aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

बेटी का धन

प्रेमचंद

बेटी का धन

प्रेमचंद

MORE BYप्रेमचंद

    बेतवा नदी दो ऊंचे करारों के बीच में इस तरह मुँह छुपाए हुए थी जैसे बा’ज़ दिलों में इरादा-ए-कमज़ोर और तनपरवरी के बीच में हिम्मत की मद्धम लहरें छुपी रहती हैं। एक कर्रार पर एक छोटा सा गाँव आबाद है जिसके शानदार खंडरों ने उसे एक ख़ास शौहरत दे रखी है। क़ौमी कारनामों पर मिटने वाले लोग कभी कभी यहाँ दरोदीवार-ए-शिकस्ता के सामने एक पुरख्वाब मायूसी की हालत में बैठे नज़र आजाते हैं और गाँव का बूढ़ा केवट चौधरी जब मुहक़्क़िक़ाना दर्द-ओ-सोज़ के साथ रानी के महल और राजा के दरबार और कँवर की बैठक के मिटे हुए निशानात दिखाता है तो उसकी आँखें आबगूं होजाती हैं। जिसका सुनने वालों पर इन तारीख़ी इन्किशाफ़ात से कुछ ज़्यादा ही असर होता है। क्या ज़माना था कि केवटों को मछलीयों के सिले में अशर्फ़ियां मिलती थीं। कहार लोग महल में झाड़ू देते हुए अशर्फ़ियां बटोर लेजाते थे। बेतवा नदी रोज़ बढ़कर महाराजा साहब की क़दमबोसी के लिए आती थी। ये इक़बाल था! महाराजा साहब दो मस्त हाथियों को एक एक हाथ से हटा देते थे। ये सब वाक़ियात मुअर्रिख़ाना अंदाज़ से बयान किए जाते थे और उनकी निस्बत अपनी राय क़ाइम करने की हर शख़्स को अपनी ख़ुश एतिक़ादी की निस्बत से कामिल आज़ादी थी। हाँ, अगर ज़ोर-ए-बयान और मतानत, और लब-ओ-लहजा किसी तज़किरे को वाक़ईयत का रंग दे सकते हैं तो बूढ़े चौधरी को उनके सर्फ़ करने में मुतलक़ दरेग़ होता था।

    सुक्खू चौधरी साहब-ए-ख़ानदान थे। मगर जितना बड़ा मुँह इतने बड़े निवाले थे। तीन लड़के थे, तीन बहूएं। कई पोते-पोतियाँ। लड़की सिर्फ़ एक थी, गंगा जली, जिसका अभी तक गौना नहीं हुआ था। ये चौधरी की आख़िरी औलाद थी। बीवी के मर जाने पर उसने उसे बकरीयों का दूध पिला पिला के पाला था। ख़ानदान तो इतना बड़ा और खेती सिर्फ़ एक हल की। फ़राग़त और तंगी में सिर्फ़ एक क़दम का फ़ासिला था। मगर उसकी मुहक़्क़िक़ाना और मुअर्रिख़ाना क़ाबिलीयत ने उसे वो इम्तियाज़ दे रखा था जिस पर गाँव के मुअज़्ज़िज़ साहूकार झक्कड़ शाह को भी रश्क होता था। जब सुक्खू गाँव के मजमे में ज़िला के नौ-वारिद अफ़सरों से तारीख़ी यादगारों का ज़िक्र करने लगता था तो झक्कड़ तड़प-तड़प के रह जाते थे और ग़ालिबन यही वजह थी कि उन्हें भी ऐसे मौक़े की तलाश रहती थी जब वो सुक्खू को नीचा दिखा सकें।

    इस मौज़े के ज़मींदार एक ठाकुर जतिन सिंह थे। जिनकी बेगार के मारे गाँव के मज़दूर और किसान जान से तंग थे। इमसाल जब ज़िला के मजिस्ट्रेट का दौरा हुआ और वो इन आसार-ए-क़दीमा की सैर के लिए तशरीफ़ लाए तो सुक्खू चौधरी ने दबी ज़बान से अपने गाँव वालों की तकलीफ़ें बयान कीं। हुक्काम से हमकलाम होने में उसे मुतलक़ ताम्मुल होता था। अगरचे वो जानता था कि जतिन सिंह से रार करना अच्छा नहीं, मगर जब गाँव वाले कहते कि, चौधरी! तुम्हारी ऐसे ऐसे हाकिमों से मिताई है और हम लोगों की रात-दिन रोते कटती है, आख़िर ये तुम्हारी दोस्ती किस दिन काम आएगी? तो सुक्खू का मिज़ाज आसमान पर जा पहुंचता।

