बुलबुल
स्टोरीलाइन
इस कहानी का विषय एक ऐसी औरत है, जो अपने घर में बहुत ख़ुश है। उसे उन औरतों के बारे में जान कर हैरानी होती है जो हर वक़्त शिकायत करती रहती हैं कि वे बोर हो रही हैं, उनका समय नहीं कट रहा है। उसे तो अपने समय का पता ही नहीं चलता। एक बार वह अपने पति और बच्चों के साथ हिल स्टेशन पर घूमने जाती है। वहाँ उसे हर जगह, हर चीज़ लुभावनी लगती है। वापसी से पहले ठीक उसकी बेटी बीमार पड़ जाती है और फिर पैकिंग के समय उसे इतने काम करने पड़ते हैं कि वह ख़ुद को पिंजरे में क़ैद एक बुलबल की तरह महसूस करने लगती है।
डेनिम की भारी सी जीन की पैंट को खंगाल कर निचोड़ने के बाद जब मैं उसे हैंगर पर फैलाने के लिए सीधी खड़ी होने लगी तो सारे बदन से टीस सी उठी। पूरी तरह ईस्तादा होने में मुझे दस-बारह सेकंड तो ज़रूर लगे और जब मैंने जीन को ज़ोर से झटक कर झाड़ा तो मेरे बाएं हाथ की तीसरी उंगली का वो लंबा सा नाख़ुन जो जीन की मोरी को रगड़ते हुए आधा टूट गया था, उंगली के पोर की थोड़ी सी जिल्द छीलता हुआ पूरा अलग हो गया। ख़ून के क़तरे गिरने लगे और मैं दर्द से बिलबिला उठी। मगर इस ख़्याल से कि कहीं जीन पर ख़ून का धब्बा न लग जाये मैंने एक हाथ से बमुश्किल तमाम उसे हैंगर पर डाल दिया। उंगली पर टिशू पेपर लपेट कर, मैं खिड़की की तरफ़ लपकी और खिड़की के दोनों पट खोल दिये। अंधेरों से निकल कर आता हुआ-हवा का एक उदास झोंका मेरे चेहरे से टकराया। जाने इतनी जल्दी अंधेरा कैसे हो गया। अभी कुछ देर पहले ही तो मैंने कुछ देर बाद डूबने वाले सूरज की हल्की सी झलक देखी थी। बस इतनी सी देर में...? एक ही तो पैंट धोई थी मैंने... मेरी उंगली का दर्द मेरे दिल में उतर आया। एक थकी हुई नज़र मैंने आसमान की तरफ़ उठाई। इतने वसीअ’ आसमान पर मुश्तरी अकेला चमक रहा था। मुश्तरी का अ’क्स मेरी आँखों में धुँदला सा गया... इस ज़रा सी बात पर... ये आँसू भी...
कुछ दिन पहले जब उन्होंने बताया कि उनके दफ़्तरी काम के सिलसिले में हम लोग तीन दिन के लिए शिमला जा रहे हैं तो मसर्रत की एक लहर मेरे पूरे वजूद में दौड़ गई थी। दरअसल मेरी अपनी छुट्टी के भी ये ही तीन दिन थे। इन दिनों मन्नू की भी छुट्टियां चल रही थीं । मा’लूम नहीं मेरा वक़्त कहाँ चला जाता है। लोग बोर कैसे होते होंगे। मुझे तो बोर होने का वक़्त कभी मयस्सर नहीं आया। वैसे कुछ करना तो होता नहीं मुझे ऐसा। मगर फिर भी कभी-कभी मैं एक-एक लम्हे को अपने पास बुला कर रह जाती हूँ। उसे दिल की गहराइयों से याद करती हूँ। पुचकारती हूँ। तसव्वुरात की बाहें पसारे उससे वाअ’दा करती हूँ कि उसे इतने ख़ूबसूरत अंदाज़ से गुज़ारूँगी कि शायद ही उसे किसी ने इतना हुस्न बख़्शा हो। उसकी मिन्नत और ख़ुशामद करती हूँ। बड़ी मुश्किल से इतनी सारी आ’जिज़ी के बाद जब वो एक लम्हा मेरे पास आने को तैयार होता है तो... उसी वक़्त कुकर की सीटी, टेलीफ़ोन की आवाज़, दरवाज़े की घंटी,बच्चों की पुकार, ग्वाले की डोल्ची की खड़खड़ाहट या फिर किसी काम का एहसास-ए-ज़िम्मेदारी... और मेरा इतने जतन से बुलाया हुआ लम्हा मुझ तक पहुंचने से पहले ही कहीं दूर साकित हो जाता है। मैं ख़ाली दामन और ख़ाली बाहें लिए कोई फ़र्ज़ पूरा करने के लिए आगे बढ़ जाती हूँ। और फिर मुझे दिन-भर करना ही क्या होता है। वो ठीक ही कहते हैं,काम वाली कपड़े धोती है, सफ़ाई करती है। अब ऐसा कौन सा काम रह जाता है। ज़रा सा बच्चों को ही तो देखना होता है। उनकी बिखरी हुई चीज़ें अपनी जगह पर रखना। वो ऊधम भी तो बहुत मचाते हैं। या फिर