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जागीरदार

जोगिन्दर पॉल

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MORE BYजोगिन्दर पॉल

    स्टोरीलाइन

    यह कहानी एक ऐसे ख़ुदग़रज़ बाप के किरदार को पेश करती है, जो रूपयों की ख़ातिर अपनी ही बेटी से धंधा कराने लगता है। उस मकान में वह नया-नया किरायेदार था। एक दिन एक बच्ची एक चिट्ठी लेकर उसके पास आई। उसमें कुछ रुपयों की दरख़्वास्त की गई थी। चिट्ठी भेजने वाले ने ख़ुद को जागीरदार बताया गया था। चिट्ठी में जितने रूपये माँगे गए थे उसके आधे देकर उस किरायेदार ने बच्ची को रवाना कर दिया। इसके बाद भी बच्ची कई बार उसके पास चिट्ठी लेकर आई और उसने हर बार उसे कम रूपये दिये। एक दिन चिट्ठी भेजने वाला ख़ुद उसके पास आया और कहने लगा कि वह जितने रूपये चिट्ठी में लिखे उतने ही दिया करे, क्योंकि अब उसकी बेटी भी तो बड़ी हो गई है।

    वो बारह-तेरह साल की बड़ी मासूम शक्ल छोकरी थी।

    दरवाज़ा खुलते ही पहले तो मुझे देख कर उसने अपना हाथ झट से पीछे कर लिया और फिर झिझकते हुए उसी हाथ को आगे बढ़ाकर बोली, ये चिट्ठी...

    मैं उसके हाथ से काग़ज़ का पुर्ज़ा लेकर पढ़ने लगा।

    जनाब-ए-आली, मैं आपके महल्ले में ही रहता हूँ।

    कभी बहुत अच्छे दिन देखे थे।

    आज बहुत नाज़ुक सूरत-ए-हाल से दोचार हूँ।

    अपनी बेटी को भेज रहा हूँ, मुम्किन हो तो कम से कम पाँच रूपये भेज दीजिए ताकि घर में हाँडी पक सके।

    आपके पैसे जल्द ही लौटा दूँगा।

    शरीफ़ आदमी हूँ मगर...

    मैंने आख़िरी दो सतरें पढ़े बग़ैर चिट्ठी लिखने वाले का नाम देखने के लिए नज़र नीचे सरका ली...

    जागीरदार...

    और जेब से पाँच का नोट निकाल कर लड़की के हाथ में थमा दिया।

    मुझे यहाँ रिहाइश इख़्तियार किए पूरा एक माह भी हुआ था और इतने बड़े महल्ले के सभी लोगों से तो क्या, अपने फ़ौरी पड़ोसियों से भी में अभी तक नावाक़िफ़ था...

    होगा कोई ग़रीब बे-चारा...

    मैं दरवाज़ा बंद करके वापस अंदर गया।

    इस वाक़ेए को कोई डेढ़-दो माह हो लिए।

    मैं एक दिन सिनेमा के मैटनी शो के लिए जाने की तैयारी कर रहा था कि किसी ने दरवाज़ा खटखटाया।

    दरवाज़े पर वही लड़की खड़ी थी।

    मुझे ख़्याल गया कि शायद पैसे लौटाने आई है।

    ये चिट्ठी...

    उसके बाप ने उसी इबारत में फिर पाँच रूपये मांग भेजे थे।

    मैंने जल्दी से जेब से दो रूपये निकाले और लड़की से कहा।

    यही ले जाओ।

    लड़की चली गई तो मुझे शर्मिंदगी सी हुई...

    कोई ऐसी मजबूरी ही हो तो सफ़ेद-पोश इस तरह हाथ फैलाते हैं।

    मुझे पाँच ही भेज देना चाहिये थे।

    उसके बाद वो लड़की मुझे तीन-चार माह तक नज़र आई और फिर एक दिन दरवाज़े पर वैसी ही खटखटाहट हुई।

    वही लड़की खड़ी थी।

    ये चिट्ठी!

    जागीरदार ने ऐन उसी इबारत में अब के दस रूपयों का मुतालिबा किया था।

    मैंने मुस्कुराकर लड़की के हाथ में इस दफ़ा भी दो का नोट थमा दिया और यूँही सोचने लगा कि भला आदमी उसी तरह माँग-ताँग कर वक़्त काटने का आदी मालूम होता है...

    चलो।

    मैंने दो ही तो दिए हैं।

    सर झटक कर मैं अपने काम में मश्ग़ूल हो गया।

    गुज़श्ता सात-आठ माह के बेश्तर अय्याम मैंने कारोबार के सिलसिले में घर के बाहर बिताए।

    इस दौरान वो लड़की कभी आई हो तो मुझे मालूम नहीं।

    आज सुबह के वक़्त मैं दूध वाले का इंतिज़ार कर रहा था।

    थोड़ी देर घंटी की आवाज़ सुन कर मैं बर्तन लेकर बाहर गया कि दूध डलवा लूँ।

    दरवाज़े पर दूध वाले की बजाए एक अधेड़ उम्र शरीफ़-पोश शख़्स खड़ा था।

    मेरा नाम जागीरदार है।

    आईए।

    नहीं मुख़्तसर सी बात करना है।

    यहीं किए देता हूँ।

    कहिए।

    इस बार लड़की को चिट्ठी दे कर नहीं भेजा, आप ही हाज़िर हो गया हूँ...

    मुझे आपसे ये दरख़ास्त करना है कि...

    मैंने उसे रूपया दो रूपये देने के लिए जेब में हाथ डाला।

    नहीं, ठहरिए, पहले मेरी गुज़ारिश सुन लीजिए...

    मैं अपनी छुट्टियों में जो रक़म लिखूँ, मेहरबानी करके आप वही भेजा करें।

    मैं उसकी तरफ़ हैरत और ग़ुस्से से देखने लगा।

    मेरी बेटी अब पूरी जवान हो चुकी है जनाब, अब तो आपको पूरे ही पैसे चुकाने होंगे!

    स्रोत:

    जोगिन्दर पॉल के अफ़्सानों का इंतिख़ाब (Pg. 137)

      • प्रकाशक: तख़्लीक़कार पब्लिर्शज़, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1999

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