    मजिस्ट्रेट ने जतिन सिंह से इस मुआमले में तहरीरी जवाब तलब किया। उधर झक्कड़ शाह ने चौधरी की इन मुग़्वियाना सरकशाना ज़बान दराज़ियों की रिपोर्ट जतिन सिंह को दी। ठाकुर जल कर आग हो गया। अपने कारिंदा से बक़ाया की फ़ेहरिस्त तलब की। सूए इत्तिफ़ाक़ से चौधरी के ज़िम्मे इमसाल की लगान बाक़ी थी। कुछ तो पैदावार कम हुई और फिर गंगा जली का ब्याह करना पड़ा, छोटी बहू नथ के लिए रट लगाए हुए थी। वो बनवाना पड़ी, इन मसारिफ़ ने हाथ बिल्कुल ख़ाली कर दिया। लगान के बारे में कुछ ज़्यादा अंदेशा नहीं था। जिस ज़बान में हुक्काम को ख़ुश करने की ताक़त है क्या उसकी शीरीं बयानियां ठाकुर पर कुछ असर करेंगी? बूढ़े चौधरी तो इस एतिमाद में बैठे हुए थे, उधर उन पर बक़ाया लगान की नालिश हो गई। सम्मन पहुँचा। दूसरे ही दिन पेशी की तारीख़ पड़ गई ज़बान को अपना जादू चलाने का मौक़ा मिला।

    जिन लोगों के बढ़ावे से सुक्खू ने ठाकुर से छेड़-छाड़ की थी उनमें से अब किसी की सूरत नहीं दिखाई देती थी। ठाकुर के शहने और प्यादे गाँव में फेरे लगा रहे थे। उनका ख़ौफ़ ग़ालिब था। कचहरी यहाँ से तीस मील के फ़ासिले पर थी। कंवार के दिन, रास्ते में जा-ब-जा नाले और नदियां हाइल, कच्चा रास्ता। बैलगाड़ी का गुज़र नहीं। पैरों में सकत नहीं। आख़िर अदम-ए-पैरवी में यकतरफ़ा फ़ैसला हो गया। बोदे दिलों की वकालत करना दलदल में पैर रखने से काम नहीं।

    क़ुर्क़ी का नोटिस पहुँचा तो चौधरी के हाथ पाँव फूल गए। अपनी कमज़ोरी का इल्म औसान का दुश्मन है। शीरीं बयान सक्खू जिसकी रोशनी तबा उसके सर पर ये आफ़तें लाई थी। उस वक़्त बच्चा-ए-बेज़बान बना हुआ था। वो चुप-चाप अपनी खाट पर बैठा हुआ नदी की तरफ़ ताकता और दिल में सोचता क्या मेरे जीते जी घर मिट्टी में मिल जाएगा? ये मेरे बैलों की ख़ूबसूरत गोईं, क्या इनकी गर्दन में दूसरों का जुआ पड़ेगा। ये सोचते सोचते उसकी आँखें भर आतीं और वो बैलों से लिपट कर रोने लगता। मगर बैलों की आँखों से क्यों आँसू जारी थे। वो नाँद में क्यों मुँह नहीं डालते थे? क्या जज़्ब-ए-दर्द में वो भी अपने आक़ा के शरीक थे?

    फिर वो अपने झोपड़े को मायूस निगाहों से देखाता। क्या हमको इस घर से निकलना पड़ेगा। ये बुज़ुर्गों की निशानी मेरे जीते जी मिट जाएगी।

    बा’ज़ तबीयतें आज़माइश में मज़बूत रहती हैं बा’ज़ उसका एक झोंका भी नहीं सह सकतीं। चौधरी की तबई ज़हानत ने अब मौज़ूनी तबा की सूरत इख्तियार की जो तुकबन्दी से बहुत मुशाबेह थी। अपनी खाट पर पड़े पड़े वो घंटों देवताओं को याद किया करता था और महाबीर और महादेव के गुण गाता।

