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गुंबद के कबूतर

शौकत हयात

गुंबद के कबूतर

शौकत हयात

MORE BYशौकत हयात

    स्टोरीलाइन

    विभाजन और हिजरत से दोचार एक मुहाजिर की कहानी। वह अपनी जड़ों को पीछे छोड़ आया था और यहाँ इस छोटे से फ़्लैट में आ बसा था। इस कॉलोनी में अधिकतर मुहाजिर परिवार ही बसे हुए थे। हर किसी का एक-दूसरे से मिलना जुलना था। मगर हर कोई अपने अंदर एक ख़ालीपन लिए घूमता रहता था। वह भी अपने इसी ख़ालीपन से जूझ रहा था। इससे बचने के लिए उसने फ़्लैट की बालकोनी में कुछ पौधे लगवा लिए थे। वह कुर्सी पर बैठा आसमान को घूरता रहता, जिस पर बेशुमार कबूतर घूम रहे होते, जो कभी-कभी सुस्ताने के लिए पास के गुंबद पर जा बैठते। वह उन कबूतरों को देखता और जब उसे अपने हालात का एहसास होता तो वह फ़्लैट से निकलता और अपने किसी पड़ोसी के पास मिलने के लिए निकल पड़ता।

    बे-ठिकाना कबूतरों का ग़ोल आसमान में परवाज़ कर रहा था।

    मुतवातिर उड़ता जा रहा था। ऊपर से नीचे आता। बे-ताबी और बेचैनी से अपना आशियाना ढूँढता और फिर पुराने गुंबद को अपनी जगह से ग़ाइब देखकर मायूसी के आ’लम में आसमान की उड़ जाता।

    उड़ते-उड़ते उनके बाज़ू शल हो गए। जिस्म का सारा लहू आँखों में सिमट आया। बस एक उबाल की देर थी कि चारों तरफ़...

    लेकिन ये पड़ोसियों के बच्चे भी कम बदमाश नहीं। मुर्ग़ियों के डरबे में आदमी रहने पर मजबूर हो जाएँ और मुर्ग़ियाँ वसीअ’’-ओ-अ’रीज़ हाल में चहल-क़दमी करने की सआ’दत हासिल कर लें तो कई बातों पर नए सिरे से ग़ौर करना होता है... लेकिन बच्चे तो बच्चे ठहरे। अपार्टमेंट के बच्चे हों या आ’म क़स्बाती गलियों और झोंपड़-पट्टियों के बच्चे...

    बच्चे भी इतने बे-हंगम होते हैं... इतना शोर मचाते हैं... सारे फ़्लैट को सर पर उठा लेते हैं, लेकिन सर पर उठाने के लिए शहर के सबसे बड़े अपार्टमेंट का सबसे छोटा वन बेडरूम यूनिट या’नी उसका फ़्लैट ही था जिसमें खेल-कूद की सबसे कम गुंजाइश थी। कारपेट एरिया के नाम पर चंद इंसानों के साँस लेने के लिए जिस्म के हिलने-डुलने भर की जगह दी गई थी। चारों तरफ़ से बंद डरबे में। बस एक छोटी सी बालकनी ही राहत पहुँचाती थी, जिसके बड़े हिस्से में मुतअ’द्दिद गमले सजे हुए थे। गमलों में अन्वा’-ओ-अक़्साम के फूलों के पौदे लगे हुए थे। गुलाब, चम्बेली, ज़िन्निया, क्रोटन और... जीने की आरज़ू के इस्तिआ’रे...

    दिन-भर का थका-माँदा, हाँपते काँपते बग़ैर लिफ़्ट के अपार्टमेंट की चौथी मंज़िल पर पहुँच कर वो अपने फ़्लैट की काल बेल बजाता, बद-हवासी पूरे वजूद पर तारी होती।

    बच्चे पैरों से लिपटते काँधों पर चढ़ने की कोशिश करते।

    “तुम लोग अब तक कल्चर्ड नहीं हो सके। दूसरे बच्चों को देखो... सीखो कुछ उनसे... किस तरह होने की तरह होते हैं। यही तो उनकी शनाख़्त है...”

