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जानवर

MORE BYसिद्दीक आलम

    स्टोरीलाइन

    यह नारी विमर्श और मानव विरचना की कहानी है। वह शहर के पुराने इलाक़े में एक पुरानी इमारत के तीन कमरों वाले एक फ़्लैट में अपने शौहर और बच्चे के साथ रहती थी। बच्चा जवान था और अब बीस बरस का हो चुका था। डाक्टरों के अनुसार उसकी शारीरिक उम्र बीस बरस सही, मानसिक रूप से वह अभी सिर्फ़ दो साल का बच्चा है। एक दिन बाज़ार में सड़क पर टैक्सी का इंतज़ार करते हुए जानवरों से भरी एक वैन उसके सामने आकर रुकी। उस वैन के मालिक ने एक अजीब-ओ-ग़रीब जानवर उसे दिया जो बहुत सारे जानवरों का मिश्रण था। उसने वह जानवर इस शर्त पर अपने बच्चे के लिए ले लिया कि अगर पसंद न आया तो वह उसे वापस लौटा देगी। जानवर को घर लाते ही अचानक उसके घर के लोगों में अजीब सा बदलाव दिखाई देने लगा, यहाँ तक कि उस औरत के लिए यह फ़ैसला करना मुश्किल हो गया कि आख़िर जानवर कौन है, वो अजीब सा जानवर या ख़ुद वो लोग।

    मेरा बच्चा सिर्फ़ दो बरस का था जब मैं उसके लिए मुर्ग़ी के दो चूज़े ख़रीद कर लाई। मशीन के ये दोनों बच्चे बहुत बद-नसीब साबित हुए। पहला तो उसी दिन मर गया। दूसरा इस वाक़िए’ के सात दिन बा’द बालकनी के जंगले से बाहर निकल कर दीवार के कार्नस पर टहल रहा था जब एक चील उसे पंजे में दबा कर ले गई।

    वो तीन बरस का था जब एक दिन उसे स्कूल छोड़कर वापिस लौटते वक़्त फ़ुट-पाथ के एक सूराख़ के अंदर जो एक पुराना लैम्प पोस्ट निकाल दिए जाने के सबब बन गया था मैंने बिल्ली के बच्चों की आवाज़ सुनी। मैंने झाँक कर देखा। उसके अंदर दो बिल्ली के नौ-ज़ाईदा बच्चे पड़े थे और अपने मनहनी सर उठाए हुए अपनी मा’सूम आँखों से मेरी तरफ़ ताक रहे थे। एक को तो मैंने फ़ुट-पाथ पर उसकी माँ की तलाश में छोड़ दिया, दूसरे को घर ले आई। एक माह के अंदर-अंदर वो ठंड से मर गई।

    मेरा बच्चा चार बरस का था जब मैंने उसकी सालगिरह के दिन तोहफ़े में उसे एक ख़रगोश ला कर दिया जिसे उसने अपने सीने से लगा कर प्यार से दबाते-दबाते बिल्कुल छोटा कर डाला। हमने उसे अलग करने की कोशिश की तो उसने गुस्से में उसे फ़र्श पर पटक दिया और वो एक बे-जान लोथड़े में बदल गया।

    मेरा बच्चा आठ बरस का था जब उसकी ज़िद पूरी करने के लिए मैं गल्फ़ स्ट्रीट से एक अफ़्ग़ान हाऊंड खरीदकर लाई। मुझे इ’ल्म था कि मैं ठग ली गई थी। कुत्ता पहले से बीमार था और उसकी मौत यक़ीनी थी। उसे खाना खिलाने की हमारे तमाम कोशिशें नाकाम हो गईं और एक दिन वो पलंग के नीचे ठंडा पाया गया।

    वो चौदह बरस का था जब मैं उसके लिए एक तोता ख़रीद कर लाई। वो एक ख़ामोश फ़ितरत का तोता था जो सिर्फ़ पिंजड़े में उल्टा लटकता रहता। एक दिन नौकरानी उसकी प्यालियों में चना और पानी डालने के बा’द पिंजड़े का दरवाज़ा ठीक से बंद करना भूल गई और वो बाहर निकल कर सीढ़ी घर की मसनूई’ सीलिंग में जा घुसा जहाँ दो बड़े भयानक चूहों ने अपना मस्कन बना रखा था। उन्होंने फ़ौरन उसका शिकार कर लिया। बा’द में मसनूई’ सीलिंग कटवाने पर दोनों चूहे भाग निकले और हड्डियों के ढेर के बीच जिन्हें चूहे महीनों से वहाँ जमा कर रहे थे हमें तोते के सब्ज़ पर, उसकी सालिम सुर्ख़ चोंच और पालिश की हुई ताज़ा सफ़ेद हड्डियाँ मिलीं।