    इसमें कोई शक नहीं कि उसकी तीनों बहुओं के पास ज़ेवर थे। मगर औरत का ज़ेवर ऊख का रस है। जो पेलने ही से निकलता है। चौधरी ज़ात का हेटा हो, मगर तबीयत का शरीफ़ था। नामवरान-ए-सल्फ़ का ज़िक्र-ए-ख़ैर करते करते उसकी तबीयत भी ग़यूर हो गई थी। वो अपनी तरफ़ से कभी बहुओं से इस क़िस्म का तक़ाज़ा नहीं कर सकता था। शायद ये सूरत उसके ख़्याल ही में आई थी। हाँ तीनों बेटे अगर मुआमलाफ़हमी से काम लेते तो बूढ़े चौधरी की देवताओं की मदद की ज़रूरत होती। मगर बड़े साहबज़ादे को घाट से फ़ुर्सत थी और बाक़ी दो लड़के इस उक़दा को मर्दाना और दिलेराना तरीक़ पर हल करने की फ़िक्र में मदहोश थे। काश, जतिन सिंह इस वक़्त उन्हें कहीं अकेले मिल जाते!

    मँझले झींगुर ने कहा, “ऊँह, इस गाँव में क्या रखा है। जहाँ कमाएंगे वहीं खाएंगे मगर जतिन सिंह की मूँछें एक एक करके चुन लूँगा।”

    छोटे फक्कड़ ऐंड कर बोले, “मूँछें तुम चुन लेना,नाक मैं उड़ा दूँगा। नकटा बना घूमेगा।” इस पर दोनों ने क़हक़हा लगाया और मछली मारने के लिए नदी की तरफ़ चल दिए।

    इस गाँव में एक बूढ़े बाम्हन भी रहते थे। मंदिर में पूजा करते थे रोज़ाना अपने जजमानों को दर्शन देने के लिए नदी पार जाते मगर खेवे के पैसे देते। तीसरे दिन वो ज़मींदार के गोविंदों की नज़र बचा कर सुक्खू के पास आए और राज़दाराना अंदाज़ से बोले, “चौधरी कल ही तक मीयाद है और तुम अभी तक पड़े सो रहे हो। क्यों नहीं घर की चीज़ बस्तू, ढोर,डांगर कहीं और हाँक देते, हो सम्धियाने भेज दो। जो कुछ बच रहे वही सही, घर की मिट्टी खोद कर कोई थोड़े ही लेजाएगा।”

    चौधरी उठ बैठा और आसमान की तरफ़ देखकर तक़द्दुस की शान से बोला, “जो कुछ उसका हुक्म है वो होगा। मुझसे ये जाल किया जाएगा।”

    कई दिन की मुतवातिर शब-ओ-रोज़ की अकीदतमंदाना विर्द और दुआ ख्वानी ने जिनमें नुमाइश का शाइबा था, उसे मुदाफ़अत की इस अमली और आम तजवीज़ पर कार पैरा होने दिया। पंडित जी जो इस फ़न के उस्ताद थे नादिम हो गए।

    मगर चौधरी के घर के दूसरे मेम्बर ख़ुदा की मर्ज़ी पर इस हद तक शाकिर थे। घर के बर्तन भाँडे चुपके चुपके खिसकाए जाते थे। अनाज का एक दाना भी घर में रहने पाया। रात को कश्ती लदी हुई जाती और ख़ाली वापस आती। तीन दिन तक घर में चूल्हा जला। बूढ़े चौधरी के मुँह में दाना का क्या ज़िक्र पानी की एक बूँद भी पड़ी थी। औरतें भाड़ से चने भुना भुना कर खातीं। लड़के नदी से मछलियाँ लाते और भून भून खाते। अगर इस फ़ाक़ाकशी में कोई बूढ़े का शरीक था तो वो उसकी लड़की गंगा जली थी। वो ग़रीब अपने बाप को चारपाई पर बेआब-ओ-दाना पड़े कराहते देखती और बिलक बिलक कर रोती। क़ुदरत ने दीगर जज़्बात की तरह औरतों को मुहब्बत भी ज़्यादा दी है। लड़कों को वालिदैन से वो मुहब्बत नहीं होती जो लड़कियों को होती है और गंगा जली के आँसूओं में उलफ़त का ख़ालिस जज़्बा था, माद्दी मआल अंदेशों से पाक।

    गंगा जली इस फ़िक्र में ग़ोते खाया करती कि कैसे दादा की मदद करूँ। अगर हम सब भाई-बहन मिलकर जतिन सिंह के पास जाएं और उनके पैरों पर सर रखदें तो क्या वो मानेंगे। मगर दादा से यह कब देखा जाएगा। अरे वो एक दिन बड़े साहब के पास चले जाते तो सब कुछ बन जाता। मगर उनकी तो जैसे बुद्ध ही क्या हो गई। इसी उधेड़बुन में उसे अंधेरे में रोशनी की एक झलक नज़र आई।

    पुजारी जी सुक्खू चौधरी के पास से चले गए थे और चौधरी बड़ी बुलंद आवाज़ से अपने सोते हुए महाबीर और भगवान और हनुमान को बुलाते थे कि गंगाजली उनके पास जाकर खड़ी हो गई। चौधरी ने देखा और बोले, “क्या है बेटी? रात को क्यों बाहर आईं?”

    गंगाजली ने कहा, “बाहर रहना तो भाग ही में लिखा है घर में कैसे रहूँ।”

    सुक्खू ने ज़ोर से हाँक लगाई, “कहाँ गए तुम कृष्ण मुरारी, मेरो दुख हरो।”

    गंगाजली बैठ गई और आहिस्ते से बोली, “भजन गाते तो तीन दिन हो गए,घर-बार बचाने की भी कोई उपाय सोची कि ये सब मिट्टी में मिला दोगे। क्या हम लोगों को पेड़ तले रखोगे?”

    चौधरी ने पुरग़म अंदाज़ से कहा, “बेटी मुझे तो कोई उपाय नहीं सूझती। भगवान जो चाहेंगे होगा। बैग चलो गिरधर गोपाला काहे बिलंब करो।”

    गंगाजली बोली, “मैंने एक उपाय सोची है, कहो तो बताऊं।”

    चौधरी उठकर बैठ गया। क़ालिब-ए-बेजान में जान सी पड़ गई। पूछा, “कौनसी उपाय है बेटी?”

    गंगाजली ने कहा, “मेरे घंटे झक्कड़ साहू के यहाँ गिरवी रख दो। मैंने जोड़ लिया है देने भर के रुपये होजाएंगे।”

    चौधरी ने आह सर्द भरी और बोले, “बेटी तुमको मुझसे ये कहते लाज नहीं आती। बेद शास्त्र में मुझे तुम्हारे गाँव के कुवें का पानी पीना भी नहीं लिखा है। तुम्हारी ड्यूढ़ी में पैर रखना भी मना है क्या मुझे नरक में ढकेलना चाहती हो?”

    गंगाजली इस जवाब के लिए पहले ही से तैयार थी बोली, “मैं तुम्हें अपने गहने दिए थोड़े ही देती हूँ। इस वक़्त लेकर काम चलाओ। चैत में छुड़ा देना।”

    चौधरी ने ज़ोर देकर कहा, “ये मुझसे होगा।”

    गंगाजली ने भी पुरजोश अंदाज़ से जवाब दिया, “तुमसे होगा तो मैं आप जाऊँगी, मुझसे घर की ये दसा देखी नहीं जाती।”

    चौधरी झुंजला कर बोले, “बिरादरी में कौन मुँह दिखाऊँगा।”

    गंगा जली ने चिढ़ कर कहा, “बिरादरी में कौन ढींडोरा पीटने जाएगा?”

    चौधरी ने फ़ैसला किया। जग हँसाई के लिए मैं अपना धरम बिगाडूँगा।

    गंगाजली ने धमकाया, “मेरी बात मानोगे तो तुम्हारे ऊपर मेरी हत्या पड़ेगी। मैं आज ही इस बेतवा नदी में कूद पड़ूँगी। तुमसे चाहे घर में आग लगते देखा जाये। मुझसे देखा जाएगा।”

    चौधरी ने फिर एक ठंडी सांस भरी और बेकसाना अंदाज़ से बोले, “बेटी मेरा धरम सत्यानाश करो। अगर ऐसा ही है तो अपनी किसी भावज के गहने मांग लाओ।”

    गंगाजली ने तंज़ के साथ कहा, “भावजों से अपना मुँह कौन नुचवाये। उनको फ़िक्र होती तो क्या मुँह में दही जमा था। कहतीं ना?”

    चौधरी लाजवाब हो गए। गंगाजली की दलीलों के मुक़ाबले में उसके अंदाज़ की सरगर्मी ने ज़्यादा असर किया और ये तदबीर उस वक़्त चौधरी के दिमाग़ी हालत के मौज़ूं थी। जिसके अमली औसाफ़ ज़ाइल हो चुके थे। वो अपनी मनवा सकता था, सिर्फ़ दूसरे की मान सकता था आगे आगे नहीं, सिर्फ़ पीछे पीछे चल सकता था।

    गंगाजली घर में गई और गहनों की पिटारी ले आई और उन्हें निकाल कर चौधरी के अंगोछे में बांध दिया। चौधरी ने कहा, हाय राम, इस मिट्टी की क्या गत करोगे, ये कह कर उठे। मगर पोटली हाथ में लेते ही बावजूद बहुत ज़ब्त करने के उनके आँसू उमड आए और दबी हुई सिसकियाँ एक बार ज़ोर से फूट निकलीं।

    रात का वक़्त,बेतवा नदी के करारे पर सुक्खू चौधरी गहनों की पोटली बग़ल में दबाए इस तरह सबकी नज़रें बचाते चले जाते थे, गोया ये पाप की गठरी है। जब वो झक्कड़ साह के मकान के क़रीब पहुंचे तो ज़रा रुक गए। आँखें ख़ूब अच्छी तरह साफ़ कीं और बशाशत का रूप भरा। किसी को अपने हासिद और बदख्वाह के सामने बेकसी का इज़हार करने की नौबत आए। ज़िंदगी में इससे ज़्यादा अलमनाक और कोई हादिसा नहीं है। लेकिन जब ऐसी ज़रूरत ही पड़े तो फिर जज़्बात पर एक ख़ूब मोटा पर्दा डालना चाहिए।

    झक्कड़ शाह धागे की कमानियों वाली एक मोटी ऐनक लगाए, कुछ बही खाते सामने फैलाए नारीयल पीते थे और चराग़ की धुंदली रोशनी में उन हुरूफ़ को पढ़ने की कोशिश बेसूद करते थे जिनमें स्याही का बहुत किफ़ायत शआराना इस्तेमाल किया गया था। बार-बार ऐनक को साफ़ करते और आँखें मलते थे मगर चराग़ की बत्ती को उकसाना या दोहराना मुनासिब ख़्याल करते थे। इतने में सुक्खू चौधरी ने कहा, “जय राम जी की!”

    झक्कड़ ने ऐनकों की आड़ से देखा। आवाज़ पहचानी, बोले, “जय राम जी चौधरी! कहो उस मुआमले में क्या हुआ। ये लेन-देन बड़ा पाजी काम है। दिनभर सर उठाने की छुट्टी नहीं मिलती।”

    चौधरी ने पोटली को रानों तले छुपा कर लापरवाई के अंदाज़ से कहा, “अभी तो कुछ नहीं हुआ। कल इजराये डिग्री होने वाली है। ठाकुर साहब ने जाने कब की बैर निकाली है। अगर हमको दो-तीन दिन की भी मोहलत मिलती तो डिग्री जारी होने पाती।

    जंट साहब और बड़े साहब दोनों हमको अच्छी तरह जानते हैं। अभी इसी साल मैंने उनसे नदी किनारे घंटों बातें कीं मगर एक तो बरसात के दिन, दूसरे एक दिन की भी मोहलत नहीं। क्या करता। मुझे इस वक़्त रुपयों की फ़िक्र है।”

    झक्कड़ ने ताज्जुब अंगेज़ लहजे में कहा, “तुमको रुपयों की फ़िक्र, घर में भरा हुआ है वो किस दिन काम आएगा।”

    झक्कड़ शाह ने ये बात तंज़न नहीं कही थी। उन्हें और सारे गाँव को इस बात का यक़ीन-ए-कामिल था। हमारे पड़ोसियों को दुनिया में किसी और बात का इतनी जल्द यक़ीन नहीं होता जितना हमारी ख़ुशहाली का।

    चौधरी का बहरूप खुलने लगा। बोले, “शाह जी रुपये होते तो किस बात की चिंता थी। तुमसे पर्दा कौन सा है। तीन दिन से घर में चूल्हा नहीं जला। सारे घर में रोना पीटना पड़ा है अब तो तुम्हारे बसाए बसूंगा। ठाकुर ने तो उजाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी।”