खाना बनाना, सौदा सुल्फ़ ले आना या दीगर ख़रीदारी वग़ैरा करना। छोटे-मोटे घरेलू कामों के लिए बिजली वाला या नल-वल ठीक करने वाला बुलाना। मुझे कहीं जाना तो होता नहीं। आराम से घर में काम करती, अपने सामने सब ठीक-ठाक करवाती रहूंगी तो मेरा वक़्त गुज़रता जाएगा। मुस्तइ’द रहूंगी तो तंदरुस्त रहूंगी। वो नौकर के सख़्त ख़िलाफ़ हैं। कहते हैं बड़े शहरों में छोटा नौकर रखना भी ख़तरा मोल लेने के बराबर है। वो बहुत अक़लमंद हैं उन्हें हर बात का तजुर्बा है। अब भला मैं घरेलू औरत ये सब क्या जानूं। मुझे करना ही क्या होता है ऐसा। झाड़-पोंछ लिया। कपड़े सँभाल लिये। मिनी का दूध, Nappies वग़ैरा। मुन्ने की किताबें खिलौने वग़ैरा देख लिये। उसका होमवर्क करा लिया। बस और क्या। पता नहीं चीज़ें बार-बार क्यों बिखर जाती हैं और उन्हें ठीक करने में इतना वक़्त क्यों लगता है।और फिर ये वक़्त कैसे इतनी जल्दी गुज़र जाता।
वो बहुत मसरूफ़ रहते हैं ।
और मैं सारा दिन घर में ही गुज़ारती हूँ। फिर भी ये तीन दिन जो इस गर्मी से दूर एक ख़ूबसूरत मुक़ाम पर गुज़़रेंगे, मेरे अपने होंगे। और बच्चे नई जगह में मह्व रहेंगे। न बावर्चीख़ाना, न ख़रीदारी। सिर्फ़ ख़ूबसूरत पहाड़, रंग-बिरंगे परिंदे और मीठी-मीठी उनकी बोलियाँ, बड़े-बड़े दाँतों वाले बंदर और काले मुँह और लंबी दुम वाले लंगूर। हरी-हरी घास और ख़ुश-रंग फूलों पर मंडलाती नीली-पीली तितलियाँ। चाँदनी-रात और ना आलूदा आसमान के बेशुमार तारे। तूलूअ’ और ग़ुरूब-ए-आफ़ताब का शफ़क़-गूँ असमान। ठंडी-ठंडी हवाएं और भीगी-भीगी रुतें। पल-पल आँख-मिचोली करती हुई धूप की किरनें। और न जानें क्या-क्या। ये सब मैं अपनी मर्ज़ी से देखूँगी,महसूस करूँगी। ये बहत्तर घंटे मेरे अपने होंगे।ओह... कितना सुकून मिलता है इस तसव्वुर से ही मुझे। उसे महसूस करूँगी तो कैसा लगेगा। मेरे मन में गुदगुदी सी होने लगती है। ज़िंदगी सहल-सहल सी मालूम होने लगती है।
मैं हफ़्ता भर पहले ही सफ़र की तैयारियों में लग गई। इस झुलसती गर्मी से तीन दिन दूर। बहुत होते हैं तीन दिन। ये तीन दिन मुझे पूरी तरह से Recreate करेंगे।
सफ़र पर जाने की शाम मैंने सबकी पैकिंग की। रात के दो बज गए ये सब करने में। सुबह हमें हिमालयन क्वीन पकड़नी थी छः बजे से पहले। इसके लिए हमें घर से 5 बजे चलना होगा। और फिर मुझे चार बजे उठना होगा। ये बिस्तर में चाय पीने के आ’दी हैं । इन सब के तैयार होने से जो चीज़ें बिखरेंगी उन्हें समेटना होगा। मसहरियाँ भी ठीक करना होंगी। कामवाली तो उस वक़्त होगी नहीं। सब सफ़ाई वग़ैरा कर के ही निकलना होगा।
बाहर से लौट कर उन्हें गंदा घर अच्छा नहीं लगता।
फिर दरवाज़ों खिड़कियों की कुंडियाँ चट्ख्नियाँ अच्छे से देखना-भालना,ताले-चाबियाँ नल बिजलियां वग़ैरा देखना। सब कुछ मुक़फ़्फ़ल करना। वो कहते हैं कि ये सब काम मैं ही बेहतर तरीक़े से कर सकती हूँ और मुझे ही करना है कि ये उनके बस की बात नहीं ।
दूसरी सुबह कुछ सोते कुछ जागते हम रवाना हुए और दोपहर को कालका पहुंच गए। वहां से शिमला के लिए टैक्सी ली। मन्नू को इन घूमते बल खाते रास्तों में उबकाई हो जाती है। वो सारा रास्ता उल्टियां करता रहा। मैं उसका सर थामे रखती, मुँह पोंछती, गिरेबान साफ़ करती रही।
