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बहरूपिया

ग़ुलाम अब्बास

बहरूपिया

ग़ुलाम अब्बास

MORE BYग़ुलाम अब्बास

    स्टोरीलाइन

    हर पल रूप बदलते रहने वाले एक बहरूपिये की कहानी, जिसमें उसका अपना असली रूप कहीं खोकर रह गया है। वह हफ़्ते में एक-दो बार मोहल्ले में आया करता था। देखने में काफ़ी आकर्षक था और हर किसी से मज़ाक़ किया करता था। एक दिन एक छोटे लड़के ने उसे देखा तो वह उससे ख़ासा प्रभावित हुआ और फिर अपने दोस्त को साथ लेकर वे उसका पीछा करता हुआ, उसके असली रूप की तलाश में निकल पड़ा।

    ये उस ज़माने की बात है जब मेरी उम्र बस कोई तेरह-चौदह बरस की थी। हम जिस महल्ले में रहते थे वो शहर के एक बा-रौनक बाज़ार के पिछवाड़े वाक़े था। उस जगह ज़्यादा-तर दरमयाने तबक़े के लोग या ग़रीब-ग़ुरबा ही आबाद थे। अलबत्ता एक पुरानी हवेली वहाँ ऐसी थी जिसमें अगले वक़्तों की निशानी कोई साहब ज़ादा साहब रहा करते थे। उनके ठाठ तो कुछ ऐसे अमीराना थे मगर अपने नाम के साथ “रईस-ए-आज़म” लिखना शायद वो अपना फ़र्ज़-ए-मनसबी समझते थे। अधेड़ उम्र, भारी भरकम आदमी थे। घर से बाहर ज़रा कम ही क़दम निकालते। हाँ हर-रोज़ तीसरे पहर हवेली के अहाते में अपने अहबाब के झुरमुट में बैठ कर गप्पें उड़ाना और ज़ोर-ज़ोर से क़हक़हे लगाना उन का दिल पसंद मशग़ला था।

    उनके नाम की वजह से अक्सर हाजत मंद, यतीम ख़ानों के एजेंट और तरह-तरह के चंदा उगाहने वाले उनके दरवाज़े पर सवाली बन कर आया करते। इलावा अज़ीं जादू के प्रोफ़ेसर, रुमाल नजूमी, नक़्क़ाल, भाट और इसी क़िस्म के दूसरे लोग भी अपना हुनर दिखाने और इन्आम-ओ-इकराम पाने की तवक़्क़ो में आए दिन उनकी हवेली में हाज़िरी दिया करते।

    जिस ज़माने का मैं ज़िक्र कर रहा हूँ एक बहरूपिया भी तरह-तरह के रूप भर कर उनकी हवेली में आया करता। कभी ख़ाली कोट पतलून पहने, चमड़े का थैला गले में डाले, छोटे-छोटे शीशों और नरम कमानियों वाली ऐनक आँखों पर लगाए चिट्ठी रसाँ बना हर एक से बैरंग ख़त के दाम वसूल कर रहा है। कभी जटाधारी साधू है। लँगोट कसा हुआ जिस्म पर भबूत रमाई हुई। हाथ में लंबा सा चिमटा, सुर्ख़-सुर्ख़ आँखें निकाल-निकाल “बम महादेव” का नारा लगा रहा है। कभी भंगन के रूप में है जो सुर्ख़ लहंगा पहने कमर पर टोकरा हाथ में झाड़ू लिए झूट-मूट पड़ोसनों से लड़ती भिड़ती आप ही आप बकती-झकती चली रही है।

    मेरे हम-सबक़ों में एक लड़का था मदन। उम्र में तो वो मुझसे एक-आध बरस छोटा ही था मगर क़द मुझसे निकलता हुआ था। ख़ुश शक्ल, भोला-भाला। मगर साथ ही बच्चों की तरह बला का ज़िद्दी। हम दोनों ग़रीब माँ-बाप के बेटे थे। दोनों में गहरी दोस्ती थी। स्कूल के बाद कभी वो मेरे महल्ले में खेलने जाता। कभी में उसके हाँ चला जाता।