    झक्कड़ शाह, जतिन सिंह को ख़ुश ज़रूर रखना चाहते थे मगर चौधरी की हुक्कामरसी को भी नज़रअंदाज नहीं कर सकते थे। अगर असल मआ सूद मुरक्कब आसानी से वसूल हो जाए तो उन्हें चौधरी को जे़रे बार एहसान करने में कोई ताम्मुल नहीं था। क्या अजब है उसी शख़्स की चर्ब ज़बानियों की बदौलत इन्कम टैक्स से नजात हो जाएगी जो बावजूद इख़्फ़ा-ए-आमदनी के मुतअद्दिद कोशिशों के, उनकी तोंद की तरह रोज़ बरोज़ माइल फ़रावानी था। बोले, “क्या चौधरी! ख़र्च से हम भी आजकल तंग हैं लहने वसूल नहीं हुए। टैक्स का रुपया देना पड़ा। तुम्हें कितना रुपया दरकार होगा?”

    चौधरी ने कहा, “डेढ़ सौ रुपया की डिग्री है। ख़र्च बर्च मिला कर दो सौ के लगभग समझो।”

    झक्कड़ अब अपने वालों खेलने लगे। पूछा, “तुम्हारे लड़कों ने कुछ भी मदद की? वो सब भी तो कुछ कुछ कमाते ही हैं।”

    साहू का ये निशाना ठीक पड़ा। लड़कों की लापरवाई से चौधरी के दिल में जो बुख़ारात जमा थे वो उबल पड़े। बोले, “भाई अगर लड़के किसी लाइक़ होते तो ये दिन ही क्यों आता। उन्हें तो अपने चैन आराम से मतलब है गर गृहस्ती का बोझ मेरे सर है। मैं उसे जैसे चाहूँ सँभालूँ। उनसे कुछ सरोकार नहीं। मरते दम भी गला नहीं छूटता। मरूँगा तो सब खाल में भुस भरवा कर रख छोड़ेंगे। ये गृहस्ती नहीं है जंजाल है।”

    झक्कड़ ने दूसरा तीर मारा, वो और भी कारी पड़ा, “क्या बहुओं से भी कुछ बन पड़ा?”

    चौधरी ने जवाब दिया, “बहू-बेटे सब अपनी अपनी फ़िक्र में मस्त हैं, मैं तीन दिन द्वारे पर बेदाना पानी पड़ा रहा। किसी ने बात पूछी। कहाँ की सलाह, कहाँ की बातचीत। बहुओं के पास रुपय हों, मगर गहने तो हैं और मेरे ही बनवाए हुए। इस आड़े पर दो-दो थान उतार देतीं तो क्या मैं छुड़ा देता। दिन सदा यूं ही थोड़े ही रहेगा।”

    झक्कड़ समझ गए कि ये महज़ ज़बान का सौदा है और ज़बान के सौदे वो भूल कर भी करते थे। बोले, “तुम्हारे घर के आदमी भी अनूठे हैं। क्या इतना भी नहीं जानते कि बूढ्ढा रुपये कहाँ से लाएगा। ज़माना और तरह का है। या तो कुछ जायदाद लिक्खो, या फिर गहने पाते हों। इसके बग़ैर रुपया कहाँ। उसमें भी जायदाद में सैकड़ों बखेड़े हैं। सुभिता इसी गिरवी रखने में होता है, हाँ तो जब घर वालों की यही मत है तो तुम क्यों हैरान होते हो। यही होगा बदनामी होगी। लोग हँसेंगे मगर इस लाज को कहाँ तक निबाहोगे।”

    चौधरी ने बेकसाना अंदाज़ से कहा, “झक्कड़ यही लाज ही तो है जो मारे डालती है तुमसे क्या छुपा है। हमारे दादा बाबा महराज की सवारी के साथ चलते थे और अब आज ये दिन आगया है कि घर की दीवारें तक बिकी जाती हैं। कहीं मुँह दिखाने की जगह रहेगी। ये देखो गहनों की पोटली है। ये लाज होती तो मैं इसे लेकर कभी यहाँ आता। मगर ये अधर्म इसी लाज निबाहने के लिए सिर पर लिया है।”

    झक्कड़ ने ताज्जुब से पूछा, “ये गहने किस के हैं?”

    चौधरी ने सर झुका कर बड़ी मुश्किल से कहा, “मेरी बेटी गंगाजली के।”

    झक्कड़ ने दिल सोज़ी के साथ कहा, “अरे राम-राम।”

    चौधरी बोले, “डूब मरने को जी चाहता है।”

    झक्कड़ ने कहा, “शास्त्रों में बेटी के गाँव का रूख तक देखना मना है।”

    चौधरी ने अपनी माज़ूरी जताई, “न जाने नारायण कब मौत देंगे। तीन लड़कियां ब्याहीं, कभी उनके दरवाज़े की सूरत नहीं देखी। परमात्मा ने अब तक तो ये टेक निबाही। मगर अब जाने मिट्टी की क्या दुर्दशा होने वाली है।”

    झक्कड़ शाह लेखा जो जो और बख़शिश सो-सो के ज़र्रीं उसूल के पाबंद थे। सूद की एक कौड़ी भी नहीं छोड़ते थे अगर महीना का एक दिन भी लग जाये तो पूरे महीने का सूद वसूल करलेते मगर नवरात्र के दिनों में रोज़ दुर्गा पाट करवाते थे। पित्रपक्ष के दिनों में रोज़ाना ब्रह्मणों को सीधे बाटते। मज़हबी अक़ीदत और मज़हबी फ़य्याज़ी हमारे साहूकारों का ज़ेवर है। झक्कड़ के दरवाज़े पर साल में एक बार भागवत ज़रूर होती। कोई ग़रीब ब्रहमन लड़की के ब्याह के लिए उनके सामने दस्त-ए-सवाल फैलाए उसे मायूसी होती थी। ब्रहमन कितना ही मोटा ताज़ा क्यों हो उसे उनके दरवाज़े पर मुहज़्ज़ब नफ़रीन और फटकार नहीं सुनना पड़ती थी। उनके मज़हब में बेटी के गाँव के कुवें का पानी पीने के मुक़ाबले में प्यास से मर जाना बदरजहा बेहतर था और वो ख़ुद इस उसूल के सख़्ती से पाबंद थे और इस पाबंदी की क़द्र करते थे।

    उन्हें इस वक़्त चौधरी पर रहम आया। ये शख़्स जिसने कभी ओछे ख्यालों को दिल में जगह नहीं दी इस वक़्त ज़माने की कश्मकश से मजबूर हो कर अधर्म पर उतर आया है, इसके धर्म की रक्षा करनी चाहिए। ये ख़्याल आते ही झक्कड़ शाह गद्दी से उठ बैठे और तस्कीन बख़्श अंदाज़ से बोले, “वही परमात्मा जिसने अब तक ये टेक निभाई है अब भी तुम्हारा प्रन निभाएगा। लड़की के गहने लड़की को देदो। लड़की जैसी तुम्हारी है वैसी मेरी। मैं डिग्री के कुल रुपये तुम्हें दे दूंगा। जब हाथ में रुपये आजाएं दे देना। मुझे लोग जितना बुरा कहते मैं उतना बुरा नहीं हूँ। हाँ, अपना पैसा पानी में नहीं बहाता।”

    चौधरी पर इस फ़ैयाज़ाना हमदर्दी का निहायत गहरा असर हुआ। वो बआवाज़-ए-बुलंद रोने लगे। उन्हें अपनी भगती की धुन में इस वक़्त कृष्ण भगवान की मोहिनी मूरत सामने खड़ी नज़र आई। वो झक्कड़ जो सारे गाँव में बदनाम था जिसकी उसने बारहा हाकिमों से शिकायत की थी इस वक़्त चौधरी को एक देवता मालूम होता था। बोले, “झक्कड़! तुमने इस वक़्त मेरी बात, मेरी लाज, मेरा धर्म सब कुछ रख लिया, तुमने मेरी डूबती हुई नाव पार लगा दी। कृष्ण मुरारी तुमको इस जस का फल देंगे और मैं तो जब तक जीऊँगा तुम्हारे गुन गाता रहूँगा।”

    स्रोत:

    प्रेम चंद: मुज़ीद अफ़साने (Pg. 39)

      • प्रकाशक: ख़ुदा बख़्श लाइब्रेरी, पटना
      • प्रकाशन वर्ष: 1993

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए