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सोने की चार चूड़ियाँ

ख़्वाजा अहमद अब्बास

सोने की चार चूड़ियाँ

ख़्वाजा अहमद अब्बास

MORE BYख़्वाजा अहमद अब्बास

    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसे शख़्स की कहानी है जो बचपन में ही यतीम हो गया था और सड़क पर गाड़ियों के पीछे दौड़कर रोज़ी कमाता था। मगर उसकी प्रेमिका के बाप को उसका यह काम पसंद नहीं था। फिर वह इस काम से उसकी बेटे को चार सोने की चूड़ियाँ भी नहीं ख़रीद कर दे सकता था। अपनी प्रेमिका के लिए चार सोने की चूड़ियाँ ख़रीदने के लिए उसने हर तरह के काम किए। शराब की ब्लैकमेलिंग की, चोरी की और लोगों को लूटा भी। मगर कामयाब न हो सका। फिर एक रोज़ नीमगिरी की पहाड़ी से एक हवाई जहाज़ क्रैश हो गया और उस हादसे ने उसकी पूरी ज़िंदगी ही बदल दी।

    बारिश ने रात के अंधेरे को और गहरा कर दिया था। ऐसा लगता है (सड़क के किनारे पेड़ के नीचे खड़े हुए ‎शंकर ने सोचा) भगवान भी बादलों का लिहाफ़ ओढ़ कर सो गया है और इस वक़्त दुनिया में मैं अकेला हूँ। ‎सिर्फ़ मैं हूँ और दिल की धड़कन है।

    और फिर एक-बार बिजली चमकी तो उसने सोचा मेरी ज़िंदगी भी इस सड़क की तरह है। ये सड़क जो ‎जुन्नार के क़स्बे तक जाती है।

    नासिक... वो पवित्र तीर्थ स्थान जहाँ भगवान राम ने अपने बन-बास के दिनों में कभी क़ियाम किया था।

    जुन्नार... वो तारीख़ी मुक़ाम जहाँ छत्रपति शिवाजी का जन्म हुआ था।

    एक तरफ़ नासिक है (वो सोच रहा था) दूसरी तरफ़ जुन्नार है और उनके बीच में ये सड़क है जो रात-दिन ‎मोटरों, बसों, लारियों और ट्रकों से रौंदी जाती है। एक-एक लाख की मोटर में दो-दो लाख के हीरे जवाहरात ‎से लदी हुई सेठों की औरतें होती हैं। एक-एक ट्रक में लाखों का सामान भरा होता है।

    वो सब सड़क के सीने को ज़ख़्मी करती हुई गुज़र जाती हैं और सड़क के घाव गहरे होते जाते हैं। अब ‎ज़ख़्मों में कीचड़ की पीप भरी हुई है। ऊपर से मूसलाधार बारिश। पहाड़ी की ढलान से पानी का रेला बहता ‎हुआ रहा है। खेतों को समुंद्र बनाता हुआ सड़क की तरफ़ बढ़ रहा है। आज की रात सड़क पानी में डूब ‎जाएगी। आज की रात ये बूढ़ी घायल सड़क मर जाएगी और वो तमाम उम्मीदें और आरज़ूऐं जो धान की ‎नर्म-नर्म कोंपलों की तरह जाने कितने बरसों से उसके मन के अंधेरे में परवान चढ़ रही थीं, आज दम ‎तोड़ देंगी।

    ये सड़क जो नासिक से शुरू होती है और जुन्नार पर ख़त्म हो जाती है। ये सड़क (शंकर ने फिर सोचा जो ‎मेरी ज़िंदगी की तरह है जो शुरू हुई थी उस पाठशाला से जहाँ मेरा बाप बच्चों को पढ़ाया करता था। ‎कितना चाहता था बाबा मुझे एक भी दिन उसने मुझे ये महसूस होने दिया कि मेरी माँ ज़िंदा नहीं है। ‎उसने मुझे माँ की ममता भी दी और बाप का प्यार भी। कितने बुलंद हौसले थे उसके। कहता था अपने बेटे ‎को स्कूल पास कराकर कॉलेज भेजूँगा। देखना मेरा शंकर एक दिन अफ़सर बनेगा अफ़सर फिर तुम सब ‎उसे सलाम करोगे मगर अभी मैं मिडल भी पास कर पाया था कि बाबा भगवान को प्यारे हो गए। जो कुछ ‎उन्होंने मेरी पढ़ाई के लिए जमा जोड़ कर रखी थी। वो सब उनकी बीमारी और क्रिया-क्रम में लग गया। घर ‎पर साहूकार ने क़ब्ज़ा कर लिया और मेरी ज़िंदगी घर और पाठशाला से निकल कर इस सड़क पर गई। ‎चौराहे पर मोटरें ठहरतीं और मैं दौड़-दौड़ कर मुसाफ़िरों को होटल से चाय, सोडा, लेमन ला ला कर देता। ‎मोटरों के रेडिएटर में ठंडा पानी ला ला कर डालता। रास्ते की गर्द को रगड़-रगड़ कर साफ़ करता। और ‎जाते-जाते मोटर वाला सेठ मेरी तरफ़ इकन्नी दुअन्नी फेंक देता। मैं उसे मिल्ट्री सेल्यूट मार कर सलाम करता ‎और ऐसी ही बख़्शिश की खोज में दूसरी मोटर की तरफ़ दौड़ जाता और रात को जब आख़िरी मोटर गुज़र ‎जाती और चौराहे पर सन्नाटा छा जाता मैं होटल के छज्जे के नीचे ज़मीन पर लेट कर सो जाता।

