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इफ़्तार

रशीद जहाँ

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MORE BYरशीद जहाँ

    स्टोरीलाइन

    इस कहानी में रमज़ान के महीने में होने वाले इफ़्तार के ज़रिए मुस्लिम समाज के वर्ग-विभाजन को दिखाया गया है। एक तरफ़ भीख माँगने वाले हैं जो मरने से पहले पेट की आग की वजह से जहन्नुम जैसी ज़िंदगी जी रहे हैं, दूसरी तरफ़ अच्छी ज़िंदगी जीने वाले हैं जिनके पास हर तरह की सुविधाएं हैं और वह दुनिया में जन्नत जैसा सुख भोग रहे हैं।

    रोज़ादार रोज़ा खुलवा दे, अल्लाह तेरा भला करेगा की सदाएँ ड्योढ़ी से आईं। डिप्टी साहिब की बेगम साहिबा, जिनका मिज़ाज पहले ही से चिड़चिड़ा था बोलीं, ‘‘ना-मा'लूम कमबख़्त ये सारे दिन कहाँ मर जाते हैं। रोज़ा भी तो चैन से नहीं खोलने देते!”

    ‘‘अल्लाह तेरा भला करेगा” की काँपती आवाज़ फिर घर में पहुँची।

    ‘‘नसीबन, अरी नसीबन! देख वहाँ क़ुफ़्ली में कुछ जलेबियाँ परसों की बची हुई रखी हैं, फ़क़ीर को दे दे।”

    नसीबन ने पूछा कि, ‘‘और भी कुछ?”

    ‘‘और क्या चाहिए सारा घर उठा कर दे दे।”

    नसीबन दुपट्टा सँभालती हुई अंदर चली गई। बरामदे में तख़्त पर बेगम साहिबा बैठी थीं। दस्तर-ख़्वान सामने बिछा था जिस पर चंद इफ़्तारी की चीज़ें चुनी हुई थीं और कुछ अभी तली जा रही थीं। मिनट मिनट में घड़ी देख रही थीं कि कब रोज़ा खुले और कब वो पान और तंबाकू खाएँ। वैसे ही बेगम साहिबा का मिज़ाज क्या कम था लेकिन रमज़ान में तो उनकी ख़ुश-मिज़ाजी नौकरों में एक कहावत की तरह मशहूर थी।

    सबसे ज़ियादा आफ़त बे-चारी नसीबन की आती है। घर की पली छोकरी थी। बेगम साहिबा के सिवा दुनिया में उसका कोई था और बेगम साहिबा अपनी इस मामता को नसीबन की अक्सर मरम्मत करके पूरा कर लिया करती थीं, हालाँकि गर्मी रुख़स्त हो गई थी लेकिन फिर भी एक पंखा बेगम साहिबा के क़रीब रखा रहता था, जो ज़रूरत के वक़्त नसीबन की ख़बर लेने में काम आता था।

    ‘‘अरे क्या वहीं मर गई! निकलती क्यों नहीं!”

    नसीबन ने जल्दी से मुँह पोंछा। जलेबियाँ लेकर ड्योढ़ी की तरफ़ चली।

    ‘‘इधर तो दिखा, कितनी हैं?”

    नसीबन ने आकर हाथ फैला दिया। उसमें सिर्फ़ दो जलेबियाँ थीं।

    ‘‘दो!”, बेगम साहिबा ज़ोर से चीख़ पड़ीं।

    ‘‘अरी! उजड़ी इसमें तो ज़ियादा थीं। इधर तो आ, क्या तू खा गई?”

    ‘‘जी नहीं”, नसीबन मुँह ही मुँह में मिनमिनाई। लेकिन बेगम साहिबा की ऐक्स-रे निगाहों ने जलेबी के टुकड़े नसीबन के दाँतों में लगे देख ही लिए। बस फिर क्या था, आव देखा ताव, पंखा उठा कर फैल ही तो पड़ीं।

    ‘‘हरामज़ादी, ये तेरा रोज़ा है! क़ुत्तामा! तुझसे आध घंटे और सब्र किया गया। ठहर तो मैं तुझे चोरी का मज़ा चखाती हूँ।”

    ‘‘अल्लाह तेरा भला करेगा अपाहज का रोज़ा खुलवा दे।”

    ‘‘अब नहीं। अच्छी बेगम साहिब अब नहीं। अल्लाह! बेगम साहिब मुआ'फ़ कीजिए, अच्छी बेगम साहिब। अच्छी...”