    लेकिन छोटी सी बालकनी में आकर बैठ जाओ... गर्म-गर्म चाय की एक प्याली मिल जाए और बच्चे ख़ामोश और मसरूफ़ हों तो मा’लूम होता कि ज़िंदगी में किसी और चीज़ की ज़रूरत नहीं। जन्नत में इससे ज़ियादा लुत्फ़ आएगा भला... सारी तकान दूर हो जाती।

    अपार्टमेंट के कैम्पस में बड़े पीपल के दरख़्त को बिल्डर ने अपनी जगह सालिम छोड़ दिया था। उसकी एक शाख़ उसकी बालकनी तक फैली हुई थी। सीमेंट के इस पहाड़ के साथ पीपल के दरख़्त का कोलाज जदीद मुसव्विरी के शाहकार नमूने की तरह दिखाई देता था।

    गोरय्यों का झुंड चहचहाता हुआ अपार्टमेंट की इस बालकनी में मंडलाता रहता और ज़िंदगी की ख़ूबसूरती के गीत गाता। एक नटखट गिलहरी तेज़ी से आती और शरारत भरी आँखों से उसे घूरती हुई पीपल के दरख़्त की टहनी के रास्ते पेड़ पर वापिस चल देती। हवाओं की ख़ुनकी में सूरज की सुनहरी किरनों की गर्मी मन पसंद दिलरुबा और सीम-तन की गर्मी से ज़ाइक़ा-दार हम-आमेज़ी का लुत्फ़ देती।

    “ज़िंदगी इतनी सफ़्फ़ाक बन...

    सब कुछ दाँव पर लगा कर तुझे हासिल किया है या हनूज़...

    तुझे पाने की जुस्तजू में हूँ...”

    वो धीमे-धीमे सुर में गुनगुनाता।

    व्हिस्की और बीअर को मिला दो तो उसकी तल्ख़ी दिमाग़ को झुनझुनाता हुआ लुत्फ़ अ’ता करती है। सारा वजूद हल्का हो कर आसमान में उड़ने लगता है। ऊपर से देखने पर ज़मीन पर चलने वाले लोग कितने बौने नज़र आने लगते हैं।

    हवाएँ तेज़ चलने लगीं। पीपल के पत्ते हिलने लगे। पीपलियाँ टूट कर गिर रही थीं। गौरय्यों की चहचहाहट मा’मूल से मुख़्तलिफ़ समाअ’ती पैकर इख़्तियार कर रही थी।

    बग़ल वाला पड़ोसी कह रहा था, इस बार पिछले साल वाला उबाल नहीं। दिन ख़ैरियत से कट जाएगा। मौसम ठीक है। जीने की चाहत क़ाएम है... आप भी मज़े से रहिए।

    “नौ प्राब्लम...”

    “अपार्टमेंट के तमाम बच्चों को मेरे ही फ़्लैट में मजमा’ लगाना था। इनकी कोई कान्फ़्रैंस है क्या। टू बेडरूम और थ्री बेडरूम के बड़े-बड़े फ़्लैट छोड़कर वन बेडरूम फ़्लैट में इनका जमाव... हर जगह बड़ी मछली छोटी मछली को निगल रही है। लेकिन तमाम छोटी मछलियाँ मिलकर बड़ी मछली का रूप धारन कर लें तो...”

    टेलीविज़न आन था। प्राईवेट चैनल के प्रोग्राम चल रहे थे। दूधिया स्क्रीन पर तारीख़ की तवील सदियाँ लम्हों की नोक पर ख़ुद-ब-ख़ुद आख़री हिचकी ले रही थीं।

    “कोई तो समझाए इन बच्चों को जाकर... ना-गुफ़्ता-ब-हालात में क्या आसमान सर पर उठा लेने का इरादा है... गलियों, फूलों और तुलसी की पत्तियों, मेरे गमलों पर कोई ज़र्ब जाए... बड़ी मेहनत से उन्हें सींचा है... अजी सुनती हो... ज़रा देखो... अच्छा छोड़ो... शरीफ़ आदमी को तो मरना ही पड़ता है... कुछ मत कहो... बच्चे तो बच्चे ही में... पड़ोसियों के बच्चे... हम कहेंगे भी तो किस हद तक जाएँगे...”

    बग़ल वाले फ़्लैट के यंगमैन आफ़ सिक्सटी टू सेन दादा के साथ बाहर निकलने से पहले उसने बीवी से बुदबुदाते हुए कहा। फिर उनके साथ चहल-क़दमी करते हुए दूर तक निकल गया। दादा बोल रहे थे।

    “हाँ साहब, घबराने की बात नहीं... सब कुछ नॉर्मल ढंग से हो रहा है। इज़्तिरारी चीज़ें ज़ियादा दिनों तक क़ाएम नहीं रहतीं। अम्न-ओ-इस्तिक़ामत की राह अपना कर रही हम और आप चैन और सुख की ज़िंदगी गुज़ार सकते हैं... मैं तो पिछले साल के मुक़ाबले में बड़ी तबदीली महसूस कर रहा हूँ। रावी चैन और राहत की साँसें लिखता है!”

