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गुमशुदा लोग

मुबीन मिर्ज़ा

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मुबीन मिर्ज़ा

MORE BYमुबीन मिर्ज़ा

    मुसलसल शोर हो रहा था।

    आख़िर तंग आकर अंजली ने आँखें खोल दीं। साइड टेबल पर रखा अलार्म क्लाक बज रहा था। उसने हाथ बढ़ा कर उसकी कल दबाई और फिर अलकसाहट से हाथ वहीं छोड़ दिया। अलार्म क्लाक की ट्रिन... ट्रिन तो बंद हो गई लेकिन शोर अभी थमा नहीं था। आवाज़ें मुसलसल अंजली के सर में धमक रही थीं। वो औंधी लेटी उन आवाज़ों को समझने की कोशिश करती रही। हाथ वहीं अलार्म क्लाक पर धरा था। कुछ समझ में आया कि क्या है। बस इक शोर था, एक वावेला था, एक हंगामा था जो उसके सर में बरपा था।

    उकताहट के बढ़ते हुए एहसास ने आख़िर उसे उठने पर मजबूर कर दिया। उसने टुकड़ों में बिखरे जिस्म को इकट्ठा किया और उठकर बैठ गई। मसहरी के बाएँ तरफ़ रखे हुए ड्रेसिंग टेबल के शफ़्फ़ाफ़ आईने में उसे एक झाड़ झंकाड़ औरत का अक्स दिखाई दिया। अक्स पर नज़रें जमाए वो मसहरी से उतरी और आईने के सामने जा खड़ी हुई। ब्रश उठा कर बाल दुरुस्त किए तो आईने में से वो झाड़ झँकाड़ औरत यकलख़्त ग़ायब हो गई। अब वो ख़ुद अपने रूबरू थी। उसने सर से पाँव तक अपने सरापे को बग़ौर देखा, पहले सामने से और फिर घूम कर इस अक्सी बदन को टटोला। नाइटी के झोल को एक तरफ़ निकाल कर उसे जिस्म पर चुस्त किया तो अक्स के निस्वानी ख़ुतूत नुमायां हो गए। छत्तीस छब्बीस छत्तीस। अभी तक तो कुछ नहीं बिगड़ा, उसने ख़ुद से कहा। वो अभी पैंतीस की नहीं लगती थी। लम्बी नींद, फलों के इस्तेमाल और योगा की मश्क़ों ने अभी उसकी उम्र को रोका हुआ था। नैन नक़्श भी कुछ ऐसे हैं कि वो पच्चीस छब्बीस से ज़्यादा की दिखाई नहीं देती होगी, इस ख़्याल के साथ ही इत्मीनान और सुकून का एक साया उसके पूरे वजूद पर उतर आया, मगर ये इत्मीनान बहुत मुख़्तसर था। अगले ही लम्हे उसने सोचा, लेकिन कब तक? ये बनाव कसाओ आख़िर कब तक रहेगा? बस चंद बरस और... पाँच सात बरस... या शायद दस बरस पैंतालीस के बाद तो औरत वैसे भी धीरे धीरे पानी भरे मिट्टी के तोदे में तब्दील होती चली जाती है। बस इस गुमान के साथ ही सर में धमकती आवाज़ों ने चकरा देने वाले शोर का रूप धार लिया। तब उसने सर झटका जैसे इस शोर का मतलब उसे समझ आगया हो। इन्ही ख़्यालों और सवालों से उलझते हुए रात नजाने कब उसकी आँख लगी थी। जिस्मानी थकन और अलकसाहट को महसूस करते हुए उसने सोचा, यही ख़्यालात शायद उसे रात-भर ख़्वाब में भी सताते रहे हैं। सर में जो दुखन है वो भी इन्ही के कारन है। उसने चेहरा आईने के बिल्कुल क़रीब करके जाइज़ा लिया, क्या वाक़ई चेहरे की तरो ताज़गी अभी पूरी तरह बरक़रार है? आईने का जवाब इस्बात में था। उसकी नज़रें ख़ुद बख़ुद सामने की दीवार पर आवेज़ां कैलेंडर पर जा रुकीं। ये मार्च के महीने का आख़िरी दिन था। वो आहिस्ता-आहिस्ता चलती हुई खिड़की के सामने आई, ब्रोकेड के दबीज़ पर्दे की डोरी खींची, पर्दा सुरअत से एक तरफ़ सरकता चला गया। बहार की नर्म और रोशन सुबह पूरी तरह खिल चुकी थी। दीवारी घड़ियाल ने मुनादी की। अंजली ने पलट कर देखा, आठ बज रहे थे। जहाज़ लगभग नौ बजे लाहौर के एयरपोर्ट पर लैंड करेगा, इस का मतलब है वो साढे़ नौ बजे तक ज़रूर यहाँ पहुँच जाएगा, उसने सोचा, “यानी मुझे फ़ौरन शावर लेकर तैयार होजाना चाहिए।” उसने ख़ुद से बुलंद आवाज़ में कहा और फ़ौरन ही बाथरूम में जा घुसी।

    टन नन... टन नन... घड़ियाल ग्यारह बजे की मुनादी करके चुप हुआ तो अंजली ने कलाई पर बंधी घड़ी देखी। वो भी ग्यारह बजा रही थी। उसे लगा जैसे अंदेशों ने उस पर यकायक बोछाड़ कर दी। ऐसा तो कभी नहीं हुआ। वो तो साढे़ नौ तक ज़रूर पहुँच जाता है। अंजली साल भर से उसकी मेज़बानी कर रही थी। महीने का आख़िरी दिन वो उसके साथ गुज़ारता था... सुबह की पहली फ़्लाइट लेकर वो पहुँच जाता और फिर उसके साथ रहता... सुबह से रात तक और फिर रात से अगली सुबह तक। अगली सुबह वो पहली फ़्लाइट से लौट जाता। पहली ही मुलाक़ात में अंजली ने ख़ुद को उसकी तरफ़ खिंचता हुआ महसूस किया था। ये मुलाक़ात साल भर पहले एक बड़े अफ़सर की निजी महफ़िल में हुई थी। यही मार्च का महीना था। एक ख़ुशगवार शाम जब परिंदे अपने परवरदिगार की तमजीद कर रहे थे और सूरज मुंडेरों से नीचे उतर आया था, बड़े से लॉन में रंगीन छोलदारियों तले ये महफ़िल बरपा थी। रंग-बिरंगी ख़ुशबुओं और झिलमिलाते चेहरों के इस जमघट में अंजली ने उसे पहली बार देखा था। उसके बाएं हाथ की उंगलियों में सिगरेट दबा हुआ था और आँखों में दूधिया धूवाँ तैर रहा था। लेकिन अंजली उस शाम किसी और की मेज़बान थी, इसलिए हाथ मिलाने और मुस्कुराहटों का तबादला करने के बाद अंजली ने अपना कार्ड उसे दिया, उसने जल्द आने का कहा और मुलाक़ात ख़त्म हो गई। उसके बाद एक रोज़ अचानक उसका फ़ोन आगया। वो दो रोज़ बाद लाहौर पहुँच रहा था और अंजली से मेज़बानी का ख़्वाहिश-मंद था। वो आया, एक दिन उस के पास रुका और जाते हुए बोला, “अगले महीने के आख़िरी दिन फिर मुलाक़ात होगी... इसी तरह पूरे दिन के लिए।”

    “जी आयाँ नूँ... सर आँखों पर।” अंजली ने मुस्कुरा कर जवाब दिया।

    इसके बाद साल भर से ये मामूल जारी था... हर महीने का आख़िरी दिन वो अंजली के साथ गुज़ारता था। लेकिन आज वो कहाँ रह गया। आदमी का दिल भी तो भर जाता है। उसने पल भर के लिए सोचा। इस ख़्याल के साथ ही अनगिनत वस्वसों की तेज़ बोछाड़ अंजली के चेहरे पर पड़ी। उसने इंटरकॉम उठा कर रिसेप्शन पर राब्ता किया।

    “नहीं मैडम हमारे पास कोई इत्तिला नहीं है।” रिसेप्शन से जवाब मिला।

    “अच्छा, तुम ज़रा एयरपोर्ट फ़ोन करके फ़्लाट का कंफर्म करो और मुझे बताओ।” अंजली ने क़दरे झुँझलाहट के साथ कहा।