    मैंने सोचा अठारह साल एक लंबा अ’र्सा होता है। मेरा बेटा जो जानवरों का इतना शैदाई है और गोश्त मछली से जिसे कराहीयत है, शायद जानवरों के मुआ’मले में वो बद-नसीब है।

    शहर के क़दीम इ’लाक़े में हम एक पुरानी इ’मारत की बरसाती में रहते हैं। बरसाती इन तीन कमरों पर मुश्तमिल है जिसने छत के आधे हिस्से को घेर रखा है। बाक़ी की छत ख़ाली पड़ी है जो हमारे ही

    इस्ति’माल में रहती है। मेरे बच्चे के सर पर बाल कम हैं बल्कि उसे दाइमी गंजा कहा जाए तो बेहतर होगा क्योंकि अब उसकी खोपड़ी पर बाल निकलने वाले नहीं। वो पैदाइशी लब-कटा है और उसकी नाक हमेशा बहती रहती है। हम उसे पढ़ने के लिए स्कूल नहीं भेजते। डाक्टरों के मुताबिक़ उसकी जिस्मानी उ’म्र बीस बरस की सही, ज़हनी तौर पर वो अभी सिर्फ़ दो साल का बच्चा है। मैं रात रात-भर जाग कर उसकी तीमार-दारी किया करती हूँ और वो अपनी तेज़ आँखें मुझ पर टिकाए रखता है।

    “तुम्हें कुछ चाहिए अशरफ़?”, मैं उससे पूछती हूँ।

    “मामा पेट, मामा पेट।” (Pet)

    “कैसा पेट?”

    “घोड़ा, हिप्पो, एलीफ़ेन्ट।”, फिर थोड़ी देर चुप रह कर वो कहता है, “डक!”

    “तुम जानते हो अशरफ़, तुम्हारे सारे पेट मर जाते हैं।”

    “मामा पेट मामा पेट!”, उस पर जैसे हिस्ट्रिया का दौरा पड़ जाता है, “घोड़ा, हिपो, एलीफ़ेन्ट”

    “और डक।”, मैं उसका जुमला मुकम्मल करती।

    मैं उसे पब्लिक पार्क ले जाती जो हमारे घर से थोड़ी दूर एक मसनूई’ झील के किनारे वाक़े’ था। वहाँ वो अपनी ही उ’म्र के बच्चों के साथ खेला करता। मेरा मतलब दो ढाई साल के बच्चों से है। बच्चे उससे बहुत जल्द मानूस हो जाते क्योंकि वो ख़ुद भी एक अच्छा खिलौना था। वो सर के बल क़लाबाज़ियां खाने में माहिर था, दोनों टाँगों को ऊपर उठा कर अपनी हथेलियों पर उल्टा चलने लगता, क़मीज़ और बनियान उतार कर अपना पेट ग़ुब्बारे की तरह फुला लेता और अपनी मुट्ठियों से ढोल की तरह बजाता। वो अपने कटे हुए होंटों के बीच से चूहों जैसी आवाज़ें निकालता जिनसे छोटे छोटे बच्चे मसहूर हो कर उसकी तरफ़ ताकते रहते। मगर मुझे बहुत होशियार रहना पड़ता क्योंकि एक-बार वो एक बच्चे का गाल चबा चुका थ।

    मैं जब उससे बहुत ख़ुश होती तो उसे सीने से लिपटा कर उसके कटे हुए होंटों के बीच बोसा दिया करती। दूसरे वक़्तों में मैं उससे लापरवाह पार्क के बैंच पर बैठी पत्तों को हवा की ज़द पर लरज़ते देखती रहती। मेरी जवानी का एक बड़ा हिस्सा अशरफ़ पर सर्फ़ हो चुका है। मैं फिर भी ख़ुद को यक़ीन दिलाने की कोशिश करती कि मुझे किसी बात का दुख नहीं, कि मैं ख़ुश हूँ।

    नफ़ीस हर माह एक नए डाक्टर की ख़बर लेकर आता है। इतने बरसों बा’द भी उसने उम्मीद नहीं हारी है। उसे मैंने कभी रोते नहीं देखा जैसे ज़रा सी कमज़ोरी और वो ये जंग हार जाएगा। मेरे लिए सबसे ज़ियादा सब्र-आज़मा वो लम्हात होते जब अशरफ़ बिस्तर गीला कर देता या जब इतना बड़ा होते हुए भी वो प्लास्टिक के कमोड पर बैठने पर इसरार करता और बा’द में मुझे उसकी सफ़ाई करनी पड़ती। इसके लिए मैं किसी को इल्ज़ाम नहीं देती। हर नौकर नौकरानी के काम की एक हद होती है और एक जवान लड़के की पौटी से किसे कराहीयत नहीं होती। अशरफ़ जिस्मानी तौर पर बालिग़ हो चुका है, उसकी दाढ़ी-मूछें निकल चुकी हैं फिर भी ये सब काम मुझे करने पड़ते हैं। अक्सर मैं आईने के सामने खड़ी-खड़ी टूट जाती हूँ। मगर नफ़ीस हार नहीं मानता। पर्दों का ये ताजिर अशरफ़ पर अपने लाखों रुपये ख़र्च कर चुका है मगर उसकी पेशानी पर बल नहीं पड़ता। वो अशरफ़ को अपनी गोद में बिठा कर (जब कि दोनों एक ही क़द और काठी के हो चुके हैं) उसके गंजे सर पर कपड़े की कैप रख कर कहता है,

    “वो हम लोगों के लिए एक नेक फ़ाल बन कर आया है। जान, तुम्हें नहीं पता, हमने जितना उसे दिया है अशरफ़ ने उसके मुक़ाबले कितना गुना ज़ियादा लौटाया है, उसने हमें बड़े बड़े होटलों से आर्डर दिलवाए हैं, वेनेशियन ब्लाइंड (Venetian Blind) की एजैंसी दिलवाई है।”

    उस दिन अशरफ़ को घर पर नौकर के साथ छोड़कर मैं बाज़ार आई थी। कल अशरफ़ की सालगिरह है। मुझे उसके लिए कुछ फूल ख़रीदने हैं। अशरफ़ ख़िज़ाँ की पैदावार है। ख़िज़ाँ के मौसम में फूलों की

    क़ीमतें आसमान को छूने लगती हैं। मुझे कुछ ख़ास फूल चाहिएँ जो ख़ास भी हों और हमारी आमदनी के मुताबिक़ भी। वो फूल मुझे कहीं दिखाई नहीं देते। आख़िर-कार मुझे दूसरी तरह के फूलों पर इक्तिफ़ा करना पड़ता है जिनसे मुझे इत्मीनान नहीं होता मगर मेरे पास कोई चारा भी नहीं। मुझे लगता है मैं अशरफ़ के साथ बे-ईमानी कर रही हूँ। ऐसा नहीं है कि मेरे पर्स में पैसा नहीं है। मगर हर चीज़ की अपनी क़ीमत होती है। आप पेड़ की क़ीमत पर फूल नहीं ख़रीद सकते।

    मैं फूलों को थामे हुए न्यू मार्केट के फ़्लावर रेंज से निकल कर चौरंगी के फुट-पाथ पर टैक्सी का इंतिज़ार कर रही हूँ। सामने सड़क पर गाड़ियाँ दौड़ रही हैं। गाहे-गाहे कोई कार या मुसाफ़िर-बर्दार टैक्सी सिगनल की रोशनी पर रुकती है तो बच्चे बूढ़े फूल स्ट्राबैरी और प्लास्टिक के खिलौने उठाए उनकी खिड़कियों की तरफ़ लपकते हैं मगर उनसे बचने के लिए इन गाड़ियों के ज़ियादा-तर शीशे चढ़े रहते हैं या फ़ौरी तौर पर चढ़ा दिए जाते हैं। मेरे सामने से अनगिनत ख़ाली टैक्सियाँ गुज़र जाती हैं मगर मेरे हाथ देने पर कोई नहीं रुकती। इस शहर में ऐसा कभी-कभार हो जाया करता है जिसका कोई जवाज़ आपको दिखाई नहीं देता।