    पुराने ज़माने के सेन दादा उसके साथ होते तो उर्दू के सक़ील अल्फ़ाज़ कुछ ज़ियादा ही इस्ति’माल करते थे।

    सड़क पर गाड़ियाँ मा’मूल के मुताबिक़ चल रही थीं। छुट्टी के दिन चहल-पहल की जो कमी आ’म तौर पर देखी जाती है, वो इस रोज़ भी थी।

    पड़ोसी ने सिगरेट का लंबा कश लिया, “अरे साहब, क्यों सोगवारी का मूड तारी किए हुए हैं। मैं समझ सकता हूँ आप अपनी बालकनी अपने पौदों और गमलों के तहफ़्फ़ुज़ के लिए बेचैन हैं... कुछ नहीं होगा। आपके सारे गमले ख़ैरियत से रहेंगे। अब दोस्तों से मिलने चल रहे हैं तो यूँ उदास नज़र आना छोड़िए... इंज्वाय कीजिए... देखिए गोल-गोल गुंबदों की गोलाई और नोकीले उभार... उफ़... सामने के पुर-कशिश मंज़र से जिस्म में अजब तरंग पैदा हो रही है... ज़रा देखिए आप भी...”

    “इस उ’म्र में दादा आप...”

    उसने जुमला अधूरा छोड़ दिया। उसका दिल दूसरे गुंबदों में उलझा हुआ हौलनाक कैफ़ियात से गुज़र रहा था। सेन दादा नर्म-ओ-गुदाज़ जिस्मानी गुंबदों में टामक-टोइयाँ मारते हुए चटख़ारे मार रहे थे।

    “उ’म्र की क्या बात करते हो... हमेशा ख़ुद को जवान समझो... देखना और देखते हुए इन रंगीन तस्वीरों में डूब जाना और बार-बार डूबना उभरना...”

    सेन दादा ने फिर कहा, “यंग मैन, तुम जवानी में बूढ़ा हो गया... ज़रा नज़र तो उठा...”

    सेन दादा ने उसके शाने पर अपनी उँगलियों की गिरफ़्त सख़्त की।

    आगे तीन क़यामतें फ़ाख़्ताओं की चाल चलती हुई गपशप में मसरूफ़ थीं।

    “सेन दादा आप इन फ़ाख़्ताओं में उलझे हुए हैं। ज़रा ऊपर देखिए बे-ठिकाना कबूतरों का ग़ोल मुस्तक़िल आसमान में चक्कर काट रहा है। अपने मुस्तक़र के बेद-र्दी और बरबरियत के साथ मिस्मार करके ग़ाइब कर दिए जाने के बा’द कैसी बेघरी और बे-अमानी झेल रहा है। आप इन कबूतरों की आँखें देख रहे हैं... इनमें उतरता ख़ून, बेचारगी और कुछ कर गुज़रने की तड़पती हुई आरज़ूएँ महसूस कर रहे हैं...”

    सेन दादा अपनी धुन में मगन थे। आसमान की तरफ़ नज़र उठाने की क्या ज़रूरत थी। उनके पास तो पूरी ज़मीन थी और ज़मीन पर आसमानी जल्वे मौजूद थे। वो उन सिन-रसीदा लोगों में थे जिनकी आँखों ने बीवियों के मर जाने के बा’द शहवत के शरारे फूटते हैं।

    उसे याद गया कि एक रोज़ जब गार्ड ने इत्तिला दी कि अपार्टमेंट के नीचे एक साँप नज़र आया है तो सब पर वहशत तारी हो गई थी। पूरे अपार्टमेंट में रैड अलर्ट कर दिया गया था। लोग रात-भर सो नहीं पाए। इधर-उधर से माँग कर डंडे और लाठियाँ जमा’ कर ली गईं। खिड़की दरवाज़े सब के सब मुक़फ़्फ़ल थे। आँखें पहरे दे रही थीं। लेकिन हर-आन ये डर था कि रोशनी गुल हो गई या आँखें लग गईं तो पता नहीं साँप किसको डस ले।

    उसे तो बस इस बात की फ़िक्र थी कि उसकी बालकनी में आने वाली गिलहरी और गौरय्यों का झुंड मुतवह्हिश हो जाए। कहीं साँप उन्हें डस ले। मबादा उसके रंग-ब-रंग फूलों वाले गमलों, गिलहरी और गौरय्यों से जो कोलाझ बनता है, उस पर सियाह बादल मंडलाने लगें।

