aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

दिया जले सारी रात

ख़्वाजा अहमद अब्बास

दिया जले सारी रात

ख़्वाजा अहमद अब्बास

MORE BYख़्वाजा अहमद अब्बास

    स्टोरीलाइन

    यह मुहब्बत को एक नए रूप में पेश करती हुई कहानी है। त्रावणकोर में कश्ती में बैठकर समुंद्र में घूमते हुए कब शाम ढल गई उसे पता ही नहीं चला। शाम धीरे-धीरे रात में तब्दील होती गई और कश्ती आगे बढ़ती गई। किनारे से बहुत दूर निकल आने पर उसने पास की एक दूसरी कश्ती को देखा, जिसमें एक लालटेन जल रही थी। किश्ती जब पास आई तो उसमें एक औरत बैठी हुई थी और वह एक पेड़ पर दिया जलाकर वापस चली गई। इस औरत के बारे में जब उसने अपने नाविक से पूछा तो उसने बताया कि वह औरत पिछले तीन साल से अपने उस प्रेमी का इंतिज़ार कर रही है, जो मर चुका है। उसको रास्ता दिखाने के लिए वह हर रात आकर उस पेड़ पर दिया जलाती है।

    जहाँ तक नज़र जाती थी साहिल के किनारे नारियल के पेड़ों के झुंड फैले हुए थे, सूरज दूर समंदर में डूब रहा था और आकाश पर रंगा-रंग के बादल तैर रहे थे, बादल जिनमें आग के शो'लों जैसी चमक थी और मौत की सियाही, सोने की पीलाहट और ख़ून की सुर्ख़ी।

    ट्रावनकोर का साहिल अपने क़ुदरती हुस्न के लिए सारी दुनिया में मशहूर है, मीलों तक समंदर का पानी ज़मीन को काटता, कभी पतली नहरों के लहरिए बनाता, कभी चौड़ी चकली झीलों की शक्ल में फैलता हुआ चला गया। उस घड़ी मुझ पर भी इस हसीन मंज़र का जादू धीरे-धीरे असर करता जा रहा था, समंदर शीशे की तरह साकिन था मगर पच्छिमी हवा का एक हल्का सा झोंका आया और समंदर की सत्ह पर हल्की-हल्की लहरें ऐसे खेलने लगीं जैसे किसी बच्चे के होंटों पर मुस्कुराहट खेलती है, दूर... बहुत दूर... कोई मछेरा बाँसुरी बजा रहा था, इतनी दूर कि बाँसुरी की पतली धीमी तान फैले हुए सन्नाटे को और गहरा बना रही थी।

    मेरा नाव वाला भी इस सेहर-आफ़रीं माहौल से मुतअस्सिर मा'लूम होता था, जैसे ही हमारी लंबी पतली कश्ती नारियल के झुंडों को पीछे छोड़ती हुई खुले समंदर में आई, उसने चप्पू पर से हाथ हटा लिए, समंदर की तरह वो भी ख़ामोश था। कश्ती आगे जा रही थी पीछे, लहरों की गोद में धीरे-धीरे डोल रही थी, फ़िज़ा इतनी हसीन, इतनी शांत, इतनी ख़्वाब-आवर थी कि ज़रा सी हरकत या धीमी सी आवाज़ भी उस वक़्त के तिलिस्म को तोड़ने के लिए काफ़ी थी। कश्ती डोल रही थी, कश्ती वाला चुप-चाप टकटकी बाँधे सूरज को डूबते हुए देख रहा था, मैं ख़ामोश था। ऐसा लगता था कि हवा भी साँस रोके हुए है, समंदर गहरी सोच में है और दुनिया भी घूमते-घूमते रुक गई है।

    मैंने पीछे मुड़ कर देखा कोईलोन के क़स्बे को, हम बहुत दूर छोड़ आए थे, अब तो साहिल के किनारे वाले नारियल के झुंड भी नज़र आते थे और दूर से आती हुई ट्रेन की सीटी की आवाज़ ऐसी सुनाई देती थी जैसे किसी दूसरी दुनिया से रही हो, ऐसा लगता था जैसे इस छोटी से कश्ती में बहते-बहते हम किसी दूसरे ही संसार में जा निकले हों। या बीसवीं सदी की दुनिया उसके तमद्दुन और तरक़्क़ी को बहुत दूर छोड़ आए हैं और किसी पिछले युग में पहुँच गए हों जब इंसान कमज़ोर था और क़ुदरत के हर मज़हर के सामने माथे टेकने पर मजबूर था।

