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कोइला भई न राख

वाजिदा तबस्सुम

कोइला भई न राख

वाजिदा तबस्सुम

MORE BYवाजिदा तबस्सुम

    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसे जोड़े की कहानी है, जो एक-दूसरे से बहुत मोहब्बत करते हैं। लड़का जब पैसे कमाने के लिए शहर जाता है तो वह जिस क़दर अमीर होता जाता है उतना ही अपनी महबूबा से दूर होता जाता है। उसकी महबूबा उतनी ही शिद्दत के साथ उससे मोहब्बत करती जाती है। फिर एक दिन ऐसा भी आता है जब वह अपनी महबूबा की शादी अपने एक दोस्त से करा देता है।

    रात तारीक है, मेरे नसीब की तरह... आसमान पर इक्का दुक्का सितारे टिमटिमा रहे हैं। उनका मेरे आंसूओं से क्या मुक़ाबला? मेरी आँखों में तो अनगिनत सितारे झिलमिला रहे हैं, झिलमिलाते ही रहते हैं। कितने दिन हो गए मेरी आँखों ने मुस्कुराना छोड़ दिया है? ऐसा मालूम होता है हंसी से मेरी शनासाई ही नहीं।

    आज सुबह से मेरा दिल है कि डूबा जा रहा है। यूं रह-रह कर तो मेरा दिल कभी धड़का था... मिट्टी के इस नन्हे मुन्ने चराग़ में ऐसी क्या बात थी कि इस के टूटते ही मेरा अपना दिल भी जैसे टुकड़े टुकड़े हो गया। मैंने कितने जतन से, कितने बरसों से इस चराग़ को सँभाल सँभाल कर रखा था... ऐसा मालूम होता था इस चराग़ से मेरी अपनी ज़िंदगी का गहरा नाता है, वो टूटेगा तो में भी टूट जाऊँगी और आज...? आज तो जैसे मेरा सभी कुछ टूट गया। सभी कुछ लुट गया। लेकिन मैं भी कैसी पागल हूँ... आफ़ताब... जो ये कह रही हूँ कि आज मेरा सब कुछ लुट गया। मेरा तो उसी दिन सब कुछ लुट गया था जिस दिन तुम मुझे छोड़ गए थे... उम्मीदों, आरज़ूओं, और भरोसों के सारे चराग़ तो उसी दिन बुझ गए थे, ये तो मैं ही थी जो ख़िज़ां हो कर भी बहार बहार करती रही... कितनी पागल, कैसी नादान (मुहब्बत करने वाले सच-मुच पागल ही तो होते हैं!) मैं तुमसे शिकायत नहीं कर रही हूँ आफ़ताब... शिकायत और गिले तो अपनों से किए जाते हैं और तुमने ये मौक़ा ही कब दिया कि तुम्हें अपना कहूं या समझूं... सिवाए चंद लम्हों के वो लम्हे जो मेरी ज़िंदगी का हासिल बन गए हैं! काश मैंने यूं टूट कर किसी को चाहा होता। लेकिन क्या मुहब्बत सोच समझ कर की जाती है आफ़ताब? अब सोचती हूँ तो ये सरासर पागलपन ही नज़र आता है। मैंने दिल भी किस से लगाने की कोशिश की...? तुमसे! तुम जो सच-मुच आफ़ताब ही की तरह बुलंद और दूर थे। लेकिन आफ़ताब मैं सच कहती हूँ तुमने मुझे यूं हौसला दिलाया होता तो शायद मैं कभी तुम्हारी तरफ़ देख भी पाती। मैंने तो तुम्हीं से रोशनी हासिल की थी (और तुम्हीं ने मुझे अंधेरों में भटकने के लिए छोड़ दिया... कैसा दुख है ये!)।

