धारी नौजवान है। लड़की सबसे बातचीत करती है और आख़िर में एक को अपना वर चुन लेती है। लड़की के वर चुनने से अँधेरे में से एक हलकी सी रौशनी की जो किरन फूटती है वह मुल्क की आज़ादी की किरन होती है।
तीन माएँ एक बच्चा
कहानी एक ऐसे बच्चे की है जिसे हाल ही में बंबई पुलिस ने बरामद किया था। टीवी पर जब बच्चे की ख़बर चली तो दो अमीर औरतों ने उस पर अपना हक़ जताया। मगर कोर्ट में जब वकील ने उनसे बच्चे और उनकी बीती ज़िंदगी से जुड़े सवाल पूछे तो वह उनमें से कोई सही जवाब नहीं दे सकी। मुक़दमा ख़त्म होने को ही था कि एक भिखारन कोर्ट में हाज़िर होती है और बच्चे पर अपना हक़ जताती है। वकील उससे भी सवाल करता है। जज तीनों औरतों के जवाब सुनने के बाद यह कहते हुए फैसला बच्चे पर छोड़ देता है कि बच्चा जिसके पास भी जाएगा वही उसकी माँ होगी।
तीन भंगी
कहानी एक सरकारी ऐलान के गिर्द घूमती है, जिसमें ऊँची जात वालों को सफाई का काम करने पर ज़्यादा मुआवज़ा दिए जाने के बारे में कहा गया था। ऐलान के बाद तीन नए भंगी जमादार के सुपुर्द किए गए। उनमें एक मुसलमान था और दो हिंदू। दो हिंदुओं में से जमादार एक को जानता था। मुसलमान को भी जानता था। मगर जो दूसरा हिंदू था उसके बारे में उसे कुछ पता नहीं था। उसने सोचा शायद ज़ात का कायस्थ होगा। मगर जब उसने उसका काम करने का ढंग देखा तो उसका वह शक यकीन में बदल गया, जिसे वह किसी के सामने ज़ाहिर नहीं करना चाहता था।
खद्दर का कफ़न
एक ऐसी बूढ़ी औरत की कहानी जिसने सारी उम्र खु़द कमाकर खाया और अपने बाल-बच्चों की परवरिश की। उसके पास जो कुछ भी था वह उसकी अपनी कमाई से जोड़ा हुआ था। फिर जब ख़िलाफ़त आंदोलन और आज़ादी की मुहिम शुरू हुई तो उसने अपने सारे गहने दान कर दिए। फिर वह घर में रहकर सूत कातने लगी और मरने से पहले उसने अपने बच्चों को ताकीद की कि उसके मरने पर उसे खद्दर के कफ़न में दफनाएँ, जिसे वह छोड़कर जा रही थी। हालाँकि उस दौर में लट्ठे के कफ़न का चलन था लेकिन उसकी ख़्वाहिश के मुताबिक़ उसके जनाज़े को खद्दर का कफन दिया गया था।
नई जंग
यह एक ऐसे शख़्स की कहानी है जिसने अपनी पूरी ज़िंदगी फ़ौज में गुज़ार दी। पहले विश्वयुद्ध में अपनी बहादुरी के कई तमग़े हासिल करने के बाद वह कौर के साथ ज़िंदगी गुज़ारने के ख़्वाब लेकर अपने गाँव गया था। मगर वहाँ उसे पता चला कि उसकी तो तीन साल पहले शादी हो गई। वह छुट्टियाँ कैंसिल करा कर वापस फ़ौज में चला आया और फिर कभी गाँव नहीं गया। आज़ादी के बाद उसने देश की ग़रीबी के खिलाफ़ नई जंग के बारे में सुना। इसी बीच उसकी मुलाक़ात कौर के बेटे से हुई, जिसने उसे अपनी माँ का संदेश दिया और वह उस नई जंग से लड़ने के लिए कौर के गाँव की ओर चल दिया।
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