    एक दिन सै पहर को मैं और मदन साहब ज़ादा साहब की हवेली के बाहर सड़क पर गेंद से खेल रहे थे कि हमें एक अजीब सी वज़ा का बूढ़ा आदमी आता दिखाई दिया। उसने महाजनों के अंदाज़ में धोती बाँध रखी थी। माथे पर सिंदूर का टीका था। कानों में सुनहरी बाले, बग़ल में एक लंबी सी सुर्ख़ बही दाब रखी थी। ये शख़्स हवेली के फाटक पर पहुँच कर पल-भर को रुका। फिर अंदर दाख़िल हो गया।

    मैं फ़ौरन जान गया। ये हज़रत सिवाए बहरूपिए के और कौन हो सकते थे। मगर मदन ज़रा ठिटका। उसने बहरूपिए को पहले कभी नहीं देखा था।

    मैंने छेड़ने को पूछा।

    “मदन जानते हो अभी-अभी इस हवेली में कौन गया है।”

    “हाँ क्यों नहीं।”

    “भला बताओ तो।”

    “कोई महाजन था”

    “यहाँ क्यों आया?”

    “मैं क्या जानूँ। तुम्हारे रईस-ए-आज़म ने कुछ क़र्ज़-वर्ज़ लिया होगा उससे।”

    “अरे नहीं पगले ये तो बहरूपिया है बहरूपिया।”

    “बहरूपिया?” मदन ने कुछ हैरानी ज़ाहिर करते हुए कहा। “बहरूपिया क्या होता है।”

    “अरे तुम नहीं जानते। ये लोग तरह-तरह के रूप भर कर अमीर उमरा को अपना कमाल दिखाते हैं। और उनसे इन्आम लेते हैं।”

    “तो क्या ये शख़्स हर-रोज़ आता है?”

    “नहीं हफ़्ते में बस दो एक ही बार। रोज़-रोज़ आए तो लोग पहचान जाएँ। बहरूपियों का कमाल तो बस इसी में है कि ऐसा स्वाँग रचाएँ कि लोग धोका खा जाएँ और सच समझने लगें। यही वजह है कि ये लोग किसी शहर में दो-तीन महीने से ज़्यादा नहीं टिकते।”

    “क्या उनको हर दफ़ा इन्आम मिलता है?”

    “नहीं तो। ये जब पंद्रह-बीस मर्तबा रूप भर चुके हैं तो आख़िरी बार सलाम करने आते हैं। बस यही वक़्त इन्आम लेने का होता है।”

    “भला कितना इन्आम मिलता होगा इन्हें?”

    “कुछ ज़्यादा नहीं। कहीं से एक रुपया कहीं से दो रुपय और कहीं से कुछ भी नहीं। ये रईस-ए-आज़म साहब अगर पाँच रुपय भी दे दें तो बहुत ग़नीमत जानो। बात ये है कि आजकल इस फ़न की कुछ क़दर नहीं रही। अगले वक़्तों के अमीर लोग तो इस क़िस्म के पेशे वालों को इतना-इतना इन्आम दे दिया करते थे कि उन्हें महीनों रोज़ी की फ़िक्र रहती थी। मगर आजकल तो ये बेचारे भूकों मर रहे होंगे और...”

    मैं कुछ और कहने ही को था कि इतने में वही बहरूपिया महाजन बना हुआ हवेली के फाटक से निकला। मदन जो किसी गहरी सोच में डूबा हुआ था। उसे देखकर चौंक पड़ा। बहरूपिया हमारी तरफ़ देखकर मुस्कुराया। और फिर बाज़ार की तरफ़ चल दिया।

    “बहरूपिए का पीठ मोड़ना था कि मदन ने अचानक मेरा हाथ ज़ोर से थाम लिया और धीमी आवाज़ में कहने लगा।

    “असलम आओ इस बहरूपिए का पीछा करें और देखें कि वो कहाँ रहता है। उसका घर कैसा है। उसका कोई कोई मेक-अप रूम तो होगा ही। शायद उस तक हमारी रसाई हो जाएगी। फिर मैं ये भी देखना चाहता हूँ कि वो अपनी असली सूरत में कैसा लगता है।”

    “मदन दीवाने बनो।” मैंने कहा “न जाने उसका ठिकाना किधर है। हम कहाँ मारे-मारे फिरेंगे। जाने अभी उसको और किन-किन घरों में जाना है...”