    कितने सारे साल गुज़र गए हैं कि मैंने कभी तुम्हारे बारे में सोचा तक नहीं... और जो देखो तो ज़िंदगी में तुम्हारे सिवा और दूसरी कोई बात ही नहीं... जैसे अपने आपसे, ख़ुद को बचाती छुपाती फिरती हूँ। आईने में ख़ुद को देखती तक नहीं, कि अपनी सूरत देखूँगी तो तुम याद जाओगे। इस सूरत को तुम ने कितना प्यार किया था। कितना प्यार दिया था। कितना ग़रूर बख़्शा था। उन दिनों आईने के सामने जाती तो गालों पर गुलाल सा बिखर जाता था। अपना आपा सँभलता नहीं था। आँखों की जोत दीवाली के चराग़ों की तरह जगमगाती थी। मुझे मेरा माथा चांद मालूम होता था और होंटों पर ऐसी कलियों का गुमान होता था जो अब खुलीं कि अब खुलीं। उन दिनों कोई मुझसे मेरा नाम पूछता तो मुझे झिजक सी आती थी। मैं कैसे कहूं मेरा नाम शम्मा है। शम्मा तो जलती रहती है, और मैं तो मुस्कुराहटों से इबारत हूँ। भरपूर बहारों और दिलकश माहौल से मेरा वजूद महका महका हुआ है। लेकिन मैं ये भूलती थी कि शम्मा का काम बहरहाल जलना है। मैं अक्सर सोचती हूँ आफ़ताब कि अगर मेरा नाम शम्मा होता तो क्या वाक़ई मेरी ज़िंदगी यूं होती? लेकिन तुम्हारा नाम भी तो आफ़ताब है। सूरज भी तो सदा जलता ही रहता है। फिर तुम्हारे हिस्से में दुनिया ज़माने की ख़ुशियां कैसे हुईं और मैं क्यों ग़मों से सजाई गई? शायद ये मेरे अपने सोचने का ग़लत अंदाज़ ही हो। हम औरतें वहमी हुआ करती हैं ना? हाँ ये मेरा वहम ही तो था कि मैं एक मामूली से मिट्टी के चराग़ को यूं दिल समझ कर सँभाल सँभाल कर रखती रही, और आज उसके टूट जाने से यूं उदास हूँ जैसे सारी ख़ुशियों ही से मेरा नाता टूट गया है। शायद ये बात हो आफ़ताब कि उस दिन तुमने हंसी ही हंसी में बहुत गहरी बात कह दी थी।

    शम्मा इसे सँभाल कर रखना, जिस दिन ये बुझा समझो अपनी मुहब्बत भी बुझ गई।

    वो दीवाली की रात थी... तुम्हें तो याद भी होगा... ।(और मेरी तो ज़िंदगी ही महज़ याद है) घर के बच्चे पड़ोसियों की देखा-देखी मिट्टी के छोटे छोटे दीये कहीं से ले आए थे और चांदनी की मुंडेरों पर क़तार दर क़तार बहुत सारे दीये जला कर रख दिए थे। हम दोनों चांदनी पर आए तो सबसे कोने वाला दीया बुझा पड़ा था।

    हाय ग़रीब का कोई पुरसान-ए-हाल नहीं! मैंने लरज़ कर कहा और उसे साथ वाले दीये से जलाने को झुकी ही थी कि तुमने हंसकर कहा,

    आज इस दीये से ज़्यादा कोई ख़ुशनसीब नहीं। मैंने बौखला कर तुम्हें देखा तो तुम उसी जगमगाती हंसी के साथ बोले थे... हाँ जिसे तुम छू लो!

    मैंने तुम्हारी बात काट कर पूछा... और जिसे तुम छू लो...?

    दीया मेरे हाथ में काँप रहा था... झिलमिल... झिलमिल... झिलमिल... मुझे नहीं मालूम लेकिन यक़ीनन मेरे चेहरे पर उसी दीये की लौ जागी होगी, यक़ीनन उसके अक्स ने मेरे चेहरे को वो जिला बख़्शी होगी कि तुम मेरी तमन्ना कर सको, इसी लिए तुमने कहा था,

    शम्मा... मैं सारी ज़िंदगी तुम्हारी तमन्ना करता रहूँगा!

    मेरा हाथ काँपा। यक़ीनन दीया गिर जाता अगर तुम मेरा हाथ थाम लेते। (वो हाथ जो फिर तुमने कभी थामा) और तुमने जज़्बात से भरी और भर्ऱाई आवाज़ से कहा।

    शम्मा! इस मिट्टी के चराग़ को मैं अपनी मुहब्बत का अमीन बनालूं...?

    मैं वहमों की मारी... औरत पन की सारी कमज़ोरियों समेत तुम्हारी तरफ़ तकने लगी... जाने अब तुम क्या कहो... और तुमने धीरे से कहा था,

    शम्मा इसे सँभाल कर रखना, जिस दिन ये बुझा समझो अपनी मुहब्बत भी बुझ गई। मेरा दिल धड़ धड़ करने लगा। मुहब्बत का ये कौन सा अंदाज़ था कि एक चराग़ को तमाम तर ज़िम्मेदारियां सौंप दीं! लेकिन मैंने कहा मैं वहमों की मारी थी। तुम्हारे मुँह से निकले हुए अलफ़ाज़ मेरे लिए जैसे आसमानी सहीफ़ा हो गए मुझे सहमा हुआ देखकर तुम ज़रा मुस्कुराए थे और कहा था,

    इतनी डरी हुई क्यों हो शम्मा?

    मैं इक दम बच्चों की तरह फूट फूटकर रो पड़ी थी... तुमने मुझे कैसी ज़ंजीर में जकड़ दिया है आफ़ताब... चराग़ तो चराग़ ही होताहै कभी हवा के एक झोंके से भी बुझ सकता है, अब तो हर लम्हा दिल रह-रह कर धड़का करेगा कि अल्लाह करे, अल्लाह करे... जो ये बुझे... और जो कभी हवा का कोई सरकश और हासिद झोंका, मेरे आँचल से नज़र बचा कर उसे बुझा ही दे तो मैं कहाँ जी सकूँगी?

    तुम कितनी एतिमाद से भरी हंसी हँसे थे... तो तुम इतनी सीरियस हो गईं शम्मा! क्या मिट्टी का यह हक़ीर सा दीया मेरी मुहब्बत पर भारी हो सकता है?

    बात मिट्टी और कांच की नहीं आफ़ताब... बात तो एतिक़ाद और रिवाजों की होती है। कांच की चूड़ीयों में क्या धरा होता है? लेकिन किसी के नाम के साथ जब एक नई ब्याहता को पहनाई जाती हैं तो उसकी ज़िंदगी का मोल होजाती हैं... और फिर वो सारी ज़िंदगी उसके अपने अंग का एक हिस्सा हो कर रहती हैं। तुमने तो यूंही एक बात कह दी। लेकिन मैं तो मिट कर रह गई आफ़ताब!

    फिर वो रात कभी आई जब हम साथ साथ चांदनी पर जाते। मैं चराग़ जलाती। तुम मेरी तमन्ना करते और मैं तुम्हारी वफ़ाओं पर भरोसा करती... बस ज़िंदगी जैसे सिमट कर आँचल की ओट में आगई। मैंने अपने कमरे के एक महफ़ूज़ ताक़चे में वो चराग़ उठाकर रख दिया और ज़िंदगी इस जतन में गुज़रने लगी कि मुहब्बत का वह शोला कभी बुझने पाए। मेरा भोलापन देखो, मारे वहम के मैं एक साथ दो दो बत्तियां रुई की बना कर उसमें डाल देती कि ऐसा हो कि हवा कमज़ोर पा कर उसे बुझा ही दे... हर-रोज़ मैं उसमें तेल डालती। मैं तो अपना ख़ून भी उस में डाल देती अगर मुझे यक़ीन होजाता कि इस तरह मुहब्बत के चराग़ दिल के ख़ून से अमर हो जाते हैं।

    सब में उस चराग़ का चर्चा हो गया... मेरी सहेलियाँ मुझ पर हँसतीं... अरे देखो ये ज़रतुश्तों की तरह दिन रात चराग़ जलाए रहती है! दो एक ने टोह लेने की कोशिश की। लेकिन जिस तरह मुँह बंद कली की ख़ुशबू उसी के तन में छूपी होती है, ऐसे ही अपनी मुहब्बत का राज़ मैंने भी अपने ही तन-मन में रखा। ज़माना बहुत हासिद है, कौन जाने किस का दिल कब पलट जाये और बा'ज़ हवाएं इतनी सरकश और मुँह ज़ोर होती हैं... ।और मेरी मुहब्बत का चराग़ तो इतना नन्हा सा है...

    मंज़िल सामने हो तो रास्ते की कठिनाईयाँ हेच हो जाती हैं। मेरी मंज़िल तो मेरे सामने थी, मुझे किस बात काडर था... कांटों से मैं कभी डरी... पांव के छालों ने मुझे हिरासाँ नहीं किया, क़दम क़दम... लम्हा लम्हा... बढ़ते हुए हौसलों को ज़माने के ज़ुल्म भी पीस सके... हालाँकि मेरी ज़िंदगी ही क्या थी... ग़रीब सी लड़की जिसने माँ का सुख देखा बाप की मुहब्बत... ख़ाला के रहम-ओ-करम के सहारे जिसने जीना सीखा। दो वक़्त की रोटी और तन भर कपड़ा जहां ज़िंदगी की मेराज थी और वक़्त गुज़ारने के लिए जहां ढेरों काम थे... घर भर के मैले कपड़ों के अंबार। बावर्चीख़ाने में झूटे बर्तनों के ढेर। झाड़ने के लिए बड़े बड़े आँगन। सफ़ाई के लिए छोटे बड़े कई कमरे और ख़िदमत बजा लाने के लिए छोटे बड़े घर भर कर कई कई आया... लेकिन प्यार की इक निगाह, मोहब्बत का एक अनकहा बोल... मिट्टी का एक छोटा सा दीया... ये सब तेज़ झुलसती हुई धूप को कैसे ख़ुन्क छाओं से बदल देते हैं?

    उस दिन दोपहर में सबको खिला-पिलाकर, हर काम से निबट कर जब मैं अपने बिस्तर पर लेटी तो पता नहीं क्या हुआ, घर भर के बच्चे आकर मेरे सर हो गए।

    बजिया... प्लीज़ कहानी सुनाईए!