वो अगली सीट पर शायद सो रहे थे... पहाड़ी रास्ते इतने दिल मोहने वाले थे कि सब तकान भूल कर मैं उन ऊंचे-ऊंचे पेड़ों को ढलवानों, घाटियों को देखने लगी। कोई साढे़ तीन घंटे का सफ़र था। बूँदें पड़ने लगी थीं। जहां-जहां गाड़ी बढ़ती ज़रा सा रास्ता छोड़कर वहीं पर बारिश पड़ने लगती। बादल हमारे ही रुख पर तैर रहे थे। हमारे साथ-साथ चल कर मेंह बरसाते जाते। दोनों बच्चे मेरे दो काँधों पर सर टिकाए सो रहे थे। शायद इस तरन्नुम को लोरी समझ कर जो बारिश के क़तरों के खिड़कियों के शीशों से टकराने से पैदा हो रहा था। उन्हें मीठी नींद आ गई थी। ये मंज़र इस क़दर दिलकश था कि मेरी बोझल पलकें भी बंद न हो पा रही थीं । ज़ोरों से बरसता हुआ पानी सामने के शीशे पर छा जाता और गाड़ी में लगा वाइपर उसे पलक झपकते में पोंछ लेता और इतने ही अ’र्से में उसकी जगह और पानी ले लेता और फिर उसी तरह पोंछा जाता। दोनों तरफ़ के शीशों पर भी बूँदें टकरा-टकरा कर फिसल रही थीं। बारिश सीधी, आड़ी, तिरछी जाने कैसे कैसे बह रही थी। एक तरफ़ पहाड़ियां एक तरफ़ जंगल और अगर जंगल की तरफ़ देखें तो बारिश आसमान से लेकर ज़मीन तक बरसती हुई पानी की हज़ारों निहायत तवील धारों की शक्ल में रवां नज़र आ रही थी। ऐसा मा’लूम हो रहा था जैसे हम ख़ुद ऊपर से नीचे पानी के बेशुमार धारें बरसा रहे हों।
गाड़ी के अंदर हल्की-हल्की गर्मी थी। बाहर हवाएं, सर्दी और बारिश और तन्हा बल खाती सुरमई तवील सड़क... मुझे नींद आ रही थी... मंज़र को निहारना अच्छा लगता था मगर तकान के बावजूद मैंने ख़ुद को सोने से रोके रखा ताकि मोड़ों पर मुड़ते वक़्त बच्चों को कहीं चोट ही न लग जाये।
ये जगह शिमला से आगे थी। बीचों बीच जंगल के। वैसे यहां सब कुछ जंगल के दरमियान ही था। मगर यहां क़ुदरती हुस्न अपने शबाब पर था। छोटी सी पहाड़ी के ऊपर ये ख़ूबसूरत सा होटल। पहाड़ी के शुरू में मुख़्तसर-सा बाज़ार... सब ख़ूबसूरत था।
टैक्सी से उतरते ही ताज़ा हवा के मुअ’त्तर झोंकों ने हमारा इस्तिक़बाल किया। इस ख़ुशबू में जंगली दरख़्तों की सोंधी-सोंधी महक भी शामिल थी और मुख़्तलिफ़ क़िस्म के फूलों की खूशबूएं भी, जो बाग़ीचे में चारों तरफ़ और दरमियान में निहायत सलीक़े से उगाए गए थे। उसमें ईस्तादा बड़े से अखरोट के पेड़ पर एक मैना अपनी पीली चोंच वा किए चहक रही थी। बारिश थम चुकी थी, निखरे नीले आसमान पर बादल के दूध ऐसे सफ़ेद टुकड़े इधर-उधर टँगे हुए थे। सुरमई पंखों और पीले पेट वाली एक मुन्नी सी चिड़िया यहां से वहां उड़ रही थी। आसमान पर क़ौस-ओ-क़ुज़ह उभर आया था। बच्चों ने पहली बार धनक को देखा तो बहुत ख़ुश हुए। आस-पास हद-ए-नज़र तक धुला-धुलाया सा मंज़र। नहाए नहलाए से पेड़, सजे-सजाये शर्माए-शर्माए से फूल। हरी-हरी घास पर अठखेलियाँ करती हुई रंग-बिरंगी तितलियां। नीला-नीला आसमान देखकर गुनगुनाती हुई मैना... ये मंज़र जाने कहाँ ले गया।
कमरे में पहुंच कर मैंने सब के कपड़े Unpack कर के अलमारी में लटका दिये। बच्चों को हाथ मुँह धुलाने ग़ुस्ल-ख़ाने में ले जाने लगी तो देखा कि बादल अंदर घुसे आ रहे थे, खिड़की के रास्ते। इससे पहले कि मैं इस होश-रुबा मंज़र में मह्व हो जाती, मैंने बादलों से दरख़ास्त की कि कुछ और देर ऐसे ही ठहर जाएं। मैं बच्चों से फ़ारिग़ होलूँ कि मैं ये सहर-आगीं मंज़र पहली बार देख रही हूँ।वो बालकनी में खड़े सिगरेट फूंक रहे थे।
खाना खाते शाम हो गई। शाम से मुझे इश्क़ रहा है। चौबीस घंटों में शाम ही है जो मुझे अपनी सी लगती है। फिर पहाड़ों की शाम की बात तो कुछ और ही है। मैं बालकनी में बैठ कर बादलों को अपने चेहरे पर अपने हाथों पर महसूस करना चाह रही थी कि मैं तीन दिन के लिए बादलों के पास इतनी ऊंचाई पर चली आई थी। वहां बैठ कर ज़रा सा वो मैगज़ीन देखना चाह रही थी जो मैंने स्टेशन पर ख़रीदा था... मगर...