    नसीबन गिड़गिड़ाने लगी।

    ‘‘अब नहीं, अब नहीं कैसी। ठहर तो तू मुर्दार! तेरा दम ही निकाल कर छोड़ा, हो रोज़ा तोड़ने का मज़ा!”

    ‘‘तेरे बाल-बच्चों की ख़ैर! रोज़ादार का रोज़ा!”

    जब बेगम साहिबा बे-दम हो कर हाँपने लगें तो नसीबन को धक्का देकर बोलीं, ‘‘जा कमबख़्त! जा कर फ़क़ीर को ये जलेबियाँ दे आ, बेचारा बड़ी देर से चीख़ रहा था। और ले ये दाल भी।”

    बेगम साहिबा ने थोड़ी सी दाल नसीबन की मुट्ठी में डाल दी। नसीबन सिसकियाँ भरती हुई ड्योढ़ी पर गई। दो जलेबियाँ और दाल फ़क़ीर को दे आई।

    नई सड़क जो शायद कभी नई हो, अब तो पुरानी और रद्दी हालत में थी, उसके दोनों तरफ़ घर थे। बस कहीं-कहीं कोई मकान ज़रा अच्छी हालत में नज़र जाता था। ज़ियादा-तर मकान पुराने और बोसीदा थे, जो इस मुहल्ले की गिरी हुई हालत का पता देते थे। ये सड़क ज़रा चौड़ी थी जिसको रंगरेज़, धोबी, जुलाहे और लोहार वग़ैरह अ'लावा चलने फिरने के आँगन की तरह इस्तिमाल करने पर मजबूर थे। गर्मियों में इतनी चारपाइयाँ बिछी होती थीं कि यक्का भी मुश्किल से निकल सकता था।

    इस मुहल्ले में ज़ियादा-तर मुसलमान आबाद थे, अ'लावा घरों के यहाँ तीन मस्जिदें थीं। इन मस्जिदों के मुल्लाओं में एक क़िस्म की बाज़ी लगी रहती थी कि कौन इन जाहिल ग़रीबों को ज़ियादा उल्लू बनाए और कौन इनकी गाढ़ी कमाई में से ज़ियादा हज़्म करे।

    ये मुल्ला बच्चों को क़ुरआन पढ़ाने से लेकर झाड़-फूँक, ता'वीज़, गंडा, ग़रज़ कि हर उन तरीक़ों के उस्ताद थे कि जिन से वो इन जुलाहों और लोहारों के बे-वक़ूफ़ बना सकें। ये तीन बेकार और फ़ुज़ूल ख़ानदान इन मेहनत करने वाले इंसानों के बीच में इस तरह रहते थे कि जिस तरह घने जंगलों में दीमक रहती है और आहिस्ता-आहिस्ता दरख़्तों को चाटती रहती है। ये मुल्ला सफ़ेद-पोश थे और इनके पेट पालने वाले मैले और गंदे थे। ये मुल्ला साहिबान सय्यद और शरीफ़-ज़ादे थे और ये मेहनत-कश रज़ील और कमीनों से गिने जाते थे।

    इस मुहल्ले में एक टूटा हुआ मकान था। नीचे के हिस्से में कबाड़ी की दूकान थी और ऊपर कोई पंद्रह-बीस ख़ान रहते थे। ऊपर की मंज़िल का बारजा सड़क की जानिब खुलता था। ये ख़ान सरहद के रहने वाले थे और सब के सब सूद पर रुपया चलाते थे। ये लोग हद से ज़ियादा गंदे थे। मुहल्ले वाले तक उनसे बहुत डरते थे।

    एक तो ज़ियादा-तर लोग उनके क़र्ज़दार थे, दूसरे उनकी निगाह ऐसी बुरी थी कि अकेली औ'रत की हिम्मत उनके घर के सामने से हो कर निकलने की होती थी। दिन-भर उनके घर में ताला पड़ा रहता था। शाम को जब ये लोग वापिस आते तो एक छोटी देग में गोश्त उबाल लेते। बाज़ार से नान लेकर उसी एक बर्तन में हाथ डाल कर खाना खा लेते और चचोड़ी हुई हड्डियाँ नीचे सड़क पर फेंकते जाते। जब उनके खाने का वक़्त होता तो शाम को बहुत से कुत्ते जमा' हो जाते और देर तक ग़ुर-ग़ुर भौं-भौं की आवाज़ें आती रहतीं।

    अपना पेट भर कर ये ख़ान बहीखाते खोल कर बैठ जाते। हिसाब-किताब करने लगते। फिर कुछ अपने कम्बल बिछा कर और हुक़्क़ा लेकर सोने को लेट जाते और चंद मनचले शहर की मटरगश्त को निकल खड़े होते।

    नमाज़, रोज़ों का एक सूद खाने वाला ख़ान बड़ा पाबंद होता है और अपने को सच्चा मुसलमान समझता है हालाँकि उसके मज़हब ने सूद लेने को बिल्कुल मना' किया है लेकिन ये सूद को नफ़ा' कह कर हज़्म कर जाता है और अपने ख़ुदा के हुज़ूर में अपनी इबादत (पूजा) एक रिश्वत की शक्ल में पेश करता रहता है।

    आजकल रमज़ान था तो सब ख़ान भी रोज़ा रखे हुए थे और इफ़्तार के ख़याल से जल्दी घर लौट आते थे। उनका दिल बहलाने का एक तरीक़ा ये भी था कि अपने छज्जे पर खड़े हो कर सड़क की सैर करें और कोई इक्का-दुक्का औ'रत गुज़रे तो उस पर आवाज़े कसें।

    उनके सामने का जो घर था, उसकी खिड़कियाँ तो कभी खुलती ही थीं। कभी-कभार रौशनी से पता चलता था कि फिर कोई किराएदार गया है। आख़िर को एक दिन छकड़े और ताँगे आते और घर फिर ख़ाली हो जाता।

    एक दिन असग़र साहिब घर तलाश करते फिरते थे। उस घर को भी देखा। उस वक़्त ख़ान बाहर गए हुए थे। घर में ताला पड़ा हुआ था। असग़र साहिब ने घर को पसंद किया। ख़ासकर किराए को। क़लई' वग़ैरह हो जाने पर मअ' अपनी बीवी बच्चे और माँ के घर गए। उनकी बीवी नसीमा को घर बहुत पसंद आया।

    अगर आस-पास का मुहल्ला गंदा और बोसीदा हालत में है तो हुआ करे लेकिन बीस रुपये में इतना बड़ा मकान कहाँ मिला जाता था। उसने घर को फ़ौरन सजाने और ठीक कराने का इरादा कर लिया। शाम को वो अपनी खिड़की में से झाँक कर बाहर सड़क पर बच्चों की भाग दौड़ देख रही थी कि उसकी सास भी खड़ी हुई और बाहर देखने लगीं और एक ‘‘उई” कह कर पीछे हट गईं।

    ‘‘ए देख तो इन मोटे मुस्टंडे ख़ानों को। फूटें इनके दीदे। इधर देख-देखकर कैसे हँस रहे हैं!”

    नसीमा ने निगाह मोड़ी, देखा कि कई ख़ान अपने छज्जे पर दाँत निकाले उसकी तरफ़ घूर रहे हैं। नसीमा के उधर देखते ही ख़ानों की फ़ौज में एक हरकत हुई और वो ज़ोर-ज़ोर से बातें करने लगे। शुक्र तो ये था कि उनका घर ज़रा तिर्छा था लेकिन फिर भी सामना ख़ूब होता था।

    ‘‘ए दुल्हन खिड़की बंद कर के हट जाओ। ये कैसा बे-पर्दा घर असग़र ने लिया है। मैं तो यहाँ दो रोज़ तक नहीं टिक सकती।”

    नसीमा ने जवाब नहीं दिया और ख़ानों की आँखों में आँखें डाल कर बराबर देखती रही। सास वहाँ से बड़बड़ाती हुई चली गईं।

    ‘‘मर्दों को कौन कहे जब औरतें ही शर्म करें।”

    असग़र और नसीमा की ज़िंदगी में अब से नहीं कुछ अ'र्से से रुकावट पैदा हो गई थी। उन दोनों की मंगनी बचपन में ही हो गई थी। जैसे-जैसे बढ़ते गए, पर्दा भी बढ़ता गया मगर आँख-मिचौली जैसे अपने हाँ अक्सर मंगेतरों में होती है, उनमें भी होती रही, नौबत यहाँ तक पहुँची हुई थी कि छुप-छुप कर ख़त भी लिखा करते थे।

    असग़र जब कॉलेज में पढ़ता था तो नौजवानी का ज़माना था। तबीअ'त में जोश था और उन लड़कों का साथी था जो मुल्क की आज़ादी का दर्द दिल में रखते थे। उसकी जोशीली तक़रीरें और व्याख्या अंग्रेज़ों के ज़ुल्म, ज़मीन-दारों की बे-गार, किसानों की मुसीबत, सरमायादारों की लूट और मज़दूरों के संगठन के बारे में बहुत मशहूर थीं। बोलने वाला ग़ज़ब का था, विधार्थियों की दुनिया में वो हर जगह मशहूर था। देश को उससे बहुत आशाएँ थीं और नसीमा को उससे भी ज़ियादा।

    असग़र अपनी कॉलेज की ज़िंदगी की सब बातें नसीमा को लिखा रहता और जब वो अख़बार में उसका नाम देखती तो नसीमा का सर ग़ुरूर से ऊँचा हो जाता। उसकी किसी सहेली का भाई या मंगेतर ऐसा देश-भग्त नहीं था। नसीमा ने भी अपने को एक नई ज़िंदगी के लिए तैयार करना शुरू' किया।

    अ'क़्ल-मंद को इशारा काफ़ी। होशियार लड़की थी, वो अपने समाज के रोगों को अच्छी तरह समझने लगी और साथ ही उनको सुधारने की तस्वीरें भी अपने दिमाग़ में खींचने लगी। देश को आज़ाद करने और उस को सुख पहुँचाने के लिए वो हर क़िस्म का बलिदान करने की तैयारी करने लगी। आज़ादी के नाम से उसको इ'श्क़ हो गया था। वो उस पर अपनी जान भी क़ुर्बान कर सकती थी।

    जैसे ही असग़र ने बी.ए. किया दोनों की शादी हो गई और साथ रहने से नसीमा को पता चला कि असग़र की रौशन-ख़याली एक छोटे से दाएरे के अंदर बंद है। उन्होंने इतना तो ज़रूर किया कि अपने चंद दोस्तों से बीवी को मिलवा दिया था। इन लोगों से बातचीत करने के बाद नसीमा की सोच और समझ में ज़ियादा तरक़्क़ी हो गई और उसको ख़ुद आगे बढ़कर काम करने की ख़्वाहिश हुई।

    एक तरफ़ तो नसीमा का शौक़ और जोश बढ़ रहा था और दूसरी तरफ़ असग़र आहिस्ता-आहिस्ता ढीले पड़ते जाते थे। कहते कुछ थे और करते कुछ थे। जिस आसानी के साथ दोस्तों के साथ बहानेबाज़ी कर सकते थे, नसीमा के साथ नहीं कर पाते थे। कभी कहते थे कि अभी तो हमारे हाँ बच्चा होने वाला है! फिर ये कि बच्चा छोटा है। कभी कहा कि वकालत ख़त्म कर लेने दो, वकालत ख़त्म भी की थी कि नौकर हो गए। नौकरी भी की तो सरकारी और अपने पुराने दोस्तों से अलग होने लगे।

    आख़िर कब तक नसीमा से अपने दिल का हाल छुपा सकते थे। बाहर तो बीवी बच्चों का बहाना था लेकिन घर में क्या कहते। नसीमा भी समझ गई कि ये करने धरने वाले तो कुछ हैं नहीं। सिर्फ़ बातें बनाने के हैं। जब कभी पुराने दोस्त इत्तिफ़ाक़ से मिल जाते तो फिर असग़र साहब वही ज़बानी जमा'-ख़र्च शुरू' कर देते और अपनी ग़ैर-सियासी ज़िंदगी को एक मुसीबत बना कर दोस्तों के सामने पेश कर देते और सब यही ख़याल करते कि नसीमा ही उनको बहकाने की ज़िम्मेदार है।

    मियाँ की इस मौक़ा-परस्ती से दोनों के दिलों में गिरह पड़ गई और नसीमा ने एक ख़ामोशी इख़्तियार कर ली।

    अब तो असग़र के दोस्त ढीले-ढाले क़िस्म के वकील और सरकारी मुलाज़िम थे और जिनमें सी.आई.डी. वाले भी शामिल थे। नसीमा के पास अकेले बैठते हुए उन्हें एक उलझन सी होती थी, क्योंकि असग़र के दिल में एक चोर था और वो जानते थे कि इस चोर का पता नसीमा को ख़ूब अच्छी तरह मा'लूम है। नसीमा की हर बात उनको एक ता'ना नज़र आती थी। उसकी सर्द ख़ामोशी से उनको एक झुँझलाहट जाती थी और उनका दिल चाहता था कि वो नसीमा के ख़ूबसूरत चेहरे पर एक ज़ोर का थप्पड़ मार बैठें। अगर नसीमा उनसे लड़ती, बातें सुनाती और ता'ना दे-देकर उनके दिल को छलनी कर देती तो इतनी तकलीफ़ होती जितनी कि असग़र को उसकी ख़ामोश हिक़ारत से थी।

    इफ़्तार का वक़्त क़रीब था। सब ख़ान दरीचे में मौजूद थे। कुछ खड़े थे, कुछ चाय पका रहे थे। नसीमा भी मअ' असलम के अपनी खिड़की में से झाँक रही थी। अब दो महीने के क़रीब उनको इस घर में आए हुए हो गए थे, ख़ान उसकी सूरत और लापरवाई के आदी हो चुके थे। अब ख़्वाह नसीमा वहाँ घंटों घड़ी रहे, ख़ान उसकी तरफ़ ध्यान देते थे। इस वक़्त भी उनकी आँखें और कान क़रीब की मस्जिद की तरफ़ लगे थे।

    इफ़्तार में अभी देर बाक़ी थी, कि एक बुढ्ढा फ़क़ीर गली में से निकल कर सड़क पर आया। जिस तरह वो टटोलता हुआ चल रहा था, उससे ज़ाहिर था कि वो अंधा भी है, उस के सारे जिस्म में रा'शा था। जिस लकड़ी के सहारे वो चल रहा था, वो अभी मुश्किल से थाम सकता था।

    उसकी मुट्ठी में कोई चीज़ थी जो उसके हाथों के काँपने की वजह से दिखाई देती थी। वो आहिस्ता-आहिस्ता बढ़कर नसीमा के घर के सामने एक दीवार से टेक लगा कर खड़ा हो गया।

    ‘‘देखो अम्माँ, उस फ़क़ीर के हाथ में क्या है?”

    नसीमा ने ग़ौर से देखकर कहा, ‘‘कुछ खाने की चीज़ मा'लूम होती है।”

    ‘‘खा क्यों नहीं लेता?”

    ‘‘रोज़े से होगा। शायद अज़ान का इंतिज़ार कर रहा होगा।”

    ‘‘अम्माँ तुम रोज़ा नहीं रखतीं?”

    नसीमा ने मुस्कुरा कर बेटे की तरफ़ देखा, ‘‘नहीं।”

    ‘‘अब्बा ने दारोग़ा जी से क्यों कहा था कि उनका भी रोज़ा है? क्या अब्बा ने झूट बोला था?”

    नसीमा ने कुछ देर सोच कर जवाब दिया, ‘‘तुम ख़ुद उनसे पूछ लेना।”

    ‘‘तो अम्माँ तुम रोज़ा क्यों नहीं रखतीं?”

    ‘‘तुम जो नहीं रखते!”, नसीमा ने असलम को छेड़ा।

    ‘‘मैं तो छोटा हूँ, दादी अम्माँ कहती हैं कि जो बड़ा हो जाए और रोज़ा नहीं रखे वो दोज़ख़ में जाता है। अम्माँ दोज़ख़ क्या होती है?”

    ‘‘दोज़ख़! दोज़ख़ वो तुम्हारे सामने तो है।”

    ‘‘कहाँ?”, असलम ने चारों तरफ़ गर्दन घुमा कर देखा।

    ‘‘वो नीचे जहाँ अंधा फ़क़ीर खड़ा है, जहाँ वो जुलाहे रहते हैं और जहाँ रंगरेज़ रहता है और लोहार भी।”

    ‘‘दादी अम्माँ तो कहती हैं दोज़ख़ में आग होती है।”

    ‘‘हाँ आग होती है लेकिन ऐसी थोड़ी होती है जैसे हमारे चूल्हे हैं। दोज़ख़ की आग बेटा भूक की आग होती है। अक्सर वहाँ खाने को मिलता ही नहीं और जो मिलता भी है तो बहुत बुरा और थोड़ा सा। मेहनत बहुत करनी पड़ती है और कपड़े भी दोज़ख़ वालों के पास फटे पुराने पैवंद लगे होते हैं। उनके घर भी छोटे-छोटे अंधेरे जुओं और खटमलों से भरे होते हैं और असलम मियाँ दोज़ख़ के बच्चों के पास खिलौने भी नहीं होते।”

    ‘‘कल्लू के पास भी कोई खिलौना नहीं है। अम्माँ वो दोज़ख़ में जो रहता है।”

    ‘‘हाँ!”

    ‘‘और जन्नत?”

    ‘‘जन्नत ये है जहाँ हम और तुम और चचा और ख़ाला जान रहते हैं। बड़ा सा घर, साफ़-सुथरा, खाने को मज़े-मज़े की चीज़ें, मक्खन, तोस, फल, अंडा, सालन, दूध सब कुछ होता है। बच्चों के पास अच्छे कपड़े और खेलने को अच्छी सी मोटर होती है।”

    ‘‘तो अम्माँ सब लोग जन्नत में क्यों नहीं रहते?”

    ‘‘इसलिए मेरी जान कि जो लोग जन्नत में रहते हैं, वो उन लोगों को घुसने नहीं देते। अपना काम तो करवा लेते हैं और उनको फिर दोज़ख़ में धक्का दे देते हैं।”

    ‘‘और वो अंधे भी हो जाते हैं?”

    ‘‘हाँ बेटा दोज़ख़ में अंधे बहुत ज़ियादा होते हैं।”

    ‘‘तो वो खाते कैसे हैं?”

    इतने में अज़ान की आवाज़ आई और गोला चला। ख़ान चाय पर लपके और बुढ्ढे फ़क़ीर ने जलेबियाँ-जल्दी मुँह की तरफ़ बढ़ाईं। रा'शा और बढ़ गया। उसके हाथ ज़ियादा काँपने लगे और सर भी ज़ोर-ज़ोर से हिलने लगा। बड़ी मुश्किल से हाथ मुँह तक पहुँचाया और जब मुँह खोल कर जलेबियाँ मुँह में डालने लगा तो रा'शे की वज्ह से जलेबियाँ हाथ से छूट कर ज़मीन पर गिर पड़ीं।

    साथ बुढ्ढा भी जल्दी से घुटनों के बल ज़मीन पर गिर पड़ा और अपने काँपते हाथों से जलेबियाँ ढूँढने लगा। उधर एक कुत्ता जलेबियों पर लपका और जल्दी से जलेबियाँ खा गया। दूसरे कुत्ते भी बढ़े। बुढ्ढे ने उनको डाँटा। कुत्ते उस पर ग़ुर्राने लगे। बुढ्ढा निढाल हो कर ज़मीन पर बैठ गया और बच्चों की तरह बिलक-बिलक कर रोने लगा।

    ख़ान जो उधर देख रहे थे। उन्होंने ये सीन देखकर एक क़हक़हा लगाया और बुढ्ढे की शक्ल-ओ-सूरत और बेचारगी पर हँसकर लोट-पोट हो गए।

    छोटा असलम सहम कर नसीमा से चिमट गया और बोला, ‘‘अम्माँ!”

    उसके नन्हे से दिमाग़ ने पहली दफ़ा दोज़ख़ की असली तस्वीर देखी थी। नसीमा ने ख़ानों की तरफ़ ग़ुस्से से देखकर कहा, ‘‘ये कमबख़्त!”

    असलम ने फिर दबी हुई आवाज़ में कहा, ‘‘अम्माँ।”

    नसीमा ने झुक कर उसको गोद में उठा लिया और उसकी आँखों में आँखें मिला कर जोश से कहा, ‘‘मेरी जान! जब तुम बड़े होगे तो इस दोज़ख़ का मिटाना तुम्हारा ही काम होगा।”

    ‘‘और माँ तुम?”

    ‘‘मैं बेटा अब इस क़ैद से कहाँ जा सकती हूँ।”

    ‘‘क्यों? अभी तो तुम दादी की तरह बूढी नहीं हुईं कि चल सको।”, नन्हे से असलम ने माँ की संजीदगी की नक़्ल करते हुए जवाब दिया।

    ‘‘तुम भी चलना अम्माँ!”

    ‘‘अच्छा मेरे लाल तुम्हारे साथ ज़रूर चलूँगी।”

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