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ख़ाली पिटारियों का मदारी

इक़बाल मतीन

ख़ाली पिटारियों का मदारी

इक़बाल मतीन

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    अगर वो मुझे पीछे से पुकार लेता... अब्बा

    तो भी क्या मैं पल-भर को उसके लिए ठहर सकता था?

    “आँसू मिट्टी में गिरे कि दामन में जज़्ब हो। पलकों से छूटने के बाद ना कंकर है ना मोती।”

    कैसी कैसी राहतें तज कर उ’म्र की कश्ती में डोलते हम कितनी मुसाफ़तें तै कर लेते हैं। पलट कर देखने की फ़ुर्सत है याद ही कर लेने का यारा।

    आज कोई दामन पकड़ कर पूछता भी तो नहीं जो शर्म से गर्दन झुक जाये। और कितने ठस्से से मैं गर्दन उठा कर चलता हूँ। सर-अफ़राज़, सर-बुलंद। लेकिन सच्च पूछो तो हम कहाँ-कहाँ जा कर इस बेसवा ज़िंदगी से मुसालेहत कर लेते हैं।

    राहत की उ’म्र होगी चौदह बरस। बाली सी उ’म्र, गुड़ियाँ खेलने के दिन। कुछ सोचे बग़ैर नींद की आग़ोश में अपना आपा तज देने की राहतें और ये लड़की मुझे उ’म्र की इस मंज़िल पर मिली जहां अभी अभी मेरी मसें भीगी थीं और इसके लिए दरख़्त पर चढ़ कर पक्के शहतूतों से उसका दामन भर देना मेरे लिए फ़ख्र की बात होता।

    अल्लाह ये कच्ची कच्ची इमलियाँ। राहत का जी मेरे होते भला यूं तरस सकता था।

    पत्थर उठा कर दरख़्त पर दे मारा और लदी इमलियाँ मैंने उसके क़दमों में बिखेर दीं।

    और हमने कितनी ही कचर कचर चबा कर थूक डालीं।

    बरसात से जल-थल होते हुए मैदान में एक दूसरे को छूने और पकड़ने के लिए भागना और फिर एक दूसरे की दस्तरस से बचने के लिए घुटनों-घुटनों पानी में उतर जाना... पानी के छींटे उड़ा कर खेलना और फिर ग़ौर ग़ौर से एक दूसरे के गीले कपड़ों में से छन्ते हुए बदन को झांकना।

    फिर हाथ बढ़ा कर उसकी लंबी लंबी घनी स्याह और भीगी ज़ुल्फ़ों को अपने हाथ पर लपेट लेना।

    वो गिर रही थी और जब मैंने उसको पहली बार सँभाला था तो जिस्म के कितने ही ख़ुतूत, कितने ही ज़ाविए, कितनी ही क़ौसें मेरी आँखों में बस कर रह गई थीं।

    सँभलने के लिए मुझसे चिम्टी हुई जब वो किनारे तक पहुंची तो गोया वो भी बहुत दूर निकल आई थी। में भी बहुत दूर उसे ले आया था और अब मैं उसे राहत के बजाय रात पुकारने लगा था।

    अब मैं उसकी गुड़ियों के घरौंदों तक जा पहुंचा था। उसकी इन पिटारियों तक जा पहुंचा था जिनमें जाने क्या अल्लम ग़ल्लम वो सौ-सौ जतन से छुपाए रखती थी।

    फिर जैसे सबको छोड़कर उसने घरौंदों में... मुझे बसा लिया... इन पिटारियों में मुझे छिपा लिया।

    क्रिकेट का बल्ला घुमा कर जब मैंने गेंद पर बहुत ज़ोर से हिट लगाई तो ये गेंद मिट्टी के उस घरौंदे को तोड़ कर निकल गई जो राहत ने बड़े चाव से बनाया था।

    लेकिन उसने कोई पर्वा नहीं की, ही मेरा दिल दुखा।

    मैं डर कर उसके क़रीब गया। गेंद को मैंने परे फेंक दिया तो हम दोनों मिलकर दूसरा घरौंदा बनाने में मुनहमिक हो गए।

    घरौंदे बनाते, मुझे उनमें बिसाते, पिटारियों में पहले मेरे तोहफ़े पत्थर जैसे ख़ुद मुझे छुपाते, मरी चौ मुखी गेंद के पीछे भाग भाग कर हलकान होते, जब वो घुटनों घुटनों पानी में उतर गई तो मैंने गिरा गिरा कर सँभालते हुए किनारे पर ला कर उससे पूछा एक बिल्कुल नया खेल खेलोगी?

    और वो शर्मा गई।

    फिर मैंने ज़्यादा चाव से शहतूत उसके दामन में बिखेर दिये।

    कच्ची-कच्ची इमलियों की बोंगें उसके मुँह में ठूँसीं तो उसने ज़्यादा मज़े ले-ले कर कचर कचर चबा डालीं। हमने ये नया खेल जारी रखा। उसकी आँखों के रास्ते में उसके दिल में उतरता गया। फिर उस के बदन ही का एक हिस्सा हो कर रह गया। कहते हैं हव्वा आदम की पिसली से पैदा हुई थी।

    अपनी छोटी सी उ’म्र की मुख़्तसर सी पूंजी लेकर वो जितनी तेज़ी से मेरी ज़िंदगी में दाख़िल हुई उतनी ही तेज़ी से अपना सब कुछ मुझ पर निछावर करके मुझसे जुदा भी हो गई।

    जब वो अपना सब कुछ मुझ पर लुटा रही थी, उस वक़्त ही मैंने जन्म जन्म के लिए उसका हो रहने की कसमें खाईं, उसका हाथ थाम कर उसको यक़ीन दिलाया कि अब इसी तरह उसके क़दम क़दम ज़िंदगी का सफ़र पूरा कर लूँगा।

    हमारे बँगले के पीछे एक आ’लीशान महल था जिसके अहाते में एक ख़ूबसूरत सा चमन था जो अपनी रा’नाई आहिस्ता-आहिस्ता खो रहा था, उस महल के एक हिस्से में राहत और उसकी माँ रहते थे। बँगले का तीन चौथाई हिस्सा मुक़फ़्फ़ल था। अहाते के बाग़ में जो बैरूनी कमरे बने हुए थे उनमें एक माली एक मालन और उसके बच्चे रहते थे। चमन की देख-भाल और राहत और उसकी माँ के अहकाम की ता’मील उनके ज़िम्मे थी। उसकी माँ उसी बड़े घराने की परवर्दा थी। घर की बेगम साहिबा को ख़ुश करना। अपनी उल्टी सीधी बातों से उन का दिल बहलाना। उदास हों तो हँसाना। हंस रही हों तो क़हक़हे लगवाना। क़हक़हे लगाए जाएं तो उ’म्र-भर ख़ुश रहने की दुआ’एं माँगना। बस यही कभी उसके फ़राइज़ थे लेकिन अब वो बेगम साहिबा रह गई थीं, उनको हंसाने के जतन करने वाले। राहत की माँ भी अपनी दी हुई दुआ’ओं में तासीर ढूंढती रह गई और आहिस्ता-आहिस्ता जागीरें ज़ब्त हो गईं।

    राहत की माँ ने भी अच्छे दिन देखे थे। उनके मियां साहिब के मुसाहिब थे और थीं बेगम साहिब की मुँह चढ़ी। राहत के अब्बा को अल्लाह को प्यारे हुए कोई तीन साल हो गए थे। साहिब और बेगम साहिबा के वो दिन रहे थे कि उन्हें ख़ुश रहने की दुआ’एं दी जा सकतीं।

    राहत की माँ को माह माह पेंशन बराबर मिलती थी। जागीरों की ज़ब्ती के बाद हुकूमत ने इन वज़ाइफ़ को यकलख़्त मस्दूद नहीं किया था जो पहले ही से मंज़ूर थे। सो उन्हें माह माह पेंशन मिल जाती। इसके इ’लावा ज़िला भर में राहत हेयर आयल बहुत मर्ग़ूब हो गया था। राहत की माँ ने अपनी लाडली ही के नाम से जब ये छोटा सा कारोबार शुरू किया तो उसे काफ़ी मुनाफ़ा हुआ और वाक़ई ज़िला भर में राहत हेयर आयल घर-घर में था। हमारे घर सिर्फ अम्मी वही लगाती थीं बल्कि तोहफ़े के तौर पर हमारे चंद रिश्तेदारों को जब उन्होंने शीशियाँ शहर भिजवाइं तो फिर हर माह भिजवाने का इंतिज़ाम भी उन्हें करना पड़ा।

    राहत की माँ कहती थीं कि शीशियों के लेबल पर जिस लड़की की तस्वीर है, वो राहत ही की है।

    ये दावा कभी मेरी समझ में आया, ही मैंने कभी उसको समझने की कोशिश की।

    हेयर आयल की तस्वीर में अगर कोई चीज़ राहत से मुशाबेह थी तो बस लंबी-लंबी ज़ुल्फ़ें थीं। चेहरा तो बिलकुल जुदा था। अच्छी ख़ासी भरपूर औरत का। लेकिन मुझे उन तस्वीरों से भला लेना देना ही क्या था। मैं तो राहत की उन लंबी-लंबी घनी ज़ुल्फ़ों में मुँह छुपा कर जो राहत हेयर आयल से मुअत्तर रहतीं, उससे कहा करता,

    “तुम ख़ुदा के लिए ये तेल मत लगाया करो रात। तुम्हारी ज़ुल्फ़ों में जब मुँह छुपाता हूँ तो तुम्हारा ये तेल मेरे गालों पर, मेरे सारे चेहरे पर लग जाता है। सोचो तो भला अगर मेरे चेहरे पर ये लंबे लंबे बाल उग आएं... फिर तो तुम ही डर कर मेरे क़रीब नहीं आओगी। तब मैं कैसा अकेला-अकेला फिरूंगा। बिन रात का चंद कहीं भाया है।” और उसकी ज़ुल्फ़ों में मुँह छुपा कर मैं रीछ, बन-बन कर उसे डराता, गुदगुदाता और वो अपने लंबे लंबे बालों से मेरे हाथ मिला कर उन्हें ज़ंजीर कर देती।

    कैसे कैसे खेल उस मुख़्तसर मुद्दत में हमने रचा डाले। अपना दामन फैलाए वो मेरे साथ साथ चलती रही और मैंने बगीचे के सब ही शादाब और रंगीन फूल तोड़ डाले और उसका दामन भर दिया। उन फूलों का उसने जब हार बना कर मुझे पहनाना चाहा तो मैंने झपट कर उससे हार छीन लिया और उस की लंबी सियाह-रातों जैसी ज़ुल्फ़ों में गूंद कर जैसे सितारे टांक दिये।

    फिर उन्ही सियाह-रातों में छुप-छुप कर उन्हें सितारों की छाँव में मैं कितनी ही बार उसका हो हो गया और वो मेरी। एक दिन उसने सर झुका कर मुझसे कहा,

    “मुझे उबकाईयां सी आती हैं। मेरा जी ऊबता रहता है। मुझे वो कच्ची इमलियाँ तोड़ दो ना।” इससे पहले कि मैं पत्थर लेकर लदे हुए इमली के दरख़्त पर दे मारता। मैंने राहत का कुर्ता उठा कर उसके पेट को सहलाया। फिर झुक कर चटा चट पेट को चूमने लगा।

    उसने हैरान हो कर पूछा, “ये क्या करते हो।”

    मैंने ख़ुशी ख़ुशी उसकी आँखों में उतरते हुए कहा, “इस में मेरा बचा है पगली।”

    उसकी आँखें पल-भर को जुगनुओं की तरह चमक उठीं। फिर सिर्फ उसकी ज़ुल्फ़ों की सियाह रात रह गई और आँखों के जुगनू जाने कहाँ जा बसे।

    मैं अभी ख़ुश ही था कि वो इस क़दर उदास हो गई।

    मेरे सीने पर सर रखकर जब वो सिसकने लगी तो सिसकते सिसकते उसने पूछा, “अब क्या होगा?”

    और मैं सोचने लगा वाक़ई अब क्या होगा। मैं तो इस क़दर ख़ुश हो रहा था।

    राहत की आँखों में भी जुगनू चमक उठे थे। लेकिन शायद ये कोई ख़ुश होने की बात ही थी।

    मैंने उसको दिलासा दिया। झूट-मूट तसल्लियां दीं। बहलाया मनाया और जब वो कुछ मुस्कुरा सकी तो उसको गुदगुदा कर हँसाया और अपनी मुहब्बतें झूम-झूम कर उस पर निछावर कीं।

    मैं समझ गया था कि मैं और राहत अब कुछ और दिनों तक एक दूसरे के नशे में चूर रह सकेंगे। अब मैं उसका दामन शहतूत से भर सकूँगा चमन के शादाब फूलों से अब ढेर सी इमलियाँ उसके हुक्म पर मुझे तोड़ लाना है वो अब मेरी बाँहों में झूमती हुई उन्हें कचर कचर चबा कर थूकती रहेगी।

    पानी बरसा करेगा। मैदान भी जल-थल होंगे। सूखे डबरे फिर से भर जाऐंगे। हरियाली दूर दूर तक मख़मल की तरह बिछी रहेगी। निबोलियाँ पकेंगी। ख़ाली झूला इस घने नीम के पेड़ पर हवा से हलकोरे खाता रह जाएगा... मेंढ़क सरेशाम टर-टर करने लगेंगे। मैं अकेला घर से निकलूँगा तो राहत क़दम-क़दम पर रास्ता रोकेगी। हँसती दौड़ती उछलती भागती मुझसे चिम्टी मेरी बाँहों में झूलती। मेरे दोनों हाथों को अपनी ज़ुल्फ़ों से ज़ंजीर करती, क़हक़हे लगाती। फिर वो एक दम ठिटक कर रह जाएगी। फिर उसकी आँखों में जुगनू दम-भर को भटकेंगे। फिर वो गर्दन झुका कर उदास हो जाएगी, फिर वो सिसकने लगेगी। मैं अपने तसव्वुरात की दुनिया में उसको कब तक उठाए उठाए फिरूंगा एक दिन, दो दिन फिर में भी शहर चला जाऊँगा।

    दो दिन गुज़र गए। राहत नहीं आई। जब मैं सर-ए-शाम अपने मख़सूस रास्तों से हो कर उसके घर पहुंचा तो उसके बाग़ीचे के फूल रो रहे थे... कांटे हंस रहे थे। इ’मारत के उस हिस्से में जहां वो रहती थी, मालन दीया जला कर रख रही थी। माली ने मुझे बताया राहत बीबी बहुत बीमार हो गई थी। उसकी माँ बहुत परेशान थी उसको इ’लाज के लिए शहर ले गए हैं।

    मैं लौटने लगा तो राहत जैसे कुरता उठाए अपना नंगा पेट मेरे सामने लिए खड़ी थी।

    “इसको चूमो इस में तुम्हारा बचा है।”

    राहत की माँ अम्मी की बड़ी चहेती थी, उसकी ख़ुशतबई, उसके आदाब-ओ-तमीज़, उसके रख-रखाव की अम्मी दिलदादा थीं। मुझे यक़ीन था कि उसने अम्मी से कुछ कुछ ज़रूर कहा होगा। मैंने कुरेद कुरेद कर अम्मी से पूछना चाहा लेकिन उन्हें तो इसका भी इल्म था कि राहत और उसकी माँ शहर चले गए हैं। बमुश्किल आठ दिन गुज़रे होंगे कि राहत की शादी के दा’वत नामे हमें मिले। अम्मी ने टेलीग्राम के ज़रीये राहत की अम्मी को मुबारकबाद दी और उन्हें नेक तमन्नाएं भेजीं।

    मैं चुपके से उसके बाग़ीचे में पहुँच कर बहुत सा वक़्त वहां गुज़ार आया।

    कॉलेज खुल गए तो मैं भी दाख़िला लेने के लिए शहर चला गया क्योंकि हाई स्कूल मैं पास कर चुका था।

    कुछ ही दिन बाद अब्बा का तबादला इस ज़िले से हो गया और इस तरह राहत से मिलने उसे देखने, उस से सिर्फ एक-बार बात कर लेने की तमन्ना भी पूरी हो सकी और इससे पहले कि ये तमन्ना हसरत बन कर दिल में जा-गुज़ीं हो जाती, अपनी मौत आप मर गई और वो इस तरह कि मुझे कुछ पता ना चल सका।

    मैं ‘रात’ को भूल भाल गया। उ’म्र की इस मंज़िल में जब कि काली रातें जगमगाते दिनों से ज़्यादा प्यारी होती थीं में राहत की सियाह ज़ुल्फ़ों में अपने हाथों को कब तक ज़ंजीर रख सकता था। कॉलेज के दिन रात, हमा-हामी, चहल पहल, गहमा गहमी।

    हाँ एक नन्ही सी याद थी जो दिल के किसी तारीक गोशे में छुप कर सहमी, सिमटी बैठ गई थी। लर्ज़ां लर्ज़ां, हरासाँ हरासाँ। सपेरे की पिटारी में छुपी ऐसी नागिन की मानिंद जिसका ज़हर छीन लिया गया हो। फन खोल कर सर निकाल लेना तो आए, पर डस कर तड़पाना बस में नहीं।

    और ये बेज़रर नागिन कभी-कभी अपना फन पिटारी से बाहर उस वक़्त निकाल लेती है जब मेरे ख़ानदान में किसी को पहलौंटी का बच्चा होता है और फिर ख़ुद ही अपना सर अंदर करके छुप रहती है और वक़्त उस पिटारी का मुँह पल-भर में ढँक देता। राहत मुझे उस वक़्त भी याद नहिं आई। जब मैंने अपनी दुल्हन का घूँघट उल्टा। मैं तो पलकें झपका कर चौदहवीं की उस चांदनी का हो रहा था जो मेरे अतराफ़ फैल गई थी।

    एक दिन जब मेरी बीवी ने अपना सर मेरे सीने पर रखकर नीची-नीची नज़रों से मुझे बताया कि जी अच्छा नहीं है। वो मुज़्महिल मुज़्महिल सी है... उसे उबकाईयां सी आती हैं। तो झट किसी लड़की ने कुरता पेट पर से उठा कर मुझसे कहा, “इसे चूमो इसमें तुम्हारा बचा है।”

    मुझे राहत से जुदा होने के बाद पहली बार ऐसा महसूस हुआ कि मदारी की पिटारी में छुपी हुई बेज़रर नागिन कुछ इस तरह लहरा कर मेरे सामने आई है कि मुझे डस लेगी। पता नहीं किस ने उस को ज़हर लौटा दिया था।

    मैंने अपनी बीवी के गाल चूम लिए। उस का पेट चूम सका।

    तब मैंने उस नागिन का सर कुचल देना चाहा। लेकिन वो बहुत तेज़ी से अपनी पिटारी में जा छुपी। जब मैंने पहली बार अपने नन्हे को चूमा तो उस नागिन ने लहरा कर फिर एक-बार सर निकालने की कोशिश की लेकिन मैंने पिटारी का मुँह मज़बूती से बंद कर दिया।

    फिर आहिस्ता-आहिस्ता ये नागिन मर गई और मैं भूल गया कि कोई ख़ाली ख़ाली पिटारी मैंने अपने दिल में छुपा रखी है।

    आज भरे मेले में जब मैं अपनी बीवी बच्चों के साथ घूम रहा था तो किसी औरत ने मुझे सलाम किया। कुछ ही दूर पर वो किसी दूकान पर खड़ी अपने बच्चों को खिलौने दिला रही थी। मेरी बीवी किसी सहेली से जो उसे अभी अभी मिली थी बड़ी प्यारी प्यारी बातें करने में मगन थी। आया मेरे बच्चों को पास ही की एक दुकान से खिलौने दिला रही थी। मैंने कनअँखियों से फिर उस औरत की तरफ़ देखा जो मुझी को देख रही थी। किसी इज़तिराब का इज़हार किए बग़ैर ख़िरामां ख़िरामां जब मैं उसके क़रीब पहुंचा तो कोई मानूस सा चेहरा अपनी छब दिखला कर सामने आते आते छुप गया। फिर किसी लड़की ने अपना दामन फैला कर आहिस्ता से कहा इसे पके पके शहतूतों से भर दो और जब मैंने दामन भर दिया तो उसने सारे शहतूत मेरे क़दमों में डाल दिए और अपनी सियाह लंबी रात जैसी ज़ुल्फ़ों से मेरे दोनों हाथ मिला कर ज़ंजीर कर लिए “ओह।! राहत”

    वो मेरे पहचान लेने से ख़ुश हो गई।

    “लेकिन रात तुम्हारी ज़ुल्फ़ें...” बे-इख़्तियार मेरी ज़बान से निकला।

    उसने धीरज से कहा... “बे चांद के काली रात भयानक लगती थी मुझे।” वो राहत हेयर आयल के लेबल के उस भरपूर औरत से बहुत मुशाबह हो गई थी जिसको कभी उसकी माँ राहत ही की तस्वीर कहा करती थी और आज उसकी वही स्याह ज़ुल्फ़ें ना रही थीं जो उस तस्वीर से कभी उसकी वजहे मुशाबहत थीं।

    मैंने हाल अहवाल पूछा।

    उसने कोई शिकायत नहीं की।

    पास खड़े हुए सात आठ साला बच्चे की बांह पकड़ कर मेरे मुक़ाबिल करते हुए पूछा, “इसको पहचानते हैं आप?”

    एलबम में महफ़ूज़ अपने बचपन की तस्वीर आँखों में फिर गई जिसे देखकर मेरी बीवी ने कहा था उस वक़्त भी आप इतने ही शरीर रहे होंगे जितने आज हैं।

    मैंने कोई जवाब हीं दिया और बस उसको देखता रह गया। राहत ने फिर पूछा,

    “नहीं पहचाना आपने?”

    मैंने कहा, “ये तो मैं हूँ रात।”

    तो उसने नज़रें झुका लीं और बच्चे को चिमटा कर उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा, “इन्हें सलाम करो।” नन्हा सा सर ख़म हुआ। नन्हा सा हाथ पेशानी तक उठा।

    और मैं ने झुक कर उसकी पेशानी चूम ली।

    मेरी बीवी अपनी सहेली से रुख़सत हो कर मेरे पास गई थी। मैंने राहत का तआ’रुफ़ उससे कराया, “अब्बा के ज़माना-ए- मुलाज़मत में ये और हम एक ही ज़िले पर थे। अम्मी में और इनकी वालिदा में बड़ा बहनापा था।”

    दोनों जानिब से हाथ उठे।

    मेरी नज़रें ख़ुद ही उस नन्हे पर उठती रहीं।

    मेरी बीवी ने भी जब उसको देखा तो उसकी नज़रें उसी के चेहरे पर जम कर मर्कूज़ हो कर रह गईं। उसने बड़ी मख़सूस नज़रों से मुझको देखा। फिर बच्चे को देखकर क़रीब करते हुए कहने लगी, “कितना प्यारा सा है।”

    मैंने उसकी बातों से बौखलाते हुए कहा, “चलो चलें अब।”

    जब हम जुदा होने लगे तो मैंने राहत पर बस उचटती हुई निगाह डाल ली। उससे नज़रें चार कर सका और बच्चे ही को देखा।

    जब हम आगे बड़े गए तो मैंने किसी ना किसी बहाने पलट कर बच्चे को देखने की कोशिश की। वो मुझे नज़र आया। और ऐसे में अगर वो मुझे पीछे से पुकार लेता ‘अब्बा’ तो भी क्या मैं पल-भर को उसके लिए ठहर सकता था?

    राहत की आँखें लेकिन मेरे पीछे-पीछे चल रही थीं।

    मेरी बीवी ने कहा, “वो बच्चा वाक़ई’ कितना प्यारा है। आपके बचपन की वो शरीर सी तस्वीर है ना। हू-ब-हू उसी तरह।”

    “अच्छा?” मैंने हैरत का इज़हार करते हुए कहा, “मैंने ग़ौर नहीं किया। तुमने वहीं बताया होता।”

    वो हंस पड़ी। कहने लगी, “भला ऐसी बात मैं वहां कैसे कह सकती थी...”

    मुझे यूं लगा जैसे मेरी बीवी मेरे दिल में छुपी हुई बंद पिटारी खोल रही है और मैं झपट कर उसका हाथ थाम रहा हूँ कि उस में नागिन है डस लेगी।

    लेकिन पिटारी खुली तो ख़ाली थी।

    उस मेले में, उस चहल पहल में, उस गहमा गहमी में कोई भी तो नहीं था जो मेरी ख़ामोश पुकार सुनता कि मैं ख़ाली पिटारियों का मदारी हूँ। कोई है जो मेरा तमाशा देखे।

    स्रोत:

    Khali Pitariyon Ka Madari (Pg. 150)

    • लेखक: इक़बाल मतीन
      • प्रकाशक: नुसरत पब्लिशर्स, लखनऊ
      • प्रकाशन वर्ष: 1977

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