मगर उनकी सिगरेट ख़त्म हो गई थी और होटल में वो ब्रांड नहीं था। उन्होंने मुझे ही भेजना मुनासिब समझा। कहने लगे कि बच्चों को भी साथ ले जाऊं बाज़ार। रास्ता भी देख लूँगी और सैर भी हो जाएगी। वो जब तक बालकोनी में बैठ कर मैगज़ीन देखेंगे। उन्होंने आहिस्ता से मेरे हाथ से रिसाला लेते हुए समझाया था।
बाज़ार दूर से नज़र आ रहा था। हमारे चलते वक़्त आसमान फिर अब्र आलूद था। मगर बूँदें इतनी बारीक-बारीक बरस रही थीं जैसे छलनी में से छन कर गिर रही हों। हम ढलान तय कर के चौड़ी सड़क पर पहुंचे ही थे कि बारिश अचानक तेज़ हो गई। और हम सब एक दुकान के छज्जे तक पहुंचते पहुंचते बुरी तरह भीग गए। कुछ देर बाद जब बारिश ज़रा कम हुई तो जल्दी से सिगरेट और कुछ बिस्कुट वग़ैरा लेकर मैं गुड़िया को गोद में लिए मन्नू की उंगली थामे ऊपर चढ़ाई चढ़ने लगी। सर्द हवा बदन को छूती हुई लिबास के आर-पार हो कर गुज़र रही थी। मगर मैं पसीना-पसीना हो रही थी। सांस बे-तरतीब चल रहा था। मन्नू भी बार-बार रुक रहा था। अगर वो ज़रा सा ढलान तक आ जाते तो गुड़िया को सँभाल लेते या मन्नू को ही सहारा देकर ऊपर ले जाते।
हाँपते काँपते जब हम ऊपर पहुंचे तो वो मसहरी पर नीम दराज़ गर्म-गर्म चाय पी रहे थे। टीवी ऑन था। कोई पुरानी फ़िल्म आ रही थी। फ़िल्म की हीरोइन एक नन्हे से बच्चे को पीठ पर बाँधे, कुदाल से पत्थर ऐसी सख़्त ज़मीन खोद रही थी। वो निहायत पुरसुकून थे। उन्होंने हम लोगों की तरफ़ देखे बग़ैर सिगरेट के लिए हाथ बढ़ाया।
मैंने जल्दी से बच्चों के बाल पोंछ कर उनके कपड़े तब्दील किए और फिर अपने। गुड़िया की कपकपाहट बढ़ती जा रही थी। मैंने उसे कम्बल ओढ़ा कर उनके बराबर लिटा दिया। कुछ देर बाद वो बोले कि गुड़िया को बुख़ार आ रहा है। छुवा तो वो तप रही थी। मैंने उसे और मुन्नू दोनों को क्रोसीन सिरप का एक-एक चम्मच पिला दिया। उसके नाज़ुक से नन्हे वजूद को सर्दी हो गई थी। उस दिन पूरी रात वो बेचैन रही। मैं बीच-बीच में दवाई भी पिलाती रही। ठंडे पानी की पट्टियाँ भी करती रही। सुबह के वक़्त जब उसका बुख़ार कम हुआ तो वो सो गई।
यहां तो यूं भी मुझे कोई काम नहीं। नींद आएगी तो दिन में भी सो सकती हूँ। मगर मैं सो कर इस हसीन मंज़र की तौहीन नहीं करना चाहती और न ही आने वाले दिन को नींद के हवाले कर के ज़ाए’ करूँगी। मैं इसे महसूस करना चाहती हूँ। मैं हरगिज़ न सोऊँगी।
सह्र होने को थी मगर अभी बाहर घुप्प अंधेरा था। क़रीब ही किसी पेड़ पर कोई परिंदा गा रहा था। इतनी सुबह या’नी सुबह से भी पहले। ये कौन सा परिंदा गा सकता है। इतना मीठा नग़मा। एक मुसलसल गीत। सुर और लय से भरपूर। मैं उठकर खिड़की तक आ गई। मैंने अंधेरे में ग़ौर से देखा। स्याही माइल नीले परों और पीली चोंच वाली मैना घास पर इधर-उधर कभी चल कर कभी फुदक कर चहलक़दमी कर रही थी और कभी रुक कर सर ऊपर उठाए इस सुरीले नग़मे का अलाप कर रही थी जो इस गहरे सुकूत को तोड़ कर रूह की गहराइयों में घुला जा रहा था। ये मंज़र इतना होश-रुबा था कि मेरे पांव खिड़की के पास जैसे कि मुंजमिद हो गए। सुबह-ए-काज़िब के नए-नए मुतवक़्क़े’ इसरार से महज़ूज़ होने के लिए मैं वहीं खड़ी रही। ज़रा सी देर में पौ फटा चाहती थी। मैना असल में इतनी सुबह बाग़ीचे में एक ज़रूरी काम के सिलसिले में उतरी थी वर्ना वो डाल पर भी तो गा सकती थी। वो इन नन्ही-मुन्नी बीर बहूटियों के लिए पैग़ाम-ए-अजल लेकर नमूदार हुई थी जो घास के एक मुन्ने से तिनके की ओट में कुछ घंटों की ज़िंदगी गुज़ारा करती हैं। छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े वो शौक़ से खाया करती है। पहरों घास पर इधर-उधर घूम कर उन्हें तलाश करती थक जाती तो उड़ान भर कर पास के पेड़ पर बैठ कर नग़मा छेड़ देती। जैसे कोई मुख़्तलिफ़ सुरों में सीटियाँ बजा रहा हो और साथ ही चहक भी रहा हो। कुछ सीटियाँ एक चहक, फिर सीटियाँ फिर चहक...