    वो चुप-चाप एक लोहे की छड़ लेकर अपनी बालकनी में जाकर बैठ गया। बालकनी में गौरय्यों ने छोटा सा घोंसला बना रखा था। चूँ-चूँ की आवाज़ें रंगीन रौशन फव्वारों की तरह फूट रही थीं। उसने इत्मीनान की गहरी साँस ली। उसके एक हाथ में तीन सेल वाली टार्च थी। उसकी बीवी बक-बक करती रही। उसे बुरा-भला कहती रही। बालकनी से हटने की हिदायत देती रही। उसने तरह-तरह से उसे साँप के ज़हर से डराने की कोशिश की लेकिन उसने एक सुनी, आख़िर-कार उसे कहना पड़ा कि अगर बहुत डर लग रहा है तो बालकनी के दरवाज़ा अंदर से बंद कर ले। वो गौरय्यों के घोंसले की हिफ़ाज़त पर मा’मूर रहेगा। बहुत देर तक उसकी बीवी बच्चे मिन्नत-समाजत करते रहे। उसे ख़ब्ती और बे-वक़ूफ़ क़रार देते रहे। लेकिन उसने गौरय्यों की नन्ही सी जानों से ला-परवाई के लिए ख़ुद को किसी क़ीमत पर आमादा नहीं किया।

    किसी फ़्लैट में साँप नहीं मिला। तमाम कोने खदरे झाड़े गए। बुक्स और कपबोर्ड की छान-फटक की गई। बच्चे तो बच्चे ही ठहरे कुछ देर तक साँप का चक्कर उन्हें दिलचस्प तमाशे की तरह लगा। बड़ों के कामों में वो पूरी तन-दही के साथ हाथ बटाते रहे। बा’द-अज़ाँ सब के सब थक कर जहाँ-तहाँ सो गए। बड़े बूढ़े रात-भर जागते रहे और बिल-आख़िर सुब्ह होने पर सब के सब इस नतीजे पर पहुँचे कि ये एक अफ़्वाह थी जो उन्हें रात-भर परेशानियों में मुब्तला रखने के लिए उड़ाई गई थी। तफ़तीश की गई कि सबसे पहले ये ख़बर किसने उड़ाई थी। आख़िर-कार अपार्टमेंट का गार्ड शक के घेरे में गया। सब उसकी करतूत है। मुहाफ़िज़त की ज़िम्मेदारी में घपला कर रहा है।

    सुब्ह की नर्म-ओ-नाज़ुक हवाओं के साथ तितलियाँ उड़ती हुई फूलों की तरफ़ आईं। भँवरे फूलों का चक्कर काटने लगे। घोंसले से गौरय्यों के झुंड ने दाना चुगने के लिए उड़ान भरी। सूरज की नर्म कच्ची किरनों ने उसकी बालकनी को गले लगाया तो उसे महसूस हुआ कि जीने के जवाज़ अभी ख़त्म नहीं हुए।

    “दादा मेरा दिल नहीं लग रहा है... अब वापिस चलें... मा’लूम मेरे फूलों का क्या हश्र हुआ होगा। बच्चों की भीड़ के इरादे नेक नहीं मा’लूम होते...”

    “तुम ख़्वाह-मख़ाह वहमी हो गए। किसी किसी फ़्लैट में सब बराबर इकट्ठा होते हैं। इस बार तुम्हारे फ़्लैट की बारी है। आख़िर तुम्हारे बच्चे भी तो उनमें शामिल हैं... घबराने की क्या बात है...”

    “दादा... मेरा दिल जाने क्यों घबरा रहा है... ये बे-अमाँ कबूतरों का उड़ता हुआ ग़ोल दिमाग़ में अ’जीब क़िस्म की वहशत पैदा कर रहा है। इनकी जा-ए-अमाँ इनसे छिन गई। गुंबदों की बुलंदी धूल चाट रही है। ये कबूतर अब कहाँ जाएँ दादा... इन्हें कहाँ आसरा मिलेगा...?”

    “तुम यंग मैन... पाज़िटिव हो कर सोचो तो हर जगह ठिकाना ही ठिकाना है... गुंबद, पहाड़ों की सफ़्फ़ाक चोटियाँ, पथरीले ग़ार और घने जंगल के दरख़्तों की डालियाँ... मौसमों के सर्द-ओ-गर्म झेलने के लिए तैयार रहो... यार... यार, अपनी खाल थोड़ी खरी-खरी बनाओ...”

    हर तरफ़ अंदर ही अंदर मुख़्तलिफ़ आहटें थीं...।

    कहीं फुलझड़ियाँ छूट रही थीं, कहीं शहनाई पर मातमी धुन बज रही थी। एक मुद्दत के बा’द वो अ’जीब-ओ-ग़रीब लम्हा एक नुक़्ते पर मुंजमिद हो गया था, जहाँ से ब-यक-वक़्त ख़ुशियों और ग़म के धारे फूट रहे थे ब-ज़ाहिर चारों तरफ़ सरासीमगी और गहरा सन्नाटा था जो आने वाले बड़े तूफ़ान का नक़ीब मा’लूम हो रहा था।

    सेन दादा दोनों जज़्बों से यकसर बे-नियाज़ थे। उन पर शहवानी जज़्बात हावी थे।

    जिन दोस्तों के यहाँ जा रहे थे, उनकी औ’रतों को ललचाई हुई नज़रों से देख रहे थे। कई जगहों से होते हुए वो दोनों मिस्टर थॉमसन के घर पहुँचे। मिस्टर थॉमसन मेहमान-नवाज़ इंसान थे। उन्होंने झट नई बोतल निकाल ली। गिलास सामने रख दिए। उनके घर की नौजवान ख़ादिमा मिस रेज़ा बड़ी फुर्ती से हर काम में हाथ बटा रही थी।

    झटपट उसने फ़रीज में रखे हुए गोश्त के क़त्ले किए और उन्हें फ्राई कर के उनके आगे रख दिया। गर्म गोश्त से उठी हुई भाप से सेन दादा के जिस्म में सनसनी की लहर दौड़ गई। मिस्टर थॉमसन पहले ही से शग़्ल में मसरूफ़ थे। उनका नशा आसमान को छू रहा था। सेन दादा भी मस्त हो रहे थे। उनसे बर्दाश्त हुआ। उन्होंने नीम बिरिश्त काजू की प्लेट लाती हुई मिस रेज़ा की नंगी गर्म पिंडली पर अपनी लरज़ती हुई उँगलियाँ रख दीं। उसने बड़े प्यार से सेन दादा के हाथ को अपने हाथ में लेकर अ’क़ीदत भरा बोसा दिया और उनका पैग बनाकर गिलास उनके होंटों से लगा दिया। एक लम्हे के लिए उनकी मुद्दत की प्यास बुझ गई। दिल को क़रार गया। दूसरे ही लम्हे उनकी तड़प और शिद्दत इख़्तियार कर गई। शिरयानों में ख़ून का दबाव बढ़ गया... उनकी उँगलियाँ एक-बार फिर मिस रेज़ा की बरहना पिंडली को छूती हुई उसकी सुडौल जांघों की तरफ़ रेंगने लगीं।

    मिस रेज़ा कुछ देर मबहूत रही। कोई तअस्सुर उसके चेहरे पर नहीं था। उसने कोई तअ’र्रुज़ नहीं किया। उनकी उँगलियाँ और आगे बढ़ने लगीं।

    मिस रेज़ा की आँखों में आँसू डबडबाने लगे।

    दर-अस्ल मिस रेज़ा सेन दादा को देखकर माज़ी की वादियों में खो गई थी। उसे अपना बचपन याद आने लगा था।

    “माई लौंग डियर रेज़ा...।

    लाईफ़ इज़ एन एंडलेस स्काई...।

    यू हैव टू गो लांग वे... वेरी लांग...”

    उसके मुशफ़िक़ बाप की आँखों में कैसे-कैसे ख़्वाब थे। वो बाप से लिपट गई... नन्हे-नन्हे पैरों से उसके कंधों पर चढ़ गई... मिस्टर सेन के चेहरे की उसके बाप से मुशाबहत ने उसे चश्मज़दन में उनके क़रीब कर दिया था... बा’द-अज़ाँ उसके बाप ने ताबूत में सुकूनत इख़्तियार कर ली। हवाओं के दोश पर उड़ती हुई पत्ती की तरह कई जगहों से हो कर उसे थॉमसन के हाँ आसरा मिला था जो इस इ’लाक़े में बड़ा इ’ज़्ज़त-दार शख़्स गर्दाना जाता था... यहाँ उसे बहुत दबाव और जब्र में हँसते और ख़ुश दिखते हुए ख़ुद को थॉमसन के हवाले करना था।

    उसके लिए कोई और रास्ता भी था... कई दरवाज़े उसने बदले थे। हर दरवाज़े पर ज़बानें लपलपाते, सुर्ख़ आँखों वाले हैवान मौजूद थे, राल टपकाते। फिर मिस्टर थॉमसन क्या बुरे थे। साफ़ सुथरे ख़ुश्बूदार इंसान। उनके लम्स में कम-अज़-कम उसे जमालियाती तौर पर किसी कराहियत का एहसास होता था...।

    सेन दादा मिस रेज़ा की इन कैफ़ियात से बे-ख़बर सरशारी और लज़्ज़त-याबी की अपनी दुनिया में महव थे। वफ़ूर-ए-जज़्बात से उनकी पलकें मुंदने लगी थीं... मिस रेज़ा चाहते हुए भी उनके नज़दीक खड़ी थी। नशे की हालत में मिस्टर थॉमसन ने सेन दादा के इरादे को भाँप लिया था। वो एक दरिया-दिल इंसान थे। शराब-ओ-कबाब में तो दूसरों की शिरकत पसंद करते थे, लेकिन और किसी निजी चीज़ में उन्हें किसी की हिस्सेदारी मंज़ूर थी।

    उन्होंने ख़शमगीं निगाहों से मिस रेज़ा की तरफ़ देखा। मिस रेज़ा जिसकी आँखों में सेन दादा के लिए हम-दर्दी उमँड आई थी, थॉमसन की ये कैफ़ियत देखकर सिटपिटा गई और ख़ाली प्लेट उठाकर आँसू पोंछती हुई किचन की तरफ़ बढ़ गई। फिर वो नज़र आई। यहाँ तक कि ज़रूरत पड़ने पर मिस्टर थॉमसन को उसे चीख़ कर बुलाना पड़ा।

    उसने सोचा, उसके और मिस रेज़ा के दुख में किसका दुख बड़ा है। गुटरगूँ करते हुए कबूतरों का ग़ोल उसके सर पर मंडलाने लगा। उसने हामी भरी। उससे बड़ा ग़म तो इन बे-अमान कबूतरों का है, जिन्हें अब सारी उ’म्र, हिजरत का अ’ज़ाब झेलना है... कई नस्लों से वो उन गुंबदों के बाशिंदे थे... लेकिन अब...

    उसे सेन दादा और मिस्टर थॉमसन की मय-नोशी पर ग़ुस्सा आने लगा। सेन दादा बोलते हैं यंग मैन ग़म भुलाओ... इंज्वाय करो... ऐसे हालात में भला कोई इंज्वाय कर सकता है...

    अंदरून-ए-ख़ाना से बर्तनों के गिरने की आवाज़ रही थी।

    मुतवह्हिश सी रेज़ा दौड़ती हुई आई।

    “अंकल... एक कबूतर घर के अंदर दाख़िल हो गया है... बग़ल वाले पड़ोसी की बिल्ली उस पर झपटना चाह रही थी... कबूतर किचन में बर्तनों के बीच छिप गया है। बड़ी मुश्किल से मैंने बिल्ली को भगाया और किचन का दरवाज़ा बंद कर के रही हूँ...”

    उसका कलेजा धक से हो कर रह गया। उसने सेन दादा की आँखों में झाँका फिर थॉमसन को देखा। नशे की चमक होने के बा-वजूद उनकी आँखों में कबूतर के बारे में सुनकर सरासीमगी पैदा हो गई थी। दोनों के सर झुक गए। जैसे कोई उफ़्ताद पड़ी हो।

    उसी वक़्त बाहर के दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी, “मिस्टर थॉमसन... मिस्टर थॉमसन...”

    उदास और सरासीमा रेज़ा ने दरवाज़ा खोला।

    पड़ोसी मिस्टर जान खड़े थे।

    “मिस रेज़ा... मिस्टर थॉमसन को बुलाओ।”

    “क्या है भाई...”, मिस्टर थॉमसन नशे में झूमते हुए भारी-भारी क़दमों से बाहर आए।

    “मेरा कबूतर आपके यहाँ गया है... आप जानते हैं मेरी मदर-इन-ला पुरानी मरीज़ हैं... आजकल उनके हाथों में सनसनाहट रहती है। डाक्टरों ने कबूतर का सूप तजवीज़ किया है... उसे ज़ब्ह कर ही रहा था कि उड़ कर आपके यहाँ आया...“

    “हाँ...हाँ... मेरे यहाँ आकर छिप गया है... अभी अभी मिस रेज़ा ने मुझे रिपोर्ट दी है... एक बिल्ली भी है जो उसकी जान की दुश्मन बनी हुई है... मिस रेज़ा जाओ इनका कबूतर इन्हें वापिस कर दो... आईए... आप ड्राइंगरूम में बैठें मिस्टर जान... कुछ हो जाएगी जब तक...”

    “ओ नो थैंक्स... मैं सिर्फ़ वीक ऐंड में लेता हूँ... दूसरे रोज़ छुट्टी रहती है... सवेरे उठने का चक्कर नहीं होता... कम्बख़्त को लेने से मुझे नींद बहुत आती है...”

    हज़ार अंदरूनी शिकस्त-ओ-रेख़्त से गुज़रने के बा’द नाचार मिस रेज़ा कबूतर को पकड़ ले आई थी... लेकिन उसने देखा कि उसके पूरे वजूद पर कपकपाहट तारी थी। ... मिस्टर थॉमसन ने उसकी आवाज़ों को सुना... बहुत दिनों से वो उसे ख़ुद से इसी तरह की बातें कहते हुए सुन रहा था... ख़ामोश निगाहों से वो बुदबुदा थी।

    लड़ नहीं सकता तो भाग जा ना-मुराद... उड़ जा... बस्तियों से दूर वसीअ’ आसमानों और जंगलों की तरफ़ भाग...

    लेकिन सहमा हुआ कबूतर उसकी हथेलियों में सिकुड़ता-सिमटता छिपने की कोशिश में मसरूफ़ था... और जब मिस्टर जान ने थैंक यू... थैंक यू... कहते हुए उसे पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो मिस रेज़ा के अंदरून से किसी ने उछाल लगाई।

    इस मंज़र-नामे में उसकी समझ में आया कि किस में लर्ज़िश ज़ियादा थी... कबूतर या मिस रेज़ा में... या वो ख़ुद ज़ियादा लरज़ रहा था... ये कबूतर कहीं... अचानक उसे ख़याल आया।

    बे-अमाँ कबूतर... शायद उनमें से एक बूढ़ी औ’रत के हाथों को हरारत पहुँचाने के लिए मज़बह का असीर हो गया।

    मिस रेज़ा ने हथेलियाँ ढीली कर दीं। उसके अंदर किसी ने उछल कर जैसे उसके हाथों को झटका दिया।

    लड़ नहीं सकते तो कम अज़-कम-भाग तो सकते हो... हाय ना-मुराद... तूने ये सलाहियत भी खो दी...।

    कबूतर उड़ा और रौशन-दान पर जाकर बैठ गया।

    मिस्टर थॉमसन ने एक तमांचा उसके गाल पर जड़ दिया। वो बेहद ग़ुस्से में थे। मिस रेज़ा पर सकता तारी हो गया... थॉमसन ने टेबल पर स्टूल रखकर उसे पकड़ने का हुक्म दिया। इस कोशिश में स्टूल खिसकने से मिस रेज़ा गिरी... उसे शदीद चोटें आईं... सेन दादा उसे उठाने के लिए आगे बढ़े लेकिन तब तक मिस्टर थॉमसन ने बढ़कर उसे उठा लिया था... उनके सीने से लगी हुई मिस रेज़ा काँप रही थी।

    वो दोनों उठ गए।

    “इजाज़त हो मिस्टर थॉमसन... आपकी महफ़िल में बड़ा लुत्फ़ आया...”

    “लेकिन ये साहिब तो इतने सोगवार हैं कि इन्होंने कोई मज़ा लिया...”

    सेन दादा ने बड़े प्यार से उसके शानों पर हाथ रख दिया। वैसे कनखियों से वो मुस्तक़िल काँपती हुई मिस रेज़ा को देखे जा रहे थे।

    “इसकी उदासी बर-हक़ है... लेकिन मेरा कहना है कि ख़्वाह-मख़ाह उदास होने का फ़ाइदा क्या है... कोई रास्ता निकलता तो ठीक था... आपके पास लाया था कि अंगूर की बेटी के साथ शग़्ल करेगा तो बहल जाएगा... लेकिन यहाँ कबूतर और बिल्ली का तमाशा देखकर ये और भी उदास हो गया... कोई बात नहीं... अपनी-अपनी क़िस्मत है... आपने बड़ी फ़य्याज़ी दिखाई... इस गर्मा-गर्म मुहब्बत का शुक्रिया...”

    रुख़्सत होने से क़ब्ल उन्होंने मिस रेज़ा को भरपूर निगाहों से देखा जो इस मुतवह्हिश अंदाज़ में भी बला की हसीन लग रही थी...

    “बाई-बाई रेज़ा... बाई मिस्टर थॉमसन... गुड नाइट...”

    उस रोज़ कई दोस्तों के हाँ दोनों गए थे। सबने उस रोज़ के अहम-तरीन वाक़िए’ पर बातचीत करने से गुरेज़ किया था। लोग दिल ही दिल में या तो रो रहे थे या हँस रहे थे। अ’जीब बेबसी और दिली-ख़ुशी की कैफ़ियतें थीं। जिनसे मुख़्तलिफ़ लोग अपने अपने हिसाब से गुज़र रहे थे। लेकिन तमाम कैफ़ियात और बे-नियाज़ी के बा-वजूद एक सवाल सबको कुरेद रहा था।

    “अब क्या होगा... आइंदा क्या होने वाला है...?”

    वो ऊब गया था। थॉमसन के हाँ उसने भी मय-नोशी की। लेकिन उसे नशा आना तो दूर, हल्का सुरूर तक हुआ। रह-रह कर उसे अपने गमले के पौदों, बालकनी और बच्चों के इजतिमा’ का ख़याल रहा था। एक अ’जीब तशवीश में वो तमाम वक़्त मुब्तला रहा।

    इस इ’लाक़े के तमाम दोस्तों के हाँ सेन दादा ने जी भर कर इंज्वात करने के बा’द वापसी का इरादा किया। उनके क़दम लड़खड़ा रहे थे। गुलाबी नशा पूरे वजूद पर तारी था। रेज़ा की लम्हाती क़ुर्बत ने उन्हें अ’जीब कैफ़-ओ-सुरूर से सरशार कर रखा था। फिर अभी इतना होश उन्हें था कि हम-सफ़र की चारा-जूई करनी है। उसे अपने फूलों, पौदों और गमलों की सालिमियत के तअ’ल्लुक़ से, ढारस बँधानी है। रास्ते भर उनका अंदाज़ा पुचकारने और दुलारने वाला रहा।

    “घबराओ नहीं बच्चे... सब ठीक हो जाएगा।”

    गेट पर अपार्टमट के गार्ड ने उनके दाख़िल होने के लिए रस्ता छोड़ दिया। चारों तरफ़ ख़ामोशी थी। अपार्टमेंट की सीढ़ियों पर उसने सेन दादा को सहारा दिया होता तो वो टकरा कर गिर पड़ते। तीसरी मंज़िल पर बा-दिक़्क़त-ए-तमाम उसने दादा की जेब से उनके फ़्लैट की चाबी निकाल कर उनका एंटर लॉक खोला। उनके फ़्लैट के अंदर दाख़िल हुआ। ये यक़ीन हो जाने के बा’द कि दादा ने अंदर से चटख़्नी लगा ली है, वो अपने फ़्लैट की जानिब रवाना हुआ। ऊपर की मंज़िल की सीढ़ियाँ तय करते हुए उसके क़दम काँप रहे थे। दिल एक अनजाने ख़ौफ़ से लरज़ रहा था।

    काल बेल बजाने पर बीवी ने दरवाज़ा खोला तो उसकी आँखें सूजी हुई लगीं। जैसे बहुत देर से रोती रही हो।

    “क्या हाल है। मेरे फूलों का...?”

    “ख़ुद देख लो जाकर...”

    बच्चे अपने बिस्तरों में गहरी नींद में मुब्तला थे। सब के चेहरों पर ऐसी अज़ीयतें जैसे कोई बहुत डरावना और तकलीफ़-दह ख़्वाब देख रहे हों... आख़िर वही हुआ जिसका डर था... उसके जिस्म में काटो तो लहू नहीं। बालकनी खुलते ही वहाँ के टूटे-फूटे मुंतशिर हाल-ए-ज़ार ने उसे अपनी गिरफ़्त में ले लिया। नुचे हुए फूल, मोज़ाइक के फ़र्श पर मसली-कुचली बिखरी हुई फूलों की पंखुड़ियाँ, टूटे-फूटे गमले... गमलों की मिट्टियों के जा-ब-जा ढेर... गौरय्यों के घोंसलों के मुंतशिर तिनके... गौरय्यों का कोई पता नहीं था... गिलहरी, तितलियाँ और भँवरे तो अब एक मुद्दत तक दिखाई नहीं देंगे... उसकी बालकनी का सारा हुस्न मालिया-मेट हो चुका था।

    आख़िर बच्चों ने अपने खेल में मेरा सब कुछ... इससे उसका अंदेशा सही निकला था। उस दिन अपार्टमेंट में घुसे साँप को चंद बच्चों ने अपने क़ब्ज़े में ले लिया था और उससे खेलने के ख़तरनाक अ’मल के आदी हो गए थे। इसीलिए तो बच्चे इतने ज़हरीले और वहशी हो गए थे।

    आसमान में गुंबद के ख़ून-आलूद कबूतरों का ग़ोल मुस्तक़िल जा-ए-अमाँ की तलाश और कुछ कर गुज़रने के जुनून में चक्कर काट था।

    बीवी से उसकी निगाहें मिलीं तो उसे अचानक एहसास हुआ कि घर में मय्यत पड़ी है और बाहर कर्फ़्यू में उसकी तदफ़ीन एक संगीन मसअला है।

    स्रोत:

    Gumbad Ke Kabootar (Pg. 72)

    • लेखक: शौकत हयात
      • प्रकाशक: शौकत हयात
      • प्रकाशन वर्ष: 2010

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