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जुर्म

MORE BYतबस्सुम फ़तमा

    छत टपक रही है।

    छत से टपकती पानी की बूँदें ऐसे गिरती हैं कि दीपा अंदर ही अंदर एक पल को सब कुछ भूल कर अजीब सी लज़्ज़त में डूब जाती है।।। अजीब सी दर्द-भरी लज़्ज़त।।। जिसे मुबाशरत के वक़्त चित्त लेटी औरत ही महसूस कर सकती है।

    कभी इस मौसम में वो कितनी रोमांटिक होजाती थी।।। कल जब वो औरत नहीं थी।।। आज की तरह।।।औरत ।।। जांघों में बसने वाली औरत।।। मनीष भी अक्सर मज़ाक़ के मूड में होता है तो कहता है।।। औरत जांघों में ही तो बस्ती है।

    औरत।।। उसे ख़ुद से शदीद नफ़रत का एहसास हुआ।।। ऐसा क्यों है? औरत हर मुआमले में ज़िंदगी के हर मोड़ पर।।। तक़दीस की गर्द झाड़ते ही चित्त क्यों हो जाती है।।। एक दम से चित्त रहारी हुई।।। मर्द ही जीतता है। औरत चाहे कितनी बड़ी क्यों ना हो जाये।।। इंदिरा गांधी।।। मारग्रेट थैचर।।। से लेकर।।।औरत की अज़मत कहाँ सो जाती है और सिर्फ वही जांघों वाली औरत।।।

    पानी की बूँदों में टप से मनीष का चेहरा उभरता है, जो अक्सर मनीष सक्सेना बन कर सिर्फ एक मर्द बन कर उसे टोकता है।।। तुम फैल रही हो।।। तुम सूट मत पहना करो।।। तुम्हारा जिस्म काफ़ी फैल गया है।।। कूल्हे।।। सीना।।। पुश्त का हिस्सा।।। तुम बहुत भद्दी होती जा रही हो दीपा।

    किचन के पास ।।। ज़रा हट कर जो बेसिन है।।। वहां उसने बड़ा सा आईना लगा रखा है।।। अपने सरापा को रोज़ाना देखने के लिए।।। बदन की इन बुराईयों को जानने के लिए।।। जिसे शादी के सिर्फ चंद सालों बाद मनीष की आँखों में बारहा महसूस किया है दीपा ने।।। आईना के सामने खड़ी हो कर वो अजीब अजीब हरकतें करती है।।। अपने हाथ पांव पर चढ़े हुए गोश्त को बार-बार छू कर देखती है।।। वो फ़र्बा होने लगी है।।। और मनीष लम्हा लम्हा इस से दूर होता जा रहा है।

    हुआ करे।।।शट।।। बड़े बड़े फ़लसफ़ों के दरमयान असली चेहरे को पहचानने में बरसों पहले धोका हो है उसे।

    छत टपक रही है।।। रात आहिस्ता-आहिस्ता घिरती जा रही है।।। अलीशा एक-बार चीख़ कर रोई है।।। दीपा जब तक उस के पास दौड़ कर पहुँचती , करवट बदल कर वो फिर गहिरी नींद में सौ गई है। एक टुक वो अलीशा को देखती है।।। यहां इस जिस्म से ।।। पूरे नौ माह गोश्त-पोस्त के इस टुकड़े को।।। सुलाई की तरह खोल कर बाहर निकाला है उसने ।।। उसी बदन से जिसके निशान पर उंगलियां फेरता हुआ मनीष ठहर जाता है।।। पूछता है।।। तुम्हारे पेट पर ये लंबे लंबे निशान कैसे आगए।।। क्या सभी को हो जाते हैं।।।किसी डाक्टर से कंसल्ट क्यों नहीं करतीं।।। यहां इतना गोश्त कैसे आगया।।।?

    निशान ।।।गोश्त।।।चर्बी।।। उसे लगता है जिस्म की डिक्शनरी के बस यही लफ़्ज़ रह गए हैं, जिसे अपनी अनटलीलकचोइल आँखों से पढ़ता है वो थोड़ा थोड़ा करके।।। उसे कुरेदता रहता है।।।छीलता रहता है।।। दीपा।।। तुम यहां।।। यहां और यहां से बदसूरत हो रही हो।।। तुम्हारा पेट काफ़ी निकल गया है। ।।चेहरे पर झाईआं पड़ रही हैं। और कभी कभी मज़ाक़ मैं पूछता है।।। दीपा तुम औरत लगने लगी हो।।।अम्मां जैसी औरत।।।!

    बारिश लगातार हो रही है। जब से बारिश शुरू हुई है एक अजीब सासनाटा बाहर और इस के अंदर उतर गया है। ।। इस के एक दम अंदर अंदर।।।उसने दीवार घड़ी की तरफ़ देखा। गया रह बज गए हैं।।। एक हमदरद, तशवीश में डूबी औरत चुपके से इस में समा जाती है।।। मनीष इतनी देर कहाँ रह गया।।।? आज ज़रूरत से ज़्यादा देर हो गई।।। बाहर किसी काम में फंस गया होगा।।।

    आख़िर को प्रैस रिपोर्टर है ना।।।जर्नलिस्ट।।। ख़ुद को अनटलकचोइल समझने वाला।

    बारिश की हल्की हल्की फोहार और छत से टपकती पानी की बूँदों में कुछ गुज़री बसरी यादें भी घुल मिल गई थीं।

    मनीष से इस की लवमैरिज हुई थी। तब इन दोनों की शादी को लेकर घर में काफ़ी हंगामा हुआ था। कितना तूफ़ान मचा था।।। कमज़ोर सामनीश।।। बुज़दिल सा।।। घर वालों के सामने बिलकुल सहमा-सहमा और इस के सामने पूरे एतिमाद के साथ खड़ी थी दीपा।।। घर, ज़माना, हालात।।। अपने फ़ैसले पर कमज़ोरी और बुज़दिली की ख़ाक मत डालो। फ़ैसला करो फ़ौरन।।। फिर पूरे तेवर और एतिमाद के साथ वो मनीष पर किसी हुक्मराँ की तरह छा गई थी।

    लाओ तुम्हारा हाथ देखूं।।। थोड़ी सी पामिस्ट्री मुझे भी आती है।।। ग़लती तुम्हारी नहीं मनीष। तुम्हारा नाम से शुरू होता है। ।।सिंह राशि।।। इस राशि के लोग, जिनकी अगर बचपन से ठीक परवरिश ना की गई तो वो या तो बहुत बुज़दिल बन जाते हैं या फिर बहुत ख़ुद-सर।।। और फिर तुम्हारा अँगूठा भी झुका हुआ है।विल पावर की कमी है तुम्हारे यहां। तुम ख़ुद फ़ैसला करहि नहीं सकते।।। चलो ये फ़ैसला अब मुझे ही करना होगा।

    मनीष ने हारमान ली थी। एक कमज़ोर हंसी के साथ उसने दीपा का हाथ थाम लिया था।।। हाँ! मुझमें फ़ैसले की बड़ी कमी है दीपा।।। वो रो हा निसा हो कर बोला था।।। एतिमाद की रस्सी मेरे हाथों से धीरे धीरे फिसल रही है।।। प्लीज़ दीपा।।।

    वो और क़रीब आगई।

    मनीष की आवाज़ किसी गहरे कुवें से आरही थी।।। दीपा औरत की एक अलग सी तस्वीर है मेरे अंदर।।। एक दम सीता।।। मर्यम।।। सावित्री की दास्तानों जैसी नहीं।।। उनसे मुख़्तलिफ़।।। शाना बशाना मेरे साथ चलती हुई।।।आज भी इस दौर में भी लड़कीयों को मज़लूम और मर्द की जाबिर सलतनत का अदना खिलौना क्यों तसव्वुर किया जाता है दीपा।।।? बता सकती हो।।। हम दोनों मर्द औरत की आम परीभा शह बदल देंगे दीपा।।। हमेशा दोस्त रहेंगे जैसे दोस्त रहते हैं।

    वो बोलता रहा और इस की आँखों में अजीब सी चमक उभरती रही। तसव्वुर में सत रंगे सपनों को बनती रही।

    ये सपना इतनी जल्दी कैसे टूट गया था?

    मिसिज़ मनीष सक्सेना बन कर दिल्ली की भागती दौड़ती ज़िंदगी में शामिल होते ही ये दोस्ती कैसे टूट गई थी।

    दोस्त।।।?

    हंसी आती है।।। दोस्ती तीन सालों तक निभी।।। हाँ निभी ही कहा जा सकता है।।। धीरे धीरे फ़लसफ़ों के काँटेदार जंगल में वो काले घने बादलों को देखती रही।ख़ाब इतने बदसूरत क्यों होते हैं।।।? और फ़लसफ़े ज़िंदगी की हक़ीक़त क्यों नहीं बनते।।।? ज़रा दूर तक।।। एक दम पानी के बुलबलों की तरह फूट जाते हैं।।। फूटते ही सामने वाला नंगा क्यों हो जाता है।

    वो मनीष में अब भूत देखती थी। तन्हाई में जिबलत वाला एक दरिन्दा इस में समा जाता है।।। Sadist कहीं का।।। वो उसे तोड़ता था चेहरे पर पसीने की बूँधें छलफला आने तक उस के पूरे वजूद में देर तक घिनाओनी नफ़रत पैवस्त कर देता था।

    वो महबूबा अरो दोस्त से जांघों वाली औरत बन जाती तो जैसे ख़ुद पर श्रम आती। ये मर्द ही क्यों जीतते हैं और औरत चित्त क्यों हो जाती है।।। हमेशा हारने वाली।।। महीना दो महीने और साल गुज़रते ही वो मनीष में अपने आपसे ऊबे हुए दोस्त को महसूस करने लगी थी।

    जैसे उस के लिए जो जज़बा या एहसास था उस के अंदर वो बस सोता जा रहा है।।। जो एहसास था वो उसे नहीं उस के जिस्म को लेकर था। एक सदाबहार ग़ुंचे की तरह चटकने वाले जिस्म को लेकर ।।। जैसे एक जाबिर बादशाह की नज़रें बदलने लगी थीं। वो बदल सा गया था।।। धीरे धीरे वो पपट बनता जा रहा था।।। नहीं पपट नहीं।।। कम्पयूटर या मशीन जो भी कहीए।।। बस एक मीकानिकी अमल रह गया था इन दोनों के दरमयान ।।। बासी मकालमे ।।। कैसी हो।।। कोई ख़त आया है।।।कोई आया था आज ।।। अलीशा सो गई।।। नपे तुले जुमले।।। और थकान।।। उसे देखते हुए भी इस के अंदर कोई मुस्कुराहट नहीं जन्म लेती थी।।। कोई प्यार।।। कोई उमंग।।। कोई इज़तिराब।।। कोई हलचल नहीं जागती थी। बस एक मीकानिकी अमल।।।

    रात होते ही।।। अंधेरा फैलते ही।।। इस के हाथ दीपा के बदन पर।।। तवाइफ़ के कोठे पर आए आम गाहक की तरह मचल उठे।।। उसे लगता ।।।अनजाने में कोई और इस के मुक़ाबिल सो गया है।।। उसे नफ़रत होती।।। उसे लगता ये मनीष नहीं है कोई और है।।। जो उसे , इस अमल से दीपा को औरत होने की रुस्वाई और तानों से लहू-लुहान कर रहा है।।। लगातार लहू-लुहान किए जा रहा है।।।

    और ।।।उसने महसूस किया।

    रात के अंधेरे में उसे महसूस करते हैं।।। मनीष अंधेरा क्यूँ-कर देता है।।। इस के बदन पर मचलते हुए उस के हाथ उसे बेगाने क्यों लगते हैं? इस की आँखें रिमझिम बारिश के वक़्त बंद क्यों होजाती हैं।

    नहीं।।।तब वो नहीं होती है।।।

    इस वक़्त दीपा नहीं होती है।।।

    कोई और होता है मनीष के सामने।।। कोई और।। जो कम अज़ कम दीपा नहीं है।।। मनीष की बीवी नहीं है।।। ये कोई और होती है।।। कोई भी।।।फ़िल्म ऐक्ट्रीयस।।। मनीष के दफ़्तर में काम करने वाली कोई लड़की।।। मैगज़ीन और रसाइल में छपने वाली कोई मॉडल।।। या बस-स्टॉप पर खड़ी कोई लड़की।।। कोई भी हो सकती है लेकिन वो नहीं होती।।। दीपा नहीं होती।

    उसे लगता है वो हांपने लगी है।।। पहाड़ पर चढ़ने वाले आदमी की तरह।।। वो ऐसा क्यों महसूस करती है।।। मनीष बदल रहा है।।। बदला करे।।। लेकिन जब वो उस के साथ।।।। इस के साथ रहता है तो ।।। मनीष को इस में दीपा को ही महसूस करना होगा।।। हाँ दीपा को यानी मुझे।।। मुझे ही महसूस करना होगा।

    कभी कभी वो सदमे से या ग़ुस्से से ज़ोरों से चीख़ पड़ती।

    नहीं मनीष में यूं नहीं लेट सकती।

    इस के हाथ सोच की तरफ़ बढ़ जाते।।। लाईट आन करो मनीष।।। मुझे वहशत हो रही है।।। मनीष ने लाईट जला दी।।।। चौंक कर उसे देखा।।।नाइटी फेंक कर वो ग़ुस्से से इस के सामने तन जाती।।।

    ये में हूँ।।। मैं हूँ मनीष।।। दीपा।।।में।।।

    हाँ तुम ही हो।।। मैंने कब कहा कि।।।

    हाँ तुमने नहीं कहा।। ।लेकिन मैं जानती हूँ।।। मेरे लेटते ही में मर जाती हूँ। मुझमें कोई और आजाता है। ये सच्च है मनीष।।।। कोई और ।।।। तुम जिसे भोगते हो।।। जिसे महसूस करते हो।।। और मेरे वजूद में पिघले शीशे की तरह नफ़रत उतार देते हो।।।

    क्यों पागलों जैसी बातें कर रही हो दीपा।।।

    मनीष हैरानी से देखता है।।। पता नहीं मेरी ग़ैरमौजूदगी में क्याक्या पढ़ती और सोचती रहती हो।।। सुबह दफ़्तर जाना है।।।ज़िद मत करो।।। इस वक़्त में Relax होना चाहता हूँ।।।

    वो चीख़ पड़ती है।।। मैं Relax होने के लिए नहीं बनी हवन मनीष।।।

    वो बिस्तर से ऐसे ही उठ जाती है।।।मुझे देखो।।। मुझमें भी एक आग दहक रही है।।। ये में हूँ।।। दीपा।।।

    हसटरयाई कैफ़ीयत के तहत वो रोना शुरू कर देती है।।।

    मनीष धीरे धीरे उसे मनाने को आगे बढ़ता है तो वो ग़ुस्से में हाथ झटक देती है।।।

    प्लीज़ डोंट डिस्टर्ब मी।।। लीवमी एलान।।। प्लीज़।।। सौ जाओ।।। और मुझे भी सोने दो।

    दीपा देखती है।।। मनीष के चेहरे पर उलझन के आसार हैं।।। शिकार के पास आकर भी ना-मुराद लौट जानेवाले शेर की तरह।।। वो करवट बदल कर लेट गया है।।। और वो महसूस कर रही है।।। पलंग मुसलसल चीख़ रहा है।।।बज रहा है।।।!

    शट मनीष ऐसे क्यों हो जाता है।।। क्या सारे मर्द ऐसे ही होते हैं।।।?

    सुबह जब उस का ग़ुस्सा काफ़ूर होता तो वो नहाई हुई सुबह की तरह ख़ुशगवार बन कर एक गर्म मीठे चाय के कप की तरह उस की आँखों में उतर जाती है।

    मनीष डईर! माफ़ कर दो मुझे।।। पता नहीं।।। रात, बिस्तर पर एक ख़बती औरत कहाँ से समा जाती है मुझमें।।। माफ़ कर दोना।।।!

    कर दिया।।। मनीष हँसता है।।। जानता हूँ।।। अब्नोर्मल हो तुम।।। थोड़ा थोड़ा में भी हूँ। तभी तो तुम्हारे साथ मज़ा आता है।।। दरअसल तुम्हारे पाने के सपने में भी थोड़ी सी Abnormality शामिल थी।

    ऑफ़िस जाते-जाते वो जैसे उस की दुखती रग पर फिर हाथ रख देती है।।।सारे मर्द ।।। इस तरह बीवी से नाराज़ हो कर रात में चारपाइयाँ क्यों तोड़ने लगते हो।।। कोई तो होता है ना।।।मानो मत मानो।।। होता है ना।।।

    मनीष पलटता है।।। उसे याद है अलीशा की पैदाइश के दो माह बाद इस सवाल के जवाब में मनीष ने कहा था।

    तुम ग़लत जा रही हो दीपा।।। तुम्हारी सोच ग़लत है।।। तुम सब कुछ ग़लत Angle से क्यों देखती हो।।। यानी जो है वो ग़लत है।।। तुम में एक दूसरी औरत अंधेरे में हमबिसतरी के वक़्त आसकती है।।। मगर अभी नहीं।।। जब हम दोनों एक दूसरे के लिए बासी और बोर हो जाऐंगे। बहुत बोर। तब अंदर के एहसास को जगाने के लिए किसी चटख़ारे की ज़रूरत तो पड़ेगी ना।।। अभी नहीं।।। और ऐसा क्यों सोचती हो कि अंधेरे में ही मर्दके ज़हन में कोई तसव्वुर बन सकता है, बत्ती जलने पर नहीं।।। ज़हन में ख़ाके तो कभी भी बन सकते हैं। ।। लेकिन औरत अपने मर्द को इस का मौक़ा ही क्यों देती है।।।

    और उसे लगा था मनीष उस के औरत होने के नाम पर एक गंदी सी गाली देकर चला गया हो।।। औरत अपने मर्द को इस का मौक़ा ही क्यों देती है।।। क्यों देती है।।। हथौड़े की तरह ये जुमला उस के ज़हन पर बजने लगा था।।। औरत।।। क्योंकि वो भोग बन जाती है। मुसलसल भोग की चीज़।।। वो नौ माह अपने मर्द की जिबलत को अपनी कोख में संजूती है और बदन पर भद्दे निशान उभार लेती है।।। औरत अगर भद्दी होती है तो इस में किस का हाथ होता है।।। कितनी सफ़ाई से मर्द सारा इल्ज़ाम औरत पर डाल देता है।

    उसे लगता है वो टूट रही है।।।। अलीशा के आने के बाद वो लगातार टूटती जा रही है।।। इस के बराबर बिस्तर पर उस के साथ एक छिपकली चल रही है। धीरे धीरे चलती हुई छिपकली अचानक उस के बदन पर फैल जाती है।।। और इस पर इस लम्हे सिर्फ़ जिस्म सच्च हो जाता है।।। बरसों से पोसा पाला प्यार।।। एक मीठे तीखे वक़्ती एहसास के लिए।।। इतनी दूर तक साथ चला यक़ीन धुँदला क्यों हो जाता है।।।क्यों?

    टप टप बारिश के क़तरे लगातार गिर रहे हैं।।।

    उसे ख़ुद से नफ़रत हुई।।। नहीं।।। वो बहुत बुरी बनती जा रही है।।। इस के ख़्याल।।। इस के हवास।।। सब पर कोई इन्क़िलाबी हमला होता जा रहा है।।। हमला।।। और हमले का पहला वार मनीष की तरफ़ से किया गया है।

    ये मर्द।।।। बाहर से आते ही फ़लसफ़ों की तान औरत के बदन पर क्यों टूटती है। वो अलीशा को धीरे धीरे थपक रही है।।। सूजा बेटा।।। सूजा।।।

    नीचे मनीष की गाड़ी रुकने की आवाज़ आती है।

    इस की मुट्ठीयाँ भिंच गई हैं।।। नहीं।।। वो फ़ातिह बनना चाहती है।।। किसी कमज़ोर लम्हे में भी।।। फ़ातिह।।। जैसे ज़िंदगी के हर मोड़ पर वो है।।। यहां भी वो फ़तह जैसा एहसास पैदा करना चाहती है।

    मनीष के पैरों की चाप ज़ीने तक आगई है।।। और उसे महसूस हो रहा है ।।।वो ढाल बन गई है और ।।।मनीष तलवार है।।।तलवार में बिजली की सी चमक है।।। और ढाल में ज़बरदस्त क़ुव्वत-ए-मदाफ़अत ।।। चमकती हुई ब्रहना तलवार लहराती हुई ढाल को ज़ेर करना चाहती है।।। मगर ज़नाटे दार नाचती हुई ढाल के आगे तलवार को सुपर डालनी ही पड़ती है।।। ढाल उछल कर तलवार की नोक पर गिरती है।।।और ढाल की वक़्त तमाज़त से तलवार पिघल पिघल कर क़बूल कर लेती है।।।

    डोर बेल लगातार बज रही है।।। और बालकनी पर बारिश के क़तरे टप टप गिरते हैं जा रहे हैं।।

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