    यहाँ समंदर गहरा था और आकाश ऊँचा था, बहुत ऊँचा और समंदर और आकाश के दरमियान एक नन्ही सी, कमज़ोर सी, हक़ीर सी कश्ती डोल रही थी, और छोटा सा, अध-नंगा कश्ती वाला, ऐसा लगता था जैसे किसी पुराने ज़माने से भटक कर इधर निकला हो, जब इंसान ने नाव बनाना और चप्पू चलाना सीखा ही था।

    सूरज की आतिशीं गेंद समंदर की सत्ह पर एक पल के लिए ठिटकी और फिर धीरे-धीरे पानी में डूब गई, फिर उसकी आख़िरी किरनें भी मग़रिबी आसमान पर गुलाबी ग़ाज़ा मलते हुए रुख़स्त हो गईं और थोड़ी देर बा'द ही मौत की परछाईं की तरह गहरा अँधेरा आसमान और ज़मीन दोनों पर छा गया, इतना गहरा अँधेरा कि मेरा दम घुटने लगा, मैं कश्ती वाले से कहने ही वाला था कि कोईलोन वापिस चल कि कुछ देखकर मैं ठिटक गया और हैरत से मेरा मुँह खुला का खुला रह गया। वो मंज़र था ही इतना अ'जीब, क्या देखता हूँ कि दूर समंदर में एक चराग़ बहता हुआ चला जा रहा है।

    “वो क्या है?”, आख़िर-कार मैंने कश्ती वाले से पूछा। पीछे मुड़ कर उस अनोखे चराग़ को देखे बग़ैर ही वो बोला, “अभी आप ख़ुद ही देख लेंगे, साहिब।”

    जाने क्यों मुझे ऐसा लगा कि ये कहते वक़्त उसकी आवाज़ काँप रही थी। वो कश्ती वाला था, सच-मुच अ'जीब ही आदमी, शक्ल से जवान लगता था बुढ्ढा, ट्रावनकोर में टूटी फूटी अंग्रेज़ी तो तक़रीबन हर एक ही बोल सकता है, मगर वो अच्छी ख़ासी हिन्दुस्तानी भी बोल लेता था, एक और दर्जा भी थी, मैं मुसाफ़िरों से भरी हुई दूसरी बड़ी बड़ी कश्तियों में सैर करना चाहता था, मैं सुकून और ख़ामोशी चाहता था, चीख़ पुकार और हंगामा नहीं, कोई बातूनी कश्ती वाला मिल जाता तो बेकार बक-बक से सारा मज़ा किरकिरा कर देता।

    “साहिब ये देखो, साहिब वो देखो, ये लाईट हाऊस देखो, वो टापू देखो, साहिब कितने दिन ठैरोगे, साहिब यहाँ से कहाँ जाओगे? साहिब तुम कहाँ के रहने वाले हो? साहिब बीवी बच्चों को साथ नहीं लाए...?” मगर मेरा कश्ती वाला मेरी तरह ख़ामोशी-पसंद था, घंटा भर में उसने मुश्किल से दो-चार बातें की होंगी, चुप-चाप बैठा चप्पू चलाता रहा और इस तमाम अ'र्से मैं उसके बारे में सोचता रहा था, इतना बूढ्ढा तो था फिर उसके चेहरे पर ये झुर्रियाँ कैसे पड़ीं, उसकी धँसी हुई आँखों में ये दुख की परछाइयाँ क्यों थीं? वो इतना ख़ामोश क्यों था जैसे ज़िंदगी से बिल्कुल थका हुआ और बेज़ार हो, जैसे दुनिया के सारे दुख सुख उस पर गुज़र चुके हों और अब वो वहाँ पहुँच गया हो जहाँ दुख है सुख है, सिर्फ़ एक गहरी, अथाह मायूसी है और उकताहट है।