    हाय अल्लाह! कहानी? और वह भी दिन में... नहीं नहीं, ऐसे तो मुसाफ़िर राह भटक जाते हैं... मैंने घबरा कर कहा।

    नहीं बाजी... आज बड़े चचा आगए हैं, वो हमें सरेशाम ही बिस्तरों में घुसा देते हैं कि बच्चों को जल्दी सो जाना चाहिए, तो आज हमें आप दिन ही में कोई कहानी सुना दीजिए।

    सब कामों से निबट कर, ये भी तो मेरा आख़िरी काम होता था कि रात में सब बच्चों को कहानियां कह कर सुलाऊं... दिन में कहानियां मुझसे कभी कही गईं। मैंने सुना था दिन में कहानियां कहो तो मुसाफ़िर रास्ते भूल जाते हैं। राह भटक जाते हैं... मैं वहमों की मारी। मेरा दिल ये सोच कर टूटा करता, अल्लाह जाने कौन किस इरादे से किस राह जाना चाहे और रास्ता भूल बैठे... मैं क्यों किसी की मंज़िल खोटी करूँ? लेकिन उस दोपहर में बच्चों ने मुझे दम लेने दिया। मेरी एक चलने दी।

    देखिए आपी अगर आपने कहानी सुनाई तो हम आफ़ताब भय्या को कह देंगे। तुम घर के सबसे बड़े थे, सब तुम्हारा नाम लेकर एक दूसरे को डराया करते थे।

    आफ़ताब भय्या! मैं तुम्हारा नाम दिल ही दिल में गुनगुना कर बोली। मेरे ख़ुदा ये किस का नाम मेरी ज़बान पर है और मैं जैसे सब कुछ भूल कर कहानी सुनाने लगी। किसी शहज़ादे-शहज़ादी की नहीं, इसी रहती बस्ती दुनिया की... मेरी तुम्हारी...। लेकिन आफ़ताब! मैंने देख लिया कहने वाले ग़लत नहीं कहा करते, दिन में कहानियां सुनाने से मुसाफ़िर सच-मुच रास्ता भूल जाते हैं। अपनी मंज़िल पाते पाते भटक जाते हैं। मैंने दिन में कहानी सुनाने की जो ग़लती की। उसका भुगतान आज तक भुगत रही हूँ। सोचती हूँ ये कहानी मैंने शुरू ही क्यों की थी?

    और फिर यह हुआ कि दम-ब-दम उस चराग़ की लौ नीची होती गई। मैं फिर भी उसे जलाने और जलाने की अपनी सी कोशिश किए गई लेकिन दिल का लहू भी काम आया!

    आज दिल को थोड़ी बहुत तस्कीन बस बीते दिनों को याद करने से मिल रही है। शायद आज के बाद मैं कभी उन दिनों को याद भी कर सकूँ! ये कैसी अजीब बात थी आफ़ताब कि ज़िंदगी में तुम कभी खुले आम अपनी मुहब्बत का एतराफ़ किया कोने खुदरों में सरगोशियाँ ही कीं... निगाहें! सिर्फ़ तुम्हारी वो बोलती हुई, मुस्कुराती हुई, अह्दो पैमां करती हुई, सारी दुशवारियों को पीस डालने के बलंद बाँग दावे करती हुई निगाहें ही तो थीं जिन्हों ने मुझे तुम्हारी मुहब्बत का यक़ीन दिलाया... मुझे आज भी तुम्हारे उन जज़्बात पर नाज़ है कि तुमने कभी सतहीपन का मुज़ाहरा नहीं किया... समुंदर की वसीअ ज़ात की तरह तह ही तह में मुहब्बत की कारफ़रमाइयाँ लहरें लेती थीं। ऊपरी सतह ख़ामोश पुरसुकून! कोई कैसे समझ सकता था कि तुम एक ग़रीब सी बदनसीब सी लड़की से इतना भरपूर प्यार करते हो। ये तो सिर्फ़ मैं थी जो तुम्हारी मुहब्बत की राज़दार थी। चंद लम्हे मेरी ज़िंदगी का हासिल हैं, कैसे गहरा प्यार छलक पड़ता था कभी कभी तुम्हारी छोटी छोटी बातों से!

    अँधेरी रात में एक-बार मैं सीढ़ीयां चढ़ रही थी, तुम उतर रहे थे। मैं चाप सुनकर ही समझ गई ये तुम हो। मैंने सोचा अल्लाह करे तुम कहीं गिर जाओ। इसी लिए मैंने ज़रा झिजक कर कहा था,

    सँभल कर उतरिए। अंधेरा बहुत गहरा है।

    तुमने जगमगाती आवाज़ में जवाब दिया था... तुम्हारे चेहरे का चांद जो साथ है!

    एक तेज़-धूप वाली दोपहरी में तुम बाहर से आए तो मेरा दिल रो उठा।

    ठंडे पानी से मुँह हाथ धो लीजिए। कैसी सख़्त धूप से आप हो कर आए हैं!

    धूप? तुमने मुस्कुरा कर कहा था... मैं जिधर जाता हूँ तुम्हारी इन लाँबी लाँबी ज़ुल्फ़ों का साया मुझ पर चलता जाता है!

    एक चाँदनी-रात... चांद के भरपूर हुस्न के मुक़ाबिल तुमने मेरा हक़ीर वजूद खड़ा किया था और अपनी जवाँ साँसों और मज़बूत हाथों के साथ मेरे क़रीबतर हो कर मुझे छू कर कहा था।

    चांद में इतना नूर कहाँ है?

    मेरे वहमों के साथ साथ ज़िंदगी में क़दम क़दम पर कैसे भरपूर भरोसे थे... आज भी तो चेहरे का वही चांद है। ज़ुल्फ़ों की वही इत्र बेज़ और ठंडी घटाऐं हैं। आँखों के, इंतिज़ार में बसे हुए डूबे हुए दीये हैं, लेकिन एक तुम नहीं हो और तुम क्या जानो सिर्फ़ तुम्हारे होने से इस ज़िंदगी का क्या रंग है...?

    मैं सोचती हूँ आफ़ताब! लकड़ियाँ कितनी ख़ुशनसीब होती हैं कि धुआँ धुआँ हो कर, जल जल कर राख हो सकती हैं, हो जाती हैं। मैं पापिन तो धुआँ बनी राख जली... लम्हे लम्हे की संग दिल वारदात मेरे दिल से पूछो और ये देखो में भी कैसी सख़्त जान थी जो ज़िंदा रही, ज़िंदा हूँ!

    वो दिन मैं कभी नहीं भूल सकती... तुम बेहद शादमाँ, बश्शाश और बहुत गहरे अज़्म से मेरे पास आए और बोले,

    शम्मा... ज़िंदगी कितनी ख़ूबसूरत है... लेकिन इस से भी ज़्यादा एक और ख़ूबसूरत चीज़ है... पैसा!

    मैं सर से पांव तक लरज़ गई और बुरी तरह चौंक कर तुम्हें देखने लगी। तुम इक दम शफ़्फ़ाफ़ सी, बेदाग़ हंसी हंस पड़े, घबरा गईं? मैं सिर्फ़ ये कह रहा था शम्मा, अब ज़िंदगी इस मुक़ाम पर आगई है कि मैं चाहूँ तो ख़ुशी से तुम्हें अपना लूं। मुझे भला कौन रोकेगा? लेकिन मैं ये चाहता हूँ कि हमने जो ज़िंदगी में अब तक सिर्फ़ दुख उठाए हैं, ग़रीबी ही देखी है, तो अब इस रास्ते को छोड़कर एक नया रास्ता अपनाएं। जहां ख़ुशी हो, मुहब्बत हो और ज़िंदगी का हर ऐश भी हो।

    मैं बेहद सहमे हुए दिल के साथ सुनती रही... शम्मा पहले मैं ज़रा अपनी लाईफ़ बना लूं... मेरा मतलब है कुछ पैसा जमा कर लूँ, कार ख़रीद लूं, फिर ठाट से तुम्हें ब्याह कर ले जाऊं। तुम्हें भी तो ज़िंदगी का कुछ हुस्न मिले।

    तुम्हारी मुहब्बत के बदले में मैंने अपनी ज़बान शायद रहन रख दी थी, कभी तुम्हारे सामने होंट हिला पाई। लेकिन जैसे मेरा रोवां रोवां चीख़ उठा... मुझे पैसा नहीं चाहिए आफ़ताब, मुझे दौलत की हवस नहीं है। मुझे सिर्फ़ तुम्हारी मुहब्बत चाहिए। मुझे अपने प्यारे हाथों के हार पहना दो, अपने गर्म-गर्म होंटों का टीका मेरे माथे पर सजा दो। मेरे सुहाग और मुहब्बत की बस उतनी ही मांग है... लेकिन मैंने कहा ना कि मैंने तुम्हारे आगे सिर्फ़ अपनी आँखें झुकाना ही सीखा था।

    और तुम चले गए।

    यूं कहने और सुनने में कितनी मामूली सी बात लगती है कि एक शख़्स को जाना था और वो चला गया... लेकिन ये मैंने उन्हीं दिनों जाना कि जगमगाता चांद तारीक क्योंकर होजाता है। फूल अपना हुस्न कैसे खो देते ही। बहारें ख़िज़ाओं से कैसे बदल जाती हैं... और धीरे धीरे, हँसने मुस्कुराने वाले होंट, अपनी मुस्कुराहटें आंसूओं को कैसे तज देते हैं... और तुमसे ये बता दूं आफ़ताब कि तुमने मेरी आँखों के लिए जो एक बहुत प्यारी और अनोखी सी तशबीह दी थी कि मेरी आँखें देखो तो ऐसा मालूम होता है जैसे सच्चे हीरे, जगर मगर करते हीरे कूट कर अल्लाह मियां ने ये आँखें बनाई हैं, तो वही आँखें अपनी जगमगाहट खो कर जैसे दो बुझे हुए चराग़ बन कर रह गईं।

    जहां हौसला हो वहां इरादे भी साथ देते हैं। तुम्हारे बेपनाह हौसलों ने तुम्हें कामयाबियों से हमकनार कर दिया। आज यहां, कल वहां।तुम्हारा बिज़नेस फैलता गया... तुम अमीर से अमीर तर होते गए... ख़ूबसूरत कोठी, फ़ोन, फ़र्ज, नौकर-चाकर और गाड़ियां तो यूं बदली जाने लगीं जैसे कोई कपड़े बदलता है... मैं भी सब के साथ नई कोठी में उठ आई थी। ऐसी ज़िंदगी जिसका तसव्वुर इन्सान ख़्वाबों में ही कर सकता है। अब सभी को और मेरा मुक़द्दर थी... (लेकिन तुम कहाँ थे?) दौलत आई तो ज़िंदगियों में मग़रबियत दख़ील होने लगी... लेकिन मैं जिस मुक़ाम पर थी वहीं रही... सूरजमुखी के मासूम और नादान फूल की तरह जो सदा सूरज की तरफ़ तकता रहता है।

    एक रात सब लोग किसी पार्टी में गए हुए थे। फ़ोन की घंटी अचानक बजने लगी। मैंने ही फ़ोन उठाया... तुम थे। दिल्ली से बात कर रहे थे... इतनी दूर से! मेरा दिल लरज़ उठा।

    हेलो... मैं आफ़ताब बोल रहा हूँ, उधर कौन है?

    मैं डूबते दिल से बोली... मैं... मैं शम्मा हूँ...

    क्या कर रही हो?

    जल रही हूँ...

    उधर से एक भरपूर हंसी, ओफ़्फ़ो! तुम तो डायलॉग बोल रही हो!

    जाने एक साथ कितने सारे आँसू मेरी आँखों में उमड पड़े।

    मैंने रोकने की कोशिश भी नहीं की... बनते बिगड़ते जुमलों को मेरे आंसूओं ने भिगो भिगो दिया... आफ़ताब! मैं तुम्हारे बग़ैर ज़िंदा नहीं रह सकती। तुम आते हो, फिर चले जाते हो, फिर आते हो फिर चले जाते हो... मुझसे बात तक करने का वक़्त तुम्हारे पास नहीं होता। ये चेहरा आज भी चांद है। आँखें आज भी हीरों की तरह दमकती हैं। ज़ुल्फ़ों में आज भी सावन की घटाएं झूमती हैं। लेकिन तुम कहाँ हो आफ़ताब...

    उधर से फ़ोन कट गया।

    तीसरे दिन प्लेन से तुम आए। शोफ़र गाड़ी ले कर एरोड्रम गया था। तुम नवाबों की सी शान और तमकनत के साथ उतरे। किचन की एक खिड़की कॉरीडोर में खुलती थी। तुम इधर उधर देखते चले आरहे थे। जैसे किसी को ढूंढ रहे हो। शायद तुम्हारी आँखों को मेरी तलाश हो। मैंने दुखे दिल से सोचा। लेकिन तुम दप् दप् करते ऊपर चले गए। शाम को मैं पौदों में पानी दे रही थी कि तुम बाग़ में निकल आए।

    अरे शम्मा तुम... माली कहाँ है, ये तुम क्या करती रहती हो हमेशा। काम... काम... काम... इतने सारे नौकर जो हैं?

    मैंने पहली बार तुम्हारी आँखों में बे-ख़ौफ़ी से झाँका... आफ़ताब सभी फूल तो ऐसे नहीं होते जो माली के हाथों खिल सकें...

    इक दम तुम चौंके... तुम आजकल बहुत डायलॉग बोलती हो... ईं, और भई उस दिन ट्रंक काल पर तुम ये क्या नादानी करने लगीं? कोई ऐसा रोया करता है? मैंने तो घबरा कर रिसीवर ही रख दिया।

    मैं कुछ बोली। पौदों में पानी डालती रही। लड़कियां बहुत अहमक़ होती हैं। ज़िंदगी भर मुहब्बत के पौदों में उम्मीदों का पानी डालती रहती हैं... और मैं भी तो एक लड़की ही थी... सब लड़कियों जैसी... बल्कि उनसे कुछ ज़्यादा ही नादान।

    और मुझे उस दिन पर हैरत है जब मैं इतनी बे-बाक हो गई थी कि तुम्हारे मुक़ाबले पर खड़ी हुई थी... ये तुम्हारा एहसान था या ज़ुल्म। पता नहीं, बहरहाल तुमने मुझे नित-नए कपड़ों और ज़ेवरों से लाद दिया था। सभी से तुम्हारा ये मुतालिबा था कि गूंदनी के पेड़ की तरह ज़ेवरों से लदी रहें। घर के लड़के कारें उड़ाए फिरते, लड़कियां नए नए फ़ैशन के कपड़ों और ज़ेवरों से सजी बनी कोठी पर अपनी सहेलियों और दोस्तों के साथ हंगामा मचाए रखतीं... और तुम जो उन दिनों नऊज़-बिल्लाह सब के पालनहार बने हुए थे। ये सब देख देखकर ख़ुश होते रहते कि सब लाईफ़ को किस क़दर इनज्वाए कर रहे हैं और ये देख देखकर कुढ़ते रहते कि मैं इतनी ख़ुशियों के बावजूद किस तरह... बेतरह उदास रहती हूँ। पहनने-ओढ़ने से मुझे रग़बत नहीं। घूमने-फिरने का शौक़ नहीं। आने-जाने में दिल नहीं लगता, महफ़िलों से भागती हूँ... मैं क्या करती आफ़ताब... मेरा तो दिल ही जैसे मुर्दा हो गया था... तुम सचमुच ही आफ़ताब बन कर रह गए थे जिसे हर लम्हा देख तो सकते हैं, हाथ बढ़ा कर छू नहीं सकते। अपना नहीं सकते।

    उस दिन तुम कलकत्ता से आए हुए थे। तुमने अपने दोस्तों को एक पार्टी दे डाली। इंतिज़ाम तो मुझे ही करना था सो मैंने कर दिया लेकिन उन हंगामों से मुझे क्या दिलचस्पी हो सकती थी? तुमने मुझे जता दिया था, देखो शम्मा! ख़ुदा के लिए आज ज़रा अच्छे कपड़े पहनना और ख़ूबसूरत... खैर वो तो तुम नज़र आओगी ही!

    मैंने बेदिली से वो जोड़ा पहन लिया, जिससे मेरी देरीना यादें वाबस्ता थीं। जिन दिनों तुम ग़रीब थे लेकिन मेरे थे। अँधेरी रातों में जिन दिनों तुम मेरे चेहरे की रोशनी में अपने रास्तों के लिए चराग़ फ़राहम कर लिया करते थे... स्याह शलवार, स्याह क़मीस और स्याह दुपट्टा, जिन पर सितारे टंके हुए थे। तुम किसी काम से अंदर आए तो, थे तो बड़ी लपक झपक में... लेकिन मुझे देखकर ठिटक से गए।

    शम्मा... ये दुपट्टा...

    मैंने तुम्हारी बात काट दी... इसे मेरा मुक़द्दर समझ लो... स्याह तारीक... और इन सितारों को आँसू... शायद ये निशानी तुम्हें कुछ सोचने पर उकसाए।

    तुम कैसी बातें कर रही हो शम्मा?

    मैं फट पड़ी... आफ़ताब मुझे मत आज़माओ... ख़ुदा के लिए मुझे मत आज़माओ... मैं घुट रही हूँ, मर रही हूँ, तुम्हें कुछ एहसास नहीं होता... आंसूओं ने मेरा गला रुँधा दिया... आज मैं तुमसे तुम्हीं को माँगती हूँ। बोलो आफ़ताब! जब अल्लाह ने तुम्हें दुनिया जहान की ने'मतों से नवाज़ दिया है तो तुम मुझे क्यों टाल रहे हो...

    पागल बनो शम्मा... मैं तुम्हें टाल नहीं रहा हूँ भाई, क़िस्सा दरअसल ये है कि अभी मेरे सामने इतने प्रोग्राम हैं कि मैं ख़ुद गड़बड़ा गया हूँ। देखो पंद्रह दिन बाद मुझे लंदन जाना है, वहां से लौटूँ तो शायद कई दिनों के लिए दिल्ली जाना पड़ जाये। अगले छः महीनों में मुझे पैरिस... हांगकांग...

    मैंने अपने कानों में उंगलियां ठूंस लीं। मैं चीख़ उठी।

    आफ़ताब! सोने के मत बन जाओ। ख़ुदा के लिए गोश्त-पोस्त के इन्सान बने रहो कि मैं तुम्हें पा भी सकूँ, छू भी सकूँ और छूऊँ तो ये एहसास भी कर सकूँ कि मैंने मुहब्बत और प्यार से भरपूर एक गुदाज़ दिल को, जिस्म को छुवा है, ये एहसास हो कि मैंने एक सोने के मुजस्समे को मुहब्बत दी है।

    तुम हक्का बका रह गए। शायद तुम्हें तवक़्क़ो थी कि मैं, जो सदा एक गूँगी के किरदार में तुम्हारे ड्रामे में पार्ट करती रही, यूं बोल भी सकूँगी। मैं अचानक दीवानों की तरह उठी और ऊंचे कारनिस पर से वो नन्हा मुन्ना चराग़ उठा लाई जो मेरी उम्मीदों की तरह रह-रह कर टिमटिमा रहा था।

    इसे फूंक मार कर बुझा दो आफ़ताब... अब मैं ज़िंदगी से हार गई हूँ। मुझमें वो हौसला नहीं कि मैं इसे दिल का ख़ून देकर भी ज़िंदा रख सकूँ...

    तुमने चराग़ को बेमानी निगाहों से देखा... ।उसे बुझाया नहीं। (लेकिन जलाया भी नहीं)

    उस रात की पार्टी की एक बात मुझे याद रह गई है। तुमने अपने दोस्तों का हम सब बहनों से तआरुफ़ कराया था और तुम्हारी ही टक्कर के एक बिज़नेस मैन दोस्त असलम ने, मुझसे हाथ मिलाते वक़्त बेहद शदीद हैरत और सच्चाई के साथ कहा था,

    यार आफ़ताब... क्या बेवक़ूफ़ी थी... आज के दिन तक यही समझता रहा था कि हूरें मरने बाद ही मिलेंगी!

    फिर चंद दिनों बाद ख़ाला अम्मी ने मेरे सामने एक अजीब-ओ-ग़रीब बात पेश की।

    बेटी... तुम जानती हो आफ़ताब कितना रोशन ख़्याल लड़का है, उसने अपनी बहनों को भी बेजा पाबंदियों से दूर रखा है और तुम्हें भी वो अपनी बहनों की तरह हर ऐश आराम मुहय्या करना चाहता है। असलम आफ़ताब का बहुत गहरा बहुत प्यारा दोस्त है और ख़ुशी की बात ये है कि उसने तुम्हें बेहद पसंद किया है। वो तुमसे शादी करना चाहता है। वो कुछ ठहर कर बोलीं, हम सब और ख़ास तौर से आफ़ताब इस रिश्ते से बेहद ख़ुश है।

    उसके बाद तो सुनने के लिए कुछ भी रह गया। मैं इस उसूल की क़ाइल हूँ कि मुहब्बत ऐसा जज़्बा है जो ज़बरदस्ती किसी से नहीं जोड़ा जा सकता। जब तुम ही ने मुझे ठुकरा दिया तो मैं तुम्हारे सामने इस घर में रह कर ही क्या करलेती... मैं तो बहरहाल एक बोझ थी जो किसी किसी के सर लाद दिया जाता। मैंने हाँ, ना कुछ भी कहा। बस अपना सर झुका लिया। अब मैं सर उठा कर जी भी कैसे सकती थी? लेकिन ये कैसा दुख है आफ़ताब जो जी से जाता ही नहीं, मैं कहानियां पढ़ती थी जिनमें हमेशा दो मुहब्बत करने वालों के बीच, ज़माना, समाज या कोई रक़ीब आड़े आजाता था। मुहब्बत इसी लिए सदा मुसल्लस से ताबीर की जाती रही है। लेकिन मेरे नसीब में ये कैसा ग़म लिखा था कि तो कोई समाज मेरे लिए दीवार बना, ज़माने ने अड़चन डाली। कोई रक़ीब ही पैदा हुआ। तुम्हीं मेरे सब कुछ थे और तुम्हीं ने मुझे भरी बहार में लूटट लिया... तुम्हीं ने सुहाग की बिंदिया मेरे माथे पर सजाई और तुम्ही ने मिटा दी... जीवन मरण का सारा खेल तुम्हारे ही हाथों अंजाम को पहुंचा।

    जब मैं ब्याह कर नए घर आई तो वो दीया अपने साथ ही उठा लाई। असलम ने देखा, मैं दीये की ऐसी दीवानी हूँ तो उसने मेरे घर को सदा दीवाली का रूप दे दिया... नन्हे-मुन्ने रंगीन क़ुमक़ुमे यहां से वहां तक सारे लॉन में, दरख़्तों में, हद ये कि नन्हे-मुन्ने पौदों तक में लगवा दिए।

    तुम्हें उजालों से प्यार है और मुझे तुमसे... और उसने मुहब्बत से सरशार हो कर बेहद आम शौहरों वाली, हज़ार बार की कही बात दुहराई।

    जान ये तो हक़ीर क़ुमक़ुमे हैं, तुम कहो तो मैं आसमान के सारे जगमगाते सितारे तोड़ कर तुम्हारे आँचल में डाल दूं...

    असलम बेचारे को यह बात नहीं मालूम आफ़ताब कि जिन सितारों के तोड़ लाने का जतन वो करता रहता है, वो आज से सालों पहले तुमने चुन-चुन कर मेरी आँखों में बसा दिए हैं।

    मुझे असलम पर कैसा कैसा तरस आया है... इस बेचारे ने क्या क़सूर किया है कि उसे मुहब्बत से महरूम ज़िंदगी मिले... और फिर इतना टूट कर चाहने वाला शौहर... इसी लिए आज मैंने अपने हाथों से इस मिट्टी के दीए को ज़मीन पर पटख़ दिया। मैं उन यादों के लिए क्यों अपना जीवन बर्बाद करूँ जो मुझे ख़ुशी का एक लम्हा भी नहीं दे सकतीं। लेकिन सुबह से अब तक... मैं एक लम्हे को भी सुकून नहीं पा सकी हूँ। रह-रह के दिल में कांटे से टूट रहे हैं और आँसू तो यूं टूट टूट कर गिर रहे हैं जैसे सारी दुनिया बहा ले जाऐंगे। दिल की दुखन का ये आलम है जैसे छाले टपक रहे हों। बेपनाह ख़ुशियों, मुहब्बत करने वाले साथी और रंगीन बहारों में घिरी होने के बावजूद जैसे मेरी रूह तरस तरस कर कराहती है... मैं तन्हा हूँ... मैं अकेली हूँ... मैं अकेली हूँ... अ...

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