    शंकर जो चोर बाज़ार से ख़रीदी हुई पुरानी फ़ौजी बरसाती ओढ़े हुए था उसमें से पानी रिस-रिस कर उसकी ‎क़मीस में से होता हुआ उसके सीने तक पहुँच चुका था और अब फ़र्राटे भर्ती हुई ठंडी हवा बर्फ़ के नश्तरों ‎से उसके बदन को गुदगुदा रही थी। ऐसी हालत में उसके लिए कुछ सोचना भी तो मुश्किल था। उसने ‎बरसाती के कॉलर को चढ़ाकर बटन लगा लिए ताकि हवा से बच सके। इतने में इतने ज़ोर से बिजली ‎चमकी कि एक पल के लिए सिर्फ़ कीचड़ में लत-पत सड़क चमक उठी बल्कि दूर की पहाड़ी भी एक ‎ऊँट के कोहान की तरह उभर आई। इतने ज़ोर की कड़क सुनाई दी कि शंकर के पाँव तले से ज़मीन हिल ‎गई और फिर अंधेरा छा गया। अंधेरा और सन्नाटा। और इस पल में उसने एक चिकनी लंबी चीज़ को अपने ‎दाएँ पैर के जूते पर से फिसलते और गुज़रते हुए महसूस किया।

    ‎“साँप!” उसने सोचा।

    और आप से आप उसका सारा बदन अकड़ कर साकित हो गया। इस वक़्त ख़ैरियत इसी में थी कि ज़रा सी ‎भी जुंबिश करे वर्ना इस अंधेरे और बारिश में साँप ने उसे डस लिया तो इतनी रात गए उसको साँप का ‎तोड़ मिलते-मिलते उसकी तो जान ही निकल जाएगी। साँप को उसके पाँव पर से गुज़रने में मुश्किल से दो-‎तीन सैकेण्ड लगे होंगे मगर उस वक़्त उसे ऐसा लगा कि जाने कितने घंटे हो गए।

    साँप की दुम उसके पैर पर से गुज़र गई तब भी दो-चार पल के लिए वो साकित ही खड़ा रहा कि कहीं ‎काला पलट पड़े तब ही उसने बरसाती की जेब से अपनी पाँच सेल की लंबी टॉर्च निकाली और उसका ‎बटन दबाकर रौशनी की। घास, कीचड़ और बारिश में साँप तो जाने कहाँ छिप गया था लेकिन उसने ‎सड़क की तरफ़ टॉर्च का रुख किया तो कीचड़ और पानी से भरे एक गढ़े के गिर्द सुनहरी रौशनी के कितने ‎ही छल्ले बन गए थे। नहीं ये सुनहरी रौशनी के छल्ले नहीं थे, चूड़ियाँ थीं, चार सुनहरी चूड़ियाँ।

    सोने की चार चूड़ियाँ जिनके बिना वो पार्वती को नहीं हासिल कर सकता।

    पार्वती... बड़ी-बड़ी आँखों वाली। काले चिकने बालों वाली पार्वती... जिसकी रंगत नई फ़स्ल के पके हुए गेहूँ ‎की तरह सुनहरी थी। पार्वती जो उसका मुस्तक़बिल थी। उसकी ज़िंदगी की सड़क का जुन्नार थी, जिसके ‎बिना उसका जीवन ऐसा ही था जैसे ये सड़क जिसके बदन पर गढ़ों के घाव थे। कीचड़ की पीप थी और जो ‎कोई दम में डूब जाने वाली थी, मर जाने वाली थी। मगर पार्वती तो खेड़ गाँव के मुआमलेदार की बेटी थी और ‎बुड्ढा अपनी चहेती को एक बेकार,आवारा नौजवान के पल्ले बाँधने को तैयार नहीं था जो चौराहे पर मोटरों ‎के पीछे भाग-भाग कर रोज़ी कमाता हो और जिसके पास अपनी दुल्हन के पहनाने के लिए सोने की चार ‎चूड़ियाँ भी हों।

    शंकर ने जुन्नार के एक सुनार से सोने की चार चूड़ियों की क़ीमत पूछी थी और उसे बताया गया था कि चार ‎तोले सोना बारह रुपय का होगा और चार चूड़ियों की बनवाई पर कम से कम चालीस पचास रुपय लागत ‎आएगी।

    पार्वती इतनी ख़ूबसूरत थी कि उसको पाने के लिए चार तोले क्या बीस तोले सोना भी कम था। मगर शंकर ‎ने हिसाब लगाया था कि चौराहे पर काम करके अगर वो चवन्नी रोज़ बचाए तो इस चार सोने की चूड़ियों को ‎हासिल करने में कम से कम बारह बरस लगेंगे और इतने दिनों में सोने का भाव बढ़ गया तो फिर बरस छः ‎महीने और... इतने दिन क्या वो इंतेज़ार कर सकता है? नहीं (उसने फ़ैसला कर लिया था उसे बहुत से रुपय ‎कमाने का कोई और ढंग सोचना होगा।)