    हाँ तो मैंने उससे पूछा, “वो क्या है?”, और उसने पीछे मुड़े बग़ैर जवाब दिया, “अभी आप ख़ुद ही देख लेंगे साहिब…”

    जैसे उसे पहले ही से मा'लूम हो कि मैं किस अनोखे नज़्ज़ारे की तरफ़ इशारा कर रहा हूँ और फिर उसने हमारी कश्ती को धीरे-धीरे उसी तरफ़ खेना शुरू’ कर दिया जिधर अँधेरे समंदर में वो रौशनी बहती हुई जा रही थी। थोड़ी देर के बा'द मैंने देखा कि एक और कश्ती चली जा रही है जिसे एक अकेली औ'रत खे रही है और उस कश्ती में एक लालटैन रखी है, जिसकी रौशनी दूर से मैंने देखी थी। इतनी रात को अँधेरे समंदर में वो कहाँ जा रही थी और क्यों? क्या वो सच-मुच की कश्ती थी या सिर्फ़ मेरे तख़य्युल का हयूला जो इस तिलिस्मी अँधेरे माहौल में उभर आया था। मैंने देखा कि मेरे माँझी ने अपनी कश्ती को औ'रत की कश्ती से काफ़ी फ़ासले पर रखा, ताकि हम अँधेरे में छिपे रहें और हमें देख सके, मगर लालटैन की रौशनी के दाएरे में वो अच्छी तरह नज़र रही थी। एक मैली सी साड़ी में लिपटी हुई दुबली-पतली औ'रत थी मगर उस वक़्त चेहरा साड़ी के आँचल में छिपा हुआ था। उसकी कश्ती बीच समंदर में एक जगह रुक गई। जहाँ एक डूबे हुए दरख़्त का ठुंठ पानी से बाहर निकला हुआ था।

    समंदर में थोड़े थोड़े फ़ासले पर ऐसे कितने ही ठुंठ आसमान की तरफ़ उँगली उठाए खड़े थे, मगर उस दरख़्त पर एक लालटैन बँधी हुई थी, जिसमें अब इस औ'रत ने तेल डाला और फिर दिया-सलाई जला कर उसे रौशन किया, जैसे ही वो लालटैन जली उसकी रौशनी में मैंने इस औ'रत का चेहरा देखा, जिस पर से आँचल अब ढलक गया था। वो चेहरा मुझे आज तक अच्छी तरह याद है, मैं उसे कभी नहीं भूल सकता। पीला, बीमार चेहरा, पिचके हुए गाल, धँसी हुई आँखें। बाल परेशान और धूल से अटे हुए हाथ जिससे वो लालटैन की बत्ती को ऊँचा कर रही थी कमज़ोरी से काँप रहा था, मगर उसी लालटैन की तरह वो चेहरा भी एक अंदरूनी रौशनी से मुनव्वर था।

    नीले सूखे हुए होंटों पर मुस्कुराहट थी और आँखों में एक अ'जीब चमक, इंतिज़ार की चमक, उम्मीद की चमक, ए'तिक़ाद की चमक, ऐसी चमक जो भजन करते वक़्त किसी जोगन की आँखों में हो सकती है, किसी शहद की आँखों में या किसी मुहब्बत करने वाली आँखों में जो अपने आ'शिक़ से बहुत जल्द मिलने का इंतिज़ार कर रही हो। ज़रूर वो भी अपने महबूब की मुंतज़िर थी, कम से कम मुझे इसका यक़ीन हो गया। मैंने देखा कि उसने अपनी कश्ती घुमाई और जिस ख़ामोशी से आई थी उसी तरह धीरे-धीरे चप्पू चलाती हुई एक टापू की तरफ़ चली गई, जहाँ सितारों की रौशनी में माही-गीरों के झोंपड़े धुँदले-धुँदले नज़र रहे थे। अब वो गा रही थी, मलयाली ज़बान का कोई लोक गीत, अंजाना मगर फिर भी जाना-बूझा जिसके अल्फ़ाज़ को मैं समझ सकता था मगर ऐसा लगता था, जैसे ये गीत मैंने पहले भी किसी और ज़बान में सुना हो।”

