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तीन भंगी

MORE BYख़्वाजा अहमद अब्बास

    स्टोरीलाइन

    कहानी एक सरकारी ऐलान के गिर्द घूमती है, जिसमें ऊँची जात वालों को सफाई का काम करने पर ज़्यादा मुआवज़ा दिए जाने के बारे में कहा गया था। ऐलान के बाद तीन नए भंगी जमादार के सुपुर्द किए गए। उनमें एक मुसलमान था और दो हिंदू। दो हिंदुओं में से जमादार एक को जानता था। मुसलमान को भी जानता था। मगर जो दूसरा हिंदू था उसके बारे में उसे कुछ पता नहीं था। उसने सोचा शायद ज़ात का कायस्थ होगा। मगर जब उसने उसका काम करने का ढंग देखा तो उसका वह शक यकीन में बदल गया, जिसे वह किसी के सामने ज़ाहिर नहीं करना चाहता था।

    मध्य प्रदेश की सरकार ने ऐलान किया है कि जो भी ऊँची ज़ात वाला किसी म्यूंसिपल्टी में भंगी का काम ‎करना मंज़ूर करेगा उसे तनख़्वाह के इलावा नव्वे रुपय माहवार स्पेशल अलॉवेन्स भी दिया जाएगा। ये ‎फ़ैसला छूत-छात दूर करने की ग़रज़ से किया गया है।

    ‎(भोपाल की ख़बर)‎

    अभी सूरज नहीं निकला था कि म्यूंसिपल्टी के वार्ड नंबर तेराह के तीनों नए भंगी अपनी-अपनी झाडुएँ ‎टोकरियाँ लिए ड्यूटी पर गए।

    सेनेट्री इन्सपैक्टर ने अपने रजिस्टर पर नज़र डालते हुए भंगियों के जमादार से पूछा, “क्यों तुम्हारे तीनों भंगी ‎हाज़िर हैं?”

    ‎“जी हाँ हाज़िर हैं।” भंगियों के जमादार ने जवाब दिया और सबूत के लिए उसी वक़्त हाज़िरी ले डाली।

    ‎“पण्डित कृपा राम हाज़िर?”

    ‎“हाज़िर।”

    ‎“बाबू काली चरन हाज़िर?”

    ‎“हाज़िर।”

    ‎“शेख़ रहीम उद्दीन हाज़िर?”

    ‎“हाज़िर।”

    सेनेट्री इन्सपैक्टर साईकल पर बैठ कर दूसरे इलाक़ों का मुआइना करने चला गया और जाते-जाते जमादार ‎से कह गया, “तो उन रंगरूटों को काम सिखाना तुम्हारे ज़िम्मे है।” जमादार के बाप-दादा सात पीढ़ियों से ‎इसी क़स्बे में भंगी का काम करते आए थे और वो ख़ुद म्यूंसिपल्टी में बीस बरस नौकरी करने के बाद ‎जमादार के ओहदे तक पहुँचा था।

    सैंकड़ों भंगियों ने उसकी मा-तहती में काम किया था। लेकिन कई बरस से जाने उसकी जात बिरादरी ‎वालों को क्या हो गया था कि वो अपने बाप-दादा के पेशे से कतराने लगे थे। नौजवान तो स्कूल में चार ‎जमातें पढ़ कर झाडू हाथ में लेना पाप समझते थे। कितने ही पास के शहर में शकर के कारख़ाने में नौकर ‎हो गए थे। एक ने ना-जायज़ शराब बनाने का धंदा चालू कर दिया था। चार लड़के घर से भाग कर बंबई चले ‎गए थे। उनमें से तीन तो फिर लापता हो गए। एक के बारे में सुना गया कि वो एक फ़िल्म कंपनी में एक्स्ट्रा ‎का काम करता है और ताज-महल होटल के पास वाले फुट-पाथ पर सोता है।

    ‎“बेवक़ूफ़... जमादार ने उस छोकरे के बारे में सोचते हुए फ़ैसला किया। “पढ़ा लिखा भंगी तो चार-पाँच बरस ‎में ही जमादार हो जाता है।”‎

    फिर उसने उन तीनों नए रंगरूटों पर नज़र डाली जो उसके सामने खड़े उसके हुक्म का इंतेज़ार कर रहे ‎थे।

    पण्डित कृपा राम जो दुबला-पतला था और उसका सर गंजा था और उसकी आँखों पर लोहे की कमानियों ‎का चशमा लगा हुआ था वो म्यूंसिपल्टी के ही एक स्कूल में मास्टर हुआ करता था। जमादार उसे अच्छी ‎तरह जानता था। चार बरस हुए वो अपने बेटे को स्कूल में दाख़िल करने गया था तो पण्डित कृपा राम ने ‎उसे क्लास के सब लड़कों से अलग बैठने को कहा था। उसने कहा था, “जमादार भई बुरा मानना। मैं ‎ख़ुद तो ज़ात पात, छूत-छात को नहीं मानता मगर स्कूल में जो बच्चे पढ़ते हैं उनके माँ-बाप के जज़्बात का ‎ख़्याल भी रखना ही पड़ता है।”‎

    सो अब जमादार ने पूछा, “क्यों पण्डित। ये आज तुम्हारे हाथ में झाडू-टोकरी कैसे गई?”

    पण्डित कृपा राम ने अपने चश्मे से जमादार को घूरते हुए जवाब दिया, “ये सब कलयुग की माया है ‎जमादार। पच्चीस बरस से छोकरे पढ़ा रहा हूँ। फिर भी तनख़्वाह सत्तर रुपल्ली मिलती थी। दो-दो जवान ‎छोकरियाँ घर में बिन ब्याही बैठी हैं। मरता क्या करता।”

    ‎“लो पंडित-जी बुरा मानना।” जमादार ने पण्डित के अल्फ़ाज़ चबा कर दोहराते हुए कहा, “सामने वाली ‎गली की नालियों को झाडू से रगड़ कर साफ़ कर डालो। मगर जल्दी से फिर चौक वाले बम पुलिस की ‎सफ़ाई भी करनी है।”‎

    चौक वाले बम पुलिस का नाम सुनते ही पण्डित कृपा राम को बे-इख़्तियार उबकाई गई। पाख़ाने के ढेर ‎में कुल-बुलाते हुए कीड़े उसकी आँखों के सामने नाचने लगे। और ख़्याल ही से उसकी नाक में बदबू के ‎भबके आने लगे। उसने चुपके से झाडू उठाई और नाली साफ़ करने लगा। लेकिन झाडू इतनी छोटी थी कि ‎उसे झुक कर दोहरा होना पड़ा और उसकी कमर की बूढ़ी और गठिया की मारी हड्डियाँ चर-चराने लगीं।

    और अब जमादार शेख़ रहीम-उद्दीन की तरफ़ मुख़ातिब हुआ, “क्यों शैख़-जी तुम कैसे गए और इस ‎धंदे में?”

    रहीम उद्दीन सर झुकाए मुसम्मा सूरत बनाए खड़ा था। इसलिए कि उसके ख़ानदान में आज तक किसी ने ‎नौकरी नहीं की थी। हमेशा ज़मींदारी पर गुज़र किया था। उसके दादा की आधी जायदाद एक गाने वाली की ‎नज़र हो गई थी। उसके बाप किसी महंगी अय्याशी का बार नहीं उठा सकते थे। सिर्फ़ हुक़्क़ा पीते थे और ‎अपनी बैठक में दूसरे “अशराफ़” दोस्तों के साथ बैठ कर चौसर खेल लेते थे। अपने बेटे को उन्होंने घर में ‎थोड़ी सी अरबी फ़ारसी पढ़वाई थी और तीन चार बरस के लिए एक मुक़ामी मुस्लिम स्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ने ‎भी भेजा था। मगर तीन साल मुतवातिर फ़ेल होने के बाद नाम कटवा लिया था और फिर ज़मींदारी का ‎ख़ात्मा हो गया था और ये तारीख़ी झटका वो बर्दाश्त कर पाए थे। बाप के इंतेक़ाल के बाद ज़मीन के बदले ‎जो “बौंड” मिले थे उन्हें बेच कर रहीम उद्दीन ने तीन महीने और कलकत्ते के एक सफ़र में ही ख़र्च कर ‎डाला था। अब उसके पास एक टूटा फूटा घर था। एक दादा के वक़्त की ज़रबफ़्त की शेरवानी थी और एक ‎बाप मरहूम की यादगार हुक़्क़ा था जिसके ताँबे के पेंदे पर खुदा हुआ था। “शेख़ करीम उद्दीन रईस-ए-‎आज़म कुर्सी नशीन ज़िला दरबार।”‎

    ‎“जमादार साहब” उसने ख़ुशामदाना लहजे में कहा कि शायद वो उसे कोई हल्का सा काम दे दें। “ये सब ‎इन्क़िलाबात हैं ज़माने के। मगर आप जानते हैं हम मुस्लमानों में तो कोई छूत-छात नहीं। हाथ से काम ‎करना कोई ऐब नहीं।”

    मगर जमादार को याद गया कि जब इस शेख़ रहीम उद्दीन का ब्याह हुआ था तो उसके मरहूम बाप ने ‎किस तरह मेहमानों के आगे से बटोरा हुआ झूटा खाना भंगियों को दिया था और जब जमादार के बड़े बेटे ने ‎कहा था, “शैख़-जी। पूरे दो दिन तुम्हारे घर की सफ़ाई की है। मज़दूरी में पैसे दो झूटा खाना क्यों देते हो?” ‎तो बुड्ढे ज़मींदार ने उसे मार के घर से निकाल दिया था और चिल्लाया था, “देखते हो इन कमीने मुर्दार ख़ोरों ‎की अब ये हिम्मत हो गई। चाहते हैं कि अशराफ़ उन्हें बराबर में बिठाकर पुलाव क़ोरमा खिलाएँ।”

    और सो अब जमादार ने कहा, “शैख़-जी। वो कूड़े का ढेर जो पड़ा है उसे टोकरियों में भर-भर के ‎म्यूंसिपल्टी की गाड़ी में भर दो। फिर तुम्हें भी चौक का बम पुलिस साफ़ करने में पंडित-जी का हाथ बटाना ‎है।”‎

    रहीम उद्दीन ने कूड़े को टोकरियों में भरना शुरू किया तो देखा उसमें महल्ले-भर का झूटा खाना पड़ा है। ‎सड़ी हुई तरकारी। बासी रोटियों के टुकड़े, अंडों के छिलके, गोश्त के छीछड़े, चचोड़ी हुई हड्डियाँ और साथ ‎ही में एक मुर्दा छछूंदर। गाय बैलों का गोबर, बकरियों की मेंगनियाँ, गली में बच्चों का किया हुआ पाख़ाना ‎और जैसे-जैसे कूड़े का ढेर छोटा होता जा रहा था उसकी बदबू के भपके और तेज़ होते जा रहे थे। यहाँ ‎तक कि भुपके के साथ रहीम उद्दीन को अपनी की हुई क़ै को भी ज़मीन पर से साफ़ करना पड़ा।

    अब सिर्फ़ एक भंगी रह गया था। काली चरन। मगर उसे जमादार नहीं पहचानता था।

    ‎“बाबू काली चरन। कहाँ से आए हो? मैंने तुम्हें पहले कभी नहीं देखा।”‎

    ‎“जमादार साहब। मैं इस क़स्बे का नहीं हूँ। बिक्रमपुर से आया हूँ।”

    जमादार ने देखा कि सूरज काफ़ी ऊँचा उठ आया है। अब इधर-उधर की बातें करने का वक़्त नहीं। सो ‎उसने कहा, “बाबू काली चरन। जाओ पहले रहीम उद्दीन का हाथ बटाओ। फिर पण्डित के साथ मिलकर ‎नालियों को अच्छी तरह धो कर साफ़ करवाओ।”‎

    ‎“बाबू काली चरन।” जमादार ने दिल ही दिल में तीसरे भंगी का नाम दोहराया और सोचा, “कोई कायस्थ ‎वायस्थ मालूम होता है। चुंगी में मुंशी होगा या हो सकता है किसी छोटे-मोटे स्कूल में मास्टर ही हो। भाई की ‎बाबूगीरी अभी निकल जाएगी। बड़ा आया बाबू काली चरन कहीं का। लेकिन उसी लम्हे उसने देखा कि ‎काली चरन बड़ी फ़ुर्ती से काम कर रहा है। तीन ही फेरों में कूड़े का सारा ढेर उसने गाड़ी में भर दिया है ‎और अब ज़मीन पर चिपके हुए कूड़े को टीन के एक टुकड़े से खुरच कर साफ़ कर रहा है और फिर उसने ‎म्यूंसिपल्टी के एक नल से टीन का कनस्तर भरा और पानी को नाली में बहाकर झाडू से रगड़ना शुरू किया ‎बिलकुल जैसे किसी तजर्बेकार पुराने भंगी को करना चाहिए। जमादार को याद गया कि जब वो ‎जमादार नहीं हुआ था तो वो ख़ुद भी इसी तरह फुर्ती और सफ़ाई से काम किया करता था। और ये सोच कर ‎वो काली चरन के बारे में शुबे में पड़ गया।

    ‎“ए बाबू इधर आओ।” उसने आवाज़ दी और काली चरन को गली के एक कोने में ले गया।

    ‎“क्या हुआ जमादार। मेरे काम से ख़ुश नहीं हो क्या?”

    ‎“तुम्हारा नाम क्या है?”

    ‎“काली चरन।”

    ‎“ज़ात।”

    ‎“कायस्थ।”

    ‎“कौन से कायस्थ हो?”

    ‎“जी... वो सक्सेना हैं हम लोग।”

    ‎“पहले क्या काम करते थे?”

    ‎“जी वो। बिक्रमपुर म्यूंसिपल्टी में काम करता था।”

    ‎“कौन से महकमे में?”

    ‎“जी... वो यूँ समझिए कि सफ़ाई के महकमे में था।”

    ‎“हाँ तो ज़ात क्या कही थी तुमने।”

    ‎“जी... कायस्थ।”

    ‎“तुम झूट बोलते हो।”

    ‎“जी?”

    ‎“तुम भंगी हो... जैसे मैं भंगी हूँ।”

    ‎“आहिस्ता बोलो। जमादार।” काली चरन हाथ जोड़ कर बोला, “कोई सुन लेगा।”

    ‎“शर्म की बात है। नव्वे रुपय की ख़ातिर तुमने इतना बड़ा झूट बोला। अपनी बिरादरी को ठुकरा दिया।”

    ‎“क्या करूँ जमादार। बेटे को पढ़ा रहा हूँ। चालीस रुपय महीने में उसका ख़र्चा कहाँ से दूँ। तुम्हारी कृपा ‎रही तो वो कॉलेज तक पढ़ जाएगा।”‎

    ‎“अच्छा।” जमादार कुछ सोच कर बोला धीरे से, “मगर एक शर्त है।”

    ‎“जो तुम कहो जमादार। तुम मालिक हो।”

    ‎“आइन्दा फिर कभी ऐसी फ़ुर्ती और सफ़ाई से काम करना नहीं तो पकड़े जाओगे?” और फिर वो चिल्ला ‎कर बोला, “काली चरन। तुम बाबू होगे तो अपने घर के होगे। भंगी का काम करने आए हो तो भंगी की तरह ‎करना पड़ेगा। नव्वे रुपय स्पेशल अलॉवेन्स लेते हो...”‎

    अब वो तीनों भंगी गली में झाडू दे रहे थे और जमादार अपनी मूंछों पर ताव दे रहा था।

    स्रोत:

    Nai Dharti Naye Insan (Pg. 74)

    • लेखक: ख़्वाजा अहमद अब्बास
      • प्रकाशक: मकतबा जामिया लिमिटेड, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1977

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