    और सो वो ऐस-टी की बस में बैठ कर बंबई पहुँच गया। वहाँ उसने जूते पालिश किए। इकन्नी दूनी के लिए ‎टैक्सियों के पीछे दौड़ा। छोटे-मोटे होटलों में बैरा बन कर ब्वॉय कहलाया।

    मगर ये सब करने पर भी वो दस रुपय से ज़्यादा जमा कर पाया। फिर एक दिन उसके एक जानने वाले ‎ने उसे कपड़े का एक थैला दिया और कहा। उसमें व्हिस्की की दो बोतलें हैं उन्हें वार्डन रोड पर फ़ुलाँ ‎बिल्डिंग में फ़ुलाँ नंबर के फ़्लैट पर पहुँचा आओ। दस रुपय दूँगा। शंकर ने सोचा ये तो बहुत ही अच्छा काम ‎है। बस में आने-जाने के तो सिर्फ़ आठ ही आने लगेंगे। पूरे साढे़ नौ रुपय का फ़ायदा है।

    और ऐसा हुआ भी। बल्कि जहाँ उसने बोतलें पहुँचाएँ, उस सेठ ने भी एक रुपया इनाम दे दिया। फिर क्या ‎था शंकर बाक़ायदा शराब स्पलाई करने का धंदा करने लगा। जल्द ही उसके पास दो सौ से ज़्यादा रुपय ‎जमा हो गए। वो चाहता तो ब-आसानी सोने की चार नहीं तो दो चूड़ियाँ बनवाकर वापस खेड़ गाँव चला ‎जाता। मगर अब तो उसे रुपय कमाने का भेद मालूम हो गया था। अब तो वो चाहता था कि दो-चार हज़ार ‎रुपय इकट्ठे हो जाएँ तो फिर घर जाऊँ ताकि पार्वती के लिए सिर्फ़ चार चूड़ियाँ बनवा सकूँ बल्कि उसके ‎और अपने होने वाले बच्चों के लिए एक छोटा-मोटा सा घर भी बनवा लूँ। अभी वो घर बनवाने के लिए सपने ‎ही देख रहा था कि एक दिन माहिम के नाले पर उसके हाथ से वो कपड़े का थैला गिर पड़ा। बोतलें टूट कर ‎शराब सड़क पर बह निकली और वो पकड़ा गया।

    पहली बार दो महीने की सज़ा हुई।

    दूसरी बार तीन महीने की।

    तीसरी बार जब वो जेल से छूटा तो शहर-बदर यानी बंबई के मुक़ामी मुहावरे में “तड़ी-पार” कर दिया गया। ‎और अब उसे खेड़ गाँव वापस आना पड़ा।

    और तब से उसने सोने की चूड़ियाँ बनवाने के लिए एक नया रास्ता इख़्तेयार किया था। गाँव से बाहर रात ‎को वो सड़क पर नोक वाली कीलें बिखेर देता था जिन पर से गुज़रने वाली मोटर का पंक्चर हो जाता। ‎उसका पहिया बदल देता। सेल्फ़ स्टार्टर काम करता हो तो धक्का देकर मोटर स्टार्ट करा देता। उस काम ‎के बदले में उसे रुपया, सवा रुपया मिल जाता लेकिन अस्ल कमाई उसकी कुछ और ही थी। जैसे ही मोटर ‎स्टार्ट होने लगती, वो अंधेरे से फ़ायदा उठाकर उसमें से कोई चीज़ उड़ा लेता। एक-बार तो पीछे लगे हुए ‎गैरेज कैरियर में से उसने एक छोटा सा सूटकेस ही उतार लिया था। मगर बद क़िस्मती से उसमें सिर्फ़ ऊनी ‎कपड़ों के सैंपल ही भरे हुए थे। फिर भी सूटकेस के उसे पाँच रुपय मिल गए थे। दूसरे मौक़ों पर वो ज़्यादा ‎कामयाब रहा था। एक-बार एक ट्रांज़िस्टर ब्लैक में साढे़ तीन सौ में बिका था। कम्बल, शॉल, हैंड बैग, कोट, ‎बरसाती जो चीज़ भी आसानी से उसके हाथ में जाती वो उसे कभी नहीं छोड़ता था। एक-बार कुछ नहीं ‎मिला तो उसने पैट्रोल की टंकी की “कैप” उतार कर एक रुपय में बेच दी थी।

    और इस तरह उसके पास लगभग पाँच सौ रुपय जमा हो गए थे। बस अब सोने की चूड़ियों का आर्डर देने ‎में सिर्फ़ चंद सौ रुपय की कसर रह गई थी। कम्बख़्त बारिश होती तो शायद आज एक ही रात में वो ‎कसर भी पूरी हो जाती मगर (उसने सोचा) बारह सौ रुपय हो जाएंगे। चार तोले सोना भी जाएगा। उससे ‎सोने की चार चूड़ियाँ भी बन जाएँगी फिर बुड्ढा मुआमलत-दार भी बेटी देने के लिए राज़ी हो जाएगा। लेकिन ‎पार्वती के मन को कौन बदलेगा। जब से वो बंबई से लौटा था जाने उसे क्या हो गया था। पहले तो वो ‎उससे हंस-हंस कर बातें किया करती थी। मुस्कुराती हुई आँखों से देखा करती थी लेकिन अब वो शंकर को ‎देखते ही दूसरी तरफ़ मुँह फेर लेती है जैसे उसकी सूरत देखना भी उसे गवारा हो। एक दिन अकेले ‎पाकर उसने पार्वती से पूछ ही लिया।

    ‎“अरी तुझे क्या हो गया है। सीधे मुँह बात ही नहीं करती। जब भी मिलती हो मुझे ऐसे देखती हो जैसे मैं कोई ‎ज़हरीला कीड़ा हूँ। आख़िर मैंने ऐसा कौन सा पाप किया है?”