    “वो क्या गा रही है?”, मैंने पूछा। और माँझी ने जवाब दिया, “ये हम लोगों का पुराना गीत है साहिब औरतें अपने प्रेमियों के इंतिज़ार में गाती हैं, मैं सारी रात दिया जलाए तेरी बाट देखती रही हूँ, तू कब आएगा साजन?”, और मुझे अपने हाँ का लोक गीत दिया जले सारी रात, याद गया जो हमारे हाँ औरतें भी ऐसे मौक़े’ पर ही गाती हैं।

    “क्या सारी दुनिया की औ'रतों के मन में से एक ही आवाज़ उठती है?”, मैंने सोचा और फिर माँझी से कहा, “तो इसीलिए वो यहाँ लालटैन जलाने आई थी? ताकि उसका पति या प्रेमी रात को लौटे तो अँधेरे समंदर में रास्ता खो बैठे?”

    माँझी ने कोई जवाब दिया। मैंने फिर सवाल किया - क्या उसका प्रेमी आज की रात आने वाला है?” अँधेरे में माँझी की आवाज़ ऐसी आई जैसे वो किसी बड़े दुख के एहसास से बोझल हो। “नहीं वो नहीं आएगा, आज रात, कल रात। वो मर चुका है, कई बरस हुए मर चुका है।”

    मैं समझ सका और तअ'ज्जुब से पूछा, “क्या मतलब? क्या इस औ'रत को नहीं मा'लूम कि उसका प्रेमी मर चुका है और अब कभी लौटेगा?”

    “वो जानती है... शायद, मगर वो मानती नहीं, वो अब तक इंतिज़ार में है... उसने उम्मीद नहीं छोड़ी...”

    और कई बरस से वो हर रात यहाँ आती है और ये लालटैन जलाती है, ताकि उसके प्रेमी की कश्ती अँधेरे में रास्ता पा सके। मैंने कहा, माँझी से नहीं अपने आपसे, अब मुझे एहसास हो रहा था कि आज मैंने अपनी आँखों से अमर प्रेम की एक झलक देखी है, ऐसा प्रेम जो किसे कहानियों में पढ़ने में आता है, ज़िंदगी में कभी-कभार ही मिलता है। मेरी अफ़साना-दनिगारी की हिस दफ़अ'तन बेदार हो गई थी, और एक सवाल के बा'द दूसरा सवाल कर के मैंने माँझी की ज़बानी पूरी कहानी सन ली।

    ये कहानी प्रेम-कहानी भी थी और हिन्दोस्तान की जंग-ए-आज़ादी की एक रूह-परवर दास्तान भी। सन 1942 में जब सारे मुल्क में इन्क़िलाबी तूफ़ान आया तो ट्रावनकोर के अवाम, तालिब-इ'ल्म, मज़दूर, किसान यहाँ तक कि माँझी और माही-गीर भी, अपने जम्हूरी हुक़ूक़ के लिए राजा-शाही के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए, कोईलोन के कई हज़ार माँझियों ने हड़ताल की और ऐ'लान कर दिया कि हम काम पर नहीं जाएँगे, चाहे इस समंदर का रंग हमारे ख़ून से लाल ही क्यों हो जाए। अनपढ़ माँझी की ज़बानी ये जोशीले अल्फ़ाज़ सुनकर मैंने पूछा, “माँझियों की तरफ़ से ये ऐ'लान किसने किया था?”

    “उसने, साहिब, उसने...”

    “उसने? किस ने?”

    “कृष्णा ने, साहिब, हम माँझियों का लीडर वही तो था... था तो ज़ात का माँझी और हमारी तरह कश्ती ही चलाता था, मगर स्कूल में पढ़ा हुआ था, और कई साल ट्रीवेंड्रम शहर में रहा था, जहाँ उसने बड़े-बड़े लीडरों की तक़रीरें सुनी थीं, वो ख़ुद भी लीडरों की तरह भाषण दे लेता था, साहिब, बड़ा ख़ूबसूरत और तगड़ा जवान था, कोईलोन से इस टापू तक तीन मील तैर कर अपनी राधा से मिलने आया करता था...”