रोशनी फैलने लगी थी। परिंदे जाग गए थे। किसी शाख़ पर भूरे सुरमई परों और फुर्तीले जिस्म वाली कस्तूरी लहक-लहक करगा रही थी. पी... पी... पी... पिव... पिव। कई तरह की मुख़्तलिफ़ बोलियाँ बोल रहे थे परिंदे। कई तरह की बुलबुलें गा रही थीं।
कुछ ही देर में धुंद ने सारे मंज़र को अपनी लपेट में ले लिया। दरअसल ये धुंद नहीं थी, ये बादल थे जो हमें मैदानी इलाक़ों में बहुत ऊपर फैले हुए नज़र आते हैं वर्ना अगर ये सिर्फ़ धुंद होती तो सिर्फ धुंद ही होती। साथ में बारिश भी होने लगी थी। परिंदे ख़ामोश से हो गए थे। मगर वो मैना अब भी घास पर भीग-भीग कर घूम-घूम कर नग़मे गा रही थी। न वो भीगने से घबराती न सर्दी से। जी चाह रहा था कि नीचे बाग़ीचे में उतर कर मैं भी ज़रा सा टहल कर थोड़ा सा भीगूं और इस धुली धुलाई निखरी नहाई सुबह को अपनी रूह में उतार लूं मगर मुसलसल कई घंटों की तकान और शब-बेदारी ने मेरे पांव मन मन भरके कर दिए। आँखें ख़ुद बख़ुद बंद होने लगीं, में वापस मसहरी पर आ गई।
छत के ऊपर ज़ोरों की खड़खड़ाहट से मेरी आँख खुल गई। खिड़की से झाँका तो धूप चमक रही थी और टीन की छत पर उछलते कूदते बंदरों का साया बाग़ीचे की घास पर साफ़ दिखाई दे रहा था। वो कमरे में नहीं थे। शायद मन्नु भी उनके साथ गया था।
गुड़िया चुप-चाप सो रही थी। नन्ही सी जान को बुख़ार ने कुम्हला कर रख दिया था। उसका फूल सा चेहरा मुर्झा गया था। वो पीली पड़ गई थी, होंट सूखे हुए थे। अगर ठीक होती तो अपने क़द के बराबर हर चीज़ का वो भरपूर जायज़ा ले चुकी होती कि अभी-अभी खड़ा होना सीखा था उसने। ऐश ट्रे जो उसके क़द के बराबर ऊंची मेज़ पर सलीक़े से एक तरफ़ को सज रही थी, फ़र्श पर औंधी पड़ी होती और सिगरेट के बचे हुए टुकड़े कुछ ज़मीन पर होते कुछ उसके मुँह में। जग उल्टा हुआ होता और गिलास गिरा हुआ। दो मिनट में उसके सारे कपड़े भीगे हुए होते और मुझे देखकर हंस-हंसकर कभी मसहरी के नीचे घुसने की कोशिश करती कभी मेज़ के नीचे। और मैं वहां से उसके गोल मटोल मक्खन ऐसे पैरों को खींच कर उसे बाहर निकालती। उसका दहाना साफ़ करती, मुँह से सिगरेट के बचे हुए टुकड़े निकाल कर उसे ख़ूब-ख़ूब प्यार करती...
मगर इस बुख़ार ने उसे निढाल कर दिया था।
मैंने पानी पिलाने के ख़्याल से उसके चेहरे को छुवा। वो अब भी हल्का सा गर्म था। मैंने माथे पर हाथ फेरा। पसीने की वजह से नर्म-नर्म बाल माथे से चिपक गए थे। उसने नहीफ़ सी आवाज़ में मुझे पुकारा। मैंने दो तीन चम्मच पानी पिलाया। उसने मुश्किल से पिया। इस वक़्त भी उसे भूक नहीं थी। कल रात भी उसने कुछ न खाया था। और अब वो बहुत नहीफ़ लग रही थी। इस वक़्त वो कुछ देर के लिए आ जाते तो मैं बाज़ार जा कर कुछ दलिया वग़ैरा ले आती। दवा से कुछ देर के लिए जब उस का बुख़ार उतरता तो मैं उसे दलिया खिला देती। दोपहर हो गई, वो नहीं लौटे। नीचे वो कह गए थे कि मेरा खाना कमरे में भिजवा दिया जाये।
सारा दिन बुख़ार में तप्ती हुई गुड़िया को सीने से लिपटाए मैं ख़ुद भी तड़पती रही। वो भूकी थी तो मुझसे कहाँ खाया जाता कुछ। मैंने वेटर से दूध ऊपर कमरे में मंगवाया था, उसने नज़र उठा कर देखा तक नहीं ।