    और पार्वती के जवाब में इतनी ठंडी कड़वाहट थी कि सुनकर वो लाजवाब रह गया था। उसने कहा था,

    ‎“मुझे नहीं मालूम। तुमने क्या किया है। और तुम अब क्या करते हो मगर तुम्हारे फटकार मारे चेहरे पर ‎लिखा हुआ है कि तुम कोई पाप ज़रूर करते हो।”

    ये सुनकर भी उसने सोचा था। शायद पार्वती मज़ाक़ ही कर रही हो। सो उसने पूछा था, “क्या सचमुच तू ‎मुझसे ब्याह नहीं करेगी?”

    और पार्वती ने मुँह चिढ़ाकर कहा था, “पहले आईने में अपनी शक्ल तो देख लो।”‎

    तो अब सोने की चार चूड़ियों के इलावा उसको अपने चेहरे से वो मनहूस फटकार भी हटानी थी जो उसे ‎आईने में तो नज़र नहीं आती थी लेकिन पार्वती को ज़रूर दिखाई देती थी।

    हे भगवान (उसने दिल ही दिल में प्रार्थना की) आज की रात एक मोटर तो भेज दे। मोटर नहीं तो ट्रक। ट्रक ‎नहीं तो बैलगाड़ी ही सही और कुछ नहीं तो अंधेरे में अनाज की एक बोरी ही उतार लूँ।

    और शायद उसकी प्रार्थना के जवाब में बारिश की ज़ोरदार बौछार को चीरती हुई एक मोटर के इंजन की ‎आवाज़ सुनाई दी। आवाज़ तेज़ी से क़रीब रही थी। मोटर तेज़ रफ़्तार से...

    नहीं-नहीं। (उसके ना-तजुर्बा-कार कानों ने गवाही दी ये मोटर का इंजन नहीं है। ये तो हवाई जहाज़ है।

    हफ़्ते में दो-तीन बार, दिन में और एक बार ऐन आधी रात को उनके गाँव के ऊपर से एक हवाई जहाज़ ‎बंबई की तरफ़ जाता दिखाई देता था।

    दिखाई क्या देता था सिर्फ़ सुनाई देता था। इतना ऊँचा होता था कि दिन में भी कभी-कभी तो ये फ़ैसला ‎करना मुश्किल हो जाता था कि चील कव्वे हैं या हवाई जहाज़ और रात को तो सिर्फ़ लाल, हरी, पीली ‎रौशनियों की तिकोन हवा में तैरती दिखाई देती थी। मगर जब वो बंबई में था तो साँता क्रूज़ एअर पोर्ट पर ‎उसने एक-बार ऐसे हवाई जहाज़ क़रीब से उतरते-चढ़ते देखे थे। एक-एक हवाई जहाज़ में सौ सवा सौ ‎मुसाफ़िर और उनके इलावा हर हवाई जहाज़ के पेट में तीन चार ट्रक सामान भी समा जाता। सैंकड़ो ‎सूटकेस, दर्जनों ये बड़े जहाज़ी ट्रंक, तिजारती सामान की पेटीयाँ और आँखों ही आँखों में उसने सब बक्सों ‎और सूटकेसों को ऐक्सरे कर डाला था। अंदर बढ़िया सूट थे। नए फ़ैशन की चुस्त पतलूनें, सिल्क के बुशर्ट, ‎नायलान की क़मीज़ें, रेशमी साड़ियाँ, रेडियो ट्राँज़िस्टर, सिंघार का सामान, मर्दों के लिए घड़ियाँ, औरतों के ‎लिए घड़ियाँ, ज़ेवर, सोने की चूड़ियाँ।

    नीम गिरी की पहाड़ी पर बादल छाए हुए थे। बारिश भी मूसलाधार हो रही थी। उस हालत में हवाई जहाज़ ‎की बत्तियाँ कैसे नज़र आतीं। मगर आवाज़ क़रीब होती जा रही थी। ऐसा लगता था आज हवाई जहाज़ बहुत ‎नीचे से गुज़र रहा था। शंकर की मुट्ठी में मोटर पंक्चर करने वाले कीलें थीं।

    क्या ही अच्छा हो (उसके मन के छिपे हुए एक शैतान ने चुपके से कहा) कि मैं ये कीलें हवा में उछाल दूँ ‎और आज मोटर की बजाय हवाई जहाज़ पंक्चर हो जाए।

    और उसी पल नीम गिरी की चोटी पर बिजली चमकी। फिर बादलों की कड़क सुनाई दी। मगर नहीं ये ‎बिजली नहीं चमकी थी क्योंकि बिजली तो पल दो पल के लिए चमकती है ये रौशनी तो शोलों की तरह ‎भड़क रही थी।

    ‎“हवाई जहाज़...?” उसके दिल की धड़कन ने चिल्ला कर कहा। हवाई जहाज़ नीम गिरी से टकरा गया है... ‎और उसके मन में छिपे हुए शैतान ने कहा, “सोने की चूड़ियाँ! सोने की चूड़ियाँ!”

    ‎“हे भगवान...” उसके दिल की धड़कन चिल्लाई। “बेचारे मुसाफ़िरों का क्या होगा...”

    मगर उसके मन में छिपे हुए शैतान ने फिर दोहराया, “सोने की चूड़ियाँ।” और वो दीवाना-वार नीम गिरी की ‎पहाड़ी की तरफ़ दौड़ा।

    बचपन में कितनी बार वो अपने साथियों के साथ नीम गिरी की चोटी पर चढ़ा था। उसके पैरों को वो सब ‎टेढ़े-मेढ़े रास्ते याद थे। मगर उस वक़्त अंधेरा था, बारिश थी, कीचड़ थी, ढलानों पर फिसलन थी।

    फिर भी वो चलता रहा। गिरता, पड़ता, फिसलता, सँभलता, रास्ता टटोलता। कभी-कभी बिजली चमकती ‎तो नीम गिरी की चोटी बिलकुल सामने नज़र आती। मगर पल ही भर में वो अंधेरे में डूब जाती और फिर ‎ऐसा लगता कि वो नीम गिरी नहीं हिमालया पहाड़ है और उसकी चोटी तक पहुँचने के लिए जाने कितने ‎दिन, कितने हफ़्ते, कितने महीने लगेंगे। झाड़ियों के काँटों में उलझ-उलझ कर उसकी पुरानी बरसाती तार-‎तार हो गई। उसके जूते फट गए। फिर एक जूता पानी में रह गया। दूसरे का तला निकल आया था। सो ‎उसने उसे भी उतार फेंका। अब उसके नंगे पैर पत्थरों की हर नोक को महसूस कर सकते थे। शायद कट ‎कर लहू-लुहान भी हो गए थे। फिर भी वो चलता ही रहा। उसके दिल की धड़कन उसे चलने पर मजबूर ‎करती रही। जल्दी करो, शायद तुम किसी मुसाफ़िर को बचा लो।

    मगर साथ ही मन में छिपा हुआ शैतान भी यही कहे जा रहा था जल्दी करो, और हर बार जब वो रास्ता ‎देखने के लिए टॉर्च जलाता था, उसे ज़मीन पर रौशनी दायरों में चार सुनहरी चूड़ियाँ ही नज़र आती थीं।

    चलते-चलते उसे जाने कितने घंटे हो गए थे। अब वो नीम गिरी की ढलान पर चढ़ रहा था या चढ़ने की ‎कोशिश कर रहा था। क्योंकि फिसलन इतनी थी कि दो क़दम ऊपर चढ़ता था तो चार क़दम फिसल कर ‎वापस जाता था। एक बार फिसला तो उसे ऐसा महसूस हुआ कि उसके पैर के नीचे कोई नर्म चिकनी और ‎गिल-गिली चीज़ रेंग रही है। घबराकर वो हटा और टॉर्च की रौशनी की, तो देखा, एक लंबा, मोटा अज़दहा है ‎जिसका अगला आधा हिस्सा एक पैर के गर्द लिपटा हुआ है। ख़ैरियत हुई कि उसका पैर उसकी दुम पर ही ‎पड़ा था।

    अभी थोड़ा ही आगे गया होगा कि उसे पेड़ों में से ऐसी आवाज़ें आईं जैसे कोई राक्षस डकार रहा हो। अंधेरे ‎में शेर की आँखें ऐसे चमकीं जैसे दो दहकते अँगारे हों। शंकर एक पेड़ की आड़ लेकर उसी के तने से ‎चिपक गया। वो ख़ौफ़नाक आँखें अब धीरे-धीरे उसकी तरफ़ बढ़ रही थीं। शंकर ने आँखें बंद कर लीं और ‎अपनी मौत के लिए तैयार हो गया। कीचड़ में शेर के भारी पैर पड़ने की आवाज़ आती गई। बिलकुल पास ‎आ गई। यहाँ तक कि शेर के साँस को भी शंकर सुन सकता था। उसकी बू भी सूँघ सकता था। मगर फिर ‎शेर की बू और साँस और पैरों की भयानक चाप दूर होती गईं। दूर होती गईं। शंकर ने आँखें खोल दीं और ‎फिर ढलान पर चढ़ने लगा, बारिश और सर्दी के बावुजूद उसने महसूस किया कि उसकी क़मीस पसीने में ‎शराबूर है।

    और अब पेड़ पीछे और नीचे रह गए। फिर झाड़ियाँ भी ख़त्म हो गईं। अब चट्टानों पर सिर्फ़ घास थी या काई ‎जमी हुई थी। बारिश बंद हो गई थी मगर जैसे-जैसे वो चोटी पर पहुँचता जा रहा था। हवा तेज़ होती जा रही ‎थी। उसकी बरसाती अब सिर्फ़ चंद चीथड़े बाक़ी रह गए थे जो उसके कंधे पर फड़-फड़ा रहे थे। उसने ‎उनको भी उतार फेंका।

    आख़िर-ए-कार वो चोटी पर पहुँच गया। हवा इतनी तेज़ थी कि उसके लिए अपने आपको सँभालना ‎मुश्किल हो गया। दूर जिधर बंबई है अभी तक अंधेरा था मगर मशरिक़ में घाट की पहाड़ियों के पीछे ‎आसमान पर एक मलगजा सा उजाला फैलता जा रहा था।

