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फ़रिश्ता

सआदत हसन मंटो

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सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    "ज़िंदगी की आज़माईशों से परेशान शख़्स की नफ़्सियाती कैफ़ियत पर मब्नी कहानी। मौत के बिस्तर पर पड़ा अता-उल-अल्लाह अपने परिवार की मजबूरियों को देखकर परेशान हो जाता है और अर्धमूर्च्छित अवस्था में देखता है कि उसने सबको मार डाला है यानी जो काम वो अस्ल में नहीं कर सकता उसे ख़्वाब में अंजाम देता है।"

    सुर्ख़ खुरदरे कम्बल में अताउल्लाह ने बड़ी मुश्किल से करवट बदली और अपनी मुंदी हुई आँखें आहिस्ता आहिस्ता खोलीं। कुहरे की दबीज़ चादर में कई चीज़ें लिपटी हुई थीं जिनके सही ख़द्द-ओ-ख़ाल नज़र नहीं आते थे। एक लंबा, बहुत ही लंबा, ख़त्म होने वाला दालान था या शायद कमरा था जिस में धुँदली धुँदली रौशनी फैली हुई थी। ऐसी रौशनी जो जगह जगह मैली हो रही थी।

    दूर बहुत दूर, जहां शायद कमरा या दालान ख़त्म हो सकता था, एक बहुत बड़ा बुत था जिसका दराज़-क़द छत को फाड़ता हुआ बाहर निकल गया था। अताउल्लाह को उसका सिर्फ़ निचला हिस्सा नज़र रहा था जो बहुत पुर-हैबत था। उसने सोचा कि शायद ये मौत का देवता है जो अपनी हौलनाक शक्ल दिखाने से क़सदन गुरेज़ कर रहा है।

    अताउल्लाह ने होंट गोल करके और ज़बान पीछे खींच कर उस पुर-हैबत बुत की तरफ़ देखा और सीटी बजाई, बिल्कुल उस तरह जिस तरह कुत्ते को बुलाने के लिए बजाई जाती है। सीटी का बजना था कि उस कमरे या दालान की धुँदली फ़िज़ा में अनगिनत दुमें लहराने लगीं। लहराते लहराते ये सब बहुत बड़े शीशे के मर्तबान में जमा हो गईं जो ग़ालिबन स्पिरिट से भरा हुआ था।

    आहिस्ता आहिस्ता ये मर्तबान फ़िज़ा में बग़ैर किसी सहारे के तैरता, डोलता उसकी आँखों के पास पहुंच गया। अब वो एक छोटा सा मर्तबान था जिसमें स्पिरिट के अंदर उसका दिल डुबकियां लगा रहा था और धड़कने की ना-काम कोशिश कर रहा था।

    अताउल्लाह के हलक़ से दबी दबी चीख़ निकली। उस मुक़ाम पर जहां उसका दिल हुआ करता था, उस ने अपना लरज़ता हुआ हाथ रखा और बेहोश हो गया।

    मालूम नहीं कितनी देर के बाद उसे होश आया मगर जब उसने आँखें खोलीं तो कुहरा ग़ायब था। वो देव हैकल बुत भी। उसका सारा जिस्म पसीने में शराबोर था और बर्फ़ की तरह ठंडा। मगर उस मुक़ाम पर जहां उसका दिल था, एक आग सी लगी हुई थी... उस आग में कई चीज़ें जल रही थीं, बे-शुमार चीज़ें। उसकी बीवी और बच्चों की हड्डियां तो चटख़ रही थीं, मगर उसके गोश्त पोस्त और उस की हड्डियों पर कोई असर नहीं हो रहा था। झुलसा देने वाली तपिश में भी वो यख़-बस्ता था।

    उसने एक दम अपने बर्फ़ीले हाथों से अपनी ज़र्द-रु बीवी और सूखे के मारे हुए बच्चों को उठाया और फेंक दिया। अब आग के उस अलाव में अर्ज़ियों के पुलिंदे के पुलिंदे जल रहे थे... हर ज़बान में लिखी हुई अर्ज़ियां। उनपर उसके अपने हाथ से किए हुए दस्तख़त, सब जल रहे थे, आवाज़ पैदा किए बग़ैर।

    आग के शोलों के पीछे उसे अपना चेहरा नज़र आया। पसीने से... सर्द पसीने से तरबतर। उसने आग का एक शोला पकड़ा और उससे अपने माथे का पसीने पोंछ कर एक तरफ़ फेंक दिया। अलाव में गिरते ही ये शोला भीगे हुए इस्फ़ंज की तरफ़ रोने लगा... अताउल्लाह को उसकी ये हालत देख कर बहुत तरस आया।

    अर्ज़ियां जलती रहीं और अताउल्लाह देखता रहा। थोड़ी देर के बाद उसकी ज़र्द-रू बीवी नुमूदार हुई। उसके हाथ में गुँधे हुए आटे का थाल था। जल्दी जल्दी उसने पेड़े बनाए और आग में डालना शुरू कर दिए जो आँख झपकने की देर में कोयले बन कर सुलगने लगे। उन्हें देख कर अताउल्लाह के पेट में ज़ोर का दर्द उठा। झपटा मार कर उसने थाल में से आख़िरी पेड़ा उठाया और मुँह में डाल लिया। लेकिन आटा ख़ुश्क था, रेत की तरह। उसका सांस रुकने लगा और वो फिर बेहोश हो गया।

    अब उस ने एक बेजोड़ ख़्वाब देखना शुरू किया। एक बहुत बड़ी महराब थी जिस पर जली हुरूफ़ में ये शे’र लिखा था;

    रोज़-ए-मह्शर कि जां-गुदाज़ बुवद

    अव्वलीं पुर्सिश नमाज़ बुवद

    वो फ़ौरन पथरीले फ़र्श पर सजदे में गिर पड़ा। नमाज़ बख़्शवाने के लिए दुआ माँगना चाही मगर भूक उसके मेअ’दे को इस बुरी तरह डसने लगी कि बिलबिला उठा। इतने में किसी ने बड़ी बारोब आवाज़ में पुकारा,

    “अताउल्लाह!”

    अताउल्लाह खड़ा हो गया... महराबों के पीछे... बहुत पीछे, ऊंचे मिंबर पर एक शख़्स खड़ा था। मादर-ज़ाद बरहना, उसके होंट साकित थे मगर आवाज़ रही थी।

    “अताउल्लाह! तुम क्यों ज़िंदा हो? आदमी सिर्फ़ उस वक़्त तक ज़िंदा रहता है जब तक उसे कोई सहारा हो... हमें बताओ, कोई ऐसा सहारा है जिसका तुम्हें सहारा हो? तुम बीमार हो... तुम्हारी बीवी आज नहीं तो कल बीमार हो जाएगी। वो जिनका कोई सहारा नहीं होता, बीमार होते हैं... ज़िंदा दरगोर होते हैं। उसका सहारा तुम हो जो बड़ी तेज़ी से ख़त्म हो रहा है... तुम्हारे बच्चे भी ख़त्म हो रहे हैं... कितने अफ़सोस की बात है कि तुम ने ख़ुद अपने आपको ख़त्म नहीं किया। अपने बच्चों और अपनी बीवी को ख़त्म नहीं किया... क्या इस ख़ातमे के लिए भी तुम्हें किसी सहारे की ज़रूरत है?

    तुम रहम-ओ-करम के तालिब हो... बेवक़ूफ़! कौन तुम पर रहम करेगा। मौत को क्या पड़ी है कि वो तुम्हें मुसीबतों से नजात दिलाए। उसके लिए ये मुसीबत क्या कम है कि वो मौत है... किस किस को आए... एक सिर्फ़ तुम अताउल्लाह नहीं हो, तुम ऐसे लाखों अताउल्लाह इस भरी दुनिया में मौजूद हैं... जाओ, अपनी मुसीबतों का ईलाज ख़ुद करो। दो मरियल बच्चों और एक फ़ाक़ाज़दा बीवी को हलाक करना कोई मुश्किल काम नहीं है। इस बोझ से हल्के हो जाओ तो मौत शर्मसार हो कर ख़ुद-ब-ख़ुद तुम्हारे पास चली आएगी।”

    अताउल्लाह ग़ुस्से से थरथर काँपने लगा, “तुम... तुम सबसे बड़े ज़ालिम हो... बताओ, तुम कौन हो? इससे पेशतर कि मैं अपनी बीवी और बच्चों को हलाक करूं, मैं तुम्हारा ख़ातमा कर देना चाहता हूँ।”

    मादरज़ाद बरहना शख़्स ने क़हक़हा लगाया और कहा, “मैं अताउल्लाह हूँ... ग़ौर से देखो... क्या तुम अपने आपको भी नहीं पहचानते?”

    अताउल्लाह ने उस नंग धड़ंग आदमी की तरफ़ देखा और उसकी गर्दन झुक गई... वो ख़ुद ही था, बग़ैर लिबास के। उसका ख़ून खौलने लगा। फ़र्श में से उसने अपने बढ़े हुए नाखुनों से खुरच खुरच कर एक पत्थर निकाला और तान कर मिंबर की तरफ़ देखा... उसका सर चकरा गया। माथे पर हाथ रखा तो उसमें से लहू निकल रहा था। वो भागा... पथरीले सहन को उ’बूर कर के जब बाहर निकला तो हुजूम ने उसे घेर लिया। हुजूम का हर फ़र्द अताउल्लाह था जिसका माथा लहूलुहान था।

    बड़ी मुश्किलों से हुजूम को चीर कर वो बाहर निकला। एक तंग-ओ-तारीक सड़क पर देर तक चलता रहा। उसके दोनों किनारों पर हशीश और थोहर के पौदे उगे हुए थे। उनमें कहीं कहीं दूसरी ज़हरीली बूटियां भी जमी थीं। अताउल्लाह ने जेब से बोतल निकाल कर थोहर का अ’र्क़ जमा किया। फिर ज़हरीली बूटियों के पत्ते तोड़ कर उसमें डाले और उन्हें हिलाता हिलाता उस मोड़ पर पहुंच गया जहां से कुछ फ़ासले पर उसका मकान था... शिकस्ता ईंटों का ढेर।

    टाट का बोसीदा पर्दा हटा कर वो अंदर दाख़िल हुआ... सामने ताक़ में मिट्टी के तेल की कुप्पी से काफ़ी रौशनी निकल रही थी। उस मटियाली रौशनी में उसने देखा कि झिलंगी पलंगड़ी पर उसके दोनों मरियल बच्चे मरे पड़े हैं।

    अताउल्लाह को बहुत ना-उम्मीदी हुई। बोतल जेब में रख कर जब वो पलंगड़ी के पास गया तो उसने देखा कि वो फटी पुरानी गुदड़ी जो उसके बच्चों पर पड़ी है, आहिस्ता आहिस्ता हिल रही है। अताउल्लाह बहुत ख़ुश हुआ... वो ज़िंदा थे। बोतल जेब से निकाल कर वो फ़र्श पर बैठ गया।

    दोनों लड़के थे। एक चार बरस, दूसरा पाँच का... दोनों भूके थे।

    दोनों हड्डियों का ढांचा थे। गुदड़ी एक तरफ़ हटा कर जब अताउल्लाह ने उनको ग़ौर से देखा तो उसे तअ’ज्जुब हुआ कि इतने छोटे बच्चे इतनी सूखी हड्डियों पर इतनी देर से कैसे ज़िंदा हैं। उसने ज़हर की शीशी एक तरफ़ रख दी और उंगलियों से एक बच्चे की गर्दन टटोलते टटोलते... एक ख़फ़ीफ़ सा झटका दिया। हल्की सी तड़ाख़ हुई और उस बच्चे की गर्दन एक तरफ़ लटक गई। अताउल्लाह बहुत ख़ुश हुआ कि इतनी जल्दी और इतनी आसानी से काम तमाम हो गया। इसी ख़ुशी में उसने अपनी बीवी को पुकारा, “जीनां! जीनां... इधर आओ। देखो मैंने कितनी सफ़ाई से रहीम को मार डाला है... कोई तकलीफ़ नहीं हुई इसको।”

    उसने इधर-उधर देखा, “ज़ैनब कहाँ है?... मालूम नहीं कहाँ चली गई है? शायद बच्चों के लिए किसी से खाना मांगने गई हो... या हसपताल में उसकी ख़ैरियत दरयाफ़्त करने... अताउल्लाह हंसा... मगर उसकी हंसी फ़ौरन दब गई, जब दूसरे बच्चे ने करवट बदली और अपने मुर्दा भाई को बुलाना शुरू किया, “रहीम... रहीम।”

    वो बोला तो उसने अपने बाप की तरफ़ देखा। हड्डियों की छोटी छोटी सियाह प्यालों में उसकी आँखें चमकीं, “अब्बा... तुम गए।”

    अताउल्लाह ने हौले से कहा, “हाँ करीम, मैं गया।”

    करीम ने अपने इस्तख़वानी हाथ से रहीम को झिंझोड़ा, “उठो रहीम... अब्बा गए हस्पताल से।”

    अताउल्लाह ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया, “ख़ामोश रहो... वो सो गया है।”

    करीम ने अपने बाप का हाथ हटाया, “कैसे सो गया है... हम दोनों ने अभी तक कुछ खाया नहीं।”

    “तुम जाग रहे थे?”

    “हाँ अब्बा।”

    “सो जाओगे अभी तुम।”

    “कैसे?”

    “मैं सुलाता हूँ तुम्हें। ये कह कर अताउल्लाह ने अपनी सख़्त उंगलियां करीम की गर्दन पर रखीं और उसको मरोड़ दिया। मगर तड़ाख़ की आवाज़ पैदा हुई।

    करीम को बहुत दर्द हुआ, “ये आप क्या कर रहे हैं।”

    “कुछ नहीं।” अताउल्लाह हैरतज़दा था कि उसका ये दूसरा लड़का इतना सख़्त जान क्यों है?

    “क्या तुम सोना नहीं चाहते?”

    करीम ने अपनी गर्दन सहलाते हुए जवाब दिया, “सोना चाहता हूँ... कुछ खाने को दे दो... सो जाऊंगा।”

    अताउल्लाह ने ज़हर की शीशी उठाई, “पहले ये दवा पी लो।”

    “अच्छा।” करीम ने अपना मुँह खोल दिया।

    अताउल्लाह ने सारी शीशी उसके हलक़ में उंडेल दी और इत्मिनान का सांस लिया, “अब तुम गहरी नींद सो जाओगे।”

    करीम ने अपने बाप का हाथ पकड़ा और कहा, “अब्बा... अब कुछ खाने को दो।”

    अताउल्लाह को बहुत कोफ़्त हुई, “तुम मरते क्यों नहीं?”

    करीम ये सुन कर सिटपिटा सा गया, “क्या अब्बा”

    “तुम मरते क्यों नहीं... मेरा मतलब है, अगर तुम मर जाओगे तो नींद भी जाएगी तुम्हें।”

    करीम की समझ में आया कि उसका बाप क्या कह रहा है, “मारता तो अल्लाह मियां है अब्बा।”

    अब अताउल्लाह की समझ में आया कि वो क्या कहे, “मारा करता था कभी... अब उसने ये काम छोड़ दिया है... चलो उठो।”

    पलंगड़ी पर करीम थोड़ा सा उठा तो अताउल्लाह ने उसे अपनी गोद में ले लिया और सोचने लगा कि वो अल्लाह मियां कैसे बने। टाट का पर्दा हटा कर जब बाहर गली में निकला, उसे यूं महसूस हुआ जैसे आसमान उसपर झुका हुआ है। उसमें जा-ब-जा मिट्टी के तेल की कुप्पियां जल रही थीं। अल्लाह मियां ख़ुदा जाने कहाँ था... और ज़ैनब भी... मालूम नहीं वो कहाँ चली गई थी।

    कहीं से कुछ मांगने गई होगी... अताउल्लाह हँसने लगा। लेकिन फ़ौरन उसे ख़याल आया कि उसे अल्लाह मियां बनना था... सामने मोरी के पास बहुत से पत्थर पड़े थे। उन पर वो अगर करीम को दे मारे तो...

    मगर उसमें इतनी ताक़त नहीं थी। करीम उसकी गोद में था। उसने कोशिश की कि उसे अपने बाज़ूओं में उठाए और सर से ऊपर ले जा कर पत्थरों पर पटक दे, मगर उसकी ताक़त जवाब दे गई। उसने कुछ सोचा और अपनी बीवी को आवाज़ दी, “जीनां... जीनां।”

    ज़ैनब मालूम नहीं कहाँ है... कहीं वो उस डाक्टर के साथ तो नहीं चली गई जो हर वक़्त उससे इतनी हमदर्दी का इज़हार करता रहता है। वो ज़रूर उसके फ़रेब में गई होगी। मेरे लिए उसने कहीं ख़ुद को बेच तो नहीं दिया...

    ये सोचते ही उसका ख़ून खौल उठा। करीम को पास बहती हुई बदरु में फेंक कर वो हस्पताल की तरफ़ भागा... इतना तेज़ दौड़ा कि चंद मिनट में हस्पताल पहुंच गया।

    रात निस्फ़ से ज़्यादा गुज़र चुकी थी। चारों तरफ़ सन्नाटा था। जब वो अपने वार्ड के बरामदे में पहुंचा तो दो आवाज़ें सुनाई दीं। एक उसकी बीवी की थी। वो कह रही थी, “तुम दग़ाबाज़ हो... तुमने मुझे धोका दिया है... उससे जो कुछ तुम्हें मिला है, तुमने अपनी जेब में डाल लिया है।”

    किसी मर्द की आवाज़ सुनाई दी, “तुम ग़लत कहती हो... तुम उसको पसंद नहीं आईं इसलिए वो चला गया।”

    उसकी बीवी दीवानावार चिल्लाई, “बकवास करते हो... ठीक है कि मैं दो बच्चों की माँ हूँ... मेरा वो पहला सा रंग रूप नहीं रहा... लेकिन वो मुझे क़बूल कर लेता अगर तुम भांजी मारते। तुम बहुत ज़ालिम हो... बहुत कठोर हो।” उसकी आवाज़ गले में रुँधने लगी, “मैं कभी तुम्हारे साथ चलती... मैं कभी ज़िल्लत में गिरती अगर मेरा ख़ाविंद बीमार और मेरे बच्चे कई दिनों के भूके होते... तुमने क्यों ये ज़ुल्म किया?”

    उस मर्द ने जवाब दिया, “वो... वो कोई भी नहीं था... मैं ख़ुद था। जब तुम मेरे साथ चल पड़ीं तो मैं ने ख़ुद को पहचाना... और तुम से कहा कि वो चला गया है.. वो, जिस के लिए मैं तुम्हें लाया था। मुझे मालूम है कि तुम्हारा ख़ाविंद मर जाएगा... तुम्हारे बच्चे मर जाऐंगे। तुम भी मर जाओगी... लेकिन...”

    “लेकिन क्या...” उसकी बीवी ने तीखी आवाज़ में पूछा।

    “मैं मरते दम तक ज़िंदा रहूँगा... तुमने मुझे उस ज़िंदगी से बचा लिया है जो मौत से कहीं ज़्यादा ख़ौफ़नाक होती... चलो आओ... अताउल्लाह हमें बुला रहा है।”

    “अताउल्लाह यहां खड़ा है।” अताउल्लाह ने भींची हुई आवाज़ में कहा।

    दो साये पलटे... उससे कुछ फ़ासले पर वो डाक्टर खड़ा था जो ज़ैनब से बड़ी हमदर्दी का इज़हार किया करता था। उसके मुँह से सिर्फ़ इस क़दर निकल सका था, “तुम!”

    “हाँ, मैं... तुम्हारी सब बातें सुन चुका हूँ।” ये कह कर अताउल्लाह ने अपनी बीवी की तरफ़ देखा।

    “जीनां... मैं ने रहीम और करीम दोनों को मार डाला है... अब मैं और तुम बाक़ी रह गए हैं।”

    “ज़ैनब चीख़ी, “मार डाला तुम ने! दोनों बच्चों को?”

    अताउल्लाह ने बड़े पुर-सुकून लहजे में कहा, “हाँ... उन्हें कोई तकलीफ़ नहीं हुई... मेरा ख़याल है तुम्हें भी कोई तकलीफ़ नहीं। डाक्टर साहिब मौजूद हैं!”

    डाक्टर काँपने लगा... अताउल्लाह आगे बढ़ा और उससे मुख़ातिब हुआ, “ऐसा इंजेक्शन दे दो कि फ़ौरन मर जाये।”

    डाक्टर ने काँपते हुए हाथों से अपना बैग खोला और सिरिंज में ज़हर भर के ज़ैनब के टीका लगा दिया। टीका लगते ही वो फ़र्श पर गिरी और मर गई। उसकी ज़बान पर आख़िरी उल्फ़ाज़, “मेरे बच्चे... मेरे बच्चे” थे, मगर अच्छी तरह अदा हो सके। अताउल्लाह ने इत्मिनान का सांस लिया, “चलो ये भी हो गया... अब मैं बाक़ी रह गया हूँ।”

    “लेकिन... लेकिन मेरे पास ज़हर ख़त्म हो गया है।” डाक्टर के लहजे में लुकनत थी।

    अताउल्लाह थोड़ी देर के लिए परेशान हो गया, लेकिन फ़ौरन सँभल कर उसने डाक्टर से कहा, “कोई बात नहीं... मैं अंदर अपने बिस्तर पर लेटता हूँ, तुम भाग कर ज़हर ले कर आओ।”

    बिस्तर पर लेट कर सुर्ख़ खुरदरे कम्बल में उसने बड़ी मुश्किल से करवट बदली और अपनी मुंदी हुई आँखें आहिस्ता आहिस्ता खोलीं। कुहरे की चादर में कई चीज़ें लिपटी हुई थीं जिनके सही ख़द्द-ओ-ख़ाल नज़र नहीं आते थे... एक लंबा, बहुत ही लंबा ख़त्म होने वाला दालान था... या शायद कमरा जिस में धुँदली धुँदली रौशनी फैली हुई थी। ऐसी रौशनी जो जगह जगह मैली हो रही थी।

    दूर, बहुत दूर एक फ़रिश्ता खड़ा था। जब वो आगे बढ़ने लगा तो छोटा होता गया। अताउल्लाह की चारपाई के पास पहुंच कर वो डाक्टर बन गया। वही डाक्टर जो उसकी बीवी से हर वक़्त हमदर्दी का इज़हार किया करता था और उसे बड़े प्यार से दिलासा देता था।

    अताउल्लाह ने उसे पहचाना तो उठने की कोशिश की, “आईए डाक्टर साहब!”

    मगर वो एक दम ग़ायब हो गया। अताउल्लाह लेट गया। उसकी आँखें खुली थीं। कुहरा दूर हो चुका था, मालूम नहीं कहाँ ग़ायब हो गया था।

    उसका दिमाग़ भी साफ़ था। एक दम वार्ड में शोर बुलंद हुआ। सबसे ऊंची आवाज़ जो चीख़ से मुशाबेह थी, ज़ैनब की थी, उसकी बीवी की। वो कुछ कह रही थी... मालूम नहीं क्या कह रही थी। अताउल्लाह ने उठने की कोशिश की। ज़ैनब को आवाज़ देने की कोशिश की मगर नाकाम रहा... धुंद फिर छाने लगी और वार्ड लंबा... बहुत लंबा होता चला गया।

    थोड़ी देर के बाद ज़ैनब आई। उसकी हालत दीवानों की सी हो रही थी। दोनों हाथों से उसने अताउल्लाह को झिंजोड़ना शुरू किया, “मैंने उसे मार डाला है... मैंने उस हरामज़ादे को मार डाला है।”

    “किस को?”

    “उसी को जो मुझसे इतनी हमदर्दी जताया करता था... उसने मुझसे कहा था कि वो तुम्हें बचा लेगा... वो झूटा था, दग़ाबाज़ था, उसका दिल तवे की कालिक से भी ज़्यादा काला था। उसने मुझे... उसने मुझे...” इसके आगे ज़ैनब कुछ कह सकी।

    अताउल्लाह के दिमाग़ में बेशुमार ख़्यालात आए और आपस में गडमड हो गए, “तुम्हें तो उसने मार डाला था?”

    ज़ैनब चीख़ी, “नहीं... मैंने उसे मार डाला है।”

    अताउल्लाह चंद लम्हे ख़ला में देखता रहा। फिर उसने ज़ैनब को हाथ से एक तरफ़ हटाया, “तुम उधर हो जाओ... वो रहा है।”

    “कौन?”

    “वही डाक्टर... वही फ़रिश्ता।”

    फ़रिश्ता आहिस्ता आहिस्ता उसकी चारपाई के पास आया। उसके हाथ में ज़हर भरी सिरिंज थी। अताउल्लाह मुस्कुराया, “ले आए!”

    फ़रिश्ते ने इस्बात में सर हिलाया, “हाँ, ले आया।”

    अताउल्लाह ने अपना लर्ज़ां बाज़ू उसकी तरफ़ बढ़ाया, “तो लगा दो।”

    फ़रिश्ते ने सूई उसके बाज़ू में घोंप दी।

    अताउल्लाह मर गया।

    ज़ैनब उसे झिंजोड़ने लगी, “उठो... उठो करीम, रहीम के अब्बा, उठो... ये हस्पताल बहुत बुरी जगह है... चलो घर चलें।”

    थोड़ी देर के बाद पुलिस आई और ज़ैनब को उसके ख़ाविंद की लाश पर से हटा कर अपने साथ ले गई।

    स्रोत:

    پھند نے

      • प्रकाशन वर्ष: 1954

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