    “मगर मदन ने एक सुनी। वो मुझे खींचता हुआ ले चला। मैं पहले कह चुका हूँ कि उसके मिज़ाज में तिफ़लाना ज़िद थी। ऐसे लोगों के सिर पर जब कोई धन सवार हो जाए तो जब तक उसे पूरा कर लें ख़ुद चैन से बैठते हैं दूसरों को चैन लेने देते हैं। नाचार मैं उसकी दोस्ती की ख़ातिर उसके साथ हो लिया।

    ये गर्मियों की एक शाम थी। कोई छः का अमल होगा। अंधेरा होने में अभी कम से कम डेढ़ घंटा बाक़ी था। मैं दिल ही दिल में हिसाब लगाने लगा। हमारा इलाक़ा शहर के ऐन वसत में है। यहाँ पहुँचते-पहुँचते अगर बहरूपिए ने आधे शहर का अहाता भी कर लिया हो तो अभी आधा शहर बाक़ी है। जहाँ उसे अपने फ़न की नुमाइश के लिए जाना ज़रूरी है। चुनाँचे अगर ज़्यादा नहीं तो दो घंटे तो ज़रूर ही हमें उसके पीछे पीछे चलना पड़ेगा।

    वो तेज़ तेज़-क़दम उठाता हुआ एक से दूसरे बाज़ार में गुज़रता जा रहा था। रास्ते में जब कभी कोई बड़ी हवेली या मकान का दीवान ख़ाना नज़र आता तो वो बिला तकल्लुफ़ अंदर दाख़िल हो जाता और हमें दो-तीन मिनट बाहर उसका इंतेज़ार करना पड़ता। बाज़ बड़ी-बड़ी दुकानों में भी उसने हाज़िरी दी मगर वहाँ वो एक-आध मिनट से ज़्यादा रुका।

    शफ़क़ की कुछ-कुछ सुर्ख़ी अभी आसमान पर बाक़ी थी कि उन हाज़रियों का सिलसिला ख़त्म हो गया। क्योंकि बहरूपिया अब शहर के दरवाज़े से बाहर निकल आया था और फ़सील के साथ-साथ चलने लगा था।

    हमने अब तक बड़ी कामयाबी से अपने को उसकी नज़रों से ओझल रखा था। इसमें बाज़ारों की रेल-पेल से हमें बड़ी मदद मिली थी। मगर अब हम एक ग़ैर-आबाद इलाक़े में थे जहाँ इक्का-दुक्का आदमी ही चल फिर रहे थे। चुनाँचे हमें क़दम-क़दम पर ये धड़का था कि कहीं अचानक वो गर्दन फेर कर हमें देख ले। बहरहाल हम इंतेहाई एहतियात के साथ और उससे ख़ासी दूर रह-रह कर उसका तआक़ुब करते रहे।

    हमें ज़्यादा चलना पड़ा। जल्द ही हम एक ऐसे इलाक़े में पहुँच गए जहाँ फ़सील के साथ-साथ ख़ाना-ब-दोशों और ग़रीब-ग़ुरबा ने फूँस के झोंपड़े डाल रखे थे। इस वक़्त उनमें से कई झोंपड़ों में चिराग़ जल रहे थे। बहरूपिया उन झोंपड़ों के सामने से गुज़रता हुआ आख़िरी झोंपड़े के पास पहुँचा जो ज़रा अलग-थलग था। उसके दरवाज़े पर टाट का पर्दा पड़ा हुआ था। झोंपड़े के बाहर एक नन्ही सी लड़की जिसकी उम्र कोई तीन बरस होगी और एक पाँच बरस का लड़का ज़मीन पर बैठे कंकरियों से खेल रहे थे। जैसे ही उन्होंने बहरूपिए को देखा वो ख़ुशी से चिल्लाने लगे “अब्बा जी गए अब्बा जी गए!” और वो उसकी टांगों से लिपट गए। बहरूपिए ने उन के सरों पर शफ़क़त से हाथ फेरा। फिर वो टाट का पर्दा सरका कर बच्चों समेत झोंपड़े में दाख़िल हो गया।

    मैंने मदन की तरफ़ देखा।

    “कहो अब क्या कहते हो?”

    “ज़रा रुके रहो। वो अभी महाजन का लिबास उतार कर अपने असली रूप में बाहर निकलेगा। इतनी गर्मी में उससे झोंपड़े के अंदर कहाँ बैठा जाएगा।”

    हमने कोई पंद्रह बीस मिनट इंतेज़ार किया होगा कि टाट का पर्दा फिर सरका। और एक नौजवान आदमी मलमल की धोती कुर्ता पहने पट्टियाँ जमाए सिर पर दो-पल्ली टोपी एक ख़ास अंदाज़ से टेढ़ी रखे झोंपड़े से बाहर निकला। बूढ़े महाजन की सफ़ेद मूँछें ग़ायब थीं। और उनके बजाय छोटी-छोटी स्याह मूँछें उसके चेहरे पर जे़ब दे रही थीं।

    “ये वही है।” यक-बारगी मदन चिल्ला उठा। “वही क़द। वही डील-डौल।”

    और जब हम उसके पीछे-पीछे चल रहे थे तो उसकी चाल भी वैसी ही थी जैसी महाजन का पीछा करने में हमने मुशाहिदा की थी। मैं और मदन हैरत से एक दूसरे का मुँह तकने लगे। अब के उसने ये कैसा रूप धरा? इस वक़्त वो किन लोगों को अपने बहरूप का कमाल दिखाने जा रहा है।

    वो शख़्स कुछ दूर फ़सील के साथ-साथ चलता रहा। फिर एक गली में होता हुआ दुबारा शहर के अंदर पहुँच गया। हम बदस्तूर उसके पीछे लगे रहे। वो बाज़ार में चलते-चलते एक पनवाड़ी की दुकान पर रुक गया। हम समझे कि शायद पान खाने रुका है। मगर तो उसने जेब से पैसे निकाले और पनवाड़ी ने उसे पान ही बना के दिया। अलबत्ता उन दोनों में कुछ बातचीत हुई जिसे हम नहीं सुन सके। फिर हमने देखा कि पनवाड़ी दुकान से उतर आया और बहरूपिया उसकी जगह गद्दी पर बैठ गया।

    पनवाड़ी के जाने के बाद उस दुकान पर कई गाहक आए। जिनको उसने सिगरेट की डिब्बियाँ दीं और पान बना-बना के दिए। वो पान बड़ी चाबुक-दस्ती से बनाता था जैसे ये भी कोई फ़न हो।

    हम कोई आध घंटे तक बाज़ार के नुक्कड़ पर खड़े ये तमाशा देखते रहे। उसके बाद एक दम हमें सख़्त भूक लगने लगी और हम वहाँ से अपने-अपने घरों को चले आए।

    अगले रोज़ इतवार की छुट्टी थी। मैंने सोचा था कि सुबह आठ नौ बजे तक सो कर कल की तकान उतारूँगा। मगर अभी नूर का तड़का ही था कि किसी ने मेरा नाम ले-ले कर पुकारना और दरवाज़ा खटखटाना शुरू कर दिया। मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। नीचे गली में झाँक कर देखा तो मदन था।

    मैं पेच-ओ-ताब खाता सीढ़ियों से उतरा।

    “असलम जल्दी से तैयार हो जाओ।” उसने मुझे देखते ही कहा।

    “क्यों क्या बात है?”

    “जल्दी करो। कहीं बहरूपिया सुबह ही सुबह घर से चल दे।”

    “भई तुम भी कमाल करते हो। अब उसका ख़्याल छोड़ दो मदन। फिर रात तुमने उसे देख भी तो लिया था।”

    “वो मैंने बहरूपिए को थोड़ा ही देखा था। वो तो पनवाड़ी था।”

    और उसने मुझे ऐसी इल्तेजा भरी नज़रों से देखा कि मेरा दिल फ़ौरन पसीज गया।

    जब हम कभी दौड़ते कभी तेज़-तेज़ क़दम उठाते फ़सील की तरफ़ जा रहे थे तो मदन ने मुझे बताया कि रात-भर वो बहरूपिए को ख़्वाब में तरह-तरह के रूप में देखता रहा। फिर सुबह को चार बजे के क़रीब आप ही आप उसकी आँख खुल गई और उसके बाद फिर उसे नींद आई।

    अभी सूरज निकलने नहीं पाया था कि हम बहरूपिए के झोंपड़े के पास पहुँच गए। पिछली रात हम अंधेरे इस इलाक़े का सही जायज़ा ले सके थे। मगर अब दिन की रौशनी में हमें उन झोंपड़ों के मकीनों की ग़ुर्बत और ख़स्ता-हाली का बख़ूबी अंदाज़ा हो गया। बहरूपिए के झोंपड़े पर टाट का जो पर्दा पड़ा था उसमें भी कई पैवंद लगे थे।

    हम दो-तीन बार उसके झोंपड़े के सामने से गुज़रे। हर बार हमें अंदर से बच्चों की आवाज़ें, दो एक निस्वानी आवाज़ों के साथ मिली हुई सुनाई दीं। आख़िर कोई दस मिनट के बाद एक शख़्स बोसीदा सा तहमद बाँधे, बनियान पहने एक हाथ में गड़वी थामे झोंपड़े से बरामद हुआ। उसकी डाढ़ी मूंछ साफ़ थी। साँवला रंग। उसको देखकर उसकी उम्र का सही अंदाज़ा करना मुश्किल था।

    वो शख़्स आगे-आगे और हम उसके पीछे-पीछे कुछ दूर फ़सील के साथ-साथ चले। आगे एक बाड़ा आया जिसमें कुछ गाएँ, भैंसें खूँटों से बंधी हुई थीं। वो शख़्स उस बाड़े के अंदर चला गया। और मैं और मदन बाहर ही उसकी नज़रों से ओझल एक तरफ़ खड़े हो गए। जहाँ से हम उसकी हरकात-ओ-सकनात को ब-ख़ूबी देख सकते थे। उसने एक भैंस को पुचकारा। फिर वो ज़मीन पर बैठ कर उसके थनों को सहलाने लगा। उसको देखकर एक बुड्ढा जो भैंसों के पास एक चारपाई पर बैठा हुक़्क़ा पी रहा था उठा और एक बड़ी से बाल्टी ले आया। अब उस शख़्स ने भैंस को दुहना शुरू किया। हम अगर चे उससे कुछ दूर खड़े थे मगर दूध की धारों की आवाज़ धीमी-धीमी सुन सकते थे।

    जब वो एक भैंस को दुध चुका तो दूसरी की तरफ़ गया। फिर तीसरी की तरफ़। इसके बाद गायों की बारी आई और उसने दो-तीन गायों को भी दुहा, जिनके दूध के लिये बुड्ढे ने एक और बाल्टी ला कर रख दी थी।

    उस काम में कोई एक घंटा सर्फ़ हुआ। बुड्ढे ने उसकी गड़वी को दूध से भर दिया। जिसे लेकर वो बाड़े से निकल आया। हम पहले ही वहाँ से खिसक लिए थे। जब वो ज़रा दूर चला गया तो मैंने मदन को छेड़ने के लिए कहा।

    “लो अब तो हक़ीक़त खुल गई तुम पर। चलो अब घर चलें। ना हक़ तुम ने मेरी नींद ख़राब की।”

    “मगर भैया वो बहरूपिया कहाँ था। वो तो ग्वाला था ग्वाला। आओ थोड़ी देर और उसका पीछा करें।”

    मैंने मदन से ज़्यादा हील-ओ-हुज्जत करना मुनासिब समझा। हम कुछ देर इधर-उधर टहलते रहे। हमने उसका ठिकाना तो देख ही लिया था। अब वो हमारी निगाहों से कहाँ छुप सकता था।

    जब हमें उसके झोंपड़े के आस-पास घूमते आधा घंटा हो गया तो हमें एक ताँगा फ़सील के साथ वाली सड़क पर तेज़ी से उधर आता हुआ दिखाई दिया। ये ताँगा बहरूपिए के झोंपड़े के क़रीब पहुँच कर रुक गया। उसमें कोई सवारी थी। जो शख़्स ताँगा चला रहा था उसने ताँगे की घंटी पाँव से दबा कर बजाई। उसकी आवाज़ सुनते ही एक आदमी झोंपड़े से निकला जिसने कोचवान का सा ख़ाकी लिबास पहन रखा था। उसको देखकर ताँगे वाला ताँगे से उतर पड़ा। और ये शख़्स ताँगे में बैठा और रासें थाम घोड़े को बड़ी महारत से हाँकने लगा। जैसे ही ताँगा चला पहले शख़्स ने पुकार कर कहा।

    “ताँगा ठीक दो बजे अड्डे पर ले आना।”

    दूसरे शख़्स ने गर्दन हिलाई। उसके बाद हमारे देखते ही देखते वो ताँगा नज़रों से ओझल हो गया

    मैं और मदन ये माजरा देखकर ऐसे हैरान रह गए कि कुछ देर तक हमारी ज़बान से एक लफ़्ज़ तक निकला। आख़िर मदन ने सुकूत को तोड़ा।

    “चलो ये तो मालूम हो ही गया कि ये शख़्स दो बजे तक क्या करेगा। इतनी देर तक हमें भी छुट्टी हो गई। अब हमें ढाई तीन बजे तक यहाँ पहुँच जाना चाहिए।”

    मैंने कुछ जवाब दिया। सच ये है कि उस बहरूपिए के मुआमले से अब ख़ुद मुझे भी बहुत दिलचस्पी पैदा हो गई थी। और मैं उसकी असलीयत जानने के लिए उतना ही बे-ताब हो गया था जितना कि मदन।

    हम लोग खाने-पीने से फ़ारिग़ हो कर तीन बजे से पहले ही फिर बहरूपिए के झोंपड़े के आस-पास घूमने लगे। झोंपड़े के अंदर से बच्चों और औरतों की आवाज़ों के साथ-साथ कभी-कभी किसी मर्द की आवाज़ भी सुनाई दे जाती थी। इससे हमने अंदाज़ा कर लिया कि बहरूपिया घर वापस पहुँच गया है।

    हमें ज़्यादा देर इंतेज़ार करना पड़ा और अब के बहरूपिया एक और ही धज से बाहर निकला। उसने लम्बा स्याह चोग़ा पहन रखा था। सर पर काली पगड़ी जो बड़ी ख़ुश-उस्लूबी से बाँधी गई थी। गले में रंग-बिरंगी तस्बीहें तरशी हुई स्याह डाढ़ी। शानों पर ज़ुल्फ़ें बिखरी हुई। उसने बग़ल में लक्कड़ी की एक स्याह संदूक़ची दाब रखी थी। मालूम होता था कि आज उसने सूफ़ी दरवेश का स्वाँग भरा है। मगर अभी कल ही तो वो महाजन के रूप में शहर का दौरा कर चुका था और कोई नया रूप भरने के लिए उसे दो-तीन दिन का वक़्फ़ा दरकार था। फिर आज किस लिए उसने ये वज़ा बनाई है? इस सवाल का हमारे पास कोई जवाब था। चुनाँचे हम चुपके-चुपके उसके पीछे पीछे रहे।

