Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

अल्लाह दे बंदा ले

रज़िया सज्जाद ज़हीर

अल्लाह दे बंदा ले

रज़िया सज्जाद ज़हीर

MORE BYरज़िया सज्जाद ज़हीर

    जब फ़ख़्रू सिरसी से सम्भल आया तो उसने धोती की जगह तहमद बाँधा। कमरी उतार के कुरता पहना, सम्भल से मुरादाबाद पहुँचा तो तहमद की जगह पाजामे ने और कुरते की क़मीज़ ने ले ली। सिरसी में वो अल्फ़ के नाम लट्ठा नहीं जानता था, सम्भल में हमारे मामूँ ने उसको उर्दू पढ़ना लिखना सिखाया और मुरादाबाद पहुँच कर वो तो इतना तेज़ हो गया कि हमारे बैरिस्टर मामूँ जो किताब कहते वो अलमारी से निकाल लाता, क़ानून की एक-एक किताब पहचानने लगा, सब क़िस्से दास्तानें रिसाले उसे मालूम हो गए।

    लेकिन इस तरक़्क़ी के बावजूद एक कमी उसकी शख़्सियत में रह गई कि वो बूट जूता नहीं ख़रीद सका... बूट उस वक़्त भी काफ़ी महँगे थे, और पाँच रूपये में से तीन रूपया घर भेजने और चार आने महीना मस्जिद में चिराग़ी, चार आने यतीम ख़ाने का चंदा और आठ आने फ़ाख़री दादी के पास जमा कराने के बाद फिर बचता ही क्या था जो फ़ख़्रू बूट जूता भी ख़रीद सकता। आख़िर हर महीना हजामत बनवाता था, बीड़ी, माचिस, धोती की धुलाई, सिरका तेल, ये सब मुफ़्त तो होता नहीं था, इसलिए उसकी शख़्सियत में ये एक कमी रह गई... और दूसरी कमी उसकी ज़हनियत में रह गई थी... कि वो नमाज़ पढ़ने से बराबर इन्कार करता चला गया। तरक़्क़ी के किसी स्टेज पर भी इसउ नमाज़ नहीं पढ़ी, हमारे बैरिस्टर मामूँ को इस मुआमले में उसका ये अड़ियल बैल वाला रवैय्या सख़्त ना-पसंद था।

    बैरिस्टर मामूँ कई साल विलायत में रहे थे, सूट पहनते थे, अंग्रेज़ी फ़रवट बोलते थे मगर नमाज़ पाँचों वक़्त की पढ़ते थे। जब वो नमाज़ के लिए बा-आवाज़ बुलंद अज़ान देते तो बाक़ी घरवालों की सिट्टी गुम हो जाती, हर शख़्स उनकी गरज-दार आवाज़ के रौब में कर फ़ौरन नमाज़ पर खड़ा हो जाता। हमारे नाना जब तक जिये, इस बात पर बे-हद फ़ख़्र करते रहे कि उनके कई दोस्तों के बेटे तो विलायत जा कर अपना दीन-ओ-ईमान भूल गए मगर उनका बेटा इतने दिनों विलायत रहने के बाद भी पाँचों वक़्त की नमाज़ पढ़ता और तीसों रोज़े रखता था। अजी उसकी नमाज़ की तो तवायफ़ें तक क़ायल थीं, ऐसी जने कितनी औरतों को उसने नमाज़ सिखा कर उन गुमराहों को दीन-ओ-ईमान का रास्ता दिखाया था।

    वैसे बैरिस्टर मामूँ को फ़ख़्रू से मोहब्बत बहुत थी और क्यों होती, यूँ तो वो उम्र में उनसे बड़ा था, पर आख़िर उन्होंने ही तो उसको जानवर से आदमी बनाया था। ये बात और थी कि अब फ़ख़्रू के बग़ैर उनका कोई काम नहीं हो सकता था, इतना सुस्ता, इतना ज़्यादा काम करने वाला और ऐसा ख़ैर-ख़्वाह नौकर नहीं मिल सकता था... वर्ना कभी-कभी तो वो ख़ुद भी कहते थे कि ऐसे आदमी के हाथ का तो पानी भी पीना चाहिए, जो कभी एक टक्कर नहीं मारता, जिसके दिल पर अल्लाह ने मुहर लगा दी है!

    फ़ख़्रू रोज़े तीसों रखता था, रमज़ान भर जो कुछ हो सकता ख़ैरात करता, मस्जिद में आने वालों के लिए नुक्कड़ की लालटेन में तेल अपने पास से रमज़ान भर डालता... ताकि रास्ते पर रौशनी रहे मगर ख़ुद मस्जिद के अंदर नमाज़ पढ़ने जाता... और कामों से पचास फेरे मस्जिद के करता। मामूँ रमज़ान के दौरान दो-तीन बार उससे कहते, अबे तेरे रोज़े रखने से फ़ायदा ही क्या, बे-कार फ़ाक़ा करे है, बग़ैर नमाज़ के कहीं रोज़े हुए हैं।

    अजी आपने जो किताब पढ़ाई थी मीर साहब, उसमें तो नमाज़ अलग लिखी हैगी, रोज़ा अलग लिखा हैगा, यूँ तो लिखा कि नमाज़ बग़ैर रोज़ा हो सकता या रोज़ा बग़ैर नमाज़ हो सकती। अब इस सरीही मंतिक़ का मामूँ के पास क्या जवाब था। वो उसे धुतकारते हुए कहते, चल कम-बख़्त दूर हो, लाख तोते को पढ़ाया पर हैवान ही रहा... दिलचस्प बात ये थी कि फ़ख़्रू ने कभी बैरिस्टर मामूँ से इन्कार भी नहीं किया था वो नमाज़ नहीं पढ़ेगा पर कुछ ऐसा हो जाता कि वो साफ़ बच निकलता और फिर मज़े में रहता।

    मसलन मग़रिब की नमाज़ के लिए मामूँ मस्जिद जाने लगते तो फ़ख़्रू से भी कहते, अबे चल मस्जिद। मग़रिब और सुबह की नमाज़ वो मस्जिद में पढ़ते थे... पहले घर में अज़ान देते... फिर मस्जिद में जा कर नमाज़ पढ़ते। फ़ख़्रू घर के दफ़्तर वाले कमरे की तरफ़ इशारा करता और बड़ी मासूम-सी सूरत बना कर चुपके से कहता, अजी बड़ा मोटा मुवक्कल है ब्लिष्टर साहब, जो मैं तुम्हारे साथ चला जाऊँ तो वो मछली की तरह खेल जावेगा, तुम पढ़ याओ नमाज़ जिते मैं इसे बातों में उलझाए हूँ। अब इसके आगे मामूँ क्या कहते!

    जब मग़रिब की नमाज़ पढ़ कर वो लौटते तो फ़ख़्रू को मुवक्कल से गपशप करते पाते। कभी-कभी सुबह को वो फ़ख़्रू को आवाज़ देते, अबे आ... मस्जिद जा रहा हूँ। वो चाय की नन्हीं-सी पतीली माँजता हुआ संदले ही पर से बड़े इत्मीनान से जवाब देता, अजी तुम चलो, फ़ाख़री दादी को रात लर्ज़ा चढ़ गया, उनके लिए दो पत्ती चाय दम करके अभी आऊँ हूँ फ़रवट। तुम चलो मीर साहब।

    फ़ाख़री दादी बड़ी जलाली सैदानी थी और घर में सबसे ज़्यादा फूस क़िस्म की बुज़ुर्ग, पिचानवे बरस की तो उनकी उम्र थी, लिहाज़ा उनको सबके हालात मालूम थे, हर एक की माँ का मेहर और हर एक के बुज़ुर्गों की ख़राबी या उम्दगी उन को पता थी, उनको ग़ुस्सा चढ़ता था तो वो सात पुश्त तूम के धर देती थीं, ज़ाहिर है उनकी चाय में कौन अड़चन लगा के अपनी सात पुश्त तोमवाता, मामूँ बड़बड़ाते पैर पटख़ते चले जाते। जाड़ों में अक्सर सब लोग रात को खाने के बाद बैरिस्टर मामूँ के कमरे में जमा हो जाते, क्यों कि वहाँ सबसे बड़ी वाली अँगीठी सुलगती थी... फ़ख़्रू भी वहीं होता... कभी-कभी बैरिस्टर मामूँ उससे बहस करते।

    अबे मैं कहूँ हूँ आख़िर तू अल्लाह के घर जाने से क्यों कन्नी काटे है। फ़ख़्रू बड़े भोले-पन से हैरान हो के जवाब देता, अजी लो, अल्लाह के घर जाने से कौन बंदा कन्नी काट सके है। अभी उस दिन गया था रोज़ा-दारों के इफ़्तार ले के? गे बड़ा देगचा घुँघनी का जल्लो आपा ने हवाले कर दिया कि ले जा मस्जिद, वुनों ने तो किया भी कि फुगना को ले-ले पकड़वाने को, पर मैंने अकेले ही सर पर उठा के मिंटों में पहुँचा दिया कि इफ़्तार हैगी सवाब होएगा... भला पन्द्रह सेर से क्या कम रई होगी घुँघनी... क्यों जल्लो आपा?

    अए डंडी की तली, पूरे अठारह सेर की। जल्लो आपा ने गवाही दी।

    अबे वो तो ठीक है पर तू नमाज़ पढ़ने क्यों नहीं जाता? दुआ माँगने से क्यों घबरावे है? बैरिस्टर मामूँ ने साफ़-साफ़ सवाल किया।

    अजी वाह मीर साहब, इत्ते बड़े बालिष्टर हो के यही इंसाफ़ करो हो! अजी दुआ मांगूँ हूँ तो क्या अल्लाह मियाँ ने यूँ ही सिरसी से मुर्दाबाद तक पहुँचा दिया? अजी मेरे बराबर तो कोई दुआ माँगता होगा... इत्ती-इत्ती दुआ माँगी तब तो जाके अल्लाह मियाँ ने ये चार हर्फ़ पेट में डाले कि अब दास्तान अमीर हमज़ा की पढ़ सकूँ हूँ। बैरिस्टर मामूँ ज़च हो जाते पर बहस किए जाते... आख़िर वो बैरिस्टर थे। ये सिरसी का लँगोटी बंद उनको जिरह में क्या हरा सकता था। कहते, तू कोठरी में बैठ के ढेरों दुआ माँगे है तो फिर क्या! जमाअत में नमाज़ का हुक्म है ना!

    फ़ख़्रू ज़रा-सा झेंप के जवाब देता, अजी बात गे है कि सबके सामने किसी से कुछ माँगते ज़रा शर्म आवे है... और दुआ तो अल्लाह मियाँ हर एक की सुन लेवें हैं मीर साहब... क्या कोठरी की सुनते? और मौलवी साहब तो उस दिन के रहे थे कि रसूल अल्लाह कभी अपने हुजरे में नमाज़ पढ़ें थे और कभी मस्जिद में और हज़रत यूसुफ़ ने तो क़ैद ख़ाने में दुआ माँगी थी और... मामूँ खिसिया के बोले, और-और के बच्चे क्या बकता चला जावे है, अस्तग़फ़िरुल्लाह, तेरी और नबियों की बराबरी है?

    फ़ख़्रू ने कान को हाथ लगाया, तौबा है तौबा है, अजी में गे थोड़ा ही के रिया हूँ, में तो गे, के रिया हूँ कि गुन्हगार बंदों को तो वही करना चाहिए जो आप करें थे, जब ही तो निजात होवेगी, जब ही तो आप शिफ़ारिश करेंगे... सललल्लाह। उसने अपनी उंगलियाँ आँखों को लगा के चूमीं... मारे अक़ीदत के उसकी आँखें भीग गई थीं। बैरिस्टर मामूँ ने आजिज़ हो के हुक़्क़ा तलब किया और गुड़गुड़ाने लगे। यक़ीनन फ़ख़्रू के दिल पर ख़ुदा ने मुहर लगा दी थी!

    फिर एक दिन घर में बड़ा हंगामा मचा। बात ये हुई कि फ़ख़रू के पास एक जोड़ जूता कहीं से गया... जूता नहीं बूट... एक दम उम्दा वाला, चमा-चम करता, चाहो तो उसमें मुँह देख लो, उसकी नन्ही-नन्ही आँखों में काले ही रेशमी फ़ीते पड़े हुए थे, जिनके आख़िर में सियाह बटन जुड़ा था और बटन में से आख़िर की तरफ़ फ़ीते का बिल्कुल मुन्ना सा, बिल्कुल ज़रा-सा रेशमी फुंदा ऊपर को मुँह उठाए जैसे कोई महबूब अपने भरे-भरे कली से होंटों को सिकोड़ कर सीटी बजा रहा हो।

    और फिर अकेला जूता भी नहीं, साथ में एक डिबिया उस पर करने वाली पॉलिश भी और एक ब्रश भी। सब बच्चे बे-हद जोश में थे, बारी-बारी से जूता उठा के देखते, कोई पॉलिश की डिबिया को गोल-गोल ज़मीन पर नचाता, कोई ब्रश के बालों पर हाथ फेरता, कोई फ़ीते के फँदे पर उंगली छुआता, नूरी आपा ने तो यहाँ तक तजवीज़ की कि जूते का कोई नाम भी रखा जाए। बैरिस्टर मामूँ का भी मूड उस वक़्त अच्छा था। हँस के बोले, हाँ-हाँ ज़रूर रखो... ख़ुदा बख़्श रखो इस जूते का नाम।

    सब हँसने लगे मगर फ़ख़्रू संजीदगी से बोले, अजी गे तो ठीक कहो हो मीर साहब, मैंने बहुतेरी दुआएँ माँगी थीं कि अल्लाह मियाँ तुमने सब कुछ दिया बस अब एक बूट जूता और दिलवा दो कईं से, मीर साहब वो जो औरत भगाने वाला मुवक्कल आया था, अजी वही जिसने उझारी वाली तमीज़न की लौंडिया भगाई थी और तुमने विसे साफ़ छुड़ा लिया था तो वो वुन ने मुझसे किया भाई जब में आऊँ था तो तू मेरी बड़ी ख़ातिर करे था, अब में बा-इज़्ज़त बरी हो के घर जारिया हूँ तो बता क्या लेवेगा। सो चुटकी बजाते में, छप्पर फाड़ के अल्लाह मियाँ ने दिलवा दिया गे बूट... अच्छा है मीर साहब। उसने बड़े प्यार से जूते को देखा।

    अए हाँ! बहुत अच्छा है। बैरिस्टर मामूँ बोले, अब आज तो चल मस्जिद, शुक्राना तो अदा कर। फ़ख़्रू चुप हो गया, झुक के उसने जूते उठाए, बड़ी एहतियात से डिब्बे में रखे, ब्रश जूतों की आड़ में फ़िट किया, फिर डिबिया एक कोने में बिठाई, ढकना ढक के उसे एक सुतली से बाँधा। डिब्बे बग़ल में दबाया और खिसक लिया। शाम को मग़रिब के वक़्त बैरिस्टर मामूँ मस्जिद में दाख़िल हो रहे थे कि उन्हें फ़ख़्रू का साया गली के नुक्कड़ पर दिखाई दिया... नए जूते पहने, नई क़मीज़ का दामन उड़ाता, नए पाएजामे के पाइंचे फटकारता, पान चबाता, एक दोस्त के हाथ में हाथ दिए वो गली में मुड़ने ही वाला था कि बैरिस्टर मामूँ ने ललकारा, फ़ख़्रू... अबे फ़ख़्रू... हियाँ आ... अबे हियाँ।

    फ़ख़्रू फँस चुका था। उसका दोस्त और वो दोनों आए। चल वुज़ू कर। मामूँ ने हुक्म दिया। फ़ख़्रू कसमसाके बोला, अजी पान खा रिया हूँ मीर साहब... और फिर गे भी तो बात है कि...

    कि पान ससुराल वालों ने खिलाया है, थूक सके है बे-चारा। उसके दोस्त ने टुकड़ा जोड़ा। मामूँ हँसने लगे, ससुराल? कैसी ससुराल... अबे ये चुपके ही चुपके!

    फ़ख़्रू ख़ामोश रहा... पर उसका दोस्त बोला, अजी कोई ऐसी-वैसी बात है, अशराफ़ हैंगे वो लोग भी। अपनी बिरादरी है बालिष्टर साहब, सिरसी के ही, लड़की भी क़ुबूल-सूरत हैगी, नमाज़ पढ़े, कलाम-पाक ख़त्म कर चुकी है, उस दुखिया का घर भी मियाँ के मरने से उजड़ चुका है सो बस जावेगा।

    अच्छा, अच्छा चलो वुज़ू करो दोनों आदमी... चलो। मामूँ ने अस्ल बात छेड़ दी। फ़ख़्रू ने बे-बसी से दोस्त की तरफ़ देखा, दोस्त ने उसकी तरफ़, दोनों मिट्टी का बुधना उठा के वुज़ू करने लगे। मग़रिब की नमाज़ के बाद मौलवी साहब रोज़ वा'ज़ कहते थे, आज भी कहा, उसमें काफ़ी देर लगी, कुछ लोग उठ-उठ के चले गए। फ़ख़्रू और उसके दोस्त ने भी कई बार पहलू बदला, पर बैरिस्टर मामूँ ने उनको ऐसा घूरा कि वो फिर दुबक के बैठ गए। आख़िर कार वा'ज़ ख़त्म हुआ। लोग बाहर निकले और फ़ख़्रू को एक ही लम्हे बाद पता चल गया कि उसका नया बूट जूता ग़ायब है।

    उसके दोस्त की फटीचर फट्टियाँ उसी तरह महफ़ूज़ रखी थीं। सब लोगों में हिरासानी की एक लहर दौड़ गई। बैरिस्टर मामूँ भौंचक्का रह गए। उन पर एक-दो मिनट के लिए तो बिल्कुल सकता तारी हो गया, फिर फ़ख़्रू को समझाते हुए बोले, चल जाने दे... होगा। मैं तुझे दूसरा ले दूँगा उससे भी अच्छा...

    समझ ले जिस अल्लाह ने दिया था विसी ने ले लिया। फ़ख़्रू पर अभी तक गो सकता तारी था पर ये सुन कर वो बिफर गया। भन्ना के बोला, अजी गे तो मैं कभी मानने का हूँ कि अल्लाह ने ले लिया... उनने तो मुझे इत्ती दुआएँ माँगने पा दिया था, फिर ले क्यों लेवेगा और विसे क्या ज़रूरत है बूट जूते की... ख़्वामुख़ी को अल्लाह को इल्ज़ाम दो हो बालिष्टर साहब। लिया तो है किसी नमाज़ी ने। अब बैरिस्टर मामूँ क्या कहते। वो तो साफ़ ही ज़ाहिर था कि किसी नमाज़ी ने लिया है। खिसिया के बोले, जाने कौन था शैतान की औलाद। अजी मस्जिद में नमाज़ के बहाने आवें हैं आदमियों के जूते चुराने। अभी पुलिस में रिपोर्ट करके बंधवाऊँ हूँ।

    पुलिस में रिपोर्ट हुई। बैरिस्टर मामूँ ने इनआम का ऐलान किया। दूसरे दिन वा'ज़ में बड़े मौलवी साहब ने भी ख़ूब ला'नत-मलामत की। महल्ले में एक-एक से कहा-सुना गया। पर बूट को मिलना था मिला।

    चौथे दिन एक अजीब बात हुई। मग़रिब की नमाज़ के वक़्त फ़ख़्रू मस्जिद में पहुँचा, सबको ये मालूम था कि उसका जूता चोरी हो चुका है, लोग उसे देख कर हैरान हुए, पर बोला कोई नहीं। जब नमाज़ ख़त्म हुई और मौलवी साहब वा'ज़ कहने मिंबर की तरफ़ बढ़े तो फ़ख़्रू उनके और मिंबर के बीच खड़ा हो गया और बोला, अजी मौली साहब ज़रा में कुछ कहना चाहूँ हूँ। मौली साहब को उससे हमदर्दी थी, फ़ौरन एक तरफ़ को हो गए।

    फ़ख़्रू लोगों को मुख़ातिब करके बोला, भले आदमियों, परसों हियाँ मस्जिद से मेरा जूता चोरी हो गया... नमाज़ियों के सिवा तो कोई हियाँ आता है सो किसी नमाज़ी ने ही चुराया होवेगा... ख़ैर... पर मैंने गे सोचा कि जिस मस्जिद में जूता गया हुआँ ही गे पॉलिश की डिबिया और गे बुरिश भी चला जावे, सो मैं लेता आया हूँ और आप नमाज़ियों को बख़्श दूँ हूँ, मैं तो अब कभी मस्जिद में आने का हूँ और ता-ज़िंदगी नमाज़ पढ़ने का हूँ, पर अल्लाह से दुआ ज़रूर मांगूँगा कि एक बार दिया था सो दूसरी बार भी देवे... और उसकी करीमी से कुछ दूर है वो फिर देवेगा... ज़रूर देवेगा।

    इस तक़रीर के बाद उसने कुरते की एक जेब से पॉलिश की डिबिया और दूसरे से ब्रश निकाला और मस्जिद के एक कोने में उछाल दिया... फिर बाहर निकल कर अपनी पुरानी स्लिपरें पहने और रवाना हो गया।

    जब मेरी उम्र कोई सात-आठ साल की थी तो फ़ख़्रू काफ़ी बूढ़े हो चुके थे, ड्योढ़ी में बैठे खाँसा करते थे, पोतों, पड़पोतों वाले थे, मगर हर बार जब हम लोग अपने नन्हिआल जाते तो मैं एक-एक से ये क़िस्सा सुनती। इस वाक़ए के बाद वो कभी मस्जिद गए कभी उन्होंने नमाज़ पढ़ी... हस्ब-ए-आदत नमाज़ का ज़िक्र सुन कर वो कुछ नहीं कहते थे। कभी कभार मुस्कुरा देते। लेकिन अगर कोई ये कह देता कि अल्लाह की मर्ज़ी यूँ ही थी, ख़ुदा का करना यूँ ही था तब वो बे-हद बिगड़ते, बे-हद ख़फ़ा होते, अजी वाह ख़ूब कहो हो, अल्लाह का करना था, अजी वो तो देवे है उसे ले के क्या करना है। ले तो है इंसान, छीने है तो बंदा और नमाज़ी बंदा की तो जब निय्यत बदले है तो ऐसी बदले है कि जिसकी कुछ ठीक है। समझे है कि नमाज़ पढ़ूँ हूँ तो सात ख़ून मुझको माफ़ हो जावेंगे, जाने है कि अल्लाह कुछ कहने को आने से रिया, गवाही देने से रिया, अपनी सारी की कराई, अगली पिछली गौड़ी समेटी और अल्लाह के सर थोप दी। अपने हाथ झाड़ के अलग हो गए... और ख़्वामुख़ी अल्लाह को इल्ज़ाम... क्या इंसाफ़ करो हो... वाह जी वाह!

    स्रोत:

    Urdu Afsane (Pg. 126)

      • प्रकाशक: नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1974

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए