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हनीमून

आबिद सुहैल

हनीमून

आबिद सुहैल

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    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसे मनोरोगी की कहानी है जो अकेला ही हनीमून पर जाता है। उसके यार-दोस्त का ख़्याल है कि वह लाज़िमी तौर पर अपनी बीवी के साथ हनीमून पर गया है, जबकि वह होटल के कमरे में तन्हा रहता है। लेकिन उसकी यह तन्हाई ज़्यादा दिनों तक नहीं रहता। उसी होटल में उसे एक दूसरी औरत मिल जाती है।

    अच्छी तरह से इत्मीनान कर लेने के बा’द कि उसकी उंगली चार नंबर पर ही है, उसने बटन पर हल्का सा ज़ोर दिया। दरवाज़े के ऊपर एक छोटा सा अंगारा दहका, फिर जैसे उसे राख ने ढक लिया, सुर्ख़ी अंदर से झलकती रही वो आप ही आप मुस्कुराया, बिला-वज्ह और शायद इसी लिए जैसी ख़ामोशी से मुस्कुराहट आई थी वैसी ही ख़ामोशी से ख़ुद-ब-ख़ुद बंद होते हुए लिफ़्ट के दरवाज़े से बाहर निकल गई।उसने एक-बार फिर मुस्कुराने की कोशिश की लेकिन सर इस बुरी तरह झनझना रहा था कि वो उसी में उलझ कर रह गया।

    लिफ़्ट में कोई और था। आँखें पूरी तरह खोल कर उसने एक-बार चारों तरफ़ देखा, सिर्फ़ ये यक़ीन करने के लिए कि कोई और है या नहीं। कोई दूसरा वहाँ नहीं था और हो भी नहीं सकता था। रात के दो बज चुके थे। इस वक़्त कोई फ़्लाइट आई थी ट्रेन।

    लिफ़्ट रुकी, दरवाज़ा खुला, कुछ ज़ियादा ही धीरे-धीरे। उसे भी शायद अंदाज़ा था कि नौवीं मंज़िल तक कोई उसका इंतिज़ार नहीं कर रहा है इसलिए ख़्वाह-मख़ाह जल्दी करने की ज़रूरत नहीं है। उसने बाहर निकलने से पहले एक-बार नंबर पढ़ा, जो रौशन हो गया था। चार ही मा’लूम होता है, नहीं चार ही है, उसने सोचा और लड़खड़ाते हुए क़दमों से बाहर निकल आया।

    सारे ही कमरों के दरवाज़े बंद थे। हर तीसरे चौथे कमरे के बाहर कई बैरे दीवार से टेक लगाए लगाए ही सो गए थे, पैर फैला कर। बस दो एक अब भी बैठे थे, पत्थर के बुतों की तरह, अध-खुली आँखों से सोते हुए। उन्हें देखकर उसे हँसी गई। आप ही आप। कोई वज्ह उसकी समझ में नहीं आई। सामने वाले कमरे का ऊपरी हिस्सा उसे दूसरे कमरों के मुक़ाबले में कुछ बड़ा और ज़ियादा गोल मा’लूम हुआ और ऊँचा भी, लेकिन उसने कोई तवज्जोह नहीं दी। वो उसका कमरा नहीं था।

    उसे अच्छी तरह याद था कि लिफ़्ट से निकलने के बा’द बाएँ जानिब की राहदारी में, सामने की तरफ़ का आख़िरी से पहले वाला कमरा उसका है। वो उस तरफ़ मुड़ गया और उन्नीस नंबर के कमरे के सामने रुक कर उसने जेब में हाथ डाला, चाबी निकालने के लिए, लेकिन चाबी उसमें नहीं थी। उसने दूसरी जेब देखी। वहाँ भी कोई सख़्त चीज़ नहीं थी। पैंट की पीछे की जेब से सब कुछ एक साथ निकालने की कोशिश में दो तीन नोट फ़र्श पर बिखर गए लेकिन उसने इस जानिब तवज्जोह की और तीनों जेबों की दो तीन बार तलाशी ली। झुक कर नोट उठाए, दो तीन बार की कोशिश के बा’द कहीं कामयाबी हाथ लगी। लेकिन परेशानी अपनी जगह क़ाएम रही। उसी वक़्त उसका बायाँ हाथ क़मीस की जेब से टकरा गया। वहाँ किसी सख़्त सी चीज़ का एहसास हुआ। हाथ डाला। चाबी वहाँ आराम कर रही थी। इत्मीनान हुआ, जितना इस हालत में हो सकता था।

    घबराहट पर क़ाबू पाने के लिए डेढ़ दो मिनट उसी तरह खड़ा रहा। फिर चाबी लगाने की कोशिश की लेकिन दरवाज़े में पैवस्त ताले ने उसे क़बूल करने से इंकार कर दिया। इस नाकामी ने उसमें झुँझलाहट पैदा कर दी जिस पर क़ाबू पाने की उसने कोशिश की और अपने ख़याल में कामयाब भी हो गया। अपनी इस कामयाबी का ख़ुद को यक़ीन दिलाने के लिए उसने अपने पैर फ़र्श पर मज़बूती से जमाए, जिस्म को पहले दाएँ और फिर बाएँ तरफ़ झुकाया, सब कुछ उसी तरह हुआ जैसा वो चाहता था। उसे इत्मीनान हुआ। बस एक तरफ़ सर ज़रा ज़ियादा झुक गया था... उसने ताले को घूर कर देखा, फिर चाबी को, फिर एक पैर उठाया, जो धीरे-धीरे ही मुम्किन हो सका, लेकिन जब उसे फ़र्श पर पटका तो उसमें तेज़ी थी। ये ग़ुस्से का इज़्हार था।

    उसी वक़्त उसे याद आया कि उसने चोर खटका तो दबाया ही नहीं है जो एक छोटे से गोले की शक्ल में था और ब-ज़ाहिर दरवाज़े की ख़ूबसूरती का हिस्सा मा’लूम होता था। वो अपनी हालत पर धीरे से हँसा, चोर खटका दबाया, चाबी लगाई लेकिन वो अब भी ताले के बाहर ही टिकी रही... उसने गर्दन हिलाई, कुछ इस तरह जैसे ख़ुद से पूछ रहा हो कि आख़िर मुआ’मला क्या है। उसी लम्हे उसका बायाँ हाथ घंटी के बटन की तरफ़ उठ गया लेकिन फ़ौरन ही उसे ख़याल गया कि वो ख़ुद तो बाहर खड़ा है, अंदर से “कम इन” कौन कहेगा। वो हँस दिया। इस बार उसने अपने हँसने की आवाज़ भी सुनी, उस हँसी ने उसे याद दिलाया कि आज रात कुछ ज़ियादा हो गई है।

    अपने आप पर क़ाबू खो देने का ये उसका पहला मौक़ा’ था। वो दो-तीन पैग से ज़ियादा लेता नहीं था और उसका ये भी ख़याल था कि शराब उसपर ज़रा कम ही असर करती है। शायद इसी ख़याल से आज की रात उसने बार में ख़ुद को आज़ाद छोड़ दिया था। इसके इ’लावा कोई दूसरी बात उसकी समझ में नहीं आई। चौथा, पाँचवाँ और फिर छटा पैग हल्क़ में उतारते वक़्त उसने बस ये सोचा था कि इस क़दर ख़ूबसूरत फ़िज़ा और दिलकश और शादाब चेहरों के दरमियान किसी भी क़िस्म की पाबंदी कुछ ऐसी अच्छी बात होगी। लेकिन अब उसे कुछ-कुछ पछतावा हो रहा था। ताहम इस पशेमानी की हैसियत उस ज़ोरदार क़हक़हे से ज़ियादा थी जिसके बा’द ख़याल आता है कि आवाज़ बहुत ऊँची हो गई थी... तीन दिन पहले की बात उसे किसी तरह याद नहीं रही थी।

    सुधीर ने टिकट हनीमून मनाने के लिए मँगाए थे, लेकिन यहाँ आया वो तन्हा था... सिर्फ़ चार दिन पहले जब वो दोनों, उसके ख़याल में दोनों दोस्तों, रिश्तेदारों और दूसरी सारी उलझनों से आज़ाद छः-सात दिन जयपुर के उस होटल में गुज़ारने की उम्मीदों से ही सरशार थे, उसने बस एक ज़ियादा पैग की तरंग में पूछा था, ”तुमने जयपुर देखा है ना?”

    “एक-बार...? कई मर्तबा!”, जवाब सीधा सादा था, उसमें हल्के से सुरूर के साथ पहले के सैर सपाटों की यादों का थोड़ा सा, या कुछ ज़ियादा, रोमांस भी शामिल था।

    “पहली बार पिंटू के साथ!”, उसने याद किया था।

    “नाम तो उसका श्रीकांत है लेकिन हर शख़्स उसे इस छोटे से नाम ही से बुलाता है।”, कहने के बा’द उसने सुधीर के चेहरे पर कुछ और जानने की ख़्वाहिश देखी तो बात बढ़ाई।

    “लो तुम तो इतनी जल्दी भूल गए... याद नहीं जब तुम बरात लेकर आए थे, वो ख़ुशियों के समंदर में किस बुरी तरह डूबा हुआ था।”

    “याद क्यों नहीं? मुझे चिमटाकर इस बुरी तरह भींचा था कि भैया ने सँभाल लिया होता तो सहरे की जाने कितनी लड़ें टूट गई होतीं... और फिर-फिर... भरे मंडप में उसे तुम्हें चिमटा लेने से भी बड़ी मुश्किल से रोका जा सका था...”

    “उसने ये होने क्यों दिया?”, कई नशे एक साथ मिल गए थे।

    “और दूसरी बार...?”

    “दूसरी बार?”, वो सोच में पड़ गई किसका नाम ले।

    “हूँ।”, उसने कहा।

    एक-बार फिर ”दूसरी बार” दुहराया... नाम याद नहीं रहा था, या शायद फ़ैसला नहीं कर पा रही थी कि किसका नाम ले।

    “छोड़ो भी। कोई बात नहीं, क्यों परेशान करती हो, अपने आपको उसने कहा था। जुमले का अंदाज़ सपाट था किसी गहरे जज़्बे की आँच थी उसमें। उसी दिन शाम की चाय साथ-साथ पीते हुए वही जुमला जो उसने सुब्ह कहा था और कुछ ऐसा था भी नहीं कि कोई भूल जाता, कुछ इस अंदाज़ से दुहराया जैसे एक दम याद गया हो।

    “चाची तो दो दिन में परेशान हो गईं।”

    “चहेती जो ठहरी उनकी।”, उसने कहा।

    ”दोबार पिंटू चुका है सुब्ह से, कहलाया है कपड़े और ज़ेवर लेकर चार-छः दिन के लिए जाऊँ।”

    “कोई शादी-ब्याह है?”

    “है तो... बरसों का मेल-जोल है, सब ही तो थे शादी में, तुमसे मिलाया नहीं क्या किसी ने?”

    “ज़रूर मिलाया होगा, बहुत सों को पहचनवाया था, इत्ते सारे तो लोग थे, भला एक-बार की मुलाक़ात में कोई हर एक का नाम और सूरत कैसे याद कर ले?”

    जुमला पूरा करते ही उसे याद आया कि नाम और सूरत की तो कोई बात ही नहीं थी। उसके जुमले में कोई उतार था चढ़ाव। उसने चाय का लंबा सा घूँट पेट में उतार लिया था। प्याली ख़ाली हो गई थी। ठंडी हवा जो चेहरे को शादाब बनाए हुए थी, किसी और तरफ़ निकल गई। उसे सोचने में मुश्किल से दो तीन ही मिनट लगे।

    “कोई बात नहीं, अच्छा है तुम चली जाओ, नहीं तो बेकार बोर होगी। कंपनी की मीटिंग जाने क्यों परसों से की जा रही है। पहले तो मार्च के शुरू’ में होने वाली थी। फ़ोन नहीं आया था सुब्ह?”, उसने पारुल को जिसे हर एक मून कहता था, उसी तरह देखा जैसे पिछले हफ़्ते से देखता आया था, शादी के बा’द से। मिठास घुली थी उसकी नज़रों में। लगता था आँखों से शहद टपक रहा हो।

    इस मिठास ने रास्ता दिखाया। वो ठनठनाई।

    “तो तुम जयपुर नहीं दिल्ली जाओगे।”

    चाय की प्याली जो होंटों तक आने ही को थी। उसने पर्च में रखी और उसे इस तरह देखा जैसे बड़ा दुख हो रहा हो...

    प्याली ख़ाली तो पहले ही हो चुकी थी।

    अगले दिन उसने बताया, “टिकट वापिस कर दिए हैं।”

    इसमें कुछ भी ग़लत था।

    “फिर वहाँ से…”

    आख़िरी लफ़्ज़ तक आते आते उसे एहसास हो गया कि जुमला गड़बड़ा रहा है इसलिए ”से” मुँह में गोल-गोल चक्कर लगाकर कुछ ऐसा बन गया कि वो ख़ुद भी उसे ठीक से सुन सका। उसने जुमला इस तरह पूरा किया जैसे सब बिल्कुल ठीक-ठाक हो…

    “मा’लूम नहीं मीटिंग कितने दिन चले। ये भी नहीं मा’लूम दिल्ली में है कि गुड़गाँव में या बंबई में।” उसने सारे रास्ते बंद कर दिए।

    मोबाइल से उसे चिड़ थी और उसके पास था नहीं। उसने अपनी बात यूँ तो दो ही जुमलों में पूरी की थी, लेकिन ये दो जुमले नहीं कई टुकड़े थे जो एक दूसरे को आगे-पीछे धक्का दे रहे थे।

    “मेरी फ़्लाइट परसों सुब्ह की है।”

    “तो मैं कल शाम में घर चली जाऊँ?”