    फ़्लाइट तीन घंटे लेट थी।

    ये तीन घंटे अंजली ने कोफ़्त, बेचैनी और उदासी के मिले जुले एहसास और अनगिनत अंदेशों के साथ गुज़ारे। वो बार-बार इस ख़्याल को झटकने की कोशिश करती जो उसके ज़ेहन में जाने कहाँ से अचानक घुसा और अब कुंडली मारे बैठा था। इस ख़्याल से छुटकारा पाने की हर कोशिश बेसूद थी। उसने नीलम की ज़बान में ख़ुद को समझाने की कोशिश की, “देखो अंजली हर प्रोफ़ेशन की एक स्प्रिट होती है। हमारे प्रोफ़ेशन में मुहब्बत नहीं की जाती, सिर्फ़ मुहब्बत का इज़हार किया जाता है और ये इज़हार सचमुच की मुहब्बत से ज़्यादा रीयल होता है। यही हमारे प्रोफ़ेशन की स्प्रिट है।” अंजली ने नीलम की बात को हमेशा ध्यान से सुना था और उस पर अमल भी किया था। नीलम थी तो उसकी हमउम्र लेकिन इस काम में वो उस से पहले आई थी। वो बहुत कुछ जानती थी, अंजली को काम की बातें समझाती रहती थी लेकिन आज उसकी कोई बात अंजली के दिल पर असर नहीं कर रही थी। अंजली जानती थी, वो बीवी नहीं है लेकिन आने वाले का इंतज़ार वो इसी तरह कर रही थी जैसे कोई नई-नवेली दुल्हन अपने शौहर का करती है। बेचैनी और उदासी के गहरे साये रह-रह कर उसके दिल पर छाए जा रहे थे। एक ख़्याल था जो उसके पूरे वजूद में कुलबुला रहा था। छत्तीस छब्बीस छत्तीस... लेकिन आख़िर कब तक? मैं उससे कह देती हूँ, वो मान जाएगा... उसने अपनी ढारस बंधाते हुए सोचा लेकिन फिर ख़्याल आया, और अगर माना तो... क्या मुहब्बत उसे मजबूर कर सकेगी? कौन सी मुहब्बत? कैसी मुहब्बत? लेकिन मेरी इस फ़रमाइश पर कहीं वो बिदक जाये। अंजली का दिल मुसलसल नहीं और हाँ के दरमियान मुअल्लक़ था। इस तरफ़ होता था ना उस तरफ़। नीलम का हयूला बार-बार उसके सामने खड़ा होता, “अंजली जिन्हें बीवी बन कर घरों में राज करना होता है उन्हें तक़दीर धक्के देकर बाज़ार में नहीं लाती... वो घरों में ही रहती हैं। ऐसी लड़कियों का इश्क़ माशूक़ी का शौक़ भी घर में कज़नों के साथ पूरा होजाता है। लेटर बाज़ी, चुम्मे जब्भे सारी फ़ेसिलिटीज़ घर बैठे मिल जाती हैं। जो एक-बार बाहर आगई वो फिर हमेशा बाहर ही रहेगी, घर वर नहीं मिलता फिर उसे... और मिल जाये तो ज़्यादा दिन नहीं चलता। अंडे को किसी का हाथ लग जाये तो मुर्ग़ी के बैठने के क़ाबिल नहीं रहता। औरत भी अंडे की तरह होती है, एक-बार घर से बाहर जाए तो फिर किसी घर के क़ाबिल नहीं रहती। हमारे जैसी औरतों को घर वर के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। लाइफ़ ख़राब होजाती है। देखा है मैंने कइयों को।” नीलम की सारी तक़रीर अकारत चली जाती है। अंजली अगले ही लम्हे फिर सोचने लगती है कि आज वो अपने मन की बात आने वाले से कह ही देगी। वो अपनी ढारस बँधाती है, आने वाला उसकी बात मान लेगा। इसलिए कि वो पूरे एक साल से उसे देख रही है। वो उसकी कोई बात नहीं टालता। कितना ख़्याल रखता है उसका। जितने पैसे, जितने तोहफ़े वो एक दिन में उसे देकर जाता है उतने तो आज तक उसे किसी ने नहीं दिए। वो भी ज़रूर उससे मुहब्बत करता है... दिल से उसे चाहता है वरना... और फिर अंजली इस ख़्याल की उंगली थामे दूर निकल जाती है, बहुत दूर।

    दरवाज़ा एक नर्म आहट के साथ खुलता चला गया... अंजली जैसे ख़्वाब से चौंकी। मेहमान देवताओं की सी मुस्कुराहट चेहरे पर सजाये कमरे में दाख़िल हो रहा था। वो एकदम उठी जैसे उसके बे-जान जिस्म में बर्क़ी लहर दौड़ गई हो और दौड़ कर उससे लिपट गई। फिर जाने कहाँ से पानी उसकी आँखों में उमड़ता चला आया। वो चहको पहको रो रही थी।

    “अरे... अरे... ये क्या?” रईस ने उसकी पीठ सहलाई।

    ढारस बँधाने पर अंजली की रें रें और बढ़ गई।

    “अरे... अरे... भई हुआ क्या है? हैं... अच्छा देखो... भई कुछ बताओ तो सही।” रईस थपक थपककर, सहला सहला कर उसे चुप करा रहा था। लेकिन वो रोए चली जा रही थी। अंजली ने चुप होने की कोशिश की लेकिन उससे चुप हुआ ही नहीं जा रहा था। उसे ख़ुद समझ नहीं रहा था कि वो क्यों रोए जा रही है। ख़ुदा जाने कौन सा दुख था जिसने उस वक़्त ज़ाहिर होने के लिए आँखों का रस्ता देख लिया था। रईस उसे यूँही अपने से लगाए खड़ा रहा। देर बाद आँसू थमे तो उसने सुपुर्दगी की... पैवस्तगी की इस कैफ़ियत को महसूस किया जो धीरे धीरे उसके जिस्म पर रेंगती चली रही थी। अंजली को लगा, वो बरसों से... सदियों से रईस से जुड़ी खड़ी है। उसने सोचा, काश उसकी पूरी ज़िंदगी इसी तरह गुज़र जाये, उसी कैफ़ियत में... वाबस्तगी के इसी एहसास के साथ। रईस उसे थामे हुए बेड पर जा बैठा।

    “हाँ अब बोलो, कोई परेशानी है, कोई मसला है?”

    “ऊँ हूँ।” अंजली ने नफ़ी में गर्दन हिलाई।

    “फिर ये क्या था? मैं तो परेशान हो गया।”

    “और मैं जो सुबह से आँखें दरवाज़े पर लगाए बैठी हूँ... लग रहा था सदियों से यूँ ही बैठी हूँ।”

    “ओहो... अच्छा तो ये बात थी। भई इसमें मेरा तो कोई क़सूर नहीं था। जहाज़ लेट हो गया तो मैं क्या कर सकता था, मेरा बस चलता तो उड़ कर जाता।”

    “आप मुझे अपने पास ही रख लें... वरना इस तरह तो मैं घुल घुल के ख़त्म हो जाऊँगी।”

    “नहीं नहीं... तुम्हें कुछ नहीं होगा। जब तक मैं ज़िंदा हूँ तुम्हें बिल्कुल कुछ नहीं होगा।” रईस ने उसका हाथ अपने मज़बूत हाथों में थामा। ज़िंदगी की हलावत और गर्मी को अंजली ने अपने हाथ के ज़रिए बदन में सरायत करते महसूस किया।

    “चलो उठो, पहले लंच करते हैं और फिर कहीं घूमने चलेंगे। आज कहाँ लेकर चलोगी तुम मुझे?”

    “मैंने सोचा था आज शालामार बाग़ चलेंगे... लेकिन आधा दिन तो ऐसे ही गुज़र गया।”

    “तो क्या हुआ? बस लंच करते हैं और फ़ौरन चलते हैं शालामार बाग़ की तरफ़।”

    “लेकिन अब वक़्त कहाँ बचा है? पूरा बाग़ हम घूम भी नहीं पाएँगे।”

    “घूम लेंगे, घूम लेंगे, तुम फ़िक्र करो। जो वक़्त बचा है, हमें उसेavailकरना चाहिए। अंजली हासिल करदा लम्हात ज़िंदगी के सबसे क़ीमती लम्हात होते हैं। उन्हें समेट लेना चाहिए। ये दुनिया, ये ज़िंदगी, ये साथ, जो कुछ मिल जाये बस ग़नीमत है। चलो उठो, फ़ौरन चलते हैं, देर नहीं करते।” उसने सहारा देकर अंजली को उठाया।

    माल रोड पर वापडा हाउस के सामने से निकल कर वो चेयरिंग क्रास पर आकर ठहर गए। अंजली ने कलाई पर बंधी घड़ी पर नज़र डाली, रात का एक बज रहा था। दिन-भर के सैर सपाटे का ये आख़िरी मरहला था। सारा दिन लाहौर के किसी कोने में गुज़रे, रात को लौटते हुए, वो दोनों माल रोड से ज़रूर गुज़रते थे। पहली बार जब रईस आया था और रात को शेरपाओ ब्रिज के पास खाना खाने के बाद वो वापस कमरे की तरफ़ आरहे थे तो रईस ने गाड़ी को माल रोड के रस्ते पर डाल दिया। अंजली को हैरत हुई कि आधी रात को माल रोड पर उसे क्या मिलेगा। लेकिन रईस ने बताया कि लेना वेना कुछ नहीं, बस यूँही माल रोड से चलते हैं। रात को कमरे में वापसी माल रोड ही से होती थी। कभी कभी वो किसी फास्टफूड सेंटर के सामने रुक कर चाय, काफ़ी या बोतल पीते, कभी वैसे ही चेयरिंग क्रास, अलफ़लाह, रीगल या हाई कोर्ट की इमारत के सामने कुछ देर के लिए ठहर जाते। कई बार रात गए रईस के साथ माल का चक्कर लगाने के बाद अंजली ने सोचा था, माल रोड से वाबस्ता किसी याद की या किसी ख़्वाब की परछाईं है जो रईस के अंदर दौड़ती-फिरती है, इसीलिए वो जब भी लाहौर आता है, रात गए उस परछाईं को माल रोड पर छोड़ने ज़रूर आता है। कोई शैय है, जिसके कारन रईस यहाँ माल पर खिंचा चला आता है। अंजली, काश ऐसा हो जाए कि तुम्हारे प्यार का, तुम्हारे जिस्म का मक़नातीस उसे हर कशिश से आज़ाद कराके अपनी तरफ़ खींच ले, जज़्ब कर ले, सबसे छुड़ा के अपना बना ले। किसी ने उसके अंदर सरगोशी की।

    उस वक़्त उनकी गाड़ी असैंबली हाउस के मुक़ाबिल सर्विस रोड पर रुकी हुई थी। रईस गाड़ी के बॉनेट पर टिका हुआ था। उसकी नज़रें दूर कहीं गुम थीं। अंजली भी उतर कर उसके पास खड़ी हुई। माल रोड सुनसान था। वक़फ़े वक़फ़े से इक्का दुक्का गाड़ी गुज़रती। अलफ़लाह के गेट के साथ पान की दुकान बंद हो रही थी, पास ही एक ठेले वाला खड़ा अपने सामान पर तिरपाल डाल कर उसे डोरी से बांध रहा था। अल-फ़लाह बिल्डिंग के जालीदार मेन गेट के सामने की फुटपाथ पर कचरा चुनने वाले दो बच्चे अपनी बोरीयों को तकिए की तरह सर के नीचे रखे गठरी बने पड़े थे। उनके क़रीब ही भूरे रंग का एक मरियल सा कुत्ता बैठा हुआ ऊँघ रहा था। किसी गाड़ी के गुज़रने पर कुत्ता उलझन के साथ आँखें खोल कर देखता, फिर ख़तरा महसूस करते हुए फ़ौरन ही आँखें मूंद लेता। अंजली की निगाह जैसे उस जगह आकर ठहर सी गई। कचरा चुनने वाले उन बच्चों और ऊँघते कुत्ते से उसे अपनाइयत के रिश्ते का एहसास होने लगा। वो भी तो ज़िंदगी के गली कूचों, सड़कों और शाहराहों पर जीवन का, साँसों का कचरा चुनती थी और फिर यूँही आने वाले कल के लिए बेसुध हो कर जिस्म को डाल देती थी। जिस्म अगर बेहाल हो, बेसुध हो तो फुटपाथ में और मैट्रेस में कोई फ़र्क़ नहीं रहता। रग-रग में उतरी हुई थकन आँखों को बेख़्वाबी की मशक़्क़त में नहीं डालती, पूरा जिस्म नींद ओढ़ लेता है। अंजली की अपनी ज़िंदगी उन कचरा चुनने वाले बच्चों और उस कुत्ते से कितनी मुशाबहत रखती थी। उसके साथ भी तो यही होता है कि घड़ी की घड़ी इंसानी जिस्मों का कोई रसिया आता है, वो आँखें खोल कर देखती है, बिल्कुल सामने बैठे इस कुत्ते की तरह... आने वाला ख़रीदे हुए लम्हे गुज़ारता है और चला जाता है। वो आँखें मूंद लेती है। कितनी मुमासिलत है इस दुनिया के सारे बाशिंदों में, सब तरफ़ सब कुछ एक जैसा हो रहा है। अंजली ने सोचा और एक मानूस मगर बेनाम कोफ़्त महसूस की। उसकी नज़रें ख़ुद बख़ुद आगे की तरफ़ फिसलती चली गईं। दुकानों के लाल, नीले और हरे निऑन साइन जगमगा रहे थे। मस्जिद-ए-शोहदा के दाएँ तरफ़ रिक्शे बिल्कुल सीधी क़तारों में खड़े थे। रीगल के बग़ली दरवाज़े के साथ दही भल्ले की दुकान पर एक आदमी बाहर रखी कुर्सियाँ मेज़ें जल्दी-जल्दी उठा कर अंदर रख रहा था। आगे मेन गेट के सामने गुल-फ़रोश की दुकान के साथ एक बेंच पर दो कांस्टेबल बंदूक़ें थामे बैठे थे। एक के हाथ में टॉर्च थी जिसे वो थोड़ी-थोड़ी देर में जला बुझा रहा था। अंजली ने बग़ौर इस पूरे मंज़र का जाइज़ा लिया, फिर एक नज़र रईस पर डाली और सोचा, आख़िर ऐसी क्या चीज़ है जो इस आदमी को आधी रात को यहाँ ज़रूर खींच लाती है? उसे कहीं कोई ख़ास शैय नज़र आई। ये माल रोड उसकी सौत है, अंजली ने सोचा। फिर ख़ुद ही अपने ख़्याल के बेतुकेपन पर उसे हंसी आगई। कोई सड़क किसी औरत की सौत कैसे हो सकती है? उसने सर झटका।

    “क्या हुआ?” रईस उसके हँसने पर मुतवज्जा हुआ।

    “कुछ नहीं।” वो खिलखिला कर हँस दी।

    “मैं सोच रही थी... यूँही बस ख़्याल आया कि ये माल रोड मेरी सौत है, मेरे हिस्से का वक़्त भी ये उड़ा लेती है।”

    रईस हँस दिया।

    “चाय पियोगी?” उसने पूछा।

    “जैसे आपकी मर्ज़ी।” अंजली ने जवाब दिया।

    “पीनी है तो बताओ।”

    “रहने दें।” अंजली ने घड़ी देखते हुए कहा, “डेढ़ बज रहा है, बस अब चलते हैं।” आख़िर अपनी बात कहने का वक़्त उसे कब मिलेगा, उसने ख़ुद से कहा।

    टीवी पर जासूसी फ़िल्म रही थी, सोफ़े पर नीम दराज़ रईस उस फ़िल्म में मुनहमिक था। अंजली ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठी बालों में ब्रश फेर रही थी। तीन बजे का अमल था। इस बार अपनी बात कहने का वक़्त नहीं बचा, अंजली ने सोचा। ठीक है तो फिर अगली बार... लेकिन बिस्तर तक आते आते हर बार यही वक़्त होजाता है, अगली बार भी यही वक़्त हो जाएगा। बात उसे कर लेनी चाहिए। अंजली ने ख़ुद से कहा। वो इंतज़ार कर रही थी कि रईस उठकर बेड पर जाए लेकिन रईस टीवी में मसरूफ़ था। अजीब आदमी है ये। उसने सोचा। इतने पैसे ख़र्च करता है... जहाज़ का किराया, इस गेस्ट हाउस का बिल, अंजली के लिए क़ीमती तोहफ़े... ये सब कुछ सिर्फ़ एक बार की क़ुर्बत की क़ीमत है। उसने अपनी ज़िंदगी में आने वाले उन मर्दों को याद किया जो एक रात में कई कई बार अपनी ख़्वाहिश की गिनती पूरी करने उसके पास आते रहे थे और फिर हमदर्दी और मुहब्बत के साथ रईस की तरफ़ देखा, कैसी मासूम और मेहरबान रूह है इस शख़्स की। इसे तफ़ाख़ुर और तमानियत का एहसास भी हुआ कि वो अब तक इतनी दिलकश और हसीन थी कि कोई जवान और सेहत मंद मर्द उसकी एक-बार की क़ुरबत के लिए इतने बहुत सारे रुपये लुटा सकता है। लेकिन अगले ही लम्हे ये ख़ुशी मांद पड़ गई और उम्र के जल्द ढल जाने का ख़ौफ़ उसके अंदर सरसराता चला गया। उसने आईने में झाँका, रईस उसी तरह सोफ़े में धँसा हुआ टीवी देख रहा था। अंजली ड्रेसिंग टेबल के सामने से उठकर उसके पहलू में जा बैठी।

    “बड़े मज़े की फ़िल्म आरही है। ये दोनों यहाँ गोल्डन ऑर्क तलाश कर रहे हैं।” रईस ने उसे क़रीब करते हुए कहा।

    “सब लोग अपनी अपनी गोल्डन ऑर्क तलाश करते रहते हैं।” अंजली ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।

    “हाँ, वाक़ई ज़िंदगी में ऐसा ही होता है। हम सब किसी किसी तलाश में ही रहते हैं। किसी शैय की कमी का एहसास हमें सारी उम्र एक खोज में लगाए रखता है।” रईस उसे बाज़ुओं के हलक़े में ले चुका था।

    “हूँ।” अंजली ने उसकी गोद में सर रखकर लेटना चाहा लेकिन सोफ़े की तंगी आड़े आगई।

    “अब लेट जाओ।” रईस ने उठकर उसके लिए पहलू में जगह बनाई।

    “नहीं, आप अन इज़ी हो गए। वहाँ जाएँ बेड पर। टीवी का रुख इस तरफ़ कर लेते हैं।”

    “चलो।” रईस उसके साथ बेड पर गया।

    अंजली उसकी गोद में सर रखकर लेट गई। रईस की नज़रें टीवी की स्क्रीन पर थीं लेकिन उसका हाथ अंजली के बालों में कंघी कर रहा था, “बस end आगया है फ़िल्म का।” उसने अंजली की तरफ़ देखा और जैसे उसकी थकन का एहसास करते हुए कहा।

    वो आँखें मूँदे इस ख़्याल में खोई हुई थी कि उसे बात कहाँ से और कैसे शुरू करनी चाहिए? उसे यक़ीन था, रईस उसकी बात मान जाएगा, लेकिन एक अंदेशा भी था… शायद नहीं। इसी उधेड़बुन में उसने रईस का हाथ उठा कर अपने दिल पर रख लिया। उसे ख़ुद रईस की हथेली पर धक धक की धमक महसूस हो रही थी लेकिन धीरे धीरे ये धमक सीने पर तैरते मर्दाना हाथ के लम्स में तब्दील होती चली गई। हिद्दत और नशे का मिला-जुला एहसास था। अंजली ने आँखें खोलीं। रईस का ध्यान टीवी से हट चुका था। अपनी बात कहने का ये बिल्कुल ठीक वक़्त है, अंजली के अंदर जैसे सरगोशी हुई।

    “मैं अगर आपसे कुछ माँगूँ तो...” अंजली ने बेहद मुलाइम आवाज़ में कहा।

    “हाँ हाँ, क्यों नहीं? मैंने तो कई बार पूछा है तुमसे, तुमने आज तक कोई फ़रमाइश ही नहीं की।”

    “इसलिए नहीं की कि आप बग़ैर फ़रमाइश के ही इतना कुछ कर देते हैं। लेकिन अब जो मैं कह रही हूँ, वो बहुत ख़ास है... बहुत बड़ी फ़रमाइश है।”

    “तुम बताओ तो सही।”

    “आप... मुझे... यहाँ... से... इस जगह से... अपने... साथ... ले चलें।” अंजली ने मुश्किल से अपनी बात पूरी की।

    “तुम यहाँ ख़ुश नहीं हो, लाहौर में रहना नहीं चाहतीं?”

    “नहीं, मैं अब... सिर्फ़ आप... बस अब आपके साथ रहना चाहती हूँ... सबको छोड़कर... सारी दुनिया से अलग हो कर।”

    “मतलब... मम... मैं समझा नईं।” रईस ने गोमगो की कैफ़ियत में उसे देखा।

    “रईस... आप... आप मुझे अपना बना लें।”

    उसे लगा उसके सीने पर धरा रईस का हाथ जैसे खिसक कर शाने की तरफ़ बढ़ रहा है। अंजली की निगाहें रईस के चेहरे पर मर्कूज़ थीं। उसने ख़ाली ख़ाली नज़रों से अंजली की तरफ़ देखा, फिर नज़रें हटा लीं। एक फीकी सी मुस्कान उसके चेहरे पर आई, लम्बी साँस खींच कर लम्हे भर रुका, फिर धीरे धीरे बोला, “अंजली... तुमने वो फ़रमाइश कर दी... जो मैं पूरी नहीं कर सकता।”

    अंजली एक लम्हे के लिए साँस लेना भूल गई... कोई चीज़ जैसे उसके हलक़ में फँस गई। उसने बोलने के लिए अपनी सारी क़ुव्वत जमा की, “बस ये बात मान लें, उसके बाद मैं सारी उम्र कभी कोई फ़रमाइश नहीं करूँगी, कभी कुछ नहीं माँगूँगी।”

    “नहीं अंजली, वो कहो जो मैं नहीं कर सकता।”

    “आप कर सकते हैं... बहुत आसानी से... आप जो कुछ मुझे एक दिन में दे जाते हैं, मैं उस में पूरा महीना... पूरा साल गुज़ार लूँगी। आराम से, ख़ुशी से, आपके नाम पर, आपकी मुहब्बत के सहारे।” अंजली की आवाज़ भीग गई।

    “नहीं... नहीं अंजली।”

    “हाँ, हाँ मैं सच कह रही हूँ।” वो चहको पहको रोने लगी।

    “अच्छा... अच्छा सुनो, उठकर बैठो। मैं बताता हूँ, मेरी बात सुनो। मैं तुम्हें मसअला बताता हूँ।”

    अंजली ने उठकर टिशू पेपर से आँखें पोंछीं, नाक साफ़ की और सर झुका कर बैठ गई जैसे हारा हुआ सिपाही अपने ग़नीम के सामने बैठता है।

    “अंजली!” रईस ने बोलना शुरू किया, “देखो अंजली, तुम मेरी ज़िंदगी में आने वाली पहली औरत नहीं हो। मैं तुमसे पहले भी कुछ औरतों से मिल चुका हूँ। किसी से एक बार, किसी से दो बार, किसी से चार बार। लेकिन मैं झूट नहीं बोल रहा, यक़ीन करो, मैं अय्याश आदमी नहीं हूँ। औरतें और भी आसकती हैं मेरी ज़िंदगी में, लेकिन मैं अपने लिए किसी जिस्म का नहीं बल्कि एक रूह का मुतलाशी हूँ। ऐसी रूह का जो मेरे साथ किसी बंधन में बंधी हो, जिससे किसी रिश्ते, किसी तअल्लुक़ की बेड़ियाँ मेरे पाँव में पड़ी हों। उससे मेरा लातअल्लुक़ी का तअल्लुक़ हो। उससे मेरी दोस्ती हो... बेनाम दोस्ती, जो कुछ नहीं माँगती, कोई सवाल नहीं करती, किसी उलझन, किसी आज़माइश में नहीं डालती, किसी दो-राहे पर लेकर नहीं आती... जो सिर्फ़ अपनी ज़बान में बात करती है, दुनिया की ज़बान उसे आती ही नहीं। मैं जिस औरत से भी मिला हूँ, मैंने उसमें ऐसी ही रूह को तलाश किया है, ऐसे ही तअल्लुक़ को ढ़ूंडा है... लेकिन मायूसी हुई सबसे... हाँ तुमसे मिलकर लगा, मुझे तुम्हारी ही तलाश थी लेकिन नहीं... शायद... नहीं...” वो चुप हो गया।

    अंजली ख़ामोशी से सर नेहुड़ाए बैठी रही।

    “अंजली!” रईस फिर बोलने लगा, “मैं मालदार आदमी हूँ और एक लम्बा चौड़ा ख़ानदान है मेरा। माँ-बाप, भाई-बहन, बीवी-बच्चे... सब हैं। सब अच्छे हैं, बीवी भी अच्छी है। लेकिन अंजली हर रिश्ता अपनी जरूरतों और तक़ाज़ों के साथ बंधा रहता है... अपने मुतालिबात के साथ ज़िंदा रहता है। ज़रूरतें और तक़ाज़े हटा दिए जाएँ तो रिश्ता ख़त्म हो जाएगा। इसका मतलब है, असल चीज़ रिश्ता तो हुआ... असल चीज़ तो ज़रूरत हुई। अंजली मैं अपनी रूह में तन्हाई महसूस करता हूँ। इसी लिए, सिर्फ़ इसी लिए एक ऐसे रिश्ते का मुतलाशी हूँ जिसकी शनाख़्त उसकी जरूरतों और तक़ाज़ों के बग़ैर हो सके, लेकिन शायद ऐसा कोई रिश्ता इस दुनिया में कहीं भी मुम्किन नहीं है।” वो ख़ामोश हो गया।

    कमरे में होलनाक सन्नाटा गूँजने लगा।

    लम्हे भर ताम्मुल के बाद वो फिर बोला, “अंजली मुझे अफ़सोस है, इतने अर्से में तुमने एक फ़रमाइश की और मैं वो भी पूरी नहीं करसका। बात ये है कि मैं किसी नए चेहरे पर किसी पुराने रिश्ते का लेबल चस्पाँ करके बखेड़े में नहीं पड़ना चाहता। मैं तो ख़ुद अपनी एक बे-तुकी ख़्वाहिश की तकमील के चक्कर में हूँ। हो सके तो मेरी मजबूरी को महसूस करते हुए मुझे माफ़ कर देना।” रईस ने चंद लम्हे सुकूत किया, फिर इंटरकॉम पर रेिसेप्शन से राबिता किया, “मुझे एयरपोर्ट के लिए गाड़ी चाहिए। ठीक है, मैं दस मिनट में आता हूँ।” उस के बाद वो अपनी चीज़ें समेट कर बैग में रखने लगा। अंजली घुटनों में सर दिए बैठी रही। बैग बंद करके वो अंजली के पास आया,

    “ओके अंजली... बॉय!”

    यक-बारगी अंजली का जी चाहा कि वो उठकर रईस से लिपट जाये और फूट फूटकर रोए, उस से कहे कि तुम सिर्फ़ एक बे-नाम रिश्ते की तलाश में हो और मैं ऐसे ही बेनाम रिश्तों में जीवन बिता रही हूँ, लेकिन दुखी हूँ, बे-चैन हूँ, मैं एक ऐसे रिश्ते की तलाश में हूँ जिसे मैं शनाख़्त कर सकूँ, जिसके ज़रिए अपनी शनाख़्त हासिल कर सकूँ, दुनिया के सामने, दुनिया की ज़बान में... लेकिन उसे अपना वो फ़िक़रा याद आया जो उसने अभी थोड़ी देर पहले मज़ाक़ में रईस से कहा था, सब लोग अपनी अपनी गोल्डन ऑर्क की तलाश में लगे रहते हैं। उसने सोचा, रईस और वो दोनों गुमशुदा अफ़राद हैं और दोनों किसी अपने की तलाश में हैं। दो गुमशुदा लोग जिनके सफ़र की सम्तें भी अलग-अलग हों, एक दूसरे के लिए क्या कर सकते हैं... वो तो शायद एक दूसरे की हिम्मत भी नहीं बंधा सकते। रईस उसके पास ही खड़ा था। अंजली ने डबडबाती आँखों से पलभर के लिए उसकी तरफ़ देखा और बहुत मुलाइम से “बॉय” कह कर फिर घुटनों में सर दे लिया।

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