    वो शख़्स जल्द-जल्द क़दम उठाता हुआ शहर में दाख़िल हो गया। वो कई बाज़ारों में से गुज़रा मगर ख़िलाफ़-ए-मामूल वो किसी हवेली या दुकान पर नहीं रुका। मालूम होता था आज उसे अपने फ़न का मुज़ाहिरा करने और दाद पाने का कुछ ख़्याल नहीं है।

    थोड़ी देर में हम जामा मस्जिद के पास पहुँच गए। जो शहर के बीचों-बीच वाक़ेअ थी और जिसके पास हर रोज़ तीसरे पहर बाज़ार लगा करता था और इतवार को तो वहाँ बहुत ही चहल-पहल रहा करती थी, मेला सा लग जाता था। फेरी वाले हाँक लगा-लगा के तरह-तरह की चीज़ें बेचते थे, बच्चों के सिले-सिलाये कपड़े, चज़याँ, टोपियाँ, कंघियाँ, चुटल्ले, इज़ार-बंद, इत्र फुलेल, अगरबत्ती, खटमल मारने का पाउडर, मिठाईयाँ, चाट। इलावा अज़ीं तावीज़-गंडे वाले, जड़ी-बूटी वाले और ऐसे ही और पेशे वाले अपनी अनोखी वज़ा और अपनी मख़सूस सदा से उस बाज़ार की रौनक बढ़ाते थे।

    हमारा बहरूपिया भी ख़ामोशी से उन लोगों में आकर शामिल हो गया। उसने अपनी स्याह संदूक़ची खोल कर दोनों हाथों में थाम ली। उस संदूक़ची में बहुत सी छोटी-छोटी शीशियाँ क़रीने से रखी थीं। उसने कुछ शीशियाँ संदूक़ची के ढकने पर भी जमा दीं। फिर बड़े गंभीर लहजे में सदा लगानी शुरू की।

    “आपकी आँखों में धुंद हो, लाली हो, ख़ारिश हो, कुकरे हों, बीनाई कमज़ोर हो, पानी ढलकता हो, रात को नज़र आता हो तो मेरा बनाया हुआ ख़ास सुर्मा ‘नैन-सुख‘ इस्तेमाल कीजिए।

    “इसका नुस्ख़ा मुझे मक्का शरीफ़ में एक दरवेश बुज़ुर्ग से दस्तयाब हुआ था। ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ के ख़्याल से क़ीमत बहुत ही कम रखी गई है। यानी सिर्फ चार आने फ़ी शीशी।”

    “ये सुर्मा इस्म-ब-मुसम्मा है। इसके लगाते ही आँखों में ठंडक पड़ जाती है। आईए एक सलाई लगवा कर आज़माईश कर लीजिए। इसके कुछ दाम नहीं।”

    “सुर्मा-ए-मुफ़्त नज़र हूँ मेरी क़ीमत ये है।

    कि रहे चश्म-ए-ख़रीदार पे एहसाँ मेरा।”

    मैं और मदन हैरत-ज़दा हो कर बहरूपिए को देखने लगे। हमें अपनी आँखों पर यक़ीन आता था। मगर उसने सच-मुच सुर्मा फ़रोशी शुरू कर दी थी। दो-तीन आदमी उसके पास खड़े हुए और उससे बारी-बारी आँखों में सुरमे की सलाई लगवाने लगे।

    हम जल्द ही वहाँ से रुख़स्त हो गए। हमने बहरूपिए को उसके असली रूप में देखने का ख़्याल छोड़ दिया।

    स्रोत:

    Kulliyat-e-Ghulam Abbas (Pg. 383)

    • लेखक: ग़ुलाम अब्बास
      • प्रकाशक: रहरवान-ए-अदब, कोलकाता
      • प्रकाशन वर्ष: 2016

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