    “और नहीं तो क्या। यहाँ रह के क्या करोगी?”

    था तो ये जुमला सीधा सादा लेकिन इसमें कुछ-कुछ तंज़ भी था। उसे नहीं मा’लूम था कि ये टेढ़ापन उसका अपना डाला हुआ था या आप ही आप शामिल हो गया था। घर जाने की ख़ुशी में तंज़ के एहसास की ये लहर मून के पास से भी नहीं गुज़र सकी थी।

    उसी वक़्त हवा का एक हल्का सा झोंका आया जिसने जिस्म के अंदर और बाहर की गर्मी, चेहरे और गर्दन के पसीने के क़तरों से टकराकर, एक ख़ुशगवार एहसास पैदा कर दिया। ताला खोल पाने से पैदा होने वाली उलझन कुछ कम हो गई और वो दीवार से लगी आराम-देह कुर्सी पर नीम-दराज़ हो गया। ये कुर्सी दरवाज़ा खुलने का इंतिज़ार करने वालों के लिए थी। होटल भी मा’मूली था। थोड़ी देर में जब हाथ पूरी तरह क़ाबू में होंगे, ताला खोलना आसान होगा, उसने सोचा। नींद का झोंका आया तो वो कुर्सी पर सीधा हो कर बैठ गया। उसे अपनी हालत पर थोड़ा सा अफ़सोस भी हुआ लेकिन वो बस ऐसा था जैसे दिमाग़ के पास से गुज़र जाने वाली लहर और बस।

    थोड़ी देर बा’द होश-ओ-हवास तक़रीबन बजा हो गए तो उसने ताला खोलने की एक और कोशिश की, लेकिन वो आवाज़ पैदा हुई जिसके बा’द दरवाज़ा खुल जाता है। उसने चाबी आँखों के क़रीब ला के उसका नंबर फिर पढ़ा, ताले के नंबर पर नज़र डाली। कोई गड़बड़ थी। एक-बार फिर कोशिश की, ज़रा ज़ियादा ताक़त लगाई तो कुछ खटपट हुई और फिर यकायक किसी ने अंदर से दरवाज़ा खोल दिया।

    “जी?”, उसने कहा, बल्कि पूछा। लहजे में थोड़ी सी हैरत थी और इतनी रात गए उसके कमरे के दरवाज़े पर खटपट से थोड़ी सी उलझन।

    “आप यहाँ क्या कर रही हैं?”

    “मैं यहाँ क्या कर रही हूँ। अपने कमरे के दरवाज़े पर खड़ी हूँ।”, आवाज़ सपाट थी।

    “भई आप गई हैं तो ठीक है, लेकिन मुझे अपने कमरे में तो दाख़िल होने दीजिए।”, सुधीर की आवाज़ अब भी कुछ-कुछ लहरा रही थी।

    “ओह ये बात है, मुआ’फ़ फ़रमाएँ आपको ग़लतफ़हमी हुई। ये कमरा आप का नहीं है।”, उसकी आवाज़ में किसी क़िस्म की ख़फ़गी नहीं थी।

    “आप क्या कह रही हैं। क्या ये उन्नीस नंबर का कमरा नहीं है?”

    “ज़रूर है।”

    “तो ये आपका कैसे हुआ। मैं चौथी मंज़िल के इस कमरे में पिछले दो दिन से रह रहा हूँ।”

    “जी ये पाँचवीं मंज़िल है। पाँच सौ उन्नीस नंबर का कमरा।”, वो मुस्कुराई।

    जवाब में मुस्कुराने की कोशिश करते हुए वो ऐसे क़दमों से, जिनमें अब लड़खड़ाहट नहीं बस हल्की सी ना उस्तुवारी रह गई थी, लिफ़्ट की जानिब बढ़ने लगा।

    सुब्ह उसकी आँख ख़ासी देर से खुली। एक सेट चाय, चार टोस्ट और मक्खन के लिए फ़ोन किया। कुछ सोच कर दूसरा फ़ोन किया।

    ”चार-सौ उन्नीस। चाय बीस मिनट बा’द भेजिए।”, उसने कहा और बिस्तर से उठकर एक अंगड़ाई ली और सीधे बाथरूम में घुस गया।

    शावर से चेहरे पर गर्म पानी की पहली बौछार पड़ते ही उसे रात का सारा वाक़िआ’ याद गया। शर्मिंदगी का एहसास भी हुआ लेकिन जिस्म पर रक़्स करता हुआ पानी सब कुछ बहा ले गया, इतनी दूर कि वो गुनगुनाने लगा। शेव किया, कपड़े तब्दील किए और बाहर निकलने के लिए पूरी तरह तैयार हो गया, इतने में चाय गई।

    अपने इस एयरकंडीशनिंग्ड कमरे में बैड की हालत देखकर वो मुस्कुरा दिया। शिकनें सिर्फ़ एक जानिब थीं। दूसरी तरफ़ का तकिया सलीक़े से रखा हुआ था। गुलाबी रंग के मुलाइम तकिये पर भी एक शिकन थी, हल्की सी दोहरी जिसके चारों तरफ़ सफ़ेद रेशमी गोट लगी थी। बस एक तरफ़ से ज़रा सी मसल गई थी। बार का मंज़र, कमरा नंबर पाँच सौ उन्नीस के बाहर जो कुछ हुआ था उसकी याद और मून का ख़याल जैसे एक साथ उसके दिमाग़ में दाख़िल हुए और एक दूसरे से इस तरह उलझ गए कि उसके लिए उन्हें अलग-अलग करना मुम्किन हो सका।

    चाय पीते हुए उसने दूसरी ख़ाली प्याली को देखा, थोड़ी देर तक उसे देखता रहा, फिर उसने उस ठंडी साँस को जो बहुत ही हल्की सी आवाज़ पैदा करने के लिए जैसे उससे इजाज़त माँग रही थी, गर्दन की जुंबिश से लौट जाने का इशारा किया। उसी वक़्त बैरे ने धीरे से दरवाज़ा खटखटाया और बस ज़रा देर बा’द, जवाब का इंतिज़ार किए बग़ैर, दबे क़दमों अंदर दाख़िल हुआ। ट्रे उठाई तो दो तोस, मक्खन की एक टिकिया और चारों जानिब के मोतियों के वज़्न से दूसरी प्याली पर पहले की तरह फैली हुई जाली उसे मुतवज्जेह किए बग़ैर रह सकी। बैरे ने आँखों ही आँखों में पूछा, ”कोई और काम” और उसने भी उसी तरह जवाब दिया, ”कुछ नहीं।”