    “कृष्णा और राधा, राधा और कृष्णा ये तो बिल्कुल कहानी ही बन गई।”, मैंने तअ'ज्जुब से कहा।

    “अस्ल में उसका नाम राधा नहीं है साहिब, मगर कृष्णा उसे राधा-राधा कह कर ही पुकारता था, सो और भी उसे राधा ही कहने लगे, राधा और कृष्णा सब माँझी कहते थे, ऐसा सुंदर जोड़ा दूर दूर ढूँढे से मिलेगा, जब इन दोनों की मंगनी हुई तो सब ही ख़ुश हुए सिवाए…”, और इतना कह कर वो रुक गया, और कुछ देर फैली हुई ख़ामोशी में सिर्फ़ उसके चप्पू चलने की आवाज़ आती रही।

    “सिवाए?”, मैंने लुक़मा दिया।

    “सिवाए उनके जो ख़ुद राधा को ब्याहना चाहते थे।”, और ये कह कर एक-बार फिर वो ख़ामोश हो गया।

    “ये राधा…”, मैंने गुफ़्तगू का सिलसिला फिर चलाने के लिए कहा, “ये राधा आठ बरस पहले काफ़ी ख़ूबसूरत रही होगी?”

    एक ठंडी साँस लेकर वो बोला, “ख़ूबसूरत? बहुत ख़ूबसूरत, साहिब। आस-पास के गाँव में क्या कोईलोन में भी कोई लड़की इतनी सुंदर नहीं थी, नारियल के पेड़ की तरह लंबी और दुबली, मछली जैसा सुडौल और चमकदार जिस्म था उसका, और उसकी आँखें... उसकी आँखें... इस समंदर की सारी गहराई और सारी ख़ूबसूरती थी उनमें...”

    मैंने सोचा, कहानी से हट कर हम शाइ'राना मुबालग़ों में फँसते जा रहे हैं, मुझे राधा की ख़ूबसूरती के बयान में उतनी दिलचस्पी थी जितनी कृष्णा के अंजाम में, इसलिए मैंने “और फिर क्या हुआ?” कह कर गुफ़्तगू का रुख फिर वाक़ियात की तरह फेरना चाहा।

    “फिर क्या होना था साहिब कृष्णा की उस जोशीली तक़रीर के बा'द तो पुलिस उसके पीछे ही पड़ गई। उसके लिए बड़े बड़े जाल बिछाए उन्होंने मगर वो उनके हाथ आया, छुप कर काम करता रहा, पुलिस वाले दिन-भर उसकी तलाश में मारे-मारे फिरते मगर उन्हें ये नहीं मा'लूम था कि हर रात को इसी अँधेरे समंदर में तैरता हुआ वो राधा से मिलने उसके टापू तक जाता और सवेरा होने से पहले फिर तैरता हुआ वापिस जाता। और सब पुलिस का ठट्ठा उड़ाते और कहते हमारा कृष्णा कभी इन पुलिस वालों के हाथ आने वाला नहीं है।”

    “तो सारे माँझी कृष्णा के तरफ़-दार थे?”

    “हाँ साहिब सभी उसके साथी थे सिवाए उनके”, और फिर एक-बार फिर उसकी ज़बान रुक गई।

    “सिवाए किन के?”

    “जो राधा की वज्ह से उससे जलते थे साहिब।”

    “फिर क्या हुआ?”

    “चाँद ढलता गया साहिब, और जब अँधेरी रातें आईं तो हर रात को अपने कृष्णा को रास्ता दिखाने के लिए समंदर के बीच में राधा ये लालटैन जलाने लगी, हर शाम को वो इसी तरह से जैसे वो आज आई थी, कश्ती में इस जगह आती और लालटैन जला कर वापिस हो जाती।”

    मैंने अब पीछे मुड़ कर अँधेरे समंदर में उस नन्ही रौशनी को टिमटिमाते हुए देखा तो मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे एक-बार फिर बहादुर कृष्णा अपने मज़बूत बाज़ुओं से पानी को चीरता हुआ अपनी राधा से मिलने जा रहा है।

    “और फिर क्या हुआ?”

    “एक रात राधा ने लालटैन जलाई मगर वो बुझ गई और जब कृष्णा रात को तैरता हुआ आया तो उसको रास्ता दिखाने के लिए कोई रौशनी थी।”

    “क्यों क्या हुआ? क्या कोई तूफ़ान आया?”

    “हाँ यही समझिए कि एक तूफ़ान आया... मगर ये तूफ़ान समंदर में नहीं एक बे-ईमान आदमी के मन में उठा था, उसने अपनी क़ौम को दग़ा दी और लालटैन बुझा कर अपने दोस्त की मौत का बाइस हुआ।”

    “मगर क्यों? कोई इंसान ऐसी कमीनी और बेकार हरकत कैसे कर सकता है?”

    “मुहब्बत की ख़ातिर। कम से कम वो यही समझता था साहिब, पर उसकी मुहब्बत अंधी थी, मुहब्बत क्या एक बीमारी थी, प्रेम नहीं एक पागलपन था। वो जानता था कि राधा कृष्णा के सिवा किसी दूसरे को देखना भी पसंद नहीं करती, सो उसी ने कृष्णा को, अपने दोस्त को क़त्ल कर दिया...”

    “तो कृष्णा डूबा नहीं क़त्ल किया गया?”

    “उस रात को वो लालटैन बुझाना कृष्णा को क़त्ल करने के बराबर ही था साहिब। पर क़ातिल को ये नहीं मा'लूम था कि कृष्णा की मौत से उसका कोई भला होगा। बल्कि उसका भयानक जुर्म भूत बन कर उसके मन में हमेशा मंडलाता रहेगा, उसका दिन का चैन और रात की नींद उड़ा देगा।

    अब हमारी कश्ती कोईलोन की बंदरगाह के पास पहुँच गई थी और मैं कहानी और उसके सब किरदारों का अंजाम जानना चाहता था।

    “सो उस रात कृष्णा डूब कर मर गया, फिर क्या हुआ?”

    “कृष्णा के बग़ैर माँझियों का इक्का रहा, पुलिस के डर से उन्होंने हड़ताल ख़त्म कर दी।”

    “और राधा? जब उसने कृष्णा की मौत की ख़बर सुनी तो उसने क्या किया?”

    “आज तक उसे कृष्णा की मौत का यक़ीन ही नहीं आया, बात ये है कि कृष्णा की लाश आज तक समंदर से नहीं निकली, सो आज तक हर शाम को राधा वैसे ही कश्ती में आती है, लालटैन जलाती है, और वापिस जा कर रात-भर अपने झोंपड़े के सामने बैठी कृष्णा का इंतिज़ार करती रहती है।”

    “और उस ग़द्दार का क्या हुआ? वो पाजी उसने कृष्णा को मौत के घाट उतारा और अपने लोगों और उनकी जंग-ए-आज़ादी के साथ ग़द्दारी की, उसका क्या हश्र हुआ, वो अब क्या करता है?”

    माँझी ने मेरे सवाल का कोई जवाब दिया, पीठ मोड़े, कंधे और सर झुकाए वो चुप-चाप बैठा चप्पू चलाता रहा, मगर उसकी ख़ामोशी में उसके मुजरिम ज़मीर की धड़कन थी, उस वक़्त सारी काएनात पर सन्नाटा छाया हुआ था, मौत की तरह गहरा सन्नाटा। मगर रेल की सीटी ने मुझे चौंका दिया, मैं उसी रात को कोईलोन को ख़ैरबाद कहने वाला था। कश्ती से उतरने से पहले मैंने एक-बार फिर समंदर की तरफ़ निगाह की, आसमान पर अब हज़ारों सितारे जगमगा रहे थे, मगर एक सितारा अँधेरे समंदर के बीच में चमक रहा था, ये राधा की लालटैन थी, जो उसके कृष्णा का इंतिज़ार करती रहेगी... आज रात... और कल रात... और फिर परसों की रात... राधा की मुहब्बत की तरह हमेशा चमकता रहेगा, इसलिए कि ये उम्मीद का सितारा है।

    स्रोत:

    Dilchasp Kahaniyan (Pg. 175)

      • प्रकाशक: हिन्दुस्तान बुक डिपो, लखनऊ

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए