कठिन डगरिया
स्टोरीलाइन
इस कहानी में जैसे को तैसा वाला मामला बयान किया गया है। रखी राम और बैजनाथ दोस्त हैं, दोनों की पत्नियां ख़ूबसूरत हैं लेकिन दोनों को अपनी पत्नी से दिलचस्पी नहीं है बल्कि एक दूसरे की पत्नी में यौन आकर्षण महसूस करते हैं। रखी राम का दिल्ली जाने का प्रोग्राम होता है लेकिन ऐन वक़्त पर प्रोग्राम कैंसिल हो जाता है तो वो बैजनाथ के घर जा कर कामिनी से आनंद उठाने का कार्यक्रम बना लेता है। उधर बैजनाथ रखी राम की पत्नी शांता से आनंद उठाने की नीयत से तैयार हो रहा होता है कि रखी राम उसके घर पहुंच जाता है। बैजनाथ चौंकता ज़रूर है लेकिन वो दावत का बहाना बना कर घर से चला जाता है। रखी राम कामिनी से आनंदित होते हैं और फिर जब घर पहुंचते हैं तो गली के पनवाड़ी जिया से मालूम होता है कि बैजनाथ उससे मिलने आए थे, काफ़ी देर इंतज़ार के बाद वापस चले गए।
रखी राम दुकान से वापिस आ रहा था। सूरत से ज़ाहिर होता था कि वो उस वक़्त कोई मज़ेदार बात सोच रहा है। होंटों पर मुस्कुराहट खेल रही थी। चलते-चलते जब उसे सिगरेट जलाने की ख़्वाहिश महसूस हुई तो उसे ख़याल आया कि माचिस तो दुकान पर ही रह गई है। ख़ैर कोई मुज़ाइक़ा नहीं। अब वो घर के क़रीब पहुँच चुका है। वो अपनी धन में इस क़दर मगन था कि उसे सिगरेट मुँह से निकालने का ख़याल तक न आया। किसी राहगीर की नज़र उसके ढीले ढाले होंटों में फँसे हुए सिगरेट पर जा पड़ती तो वो बे-इख़्तियार मुस्कुरा देता। इस पर तुर्रा ये कि वो ख़ुद-ब-ख़ुद मुसकुराए जा रहा था। कभी सर को हरकत देने लगता। कभी ज़ेर-ए-लब कुछ कहने लगता। वो बिल्कुल पागलों की सी हरकत कर रहा था लेकिन वो पागल नहीं था।
चौंतीस-पैंतीस बरस के क़रीब ‘उम्र, सूरत भी बुरी नहीं थी। सेहत भी काफ़ी अच्छी थी। तीन बच्चों का बाप था। आ’ला पैमाने पर रेडियो की दुकान चला रहा था। ग्यारह बजे दुकान पर जाता। उसका मु’आविन पहले ही से मौजूद होता था। एक से दो बजे तक लंच के लिए दुकान बंद कर दी जाती। शाम के पाँच बजे के क़रीब वो घर चला आता। अलबत्ता दुकान सात बजे तक खुली रहती। आज कारोबार के सिलसिले में एक शख़्स को मिलने के लिए उसे दिल्ली जाना था। उसने अपनी बीवी शांता को सामान तैयार करने के लिए भी कह दिया था लेकिन अचानक दुकान पर उसे तार मिला कि कल वो शख़्स ख़ुद लाहौर पहुँच रहा है। चलो सफ़र की मुसीबत से जान छूटी। लेकिन आज शाम का प्रोग्राम क्या हो? ये सवाल फ़ौरन उसके ज़हन पर उभर आया और वो चंद लम्हों तक बे-सबब इस फ़िक्र में ग़लताँ रहा और फिर दिल की पुकार ख़ुद-ब-ख़ुद वाज़ेह हो गई कि ये शाम अपने दोस्त बैजनाथ के हाँ गुज़ारी जाए। बल्कि रात का खाना भी वहीं खाया जाए।
कुछ रोज़ से बैजनाथ की बीवी कामिनी उसके लिए ख़ास कशिश का बा’इस बनी हुई थी। ये बात अख़्लाक़ से गिरी हुई ज़रूर थी लेकिन वो दिल के हाथों मजबूर था। जवानी के ज़माने में वो हद से ज़ियादा मजबूर बना रहा। ज़िंदगी का सुनहरा ज़माना किसी से मुहब्बत की पेंगें बढ़ाए बग़ैर गुज़र गया। जब शादी हुई तो चंद साल तक वो बीवी का दीवाना सा रहा। मगर रफ़्ता-रफ़्ता बीवी में कोई कशिश बाक़ी न रही। जब कभी बीवी आँखों को भली मा’लूम होती तो बस हाथ बढ़ाने की देर थी। वहाँ इंकार का सवाल ही पैदा न होता था। रफ़्ता-रफ़्ता अपनी बीवी बे-रस मा’लूम होने लगी। तब उसने बाज़ार का रुख़ किया। वहाँ दलाल यही कहता कि बस साहब हफ़्ते भर ही से बाज़ार में बैठने लगी है। पहले-पहल तो ये ख़याल ही कुछ कम रूमान-अंगेज़ नहीं था लेकिन जब दलालों के हथकंडों का ‘इल्म हुआ तो तबी’अत बुझ गई। दुनिया का धंदा तो चलता रहा लेकिन मुहब्बत की प्यास के मारे अंदर ही अंदर काँटा सा खटकने लगा।
गुज़िश्ता दिनों इतवार के रोज़ वो अपने मकान के सामने चबूतरे पर बैठा अख़बार देख रहा था कि उसने बैजनाथ को कामिनी के हमराह अपने मकान की तरफ़ आते देखा। दोनों की आँखें चार होने पर बैजनाथ ने कहा, “हम अजनबी हैं। मकान की तलाश कर रहे हैं। क्या आप हमारी मदद कर सकेंगे।”
ये उनकी पहली मुलाक़ात थी। उसने बड़ी दौड़ धूप के बा’द उसे मकान दिलवा दिया। अगरचे उनके मकानों के दरमियान तीन चार-मील से कम फ़ासला नहीं था। इसके बावुजूद दोनों घरानों के त’अल्लुक़ात गहरे होते गए। एक दूसरे के हाँ आना जाना... शिरकत करना, कभी-कभार तफ़रीह की ग़रज़ से शहर से बाहर चले जाना उनके मा’मूल में दाख़िल हो गया था।
ऐसे मौक़ों’ पर कामिनी उसकी तरफ़ निगाह-ए-ग़लत-अंदाज़ से देख लेती। पहली मर्तबा तो उसका कलेजा धक-धक करने लगा। वो समझा उसकी निगाहों ने धोका खाया है लेकिन जब दबी-दबी मुस्कुराहटों का तबादला भी होने लगा तो पहले महसूस हुआ कि शायद वो एक दूसरे से मुहब्बत भी कर सकेंगे। कभी उसका दिल ला’न-ता’न करता लेकिन फिर वो अपने दिल को ये कह कर ढारस दे लेता कि कामिनी ही की तरफ़ से तो आग़ाज़ हुआ है। कभी सोचता मा’मूली दिल-लगी ही तो है। ज़रा की ज़रा चहल हो जाती है। दिल बहला रहता है। इसमें क़बाहत की तो कोई बात ही नहीं। लेकिन ये सब ज़ाहिर-दारियाँ थीं क्योंकि दिल की गहराइयों में वो अच्छी तरह महसूस करने लगा था कि उसे कामिनी से मुहब्बत हो गई है।
रास्ता चलते-चलते वो कामिनी की बाबत सोच रहा था। अभी तक उसने उसे छुआ तक नहीं था। शायद आज कोई अहम वाक़ि’आ पेश आए। मुम्किन है कि वो इस पहली महबूबा के बहुत क़रीब पहुँच जाए। अब वो अपनी गली में पहुँच चुका था। जिया पनवाड़ी की दुकान उसके मकान के क़रीब ही थी। दुकान के क़रीब से हो कर गुज़रते वक़्त सुलगती रस्सी देखकर उसे सिगरेट सुलगाने का ख़याल आया। अगर कोई दोस्त उसे मिलने के लिए आता तो घर वालों को ख़बर हो या न हो लेकिन जिया ज़रूर इस बात का ख़याल रखता था। चुनाँचे सिगरेट सुलगा कर उसने जिया से पूछा, “क्यूँ-बे जिए मुझे कोई शख़्स मिलने के लिए तो नहीं आया था?”
उस वक़्त जिया नस्वार सूँघ रहा था। छींक आने ही को थी। इसलिए मुँह से जवाब न दे सका। कभी इस्बात में सर हिलाता कभी नफ़ी में। आख़िर मा’लूम हुआ कि कोई शख़्स नहीं आया था। रखी ने सिगरेट का कश खींचा और घर की तरफ़ बढ़ा। दरवाज़े के आगे जो कुछ सीढ़ियाँ बनी हुई थीं, उनकी दो ईंटें उखड़ गई थीं, हर-दम उन पर से फिसलने का अंदेशा लाहिक़ रहता था। उसे कई मर्तबा ख़याल आया कि उनकी मरम्मत करवा दी जाए लेकिन ला-परवाई में ये काम पूरा न हो सका।
घर के अंदर दाख़िल हुआ तो देखा कि शांता बड़े आईने के सामने बैठी बाल बना रही है। मा’लूम होता था, अभी-अभी नहाकर आई है। उस वक़्त ख़ासी प्यारी दिखाई दे रही थी। उसके दोस्त कहा करते, “यार तुम्हारी ‘औरत बहुत हसीन है। फिर बाज़ारों में क्यों धक्के खाते फिरते हो?”
शांता ने बाल एक हाथ से घुमा कर आगे लाते और उन पर कंघी करते हुए कहा, “जी मैंने आपका सामान तैयार कर दिया।”
“भई आज तो मैं नहीं जाऊँगा।”
“क्यों?”, शांता ने त’अज्जुब से आँखें फैला कर पूछा।
“जिस शख़्स से मिलना था वो ख़ुद कल यहाँ आ रहा है। नल बंद तो नहीं हुआ? ज़रा नहा लूँ।”
वो ग़ुस्ल-ख़ाने में चला गया और वहाँ “का करूँ तोसे उल्फ़त हो गई... हो गई” गाता रहा। जब कपड़े पहन चुका तो बीवी ने पूछा, “अब खाना खाकर ही बाहर जाइएगा।”
“नहीं भई मुझे देर हो रही है। एक शख़्स से मिलना है। खाना बाहर ही खाऊँगा। इंतिज़ार में मत बैठी रहना।”
हालाँकि उसकी बीवी को उस पर किसी क़िस्म का शक नहीं था लेकिन उसने बैजनाथ के घर का नाम जान-बूझ कर नहीं लिया। आख़िर क्या फ़ायदा? ‘औरतें वहमी तो होती ही हैं। आईने के सामने खड़े-खड़े उसने अपनी सूरत का जायज़ा लिया और उसने ख़ुद ही फ़ैसला लिया कि उसकी सूरत बैजनाथ से कहीं बेहतर है और अगर कामिनी उसे अपने शौहर पर तरजीह देती है तो इसे उसकी ख़ुश-ज़ौक़ी का सुबूत समझना चाहिए।
ख़ूब बन-सँवर कर उसने अपने आप पर आख़िरी निगाह डाली। कोट की ऊपर वाली जेब में रंगीन रूमाल ठिकाने से रखा। रुख़्सारों पर हाथ फेर कर उनकी हम-वारी का जायज़ा लिया। टाई की गिरह दुरुस्त की। पतलून की क्रीज़ पहलू बदल-बदल कर देखी। हैट पर जमी हुई गर्द की बारीक तह चुटकी बजा-बजा कर साफ़ की। चाँदी का सिगरेट केस जेब में डालते हुए उसने एक नज़र बीवी की तरफ़ देखा। आज वो वाक़’ई हसीन दिखाई दे रही थी। दोनों लड़के नाना के हाँ गए हुए थे। उनकी ग़ैर-मौजूदगी में बीवी को प्यार करने में भी कोई रुकावट नहीं थी। लेकिन वो जल्दी में था। इसलिए छड़ी घुमाता हुआ घर से बाहर निकल आया। एक लम्हे के लिए उसे ख़याल आया कि अगर वो सिगरेट केस में “अबदुल्लाह” के सिगरेट रख लेता तो बेहतर होता। वो “अबदुल्लाह” सिगरेटों का बड़ा मद्दाह था और उन्हें ख़ुसूसन उस वक़्त पीता था जब वो ख़ुश हो। अब सिगरेट लेने के लिए वापिस जाने में उसने बद-शगुनी समझी। इसलिए कू-ए-यार ही की तरफ़ बढ़ता चला गया।
उसका दिल मसरूर था। क़दम बड़े बाँकपन से उठ रहे थे। इर्द-गिर्द की चीज़ें उजली और नई सी दिखाई दे रही थीं। जैसे हर चीज़ ने नया जनम लिया हो। उसमें चमक थी और हरकात से चुलबुलापन ‘अयाँ था। अपनी बीवी और घर से दूर वो अपने आपको आज़ाद परिंदे की तरह हल्का-फुल्का महसूस कर रहा था। वो कॉलेज के उस छोकरे की मानिंद दिखाई दे रहा था जो घर से ता’लीम हासिल करने के लिए भेजा गया हो और अब वालिदैन के रुपये से ‘इश्क़ लड़ा रहा हो। महज़ ‘औरत की हैसियत उसके सामने कुछ भी नहीं थी। वो तो मुहब्बत का भूका था, दर्द-ए-’इश्क़ का ख़्वाहाँ था। असली चीज़ तो वो जज़्ब-ए-यगानगी था जो वो कम्मो के लिए महसूस कर रहा था। वो दिल ही दिल में कामिनी को प्यार से कम्मो कहा करता था। उसकी एक तमन्ना थी कि अगर उनकी मुहब्बत परवान चढ़े और दोनों के धड़कते हुए सीने किसी रोज़ मिल जाएँ तो वो उसे प्यारी कम्मो कह कर बुलाए। कभी-कभी जब वो तसव्वुरात के तिलिस्म से निकलता तो सोचता क्या मा’लूम उसके नसीब में हसीन कामिनी की महज़ मुस्कुराहट ही लिखी हो।
आख़िर शाम के धुँदलके में जब बैजनाथ काबला पलस्तर की ईंटों का बना हुआ मकान नज़र आने लगा तो उसके क़दम डगमगाने लगे। यहाँ तक वो एक मुबहम लेकिन मस्हूर-कुन जज़्बे के मातहत चला आया था। लेकिन अब वो सोचने लगा कि उसके घर में किस अंदाज़ से दाख़िल होना चाहिए? इस मसअले के कई पहलुओं पर ग़ौर करने के बा’द उसने फ़ैसला किया कि इन मु’आमलात पर ज़ियादा तज्वीज़ें सोचने की ज़रूरत नहीं। हर हरकत बे-तकल्लुफ़ाना होनी चाहिए। चुनाँचे वो बड़ी बे-तकल्लुफ़ी से उनके घर के अंदर दाख़िल हो गया।
बड़े कमरे से मियाँ बीवी के हँसने और बातें करने की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। रखी दरवाज़े में जा खड़ा हुआ। बैजनाथ मुँह फेरे कुर्सी के बाज़ू पर बैठा था। उसने नए कपड़े पहन रखे थे। जिससे ज़ाहिर होता था कि शायद वो बाहर जाने की तैयारी कर रहा था। कामिनी उसकी क़मीस में बटन टाँक रही थी और वो गा रहा था।
“अब ज़रा गाना बंद कर दीजिए ना। सूई छाती में चुभ जाएगी तो फिर कहिएगा।”
शौहर मसख़रे-पन से बोला, “तुमसे नहीं कहेंगे तो और किससे कहेंगे माई डार्लिंग और हमारा कौन है।” और फिर वो निहायत भोंडे अंदाज़ में नथुने फुला-फुला कर शिकस्ता बाँस की सी आवाज़ में एक फ़र्सूदा सा गाना गाने लगा।
“तेरा कौन है
किसे करता तू प्यार प्यार प्यार
तेरा कौन है... तेरा कौन है... हाँ तेरा कौन है।”
उधर मियाँ बीवी में ये चुहलें हो रही थीं, इधर छः माह का बच्चा पालने में पड़ा रो रहा था। मा’लूम होता था कि बैजनाथ उस वक़्त बड़े ख़ुश-गवार मूड में था। जूँ-जूँ बीवी उसकी हरकात से चिड़ती तूँ-तूँ वो उसे और ज़ियादा परेशान करता। वो झुँझला कर कहती, “अब मटकना बंद कीजिए, मुन्ना रो रहा है।”
रखी राम दो क़दम आगे बढ़ा और उसने खाँस कर उन्हें अपनी आमद से मतला’ कर दिया। बैजनाथ ने सर उठा कर उस को देखा। पहले तो हैरान रह गया। फिर चिल्लाया, “हलो-हलो यार! मेरा ख़याल था अब तुम गाड़ी में बैठे होगे।”
रखी ने मुसाफ़े के लिए हाथ बढ़ाते हुए जवाब दिया, “नहीं भई, दिल्ली जाने का प्रोग्राम मंसूख़ हो गया। कोपा राम से मिलना था। उसका तार आया है कि कल वो ख़ुद लाहौर पहुँच रहा है।”
इतने में कामिनी ने भी दोनों हाथ जोड़ कर नमस्ते कर दी, “जी नमस्ते!”
उसने बड़ी मा’सूमियत और अख़्लाक़ से जवाब दिया। मुन्ना रो रहा था। कामिनी उसे प्यार से पालने में उठा कर चुप कराने की कोशिश करने लगी।
“मुन्ना क्यों रो रहा है, मुन्ना क्यों रो रहा है? ना, ना... क्यों जी आपकी मुन्नी भी रो रही थी?”
“जी नहीं।”, रखी ने जवाब दिया, “हमारी मुन्नी तो सोई पड़ी थी। आजकल हमारे घर में बच्चों का शोर बहुत कम है। गोशी और जीव दोनों नाना के हाँ गए हुए थे। बच्चे हैं ना। नई जगह उनका दिल बहला हुआ है। घर में बेचारी मुन्नी चुप-चाप पड़ी रहती है।”
“ना जी ना। हमारा मुन्ना भी तो नहीं रोता।”, कामिनी ने बच्चे को पुचकारते हुए कहा, “आज तो इसके बाबूजी ने इसे हल्कान कर दिया है। मैं उनके बटन टाँक रही थी और ये हिल-हिल कर गाए जाते थे। मुन्ना जाग उठा और रोने लगा।”
जब वो बातें कर रही थी तो रखी उसके लचकीले जिस्म और तेज़ी से हिलते हुए होंटों की तरफ़ देखता रहा। इस वक़्त सिंघार का तो कोई सवाल ही नहीं था लेकिन मा’मूली घरेलू लिबास में भी वो किस क़दर हसीन दिखाई दे रही थी और फिर दफ़’अतन जो उसे ख़याल आया तो बैजनाथ से मुख़ातिब हो कर बोला, “यार मा’लूम होता है कि तुम बाहर जाने की तैयारी कर रहे थे। मैं तो यूँही इधर चला आया। किसी काम से जा रहे थे तो चलो।”
“नहीं यार बैठो, बातें करें।”
“नहीं भई, मुझसे ये न होगा।”
कामिनी ने बच्चे को गोद में झुलाते हुए कहा, “आज इनकी दा’वत है कहीं।”
“वाक़’ई, भई वाह। अब तो मैं तुम्हारा रास्ता नहीं रोकना चाहता। ज़रूर जाओ, तकल्लुफ़ की ज़रूरत ही क्या है?”
“नहीं, अब मैं नहीं जाऊँगा। तुम इतनी दूर से आए हो, अब तो मिलकर बातें करेंगे और हाँ, जीलानी के यहाँ खेलने क्यों न चलें?”
लेकिन रखी को अपनी हरकत बहुत ना-मुनासिब मा’लूम हो रही थी, “बैजनाथ अपना प्रोग्राम ख़राब मत करो। मैं तो यूँही चला आया था। बस अब सैर करते हुए घर चला जाऊँगा। ये ज़रा बद-तमीज़ी की बात है कि मेरी वज्ह से तुम्हारा मेज़बान परेशान हो और फिर हम दोनों में तकल्लुफ़ भी तो न होना चाहिए।” बैजनाथ चंद लम्हों तक चुप रहा। फिर बोला, “इतनी दूर से आए हो। हम दोनों का वक़्त ख़ूब कट सकता है। हाँ यार, एक और बात सूझी है मुझे, तुम यहीं बैठो और मैं ज़रा खाना खा कर ज़ियादा से ज़ियादा एक घंटे के अंदर वापिस आ जाऊँगा। मेरी वापसी तक तुम खाना भी यहीं खा लोगे और फिर हम जीलानी के हाँ चलेंगे। बड़े मज़े का शख़्स है, गप भी उड़ेगी और ब्रिज भी खुलेगी।”
रखी का दिल उछल कर जैसे हल्क़ में आ रहा। एक घंटे के लिए वो और कामिनी तन्हा रह जाएँगे। गोदी का मुन्ना तो सो ही जाएगा। इससे बड़ा चार साला लड़का भी सुलाया जा सकेगा। उसने तेज़ी से उचटती हुई निगाह कामिनी पर डाली। गूना-गूँ जज़्बात के हुजूम में वो कुछ न बोल सका। बैजनाथ कहता चला गया, “कहो यार कैसी रही? भई कहीं जाना नहीं। तुम्हें मेरे सर की क़सम मैं बहुत दूर नहीं जा रहा हूँ। यही अपन डाक्टर शर्मा के हाँ तो दावत है। तुम शायद नहीं जानते उन्हें। तुम्हारे रास्ते ही में तो मकान पड़ता है। अच्छा तो वा’दा करो, तुम नहीं जाओगे। ये न हो कि मैं भागम भाग वापिस पहुँचूँ और तुम ग़ायब हो जाओ। बस आज शानदार प्रोग्राम रहेगा।”
रखी चुप खड़ा रहा। भला वो कहाँ जा सकता था? उसे यक़ीन नहीं आता था कि तक़दीर भी इस क़दर अच्छी हो सकती है। वो एक मौहूम सी उम्मीद पर यहाँ आया था। उधर भगवान ने भगत की प्रार्थना क़ुबूल करके ख़ुद अपने हाथ से उसके रास्ते का काँटा साफ़ कर दिया था।
“तो ये रहे सिगरेट और ये रहा वीकली। कम्मो इन्हें रोटी खिला देना। ज़रा ख़याल रखना भाग न जाएँ कहीं। मैं चुटकी बजाते में आया।”
ये कह कर वो जल्दी-जल्दी पतलून के बटन लगाने लगा। ब्रश से बाल हमवार किए, टाई की गिरह ढीली कर के अगला पल्लू ऊपर नीचे किया। फिर तेज़ तेज़-क़दम उठाता हुआ बाहर वाले दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा। कामिनी पुकार कर बोली, “हाय कैसे भागे जा रहे हैं। घर से बाहर जाना हो तो पाँव ज़मीन पर लगते ही नहीं। अब जल्दी लौट आइएगा।”
“हाँ भई, लौट आऊँगा। लोग हमारा ईंधन उठा-उठा कर ले जाते हैं। इसकी फ़िक्र किया करो। ड्योढ़ी का दरवाज़ा बंद कर लो। अच्छा यार मैं चला।”
ड्योढ़ी का दरवाज़ा बंद कर के कामिनी बैठक की खिड़की के क़रीब आ खड़ी हुई। एक मर्तबा फिर शौहर से आँखें चार हुईं। शौहर ने हवा में हाथ बुलंद कर के हिला दिया। वो वहाँ चुप खड़ी उसे गली के नुक्कड़ से ग़ायब होते हुए देखती रही। इस अस्ना में रखी भी चुपके से दीवार से लग कर उसके क़रीब खड़ा हो गया था। कुछ देर तक कामिनी सुनसान गली की जानिब देखती रही। फिर उसका हाथ ऊपर उठकर बिजली के बटन की तरफ़ बढ़ा और दूसरे लम्हे में बिजली का बल्ब बुझ गया और फ़र्श पर बिछी हुई दरी पर खिड़की में से आती हुई चाँदनी फैल गई।
रखी ने बाज़ू बढ़ाया जो कामिनी की पीठ से होता हुआ उसके गोश्त से भरपूर कूल्हे पर जा कर टिक गया। कामिनी की कमर हिली, लम्हे भर लर्ज़िश के बा’द साकिन हो गई। वो और क़रीब हो कर उसके साथ खड़ा हो गया। उन दोनों की आँखें चार नहीं हुईं, लेकिन कामिनी की कमर ने ज़रा सी लर्ज़िश के बा’द सुकून इख़्तियार कर के गोया उसके सवाल का जवाब इस्बात में दे दिया था। वो ख़ामोश खड़ी थी। दो एक मर्तबा रखी के लबों से निकलती हुई दर्द-ए-मुहब्बत में डूबी हुई निहायत मद्धम सी आवाज़ सुनाई दी, “कम्मो कम्मो!”
“बीबी जी! बीबी जी!”, बड़े लड़के की पुकार सुनाई दी। वो बंद आवाज़ में बोली, “आई बेटा आई, बैठे रहो वहीं।”
रखी की गिरफ़्त ढीली पड़ गई और वो दरवाज़े पर सरक गई।
“सुनो कम्मो सुनो।”
उसकी आवाज़ बुरी तरह लरज़ रही थी। कामिनी दो क़दम परे दीवार से पीठ लगाए दोनों हथेलियाँ दीवार पर टिकाए सर निहोड़ाए खड़ी थी। कमरे की फ़िज़ा ख़्वाब-नाक थी, हर तरफ़ सुरमई ग़ुबार सा छाया हुआ था। कामिनी की मद्धम शबीह हसीन मुजस्समे की मानिंद दिखाई दे रही थी। सिर्फ़ उसकी छातियों के ज़ेर-ओ-बम से पता चलता था कि वो बे-जान मूरत नहीं है।
“कम्मो सुनो। मैं तुमसे मुहब्बत करता हूँ।”
“मैं तुमसे मुहब्बत करता हूँ!”
कैसे फ़र्सूदा अल्फ़ाज़ थे? जिन्हें उसने बीसियों मर्तबा किताबों में पढ़ा था, फ़िल्म के पर्दे पर सुना था लेकिन आज वो ये फ़िक़रा इस तरह अदा कर रहा था जैसे ये उसी की इख़्तिरा’ हो। जवाब में कामिनी ने पलकें ऊपर उठाईं और एक मर्तबा भरपूर नज़रों से उसकी तरफ़ देखा और फिर सुपुर्दगी के अंदाज़ में पलकें झुका कर रह गई। वो बिजली के कौंदे की तरह आगे बढ़ा। उसकी कमर बाज़ुओं में लेकर उसे अपनी तरफ़ खींचा तो यूँ महसूस हुआ जैसे उसने फूलों की नाज़ुक डाली पकड़ कर झनझना दी हो। उसका जिस्म सर से पाँव तक कामिनी के नर्म-नर्म लचकीले जिस्म के लम्स से महज़ूज़ होने लगा। एक और शदीद और फ़ौरी जज़्बे के तहत उसने ना-मा’लूम किस-किस तरह उसे भींचा, चूमा और फिर लड़के की पुकार की आवाज़ें हथौड़ों के धमकों की तरह सुनाई देने लगीं और फिर कामिनी उड़ती हुई ख़ुशबू की तरह उसकी आँखों से ओझल हो गई।
वो कमरे में तन-ए-तन्हा खड़ा रह गया। खिड़कियों में दाख़िल होने वाली चांद की रोशनी में कुर्सियाँ, तिपाईयाँ, तस्वीरें, पर्दे और किताबें, ग़रज़ हर शय ख़्वाब-नाक और साकिन दिखाई दे रही थी। सिर्फ़ उसकी टाँगें और बाज़ू लर्ज़ां थे। साँस तेज़ी से चल रही थी। ग़ैर-इरादी तौर पर उसके लबों से चंद ग़ैर मुबहम सी आवाज़ें निकल गईं। कुछ देर तक वो ख़ला में घूर कर देखता रहा। एक मर्तबा एहसास-ए-गुनाह की शिद्दत से काँप भी उठा लेकिन सिर्फ़ एक लम्हे के लिए। फिर उसने रूमाल से मुँह और पेशानी साफ़ की, कपड़ों की सिलवटें और कोट की झोल खाई हुई आस्तीनें खींच कर हमवार कीं। फिर धीरे-धीरे क़दम उठाता हुआ सेहन में बावर्ची-ख़ाने की जानिब बढ़ा।
कामिनी चूल्हे के क़रीब बैठी देगची में चम्मच चला रही थी। उसका बड़ा लड़का उसके घुटने के साथ लगा हुआ ऊँघ रहा था। वो चूल्हे में लपलपाते हुए शो’लों की रोशनी में उसके दमकते हुए चेहरे की तरफ़ देखता रहा। बाहमी कशमकश में कामिनी के बाल परेशान हो गए थे, गाल सुर्ख़ हो गए थे। क़मीस दो तीन मुक़ामात से मिस्क गई थी। ये सब उसी की दस्त-दराज़ियों के नताइज थे। इस ख़याल से वो एक फ़त्ह के एहसास में गुम हो गया। ब-ज़ाहिर कामिनी उसकी आमद से बे-ख़बर दिखाई देती थी। वो अपने काम में मसरूफ़ रही। बच्चे को ऊँघता हुआ देखकर उसने कहा, “चलो तुम्हें सुला दूँ।” और उसे सुलाने के लिए अंदर चली गई।
रखी चूल्हे के क़रीब एक स्टूल पर बैठ गया। वो दिल ही दिल में हालात का जायज़ा लेने लगा। कामिनी फिर क़रीब आ बैठी। उसकी हरकात से ग़ैर-मा’मूली वाक़ि’ए का इज़हार नहीं होता था। देगची चूल्हे से उतार कर उसने तवा रख दिया और आटा तोड़ कर पेड़ा बनाने लगी और उससे आँखें मिलाए बग़ैर बोली, “आपको सर्दी लग रही होगी। चूल्हे के क़रीब आ जाईए ना।”
“वाक़’ई सर्दी बहुत सख़्त पड़ रही है।”
ये कह कर उसने स्टूल खिसकाया और चूल्हे के क़रीब आ गया। रखी की नज़रें, आँखों और तेज़ी से जुंबिश करते हुए होंटों और हाथों की हरकात पर जमी हुई थीं। वो दिल में बेचैन तिश्नगी बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहा था जो प्यासे होंटों से शर्बत का गिलास परे हट जाने में होने लगती है। कामिनी ने रोटी उलटते हुए कहा, “आपको भूक तो लग रही होगी।”
उसने उठकर कामिनी के रुख़्सार पर होंट रख दिए, “नहीं कम्मो मुझे भूक नहीं लग रही।”, ये कह कर वो उसे अपने बाज़ुओं में लेने की कोशिश करने लगा। कामिनी ने अपने आपको उसकी मर्ज़ी पर छोड़ते हुए कहा, “मुझे रोटी तो पका लेने दीजिए।”
“नहीं जान से प्यारी कम्मो रोटी फिर पका लेना।”
ये कह कर उसने हाथ मार कर तवा चूल्हे से गिरा दिया। वो ख़ुश था और सर-ता-पा नशे में डूबा हुआ था। वो बैठक में दरी पर लेटा हुआ था। टाँगें उठा कर क़रीब बिछी हुई कुर्सी पर टिका रखे थे और बिजली की जगमगाती हुई रोशनी में वीकली का पर्चा पेट पर धरे उसकी वरक़-गर्दानी कर रहा था। एक मर्तबा फिर कामिनी चूल्हे के आगे बैठी उसके लिए पराठे पका रही थी। इस रोज़ से पहले ज़िंदगी के जो दिन गुज़र चुके थे वो बिल्कुल बे-कैफ़ नज़र आने लगे थे। ये लज़्ज़त उसने पहले कभी महसूस न की थी। दिल मुतमइन था। जिस्म हल्का-फुल्का और तर-ओ-ताज़ा महसूस हो रहा था, रूह पर ना-क़ाबिल-ए-बयान कैफ़ तारी था। आज कामिनी और वो एक हो गए थे।
खाना तैयार हो गया तो उन्होंने एक साथ मिलकर खाया। एक दूसरे के मुँह से मुँह मिला कर निवाले छीनते रहे। हँसी-मज़ाक़ ही में वक़्त गुज़र गया और आख़िर दरवाज़े पर दस्तक सुनाई दी। कामिनी ने दरवाज़ा खोला। बैजनाथ का मा’सूम चेहरा देखकर रखी के दिल में फ़ुतूर पैदा हो गया लेकिन कामिनी आड़े आई, “आपके दोस्त तो उठ उठकर भाग रहे थे। बड़ी मुश्किल से बिठाए रखा मैंने।”
बैजनाथ ने बे-तकल्लुफ़ाना उसके कंधे पर हाथ मार कर कहा, “यार कमाल करते हो। आख़िर घबराने की क्या बात थी?”
दोस्त की सादगी को देखकर रखी को शर्म सी महसूस होने लगी और वो कुछ भी न कह सका।
“कहो, खाना खा लिया?”
“हाँ!”
“आओ तो चलो जीलानी के हाँ।”
रास्ते में बैजनाथ दा’वत की बातें करता रहा। कहने लगा, “डाक्टर शर्मा मेरे बहुत गहरे दोस्तों में से हैं। बड़े प्रेम से बुलाया। वापिस नहीं आने देते थे। हज़ार हीलों से जान छुड़ा कर आया हूँ।” जब वो जीलानी के हाँ पहुँचे तो मा’लूम हुआ कि उनके हाँ कोई फ़ौजी रिश्तेदार बाहर से आए हुए हैं। इसलिए वो बुर्ज में मिल सकेंगे। उनका प्रोग्राम दरहम-बरहम हो गया। ख़ैर, वो कुछ देर तक इधर उधर टहलते रहे। फिर बैजनाथ ने कहा, “आओ घर बैठें।”
“वक़्त बहुत ज़ियादा है।”
“भई अब इजाज़त दो। अब मैं घर वापिस जाता हूँ। फिर मुलाक़ात होगी।”
चुनाँचे मुसाफ़ा कर के वो एक दूसरे से रुख़्सत हो गए।
आज के मसर्रत अंगेज़ वाक़ि’ए से इसका दिल अगरचे मसरूर था लेकिन दोस्त से इस पाजीपन के बा’इस ज़मीर मलामत भी करता और जब वो अपने घर के क़रीब पहुँचा तो अपनी नेक और मा’सूम बीवी के तसव्वुर से उसका दिल बोझल हो गया। बे-चारी शांता ठिठुरी हुई आग के क़रीब बैठी उसका इंतिज़ार कर रही होगी। जब वो जिया की दुकान के क़रीब पहुँचा तो हस्ब-ए-मा’मूल उससे पूछा, “क्यों बे जिए कोई आया तो नहीं था हमसे मिलने।”
जिया ने सर ऊपर उठाया, “अजी बाबू बैजनाथ आए थे। सीधे भीतर चले गए। मुझसे तो कुछ बोले नहीं। जब आप नहीं आए तो बिचारे इंतजार कर के चले गए।”
“बैजनाथ!”, उसके हल्क़ से चीख़ सी निकल गई और वो ठिटक कर खड़ा हो गया।
“हाँ जी! बैजनाथ बाबू।”
दुकान से मकान तक चंद क़दम का फ़ासला उसने बहुत आहिस्ता-आहिस्ता तय किया। जब वो सीढ़ियों पर क़दम रखने लगा तो उसने देखा कि उखड़ी हुई दो ईंटें फिर अपनी जगह से हट गई हैं। उसने एहतियात से उन्हें टिका कर रख दिया और फिर एक लम्हे भर के त’अम्मुल के बा’द उसके मुँह से मद्धम सी हँसी निकल गई और जब वो ड्राइंगरूम में दाख़िल हुआ तो वहाँ हर चीज़ जानी-पहचानी थी। माहौल पुर-सुकून और आराम-देह महसूस हो रहा था। उसकी बीवी अन्दर वाले दरवाज़े में खड़ी हुई दिखाई दी। वो उस वक़्त तो शगुफ़्ता फूल के मानिंद तर-ओ-ताज़ा और उजली दिखाई दे रही थी। वो फूल जिसका मुँह शबनम ने बड़ी एहतियात से धो डाला हो। जिस पर जमी हुई गर्द की ना-मा’लूम तह किसी ने चूम ली हो।
वो बड़े कोच पर बैठ गया। शांता शाख़-ए-गुल की तरह लचकती हुई नज़दीक आई और उसके क़रीब कोच में धँस गई। उसने सर से पाँव तक बीवी का जायज़ा लिया और मुस्कुरा कर बोला, “शन्नो आज तुम बहुत ख़ुश दिखाई देती हो।”
अपने मख़्सूस अंदाज़ में बालों पर हाथ फेरते हुए वो लजा कर मुस्कुरा दी। उसके तर-ओ-ताज़ा होंटों से सपेद-सपेद दाँत किसी तरह नुमायाँ हुए और उसने बिला कुछ कहे इस्बात में सर हिलाते हुए उसके कंधे पर रुख़्सार टिका दिया।
शन्नो की नींद की माती पलकें बोझल हो कर झुकने लगीं। वो चंद लम्हों तक शन्नो के चेहरे की तरफ़ देखता रहा। फिर उसकी पीठ पर हल्की-हल्की थपकी देकर बोला, “मैं भी बहुत ख़ुश हूँ शन्नो। ज़रा इधर लाओ तो अब्दुल्लाह सिगरेटों का डिब्बा।”
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.