सुबह मौसम ख़ुशगवार था फिर मा’लूम नहीं कब बादल छाए मतला’ अब्र आलूद हो गया। हवा के झोंके ने खिड़की का पट खट से खोल दिया तो मैंने गर्दन मोड़ कर देखना चाहा मगर उस वक़्त गुड़िया नींद या ग़नूदगी या बुख़ार में मुझे पुकार कर चीख़ी। मैंने हिला कर जगा दिया। पानी के दो चम्मच पिलाए, कुछ बात करना चाही। वो नीम-वा सी आँखों से मेरी तरफ़ देखती रही। मैं मुस्कुराई तो वो भी धीरे से मुस्कुराई। मैं उसका मुखड़ा देख रही थी। हरारत कुछ कम थी। मेरा दिल पुरसुकून होने लगा। अब शायद वो दूध पी लेगी। कुछ ताज़ा सी खूशबूएं महसूस हुईं तो मैंने नज़र उठा कर देखा कि हवाएं कमरे के अंदर चली आ रही थीं। मैंने पहली बार हवाओं को देखा था। पहली बार हवा की ख़ुशबू सूंघी थी। मुझे अपनी क़ुव्वत-ए-शामा और बासिरा पर यक़ीन नहीं हो रहा था। क्या हवा को देखा जा सकता है? हाँ हवा को देखा जा सकता है। जब वो बादलों के बेशुमार ख़ुर्दबीनी ज़र्रात पर सवार हो कर आए। और हवा को सूँघा भी जा सकता है... जब वो जंगल के अ’ज़ीम दरख़्तों के नोकीले पत्तों की सोंधी-सोंधी महक और रंग बिरंगे फूलों और हरी-हरी घास की नमी और ख़ुशबू अपने साथ लेकर चुपके से खिड़की से दाख़िल हो।
कुछ देर मैं इस जन्नत में गुम हो गई जो बग़ैर बताए कमरे में आकर मुझे सरशार कर गई।
मैंने दो तकीयों की मदद से गुड़िया को बिठा कर चारों तरफ़ से कम्बल ओढ़ा दिया। बाहर ज़ोरों की बारिश हो रही थी। एक मैना उड़ती आई और खिड़की पर बैठ कर गाने लगी। उसे तो बहाना चाहिए गाने का। बादल छाएँ तो गाएगी। बारिश बरसे तो गाएगी, बारिश थम जाये तो गाएगी। सूरज चढ़े तो गाएगी और डूबे तो भी। बल्कि सूरज चढ़ने से घंटों पहले मुँह अंधेरे गाने लगेगी और इसी तरह सूरज ग़ुरूब होने के घंटों बाद तक जब तक घुप्प अंधेरा न हो जाये और कुछ भी नज़र न आ सके, उस वक़्त तक गाती जाएगी। ऐसा भी देखा है कि बिजली कड़कती है और ये चहकती है और बादलों की ज़ोरदार खुरदुरी दहाड़ में भी इसका निहायत सुरीला नग़मा कानों में रस घोलता, गरज को चीरता हुआ सुनाई देता है। मैंने ऐसा ख़ुश-मिज़ाज परिंदा कभी नहीं देखा था। गाती हुई पहाड़ी मैना का नग़मा या उसकी पीली चोंच या फिर स्याही माइल नीले परों की कशिश थी कि गुड़िया उस का मह्वियत से मुशाहिदा करने लगी। मैंने उसकी इसी मह्वियत का फ़ायदा उठा कर उसे चार छः चम्मच दूध पिला दिया। और ख़ुद चाय के छोटे-छोटे घूँट भरते हुए मैना को देखने लगी। मेरा जी चाह रहा था कि खिड़की से बाहर देखते हुए चाय पियूँ । मगर मैना के उड़ जाने के डर से मैं वहीं गुड़िया के पास मसहरी पर बैठ गई। मेंह ज़ोरों का था। साथ ही मोटे-मोटे ओले भी पड़ रहे थे। मैना कहीं उड़ गई थी। मैंने खिड़की के क़रीब जा कर बारिश के क़तरों को हाथ में लेने के लिए हाथ फैला दिया। बड़ी मुश्किल से एक ओला मेरी हथेली पर रुका। अ’जीब सी ख़ुशी का एहसास हो रहा था। जैसे कि मैं हवा के दोश पर तैर रही हूँ या अपने लड़कपन में कहीं लौट आई हूँ... नहीं लौट आया चाहती हूँ कि दरवाज़े की दस्तक ने मुझे एहसास दिलाया कि मुझे तैरना नहीं आता। वो दोनों बाप बेटे अंदर दाख़िल हुए।
“बहुत मज़ा आया मामा। आप क्यों नहीं आईं हमारे साथ घूमने।” मन्नु मुझसे लिपटते हुए बोला।
“गुड़िया ठीक हो गई?” वो बोले।
“कुछ बेहतर तो है।” मैंने जवाब दिया।
“बहुत थक गए हम। ज़रा रुम सर्विस में चाय के लिए फ़ोन कर दीजिए।” वो बिस्तर पर दराज़ होते हुए बोले। वो वाक़ई थक गए थे कि इस तरह जूतों समेत बिस्तर पर लेटने का मतलब था कि मैं ही उनके जूतों के तस्मे खोलूं, मौज़े उतारुं।
जूतों मोज़ोंसे फ़ारिग़ हो कर मैंने मुन्ने को नहला दिया।
रात का खाना हम सबने नीचे डाइनिंग हाल में खाया। बाहर आए तो मैंने पहली बार आसमान की तरफ़ देखा था। आसमान पर बेशुमार तारे थे कि शहर के आलूदा आसमान पर तो बहुत थोड़े तारे हुआ करते हैं जो बहुत छोटे दिखाई देने वाले तारे होते हैं, वो मटमैले धुंए के गिलाफ़ के उस पार दिखाई ही नहीं देते। जो नज़र आते हैं वो भी मैले-मैले से और यहां कितना चमकदार आसमान... और एक दूसरा आसमान वो जो ज़मीन पर भी नज़र आ रहा था। रात को पहाड़ियों के ऊंचे नीचे मुक़ामात पर बने मकानात की बिजलियां दूर हवा से हलकोरे खाने वाले अनगिनत पत्तों के पीछे से यूं आँख-मिचोली कर रही थीं जैसे रंग बिरंगे सितारे टिमटिमा रहे हों। बहुत ही लुभावना मंज़र था। ये नज़ारा अगर शाम की सुरमई रोशनी में देखा जाये तो कितना ज़्यादा हुस्न समेट लेगा अपने अंदर। इस वक़्त तो नीला आसमान भी गहरा नीला दिखाई देता होगा। और पुरशिकोह दरख़्तों के इसरार भी वाज़िह होंगे। तब ये रोशनियां दूर से ऐसी लगती होंगी जैसे दरख़्तों की शाख़ों पर अनगिनत जुगनुओं के झुरमुटों ने डेरे डाले हों।
या उस अंधेरे में ऊंचे लंबे टीलों वाली पहाड़ियों पर यहां वहां जैसे बेशुमार दीये झिलमिला रहे होँ । दो दिन तो जाने कैसे गुज़र गए। कल शाम मैं ये मंज़र हरगिज़ ज़ाइल न होने दूँगी। सूरज को ग़ुरूब होता हुआ देखूँगी। इन तमाम परिंदों को पास के सभी दरख़्तों पर ग़ौर कर के तलाश करूँगी जो ये दिल चुराने वाली चहकार जगा कर हमें सुकून की वादीयों की सैर कराते हैं। अपने रूह-परवर नग़मे सुना कर मदहोश कर देते हैं कि हमें अपना आप हल्का फुलका महसूस होता है। सारे ग़म, सारे काम, सारी ज़िम्मेदारियों के एहसास पुरसुकून का एहसास हावी रहता है कि सुकून की अब मेरे नज़दीक वो अहमियत है कि मा’सूम ज़िंदगियों की बेशुमार जरूरतों की फ़िक्र न होती... तो जान के बदले ख़रीद लेती। और ये ख़ुश-रंग-ओ-ख़ुशगुलू परिंदे,बे-दाम मेरी झोली में ये दौलत डाल देते हैं कि ज़िंदगी कोई अच्छी चीज़ मा’लूम होने लगती है।
यूं भी नहीं कि ज़िंदगी मुझे हमेशा झेलनी पड़ती थी, बल्कि मैंने तो ज़िंदगी से ख़ूब-ख़ूब मुहब्बत की थी। ज़िंदगी मेरे लिए हंसी के न रुकने वाले फ़व्वारे, माँ बाप की नाज़ बर्दारियाँ ,नन्हे मुन्ने भतीजों के साथ इश्क़, भाईयों का लाड और भाबियों के साथ सैर सपाटे, शॉपिंग और फिल्मों के इ’लावा पेंसिल स्कैचिंग करना और... पढ़ाई करना तो ख़ैर था ही।
अब तो अख़बार तक की शक्ल देखे हफ़्तों गुज़र जाते हैं ।
वो भी ठीक ही कहते हैं ।
मुझे करना ही क्या है।कोई सोशल लाईफ़ तो मेरी है नहीं। न दोस्त न सहेली। जो अहबाब वग़ैरा हैं तो उन ही की तरफ़ से हैं। उनसे अगर कभी हमारे हाँ मुलाक़ात होती है तो मुझे फ़ुर्सत ही नहीं होती पास ठहरने की। और उनमें से किसी के हाँ वो सिर्फ़ ख़ुद ही जा पाते हैं। उन्हें इस बात से बड़ी कोफ़्त होती है कि वो दोस्तों से बात कर रहे हों और बीच में बच्चे के रोने की आवाज़ आ जाये या बच्चा ज़ोर से हंस पड़े। इसलिए मैं बच्चों को अपने पास ही रखती हूँ। बाहरी दरवाज़े की चाबी साथ नहीं ले जाते वो, उन्हें अच्छा नहीं लगता कि वो ख़ुद से दरवाज़ा खोल के अंदर दाख़िल हों और मैं सूई हूँ मिलूँ। मैं बैठे-बैठे ऊँघ भी जाऊं तो लेटती नहीं ताकि वो घर लौटें तो दरवाज़ा खोलूं। अब दोस्त के घर जाऐंगे या उनके साथ कहीं जाऐंगे तो ये आधी वाधी रात तो हो ही जाती है। थक भी जाते हैं। उनको कपड़ों की अलमारी के दरवाज़े पर लगे हैंडल पर हैंगर में टंगा शब ख़्वाबी का लिबास पकड़ाना होता है। मोज़े और क़मीज़ वग़ैरा कपड़े धोने की मशीन में डालना। और कुछ कपड़े उसी हैंगर पर डाल कर अलमारी में रख देना। जूते जो ये रैक के ठीक पास उतारते हैं उन्हें उठा कर क़रीने से रैक के अंदर रखना। घर में चार लोग हैं। और फिर मुझे ऐसा करना ही क्या होता है।
बहरहाल कल का दिन मेरे पास है। कल रात की गाड़ी से जाना है। मा’लूम नहीं वो और मन्नू कल कहाँ घूमने गए थे। आस-पास देखने लायक़ मुक़ाम तो होंगे। दिन में कुछ न कुछ तो देख ही सकती हूँ। नाशते से फ़ारिग़ होते ही मैं फ़ौरन पैकिंग कर लूँगी। मगर क्या मा’लूम वो कितने मसरूफ़ हों। उन्हें कहीं जाना हो। मैं कभी कोई प्रोग्राम बना नहीं पाती।
नाशते के बाद जब मैं पैकिंग करने लगी तो उन्होंने मश्वरा दिया कि ये जो प्लास्टिक की थैली में मैंने बच्चों के मैले कपड़े साथ उठा लिये हैं ,उन्हें यहां ही धो लूं। कहाँ मैले कपड़ों को उठाती फिरूँगी। ठीक ही कहते थे। अब मैं उनको ये कह कर परेशान तो न करती कि ये सूखेंगे नहीं शाम तक, और जब भी थैली में अलग से डालने पड़ेंगे।
ख़ैर मैंने पैकिंग का काम अधूरा छोड़ दिया और कपड़े धोने लग पड़ी। धोते-धोते जाने कब दोपहर हो गई। खाना खाने के बाद वो किसी तरफ़ निकल गए और मैं पैकिंग में लग गई। अटैची बड़ी मुश्किल से बंद हुई। असल में इसमें उनके मिलने वालों के लिए कुछ छोटे मोटे तहाइफ़ वग़ैरा थे। ये एक इज़ाफ़ा था। और बैग में भी भीगे कपड़ों ने एक बड़ी जगह घेर रखी थी। बच्चों को मैंने सफ़र के लिए चाक़-ओ-चौबंद बना दिया। ख़ुद भी तैयार हो गई। वो तो तैयार ही थे। सब सामान पैक हो चुका था बल्कि अपनी-अपनी जगह पर ठुंस चुका था। पाँच बजने वाले थे। शुक्र है सब कामों से निबट तो ली। उधर उधर न सही, आराम से बालकनी पर वो रिसाला देखूँगी जो तीन दिन पहले मैंने ख़रीदा था। इस के बाद ग़ुरूब-ए-आफ़ताब का नज़ारा फिर परिंदे...
इस ख़्याल से मैंने गुड़िया को उंगली पकड़ाई और उसे धीरे-धीरे चलाती हुई बालकनी में पहुंची ही थी कि नीचे सड़क पर वो आते हुए दिखाई दिये। मैं वापस कमरे में लौट आई। वो आते ही कहने लगे कि उनकी जीन्ज़ काफ़ी मैली लग रही है। और ये कि उन्हें जीन्ज़ में ही सफ़र करना अच्छा लगता है। इस लिए मैं ज़रा सा उसे धो लूँ। जीन्ज़ देखने में मैली तो नहीं लग रही थी, बस मोरियों पर ज़रा सी धूल मिट्टी थी जो ब्रश से ब-आसानी साफ़ हो सकती थी मगर वो बहुत सफ़ाई पसंद हैं, कह रहे थे कि मुझे भी गाड़ी का वक़्त होने तक कुछ करना तो है नहीं ज़रा सा उसे धो लूंगी और फिर ज़रा सा इस्त्री से सुखा भी दूँगी। इतना वक़्त है मेरे पास। मैंने प्रेस साथ रखी थी। वो एक-आध शिकन वाला लिबास भी नहीं पहन सकते।
मैंने निहायत मुश्किल से पैक की हुई अटैची खोल कर उन्हें दूसरी पतलून निकाल दी और जीन्ज़ धोने ग़ुस्ल-ख़ाने में घुस गई। डेनिम के मोटे सूती कपड़े की जीन्ज़ पानी में और भी भारी हो गई और मैं हत्तलइमकान इस वज़नी पैंट को उलट-पलट कर धोती गई। हाथों में लेकर रगड़ती गई। कपड़े धोने का ब्रश तो मेरे पास था नहीं, इस तरह और ज़्यादा साफ़ करने की कोशिश में मेरी उंगली का एक लंबा नाख़ुन आधा टूट गया। जाने कितना वक़्त लगा होगा मगर मैंने उसे आख़िरकार धो लिया। और अब उसे फैलाने से पहले झटकते हुए मेरा पूरा नाख़ुन ही उखड़ गया।
ख़ून की धार बह निकली। दर्द की लहर सी उठी। मैंने उंगली पर टिशु पेपर लपेट दिया। और वक़्त ज़ाए’ किए बग़ैर ग़ुस्ल-ख़ाने की खिड़की खोल दी।
अंधेरों को चीर कर आता हुआ सर्द हवा का एक अफ़्सुर्दा झोंका मेरे चेहरे से टकराया। न मा’लूम कब अंधेरा हो चुका था। सारे तुयूर आशियानों में जा छुपे थे। नीले पंखों और पीली चोंच वाली मैना भी ग़ायब थी। उंगली की टीस दिल में से होती हुई रूह में समा सी गई। थकी हुई नज़र मैंने आसमान की तरफ़ उठाई।
सितारा-ए-ज़हरा वसीअ’ उल-अर्ज़ आसमान पर अकेला लटक रहा था। दूर पहाड़ियों पर टंगी रोशनियां भी बरा-ए-नाम दिखाई दे रही थीं। हर तरफ़ धुंद ही धुंद थी।
थकी हारी सी मैं कमरे की तरफ़ पलटी, तो कमरे का मंज़र भी मुझे धुँदलाया सा लगा। ये मेरी आँखों को क्या हो गया है।
जीन्ज़ का इज़ाफ़ी पानी निचुड़ चुका होगा। मुझे उसे इस्त्री से सुखाना भी है वो बहुत नाज़ुक-मिज़ाज हैं। ज़रा सी भी Uncomfortable चीज़ उन्हें परेशान कर देती है।
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