    शंकर टॉर्च जलाकर इधर-उधर देख ही रहा था कि हवा में कोई चीज़ फड़फड़ाती हुई आई और उसके ‎चेहरे से टकराई। उसने घबराकर उसे हटाया तो महसूस हुआ कोई काग़ज़ है। टॉर्च की रौशनी में देखा तो ‎नोट था मगर हिंदुस्तानी नहीं किसी दूसरे मुल्क का। अंजानी विदेशी भाषा में जाने क्या लिखा था।

    नोट, नोट! सूखे पत्तों की तरह नोट हवा में उड़ रहे हैं। टॉर्च की रौशनी के दायरों में चार चूड़ियाँ नाचने लगीं।

    जिधर से नोट उड़ता हुआ आया था ज़रूर हवाई जहाज़ के टुकड़े और उसका सारा सामान उधर ही पड़ा ‎होगा। ये सोच कर वो आगे बढ़ ही रहा था कि उसका पैर किसी चीज़ से टकराया। टॉर्च की रौशनी में देखा ‎तो एक लाश थी। टॉर्च की रौशनी का दायरा बढ़िया काले जूतों, धारीदार पतलून और उसके साथ के कोट ‎पर से होते लाश के चेहरे की तरफ़ बढ़ा मगर जहाँ सर होना चाहिए था वहाँ सर नहीं था सिर्फ़ ख़ून से ‎लिथड़ी हुई गर्दन क़मीस के कालर से निकली हुई थी। एक बार तो शंकर काँप उठा और उसने फ़ौरन टॉर्च ‎की रौशनी बुझा दी और पीछे हट गया मगर दूसरी तरफ़ रौशनी की तो उसके दायरे में एक लेडीज़ हैंड बैग ‎पड़ा हुआ नज़र आया। जल्दी से उसने उसे उठा लिया। उसके पास ही एक ट्रांज़िस्टर रेडियो टूटा पड़ा था। ‎‎“कोई परवाह नहीं मरम्मत करा लूँगा।” उसने सोचा और उसे भी उठा लिया।

    सुबह का धुँदलका नीम गिरी की चोटी पर फैलता जा रहा था। शंकर ने अपनी टॉर्च फेंक दी। अब वो पागलों ‎की तरह इधर-उधर दौड़ कर चीज़ें जमा कर रहा था और एक कम्बल जो पड़ा मिल गया था उसे फैलाकर ‎उस पर रखता जा रहा था। इतनी दौलत तो उसने सारी उम्र में नहीं देखी थी।

    लेडीज़ हैंड बैग।

    ट्रांज़िस्टर रेडियो।

    नोटों से भरे हुए कितने ही बटुए।

    स्वेटर, मफ़लर, हैट।

    बंद के बंद सूटकेस।

    बड़े-बड़े प्लास्टिक के लिफ़ाफ़ों में बंद किए हुए बढ़िया विलाइती सूट।

    ग्रामोफोन, ग्रामोफोन रिकार्ड।

    कैमरे, एक दो तीन चार कैमरे, दर्जनों फ़ाउंटेन पेन।

    चॉकलेट के डिब्बे।

    कितनी ही मुर्दा कलाइयों से उतारी हुई हाथ की घड़ियाँ।

    कटी हुई टाँगों से उतारे हुए विलाइती जूते।

    वो सब मर चुके हैं। उनको इन चीज़ों की कोई ज़रूरत नहीं है। मगर मुझे ज़रूरत है। ये सब माल मेरा है। ‎मैंने ये छुपा ख़ज़ाना खोजा है इस पर मेरे सिवा किसी का हक़ नहीं है।

    वो पागलों की तरह दौड़ रहा था। पागलों की तरह सोच रहा था। पागलों की तरह अपने आपसे बातें कर ‎रहा था। पागलों की तरह हंस रहा था। चला रहा था।

    अब वो ये सोचने के क़ाबिल भी नहीं रहा था कि क्या चीज़ उसके काम की है और क्या नहीं है। जो भी हाथ ‎लग रहा था उसे वो कम्बल पर फेंकता जा रहा था। यहाँ तक कि एक बड़ा ऊँचा ढेर लग गया।

    एक बच्ची के हाथ से (जो मर कर भी मुस्कुरा रही थी) उसने गुड़िया छीन ली, दो किताबें घास पर बराबर ‎बराबर पड़ी थीं। एक बाईबिल, एक भगवत गीता। उसने सोचे बिना दोनों को उठा लिया।

    और फिर उसने देखा कि एक झाड़ी में से महात्मा बुध की एक चिकनी मिट्टी की मूर्ती मुस्कुरा रही है। उसने ‎उस पर भी क़ब्ज़ा कर लिया और कम्बल पर रखे हुए ढेर के ऊपर रख दिया। फिर उसने ख़ुशी और ‎घबराहट और ख़ौफ़ से काँपते हुए हाथों से कम्बल की गठड़ी बाँधी। जब वो इस गठड़ी को मज़बूत बाँधने के ‎लिए गिरह लगा रहा था तो उसकी चोटी में से झाँकती हुई बुध की मूर्ती उस वक़्त भी मुस्कुरा रही थी।

    गट्ठर बहुत भारी हो गया था। फिर भी किसी किसी तरह उसने उसे अपने कंधों पर उठा ही लिया। और ‎पहाड़ी से नीचे जाने के लिए पगडंडी तलाश करने लगा। सुबह का सूरज फिर काले बादलों में छिप गया था। ‎हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। अपने गट्ठर के बोझ के नीचे वो ऐसा दबा हुआ था कि सामने रास्ता भी ‎नज़र आता था। अभी वो पैरों से पगडंडी को टटोल-टटोल कर ढलान से उतर ही रहा था कि उसके कानों ‎में एक धीमी सी कराहने की आवाज़ आई। उसने गठरी को सर पर से सरका कर इधर-उधर देखा मगर ‎कुछ नज़र आया।

    हो सकता है कि मेरे कानों को धोका हुआ हो। उसने सोचा और आगे बढ़ने ही वाला था कि फिर वही ‎कराहने की आवाज़ आई। इस बार कोई शुब्ह नहीं था कि ये किसी इन्सान की आवाज़ है।

    ‎“कोई ज़िंदा है... कोई ज़िंदा है...” उसके दिल की धड़कन चिल्लाई।

    ‎“जल्दी कर कोई जाएगा तो फिर तू ये सामान नहीं ले जा सकेगा।” उसके मन में छिपे हुए शैतान ने उसे ‎याद दिलाया।

    ‎“कोई ज़िंदा है... कोई ज़िंदा है...” उसके दिल की धड़कन चिल्लाई।

    ‎“चार सोने की चूड़ियाँ...” मन में छिपे हुए शैतान ने अपना पुराना सबक़ दोहराया। “चार सोने की चूड़ियाँ...”

    मगर तीसरी बार फिर वही कराहने की आवाज़ सुनाई दी तो शंकर ने एक-बार फिर गठरी को उठा कर ‎पीछे मुड़ कर देखा।

    एक झाड़ी की आड़ में घास पर बारिश में भीगी हुई एक लड़की पड़ी थी। उसने क़रीब जाकर देखा तो एक ‎पल के लिए उसके दिल की धड़कन बंद हो गई, पार्वती...

    पार्वती यहाँ पड़ी सिसक रही है और मैं ये पाप की गठरी उठाए फिर रहा हूँ। उसने गट्ठर उतार कर फेंका ‎और पार्वती की तरफ़ दौड़ा।

    मगर वो पार्वती नहीं थी। पार्वती जैसी ही कोई लड़की थी। वैसी ही सुनहरे पके हुए गेहूँ जैसी रंगत। वैसे ही ‎काले चिकने घुँगराले बाल जिनकी एक लट उसके अध खुले होंटों पर पड़ी जो उसकी साँस के साथ हल्के ‎हल्के जुंबिश कर रहे थे।

    ‎“पार्वती नहीं है।” मन में छिपे हुए शैतान ने उसे याद दिलाया।

    ‎“मगर ये ज़िंदा है! ज़िंदा है! ज़िंदा!” उसके दिल की धड़कन चिल्लाई।

    लड़की अभी तक ज़िंदा ज़रूर थी मगर साँस मुश्किल से रहा था। उसके बदन पर किसी ज़ख़्म का कोई ‎निशान था मगर भयानक धमाके से उसे कोई ऐसी अंदरूनी चोट आई थी कि वो सिर्फ़ बेहोश थी बल्कि ‎उसके गालों से ख़ून की सुर्ख़ी बिलकुल ग़ायब हो गई थी। मौत की पीली परछाईऐं उसके ख़ूबसूरत चेहरे पर ‎मंडला रही थी। बारिश अब और तेज़ हो गई थी। हवा का झक्कड़ भी चल रहा था। बेहोश होने पर भी ‎लड़की का बदन सर्दी से काँप रहा था।

    दफ़्अ‘तन शंकर को उस कम्बल का ख़्याल आया जिसमें उसने वो सब सामान बाँधा हुआ था। जल्दी से ‎उठकर वो वहाँ गया और जल्दी-जल्दी गिरहें खोल कर सामान उलट कर कम्बल घसीट लिया।

    गठरी ढलान पर रखी हुई थी। सारा सामान लुढ़क-लुढ़क कर इधर-उधर झाड़ियों में, कीचड़ और पानी में ‎जा पड़ा।

    घड़ियाँ और रेडियो और ग्रामोफोन और फ़ाउनटेन पेन और सूटकेस और बटुए और नोट और ज़ेवर और ‎गुड़िया और बुध की मूर्ती और...‎

    शंकर को ये सब देखने की फ़ुर्सत नहीं थी। वो सर्दी से कपकपाती बेहोश लड़की को कम्बल में लपेट रहा ‎था।

    पानी में भीगा हुआ ठंडा हाथ कम्बल के अंदर कर रहा था कि उसने देखा पीली नाज़ुक कलाई पर सोने की ‎चूड़ियाँ हैं। चार...‎

    मगर इस बार शंकर को उन चूड़ियों की एहमीयत का कोई एहसास नहीं हुआ। उसको फ़िक्र थी कि बारिश ‎में भीग कर सर्दी से लड़की को निमोनिया हो जाए। जल्दी-जल्दी उसने उसे कम्बल में लपेटा और शायद ‎ला-शऊर में गर्मी के एहसास से बेहोश लड़की के होंटों पर एक अजीब सी धीमी सी तशक्कुर आमेज़ ‎मुस्कुराहट उभर आई।