    बैरे के चले जाने के बा’द वो आईने के सामने खड़ा हो गया। परफ़्यूम की शीशी उठाई, थोड़ी देर तक उसे देखता रहा और फिर खोले बग़ैर वापिस अपनी जगह रख दी। कमरा बंद किया और लिफ़्ट का सहारा लेने के बजाए एक-एक ज़ीना चढ़ने लगा, धीरे-धीरे। मैं ख़ुश हूँ या उदास? उसने सोचा लेकिन कोई फ़ैसला कर सका तो ज़ीने पर ही रुक कर सोचने लगा। अब भी कोई जवाब मिला तो नीचे से किसी के तेज़ी से ऊपर आने की आवाज़ सुनकर आहिस्ता-आहिस्ता क़दम बढ़ाने लगा। बैरा था, दोनों हाथों में चाय की ट्रे सँभाले हुए। उसने मुझे बेवक़ूफ़ों की तरह ज़ीने पर खड़े हुए नहीं देखा, ये सोच कर उसे इत्मीनान हुआ।

    दरवाज़े की घंटी उसने बहुत धीरे से दबाई, सिर्फ़ एक-बार। दरवाज़ा खुला। वही ख़ातून सामने खड़ी थीं, रात ही की तरह सफ़ेद सारी में मलबूस, चेहरा उसी तरह मेक-अप से आ’री। उसे कोई ख़ास हैरत नहीं हुई लेकिन ये भी नहीं कि सब बिल्कुल ठीक-ठाक महसूस हुआ हो। बहुत कुछ वैसा नहीं है जैसा होना चाहिए था। शायद ये महज़ एहसास हो, उसने सोचा।

    पिछली रात का वाक़िआ’ हुआ होता, या वो जो उसके इस शहर के लिए अकेले ही रवाना होने से क़ब्ल हुआ था, या वो अजनबी होती या अजनबी होती भी तो उसने उसे ग़ैर-मुस्तहकम क़दमों से रात के सन्नाटे में अपने कमरे के सामने से वापिस जाते हुए देखा होता तो शायद उसे सब कुछ इस तरह अटपटा लगता। लेकिन इसमें ऐसा अटपटा क्या है? वो उसका इंतिज़ार तो कर नहीं रही होगी और वो ख़ुद भी सज-बन कर नहीं आया था, हद ये है कि उसने अपनी क़मीस और रूमाल पर परफ़्यूम तक नहीं लगाया था... बहुत सी बातें जो किसी किसी तरह एक दूसरे से जुड़ी हुई थीं, उसे ऐसी लग रही थीं जैसे एक दूसरे से क़तअ’न ग़ैर-मुतअ’ल्लिक़ हों।

    वो आया था रात के वाक़िए’ पर इज़्हार-ए-अफ़सोस करने लेकिन इस ज़हनी कैफ़ियत ने जैसे उसकी गोयाई छीन ली थी। उसकी आँखें तो खुली हुई थीं लेकिन ऐसा कुछ उसे नज़र नहीं रहा था जिसे वो किसी सिलसिले से दिमाग़ के पर्दे पर जम्अ’ सके। ख़ातून ने दरवाज़े का दूसरा पट भी धीरे से खोला। बदन चुराते हुए पीछे की तरफ़ ज़रा सी खिसकी और आहिस्ता से बोली, “तशरीफ़ लाइए।”

    “तशरीफ़ रखिए।”

    वो कुर्सी पर बैठने लगा तो ख़ुद भी सामने की कुर्सी पर बैठ गई। अभी वो इधर-उधर और कभी-कभी नज़रें चुराकर उसकी तरफ़ देखने की कोशिश कर ही रहा था कि उसने कुर्सी की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, “आप काफ़ी पसंद करेंगे या चाय?”

    सुधीर ने अब ज़रा ग़ौर से उसकी तरफ़ देखा। चेहरे पर ख़ुशी थी ग़म। बस एक हल्की सी उदासी का एहसास होता था... उसने उसे अपने चेहरे पर नज़रें जमाए हुए देखा तो आँखें नीची कर लीं और बालों की उस लट को, जो कान के पास पंखे की तेज़ हवा में फड़फड़ा रही थी, पीछे के बालों में दबा दिया।

    उसकी समझ में नहीं रहा था कि बात कहाँ से शुरू’ करे। मुनासिब अल्फ़ाज़ की तलाश अभी जारी थी... और इस तलाश में उसे ये भी ख़याल नहीं आया था कि उससे किसी ने कुछ पूछा है... उसी वक़्त अजनबी ख़ातून ने, जो अब पूरी तरह अजनबी भी नहीं रह गई थीं, अपना जुमला दुहराया। बस दो एक लफ़्ज़ इधर के उधर हो गए थे।

    “आप चाय लेंगे या काफ़ी?”

    “जी शुक्रिया, मैंने चाय अभी पी है।”

    “फिर भी... चाय तो मैंने भी थोड़ी देर पहले ही पी है।”

    “तो फिर काफ़ी... वैसे ऐसी जल्दी भी क्या है? थोड़ी देर बा’द मँगा लीजिएगा।”

    ये बात उसने कह तो दी लेकिन फ़ैसला कर सका कि इसके पस-ए-पुश्त अपने क़याम को तूल देने की ख़्वाहिश थी या वो चाय और काफ़ी के दरमियानी वक़्फ़े को बढ़ाना चाहता था। इतने में उसने ख़ातून को दीवार की टुक-टुक करती घड़ी पर एक नज़र डालते हुए देखा।

    “आपको कहीं तशरीफ़ ले जाना है?”, उसने पूछा।

    वो शरमाई, “जी ये मेरी आ’दत है।”

    “ओह।”

    उसने मुस्कुराने की कोशिश की।

    ”तब तो आप को अंदाज़ा होगा कि वक़्त कितनी तेज़ी से गुज़र जाता है।”

    जुमला पूरा करने से क़ब्ल ही उसे अंदाज़ा हो गया कि गड़-बड़ हो गई है। लेकिन तीर निकल चुका था।

    “वक़्त तेज़ी से गुज़र जाता है?”

    इस जुमले में हैरत ही हैरत थी।

    यकायक उसे एहसास हुआ कि पिछले कई दिनों से उसे भी कुछ-कुछ यही महसूस हो रहा है और मुम्किन है कल रात में “बार का तजरबा” इसी एहसास का नतीजा रहा हो, वक़्त की सुस्त रफ़्तारी का और उसने सारा इल्ज़ाम इस यक़ीन पर कि शराब इस पर ज़ियादा असर नहीं करती, ख़्वाह-मख़ाह थोप दिया हो।

    ख़ातून ने पूछा, ”आपका क़याम चौथी मंज़िल पर है?”

    ये शायद उसकी ख़ामोशी को तोड़ने की कोशिश थी।

    वो जैसे खोई हुई दुनिया से लौट आया।

    “जी हाँ... आपके कमरे के बिल्कुल नीचे।”

    “ये भी अ’जब इत्तिफ़ाक़ है।”, उसने कहा। आहिस्ता से, जैसे अपने आपसे कह रही हो।

    वैसे इस सवाल का जवाब तो उसे मा’लूम था, लेकिन इससे ज़ियादा कुछ नहीं। मा’लूमात में इज़ाफ़ा करना उसका मक़सद भी नहीं था। वो तो बस ये चाहती थी कि बर्फ़ किसी तरह पिघले लेकिन कुछ इस तरह कि गर्मी का एहसास पैदा हो। ख़ामोशी और वो भी ऐसी जिसमें थोड़ी सी अफ़्सुर्दगी शामिल हो, कभी-कभी ख़तरनाक सूरत इख़्तियार कर लेती है। एक तजरबा हुआ था उसे इसी क़िस्म का, जो आज से क़ब्ल कभी याद भी आया था।

    उस ख़ातून के सवाल और सोचती हुई ख़ामोशी को किसी कोशिश के बग़ैर पढ़ लेने ने सुधीर को फिर से कमरे के माहौल में पहुँचा दिया और उसने वो बात शुरू’ की जिसके लिए वो थोड़ी देर क़ब्ल अल्फ़ाज़ तलाश कर रहा था।

    “अस्ल में कल रात...”

    वो हँसी।

    “अरे आपको अब तक याद है, भूल भी जाईए। ज़िंदगी में इस तरह की बातें कभी-कभी हो जाती हैं। उन्हें याद रखना ज़रूरी नहीं होता।”

    उसने सुधीर के चेहरे पर नज़र डाली, सिर्फ़ ये देखने के लिए कि उसका ज़हनी तनाव कुछ कम हुआ या नहीं। सुकून की एक परत तो है, उसने सोचा, लेकिन शायद बहुत पतली सी और सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। वो उसे पिछली रात के वाक़िए’ का असर समझ रही थी और बस... एक अच्छे ख़ासे शरीफ़ इंसान का मा’मूली सी भूल-चूक के सबब बिला-वज्ह परेशान रहना उसे अच्छा नहीं लग रहा था, इसलिए उसने ज़ख़्म को छेड़े बग़ैर एक फाया रखा।”

    “मैं ख़ुद एक-बार...”

    “आपको भी इस तरह की ग़लत-फ़हमी हो चुकी है।”, उसके लहजे में ख़ासा सुकून था, जो चेहरे पर भी झलकने लगा था।

    उसने बात बढ़ाई, “लीजिए हम लोग अब तक एक दूसरे से मुतआ’रिफ़ भी नहीं हुए।”

    “तआ’रुफ़ तो कल रात ही हो गया था।”, वो मुस्कुराई। इस मुस्कुराहट में हल्की सी शरारत भी थी। उसे ये दोनों बातें अच्छी नहीं लगीं और उसने ख़ामोशी से अपनी सरज़निश भी की और इन दोनों एहसासात को ख़ुद पर छा जाने से रोकने के लिए मौज़ू’ यकायक तब्दील कर दिया।

    “मुझे लोग शबनम कहते हैं।”

    “शबनम!”

    “शबनम रहमान... और…”, उसने अपने मुख़ातिब की तरफ़ देखा।

    “सुधीर...”

    “सिर्फ़ सुधीर?”

    “जी नहीं, सुधीर ख़ास्तगीर।”

    “अच्छा नाम है। मौसीक़ी है इसमें।”

    वो मुस्कुराया लेकिन उसे ये ख़याल भी हुआ कि मुम्किन है ये इशारा हो कि रात के वाक़े की मुआ’फ़ी तलाफ़ी हो चुकी, रस्मी बल्कि इससे कुछ ज़ियादा ही तआ’रुफ़ भी हो चुका। अब क्या रह गया है। तशरीफ़ ले जाईए (ये बात है तो इसने दिल ही दिल में कहा होगा। अब दफ़ान भी हो)। इस ख़याल ने उसे उदास कर दिया लेकिन फिर काफ़ी का आर्डर याद गया। इस वक़्त काफ़ी कुछ ज़ियादा ही सुकून-बख़्श साबित हो गई, ब-फ़र्ज़-ए-मुहाल उसने इस तरह की कोई बात घुमा फिराकर कह भी दी और वो उठकर बाहर चला गया तो उसे बैरे के सामने शर्मिंदा होना पड़ेगा। वो कहेगा तो कुछ नहीं लेकिन सोचेगा ज़रूर कि क्या हुआ, क्या दोनों में कुछ झगड़ा हो गया कि उसने शबनम की पेशकश ठुकरा दी। इस बात का ख़याल ज़रूर रहेगा उसे। उसने ख़ुद को तसल्ली दी। शबनम ऐसी नफ़ीस और शाइस्ता औ’रत बैरे को इस तरह की बात सोचने का मौक़ा’ हरगिज़ देगी। उसने ख़ुद को एक-बार फिर इत्मीनान दिलाया। ख़ामोशी ज़रा तवील हो गई है और इसकी ज़िम्मेदार शायद वही है, शबनम ने सोचा और मुस्कुराने की कोशिश करते हुए कहा, ”आप यहीं हैं ना?”

    “जी, जी मैं... सोच रहा था।”, उसने रुक-रुक कर कहा ताकि सोचने के लिए उसे कुछ वक़्त मिल जाए। “सोच क्या रहा था... बस यही कि इस तरह की हरकत मैंने किसी दूसरी ख़ातून के कमरे के दरवाज़े पर की होती तो क्या होता।”

    “अरे आप अब भी कल रात के वाक़िए’ को भूल नहीं सके... कुछ भी ना होता, इ’लावा इसके कि वो ज़ियादा से ज़ियादा दो-चार सख़्त-सुस्त जुमले कह देती या…”, उसने अपनी ज़बान को ब्रेक लगाया। उसे हैरत थी कि ऐसा ख़याल अल्फ़ाज़ की शक्ल कैसे इख़्तियार करने जा रहा था और वो भी उसकी ज़बान पर। इतने में दरवाज़े पर, जो थोड़ा सा खुला हुआ था, किसी ने ठक-ठक की और तक़रीबन फ़ौरन ही बैरा दाख़िल हुआ, काफ़ी की ट्रे एक हाथ में सँभाले हुए।

    सुधीर की मुलाज़िमत ऐसी थी कि उसे शहर-शहर जाना पड़ता था। अच्छे और औसत दर्जे के होटलों का उसे ख़ासा तजरबा था। अपनी मौजूदगी का पहले से एहसास दिलाए बग़ैर बैरे कमरे में दाख़िल नहीं होते, ये उसे ख़ूब अच्छी तरह मा’लूम था। लेकिन उसका इस तरह दाख़िल होना कि कमरे के बजाए जैसे ट्रे देख रहा हो, उसे कुछ अ’जीब सा लगा। ये तजरबा उसके लिए नया था। लेकिन वो समझ गया, मुस्कुराया भी, कुछ उदास भी हुआ कि हनीमून के लिए ख़रीदे हुए टिकट से वो अकेला ही आया था और इस कमरे में तो कुछ ऐसा था भी नहीं। कोई यकायक भी दाख़िल हो जाता तो दोनों एक दूसरे से चार पाँच फुट के फ़ासले पर रखी हुई कुर्सीयों पर बैठे हुए ही मिलते।

    शबनम का इशारा पाते ही बैरे ने छोटे लेकिन ख़ूबसूरत से स्टूल पर ट्रे रख दी तो उसने अपनी कुर्सी आहिस्तगी से मेज़ की तरफ़ खिसकाई। सुधीर ने भी यही किया। काफ़ी के दो-दो घूँट लेने के बा-वजूद दोनों ही ख़ामोश थे। मुम्किन है ये ख़ामोशी उन्हें काट रही हो। लेकिन उन्हें इसका वाज़ेह तौर से एहसास था और अगर इससे ज़ियादा कुछ था भी तो दोनों इससे बे-ख़बर थे। अब ये ख़ामोशी उन्हें तोड़नी होगी। दोनों ने जैसे एक साथ सोचा लेकिन पहल शबनम ने की।

    “आप जयपुर पहली बार तशरीफ़ लाए हैं?”

    “पहली बार तो नहीं लेकिन इत्तिफ़ाक़ से यहाँ आना कम ही हुआ है, बस दो-तीन बार। वैसे ये शहर मुझे पसंद है लेकिन कई बार ख़्वाहिश के बा-वजूद दूसरी मसरुफ़ियात के सबब पर्चेज़ ऑफीसर को भेजना पड़ा।”

    इसमें थोड़ा सा झूट था। कंपनी में उसकी तरह के कई पर्चेज़ ऑफीसर थे और ये महज़ इत्तिफ़ाक़ था कि यहाँ आने की नौबत बस दो-तीन बार ही आई थी। शबनम की आँखों में उसके बयान के बारे में किसी क़िस्म का शक था और ऐसा करने का कोई सबब भी था अलबत्ता हल्का सा तजस्सुस ज़रूर था और नहीं भी था तो सुधीर की इस ख़्वाहिश ने जिससे वो ख़ुद भी पूरी तरह वाक़िफ़ था, कुछ होने या कुछ होने के सिलसिले को ख़त्म नहीं होने दिया था। लेकिन सवाल दूसरी तरफ़ से हो गया

    “यहाँ आप...?”

    काफ़ी थे ये दो लफ़्ज़ गुफ़्तगू के सिलसिले को तूल देने के लिए लेकिन वो सब कुछ पहली मुलाक़ात में बताकर बा’द की मुलाक़ातों को मौज़ू’ की तलाश में ज़ाए’ नहीं करना चाहता था। अपनी इस ख़्वाहिश पर उसे हँसी आई लेकिन उसने उसे जुमले में तब्दील कर दिया।

    “जी छोटा सा काम है, पूरे मुल्क से अच्छी से अच्छी सारियाँ छाँट कर एक्सपोर्ट करता हूँ। दुनिया-भर में सारी का रिवाज बढ़ रहा है।”

    शबनम मुस्कुराई लेकिन उसने ये सोचा कि सारी की ये बात तूल खींच सकती है इसलिए इस पर रोक लगाने की कोशिश की ”अब तो वर्क कल्चर बढ़ रहा है, औ’रतें ऑफ़िसों में शलवार क़मीस पहनती हैं, बहुत सी तो जीन्ज़ भी...”

    सुधीर समझ तो गया लेकिन उसने हार नहीं मानी। एक कोशिश और की।

    ”जी हाँ ये तो ठीक है, लेकिन लोगों के पास पैसा होता है तो सैर-सपाटा भी होता है।”

    उसने अपनी दलील ज़ियादा आगे नहीं बढ़ाई लेकिन उसकी सारी की तरफ़ देखा तो शबनम को उसमें टन-टन करती हुई ख़तरे की घंटी सुनाई दी और उसने दरवाज़ा पाटों-पाट बंद कर दिया।

    “आपका ख़याल दुरुस्त है। कुछ लोगों को कपड़े ख़रीदने का शौक़ भी होता है। कभी मुझे भी था, लेकिन अब बिल्कुल ही नहीं है। इतनी बहुत सी सारियाँ पड़ी हैं कि उनमें से कुछ के पहनने की तो शायद नौबत ही आए।”, उसने कहा।

    सुधीर ने उस दरवाज़े के बंद होने की आवाज़ भी सुनी। उसे ज़रा सा इत्मीनान भी हुआ। उसकी तनख़्वाह इतनी नहीं थी कि शहरों-शहरों क़ीमती सारियाँ बाँटता फिरे। लेकिन इस इमकान से थोड़ा सा शर्मिंदा भी हुआ कि उसके दा’वे के बा-वजूद मुम्किन है शबनम ने उसे पर्चेज़ ऑफीसर ही समझा हो। इस उलझन से निकलने के लिए उसने वो बात जो रौ में किसी और तरफ़ निकल गई थी, उस वक़्त बे-मौक़ा’ होने के बा-वजूद जोड़ दी।

    “जयपुर मुझे बहुत अच्छा लगता है, कभी-कभी काम ख़त्म होने के बा’द भी चार-छः दिनों के लिए रुक जाता हूँ।”

    वो मुस्कुराई, जैसे बात की तह तक पहुँच गई हो और बोली, “मैं इन्ही दिनों बस सात दिन के लिए...”

    उसने जुमला ना-मुकम्मल छोड़ दिया। ये भी नहीं बताया कि वो हर साल जयपुर ही आती है। सुधीर ने इस बारे में पूछना चाहा लेकिन इस ख़याल से कि अगली मुलाक़ात में बातों-बातों में मा’लूम कर लेगा, इरादा बदल दिया। उसी वक़्त उसे ख़याल आया कि ”इन दिनों” कहते वक़्त शबनम के चेहरे पर हल्की सी उदासी छा गई थी, जिस पर पर्दा डालने की उसकी कोशिश पूरी तरह कामयाब हो सकी थी। सुधीर ख़ुद भी इस मुअ’म्मे में उलझ गया था, फिर भी उसकी ये उलझन उस ज़हनी कैफ़ियत से बेहतर थी जिसका सिलसिला हनीमून का प्रोग्राम यकायक ख़त्म होने पर पाँच-छः दिन क़ब्ल शुरू’ हुआ था।

    सुधीर का ख़याल था कि रुख़्सत होते वक़्त, रस्मन ही सही, वो उसे दुबारा आने की दा’वत ज़रूर देगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उसने किसी तरह की पसंदीदगी का इज़्हार किया था। ना-नापसंदीदगी का। दरवाज़े के पट फ़ौरन ही बंद ज़रूर किए थे लेकिन आहिस्तगी से, किसी आवाज़ के बग़ैर।

    अगले चार दिन के क़याम के दौरान लाउंज, लॉन और लिफ़्ट में शबनम का सामना तो कई बार हुआ लेकिन बात रस्मी मुस्कुराहटों के तबादले या सुरों की ख़फ़ीफ़ सी जुंबिश से ज़रा भी आगे बढ़ी। सुधीर को शबनम में कोई ख़ास दिलचस्पी थी लेकिन घर से दूर, किसी ऐसे मुक़ाम पर जहाँ लोग ढर्रे की ज़िंदगी से छुटकारा पाने, कारोबार-ए-हयात में ख़ुद को दुबारा झोंक देने के लिए तैयार करने या ज़िंदगी में थोड़ी सी रंगीनी भरने के लिए आते हैं, उसके बरताव ने जिसमें कोई उतार था चढ़ाव, उसके दिल में तजस्सुस का एक उं’सुर ज़रूर पैदा कर दिया था।

    इस तजस्सुस की सैराबी कुछ ऐसी मुश्किल थी और ख़ास-तौर से इस तरह के होटल में जहाँ बख़्शिश के ऊंट पर बैठ कर महफ़ूज़ से महफ़ूज़ पनाह-गाह में दाख़िल हुआ जा सकता है। लेकिन अपनी ख़्वाहिश, जो कुछ ऐसी शदीद भी थी, इस तरह पूरी करना जिसमें थोड़ी सी कमीनगी भी शामिल थी, उसे दोनों की तौहीन मा’लूम हुई, अपनी भी, शबनम की भी।

    उसकी आ’दत थी कि चैक आउट करने से एक दिन पहले तक के बिलों की अदायगी चैक से करने के बा’द बाक़ी रक़म नक़द ही अदा करता था। मा’लूम नहीं क्यों इस तरह उसे एहसास होता था कि ज़ेर-बारी कम हुई है और छोटी मोटी ख़रीदारी के लिए उसके पास बहुत पैसे बच गए हैं... काउंटर से ये पूछे जाने पर कि बिल तैयार है क्या, कमरे में भेज दिया जाए वो ख़ुद ही रिसेप्शन पर चला आया था और चैक लिख ही रहा था कि किसी बैरे ने एकाऊंटेंट से कहा था, “मिस शबनम का बिल भी बना दीजिए। वो कल चैक आउट करेंगी।”

    शबनम के नाम के साथ ”मिस” सुनकर उसे ख़याल आया कि उन्होंने ख़ुद को शायद मिसिज़ बताया था, या शायद बताया हो और मैंने आप ही आप फ़र्ज़ कर लिया हो, उसने सोचा। उसका जी चाहा कि होटल से रुख़्सत होने से क़ब्ल एक-बार शबनम से मुलाक़ात ज़रूर कर ले। लेकिन कैसे? क्या कहेगा वो उनसे? उस दिन तो एक बहाना था, इस वक़्त तो ये बहाना भी होगा। ये कहना कि मैं कल जा रहा हूँ मुनासिब होगा? उसने सोचा और अगर उसने जवाब में कह दिया, “इत्तिला देने का शुक्रिया और कुछ?” तो वो इस ख़याल से भी महरूम हो जाएगा कि वो उसके बारे में शायद कभी सोचे, बस यूँही, किसी जज़्बे और एहसास के बग़ैर, जिसकी उसे उम्मीद थी ख़्वाहिश... इन ख़यालात का ये सिलसिला उस वक़्त टूटा जब टैक्सी पार्किंग स्लॉट में दाख़िल हो रही थी।

    आ’दत के मुताबिक़ रवानगी से एक रोज़ क़ब्ल उसने कुछ छोटी-बड़ी चीज़ें ख़रीदें, दो-चार अपने और बाक़ी घर के दूसरे लोगों के लिए। उनमें चंद ऐसी भी थीं जिनके लिए जयपुर मशहूर है, जैसे पाव भरोई की धुनी हुई दो दलाइयाँ और दराज़ों के चार ऐसे पर्दे जिनके दाएँ-बाएँ और नीचे छोटी-छोटी ख़ूबसूरत घंटियाँ लगी होती हैं और उसे हाथ लगाते ही टन-टन की धीरे-धीरे फैलने वाली मीठी-मीठी सी आवाज़ फ़िज़ा में बिखर जाती है।

    लिफ़्ट में शबनम पहले ही से मौजूद थी। सुधीर और पीछे-पीछे सामान से ठुसे पौलीथीन के दो बड़े थैले लिए वो और बैरा दाख़िल हुए और उन पर उसकी नज़र पड़ी तो वो ख़ुश-दिली से बोली, “बहुत ख़रीदारी कर डाली, क्या होटल से दिल भर गया?”

    उसके दिल ने होटल के मा’नों को वुसअ’त दी और उसको कुछ ऐसी नज़र से देखा जिसमें किसी क़िस्म की उम्मीद के चराग़ तो रौशन थे लेकिन ना-उम्मीदी भी थी।

    “आज नहीं, कल... कल शाम में...”

    उसी वक़्त उसे ख़याल आया कि शबनम ने वो बात तो नहीं पूछी थी जिसका उसने जवाब दे दिया है। लेकिन शायद वो यही पूछना चाहती थी। उसने सोचा और अपने ख़याल को मज़ीद तक़वियत देने के लिए पहले आँखों ही आँखों में और फिर अल्फ़ाज़ का सहारा लेकर पूछ लिया।

    “और आप...?”

    “मैं?”, उसने महसूस किया कि वो कुछ सोच रही है... क्या जवाब दे।

    “अभी तय नहीं किया है।”, लहजा सपाट था।

    उम्मीदों पर, जिन्हें उम्मीद कहना भी मुनासिब हो, ओस ऐसे भी पड़ती है।

    इतने में चौथी मंज़िल गई। सुधीर लिफ़्ट से बाहर निकला। बैरा भी बाहर गया। धीरे-धीरे बंद होते हुए दरवाज़े से उसने शबनम की तरफ़ देखा। उसके चेहरे पर ख़ुशी थी किसी ग़म का कोई साया।

    थैले को एक कोने में रखकर बैरा चला गया तो उसने ख़ुद को बिस्तर पर फेंक दिया, बिल्कुल उस तरह जैसे कोई गै़र-ज़रूरी सामान फेंक देता है। उसी वक़्त रिसेप्शन पर बैरे का जुमला उसकी यादों में चमक उठा और तजस्सुस ने तकान और बे-दिली की जगह ले ली। उसी तरह लेटे-लेटे उसने मसहरी के सिरहाने का घंटी का बटन टटोला जो दूसरी कोशिश में मिल गया और उसने धीरे से उसे दबा दिया। वो थोड़ी देर तक दरवाज़े पर नज़रें गाड़े रहा। कुछ हुआ। उसने बटन दुबारा दबाया, किसी क़दर ज़ोर से और फ़ौरी तौर से उस पर से उंगली हटाई भी नहीं। ब-मुश्किल पंद्रह-बीस सैकंड बा’द बैरा कमरे में दाख़िल हुआ, घबराया हुआ, कुछ परेशान सा। हाँपता हुआ। उसकी समझ में आया कि क्या कहे... उठकर बैठ गया। पतलून की पीछे की जेब से पर्स निकाला और उसमें सौ रुपये का एक नोट निकाल कर उसकी तरफ़ बढ़ा दिया।

    “क्या लाना है साब?”

    “कुछ नहीं... तुम रख लो।”

    बैरा चकरा गया... बीस पच्चीस रुपये तो हर दिन मिल ही जाते थे और साहब जाएँगे तो कल, फिर ये सौ रुपये। अभी वो इस गुत्थी को सुलझाने में ही लगा ही था कि कई बार की कोशिश और ख़ुद से लड़ने झगड़ने के बा’द सुधीर के मुँह से सिर्फ़ एक लफ़्ज़ निकला।

    “मिस शबनम?”

    होटल के कमरों के बाहर ही बाहर चक्कर लगाते हुए बैरे थोड़े ही दिनों में अंदर की दुनिया भी देख लेते हैं। वो सब कुछ समझ गया।

    “शबनम मेम साहब। आपके कमरे के ऊपर, जो पाँचवीं मंज़िल में हैं?”

    उसने कोई जवाब नहीं दिया। बस सर हिला दिया।

    “हर साल आती हैं।”

    सुधीर ने उसकी तरफ़ देखा, इस उम्मीद में कि शायद वो कुछ और बताए। लेकिन वो ख़ामोश था। पाँच-छः बरस से तरह-तरह के होटलों में क़याम करते-करते वो भी बैरों की एक-एक नस से वाक़िफ़ हो चुका था। उसने पर्स से सौ का एक और नोट निकाला और उसकी तरफ़ बढ़ा दिया।

    “दस साल से बराबर रही हैं। कोई साल ख़ाली नहीं जाता... पहली बार आईं तो नई-नई शादी हुई थी। फूल की तरह हर वक़्त खिली रहती थीं। शायद उसी साल... उनके शौहर भी बहुत ख़ूबसूरत थे। लेकिन…”

    बैरा ”लेकिन” कह कर ख़ामोश हो गया तो सुधीर ने इशारा समझ लिया और एक नोट पर्स से निकाला।

    “ट्रेजडी हो गई थी उनके साथ, बहुत बड़ी ट्रेजडी... चौथे ही दिन जाने क्या हुआ कि साहब बालकनी से गिर गए और...”

    “ओह!”, सुधीर के मुँह से सिर्फ़ एक लफ़्ज़ निकला। उसने सोचा भी था कि बैरे का बयान इस क़दर अन्दोह-नाक मोड़ ले सकता है।

    “इसके बा’द हर साल उन्ही दिनों में आती हैं। ये कमरा…”, उसने सुधीर की तरफ़ देखा।

    ”इस बार कुछ ऐसी मजबूरी थी कि ख़ाली होने में देर हो गई और बा’द में आपको दे दिया गया, ख़ाली होने वाले दिन ही। ये ट्रेजडी 22 फरवरी को हुई थी। हर साल अगले दिन लौट जाती हैं, पाँचवें दिन। कल पाँचवाँ दिन है।”

    बैरा ख़ामोश हो गया। सुधीर ने सोचा कि शायद वो पर्स को एक और बार खोलते हुए देखना चाहता है, लेकिन बैरे को इसकी उम्मीद थी इसलिए उसने अपना तार जोड़ा, ”कल बिल बनाने के लिए कहा था लेकिन

    आज फ़ोन कर दिया है कि अभी दो-चार दिन और रहेंगी... जाने क्यों?”

    सुधीर का जी चाहा कि बैरे से कह दे, ”बस। बहुत हो चुका।”

    लेकिन सारे पर्दे तो उठ चुके हैं, शायद एक-आध रह गया हो, उसने सोचा, वो भी क्यों उठ जाए। बैरे ने उसकी आँखों में इश्तियाक़ की झलक देखी तो ख़ुद को रोक सका।

    “इन दस बरसों में बैरों के इ’लावा आप शायद पहले आदमी हैं जो उनके कमरे में गए हैं। इस बार तो एक-आध बार बाहर निकलीं भी, नहीं तो कमरे ही में बंद रहती थीं। चाय, खाना वहीं मँगा लेतीं थीं... लेकिन बालकनी पर, जो अब जाली से बंद कर दी गई है, कभी-कभी नज़र जाती थीं।”

    उसी वक़्त सुधीर ने इशारा करके उसे ख़ामोश कर दिया, ये सोच कर कि अब कली-फंदने ही लगने को रह गए हैं। बैरे की आँखों में हल्की सी मायूसी थी। लेकिन सुधीर ने उसका दिल नहीं तोड़ा और मुस्कुराते हुए एक और नोट उसे दे दिया, हाथ से इशारा करते हुए कि अब उसे कुछ नहीं सुनना।

    टैक्सी पूर टैको में खड़ी थी। उसका सामान रखा जा चुका था। सामान जाते हुए देखकर चौथी मंज़िल के दूसरे दो बैरे भी उसे सलाम करने के लिए खड़े हुए। उसने उन्हें पचास-पचास के नोट दे दिए लेकिन उसके अपने बैरे के नोट का रंग मुख़्तलिफ़ था।

    टैक्सी स्टार्ट हुई तो उसने होटल को अफ़्सुर्दा नज़रों से देखा, ड्राइव से बाहर निकलते ही ड्राईवर को इशारा किया तो कार धीमी हो गई। उसने खिड़की से मुँह निकाला। पाँचवीं मंज़िल का उन्नीस नंबर कमरा कुछ-कुछ नज़र रहा था। वो उसी में होगी। उसने सोचा। अपने ज़ख़्मों को कुरेदती हुई, उन्हें भुलाने की कोशिश करती हुई। ड्राईवर की जानिब देखे बग़ैर उसने स्पीड बढ़ाने के लिए हाथ हिलाया और अपने चेहरे को सामने के छोटे से आईने से बचाने के लिए आगे वाली सीटों के पीछे ज़रा सा झुक कर आँसू पोंछे।

    “आगे बढ़कर माल रोड ले लेना। इधर भीड़ बहुत होती है, एयरपोर्ट जल्दी पहुँचना है।”, उसने कहा और मुड़ कर होटल को एक-बार और देखने की कोशिश करने लगा।

    स्रोत:

    Ghulam Gardish (Pg. 65)

    • लेखक: आबिद सुहैल
      • प्रकाशक: आबिद सुहैल
      • प्रकाशन वर्ष: 2006

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