    अब वो एक नया बोझ लेकर नीचे उतर रहा था। मगर इसमें उस पहले गट्ठर जितना बोझ नहीं था। दुबली-‎पतली नाज़ुक लड़की कम्बल में लिपटी हुई बिलकुल बच्ची लगती थी। शंकर ने उसे अपने सीने से लगा रखा ‎था। वो कम्बल में से भी लड़की के दिल की धीमी धड़कन महसूस कर सकता था। मगर ये धड़कन और ‎धीमी होती जा रही थी। जाने ज़िंदा गाँव तक पहुँच भी सके या नहीं। गीली फिसलवाँ ढलान पर शंकर तेज़ ‎भी नहीं चल सकता था। हर क़दम पर गिरने का डर था और उसके शाने पर बड़ा क़ीमती बोझ था। किसी ‎की ज़िंदगी थी।

    ज़िंदगी दफ़्अ‘तन उसे महसूस हुआ कि अब वो सिर्फ़ अपने दिल की धड़कन सुन रहा है। वो दूसरी मीठी ‎धड़कन अब ख़ामोश है। यकायक उसके कंधे का बोझ भारी हो गया जैसे फूलों की गठरी एक दम पत्थर ‎बन गई हो।

    उसने बड़ी एहतियात से लड़की को नर्म घास पर लिटा दिया। वो मर चुकी थी।

    शंकर ने देखा कि लड़की के अध खुले होंटों पर वो तशक्कुर आमेज़ मुस्कुराहट अभी तक बरक़रार है। वो ‎मौत के लम्हे में उसका एहसान नहीं भूली थी।

    अगले दिन शाम को हवाई जहाज़ के मुसाफ़िरों के चंद रिश्तेदार नीम गिरी से लौटे तो एक नौजवान ‎‎(जिसकी आँखें रोते-रोते सूज गई थीं) ने ठंडी साँस भर कर कहा, “हमारी शादी इसी महीने होने वाली थी।”‎

    किसी ने पूछा, “क्या आपने अपनी मंगेतर की लाश शिनाख़्त कर ली?”

    ‎“जी हाँ उसकी मौत किसी अंदरूनी चोट से हुई है। लाश पर कोई ज़ख़्म तो क्या एक ख़राश तक नहीं आई ‎मगर लगता है किसी ने उसकी चूड़ियाँ चुरा ली हैं या हो सकता है कि वो पहने हुए ही हो।”‎

    ‎“चूड़ियाँ क्या बहुत क़ीमती थीं?”

    ‎“क़ीमत सोने की नहीं थी मुहब्बत की थी। मंगनी पर मैंने उसे पहनाई थीं। अगर मुझे मालूम हो जाता कि वो ‎आख़िरी वक़्त तक पहने हुए थी...” और फिर उसकी आवाज़ एक गहरी दर्द-भरी सिस्की में डूब गई। ‎उसकी आँखों में आँसू उमड़ आए और वो उन्हें छिपाने के लिए ज़मीन की तरफ़ देखने लगा।

    दूसरे लोग उसे वहीं छोड़कर पुलिस कैंप की तरफ़ चले गए। बड़ी देर तक वो खड़ा ज़मीन को तकता रहा। ‎फिर नज़र उठाई तो सामने एक साँवले नौजवान को खड़ा देखा। उसके कपड़े गीले, मैले और फटे हुए थे। ‎पैर कीचड़ और ख़ून में लत-पत थे। उसकी आँखें भी रोने से सूजी हुई थीं।

    ‎“ये लीजिए...!” उसने कहा। और शहर से आने वाले के हाथ में कुछ दे दिया जो एक पुराने अख़बार में ‎लिपटा हुआ था।

    उसने काग़ज़ खोला तो उसमें से सोने की चार चूड़ियाँ निकलीं। “तुम्हें ये कैसे...?” उसने कहना शुरू ‎किया। मगर लाने वाला जा चुका था।

    और कितने ही दिन बाद जब खेड़ गाँव में अल इटालिया के हवाई जहाज़ का हादसा कहानी बन चुका था। ‎एक दिन पार्वती बाप के साथ पूना जाते हुए चौराहे से गुज़री तो उसने शंकर को देखा जो अब फिर भाग-‎भाग कर मुसाफ़िरों के लिए चाय पानी ला रहा था।

    पार्वती ने पुकारा...

    ‎“शंकर... शंकर इतने दिनों कहाँ रहे? नज़र ही नहीं आए।”‎ ‎

    शंकर उसकी तरफ़ आया तो वो उसे देखती ही रह गई।

    ‎“ऐसे क्या घूरती है मेरे मनहूस चेहरे पर तो फटकार बरसती है न?”

    पार्वती ने सर हिलाकर ख़ामोशी से कहा, “नहीं” और फिर बोली, “ना रे। तू तो बिल्कुल बदल गया है। अब ‎तो तू... तू (और फिर आँखें झुकाकर धीरे से कहा) अच्छा लगता है।”

    ‎“सच्च?” शंकर ख़ुशी से चिल्लाया।

    ‎“सच्च!” पार्वती ने नज़र उठाकर कहा और उन बड़ी-बड़ी काली आँखों में उस वक़्त शंकर को चार सोने की ‎चूड़ियाँ जगमगाती हुई नज़र आईं।

    स्रोत:

    Nai Dharti Naye Insan (Pg. 112)

    • लेखक: ख़्वाजा अहमद अब्बास
      • प्रकाशक: मकतबा जामिया लिमिटेड, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1977

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