    बस की सवारी के बारे में सोचती हूँ। मगर ये फूल ग़ैर-मुनज़्ज़म मुसाफ़िरों की भीड़ में कुचल जाएँगे और फिर बस से उतर कर मुझे अच्छा-ख़ासा सफ़र रिक्शा पर भी तय करना पड़ेगा जो लोगों को मुसीबत में देखकर किराया आसमान तक ऊँचा उठा देते हैं। मैं थक कर एक खम्बे से टेक लगाए उस टैक्सी का इंतिज़ार करती हूँ जो मेरी क़िस्मत में लिखी हो जब कोढ़ का मारा एक भिकारी मेरे सामने अपनी सड़ी-गली उँगलियाँ फैला देता है। ये ज़ाइल-शुदा उँगलियाँ उसकी आमदनी का ख़ास ज़रीआ’ हैं। ये वो हुश्यार हैं जिनकी मदद से वो सफ़ैद फ़ाम ग़ैर-मुल्कियों में दहशत फैलाकर उनसे भीक वसूलने में कामयाब हो जाता है। उनमें से कुछ उँगलियों के ज़ख़्म मसनूई’ हैं। मगर हमेशा की तरह मुझे उन उँगलियों से कोई कराहियत नहीं होती। क्या ये अशरफ़ के सबब है? मैं खम्बे से अलग हो कर चलने लगती हूँ और थोड़ी दूर जा कर एक जगह फिर से फ़ुट-पाथ पर ठहरकर आसमान की तरफ़ ताकती हूँ जिसमें एक नारंगी के रंग का इश्तिहारी बैलून डोल रहा है। थोड़ी देर के लिए सड़क बिल्कुल सुनसान हो गई है, उस पर किसी भी रुख़ से कोई गाड़ी नहीं आती और जब कि मुझे अपनी तन्हाई का एक अ’जीब एहसास खा रहा है जैसे ये कायनात इंसानों से ख़ाली हो गई हो, जानवरों से भरी एक दक़ियानूसी वैन मेरे सामने आकर रुक जाती है। वैन के सामने का दरवाज़ा खुलता है और उससे एक शख़्स एक जानवर की ज़ंजीर थामे बरामद होता है। ये अ’जीब-ओ-ग़रीब जानवर फ़ौरन मेरी तवज्जोह अपनी तरफ़ खींच लेता है। उसका जिस्म भेड़ की तरह बालों से ढका हुआ है, उसकी चोंच बत्तख़ की चोंच की तरह कुशादा, दबीज़ और काफ़ी मज़बूत है, पैर और पंजों के नाख़ुन किसी भालू से मुशाबेह हैं, दमकते की तरह दरांती की शक्ल में ऊपर की तरफ़ उठी हुई है और उकी आँखें चूज़ों की आँखों की मानिंद बैज़वी, बे-जान और ज़र्द हैं।

    जैसे वो किसी भी चीज़ को ताक रही हों।

    “अ’जीब जानवर है ये। लगता है बहुत सारे जानवरों का मुरक्कब है।”, मैं हैरत से उसकी तरफ़ ताकते हुए कहती हूँ, “मैंने ऐसा जानवर आज तक नहीं देखा।”

    “इसे ख़रीदना चाहोगी बी-बी?”, जानवर के मालिक ने मुस्कुराते हुए कहा। वो एक लाँबे क़द का दुबला-पतला इंसान है जिसने सफ़ैद सूट, सफ़ैद हैट और सफ़ैद रंग के नोकीले जूते पहन रखे हैं और आँखों पर धूप का चश्मा चढ़ा रखा है। उसके होंट गहरे शेड की लिपस्टिक से चमक रहे हैं और उसके रुख़्सारों पर ज़नानी मेक-अप का इस्ति’माल किया गया है। “वो एक ख़ास जानवर है। हमने उसे इंसानों के जंगल में पकड़ा है और यक़ीन कीजिए ये आसान काम था।”

    “हमारे घर में पेट नहीं रहते। वो मर जाते हैं।”

    “ये पेट नहीं, ये एक ख़ालिस जानवर है, बहुत ही सख़्त-जान।”, वो उसकी पुश्त पर हाथ फेर रहा है।

    “ये हर तरह के मसाइब झेल सकता है, हफ़्तों भूका रह सकता है। ये अपने पहले मालिक के लिए जलते टावर के अंदर से कूदने का करतब किया करता था गरचे इस करतब को बार-बार दिखाने के चक्कर में एक-बार इसके बाल बुरी तरह झुलस चुके हैं और इस वाकिए’ का असर इसके मिज़ाज पर भी पड़ा है।”

    “नहीं नहीं, मैं इस जानवर का क्या करूँगी।”, मैं कहती हूँ, “ये अ’जीब जानवर मेरे बच्चे को और भी कंफ्यूज़ कर डालेगा। वो तो अभी सिर्फ़ तीन बरस का है।”

    मुझे नहीं मा’लूम मैंने उसकी ज़हनी उ’म्र क्यों बताई थी।

    “मुझे अफ़सोस है मुहतरमा।”, वो तअस्सुफ़ से हाथ मिलते हुए कहता है, “मैं ख़ुद इसे बेचना नहीं चाहता मगर आपको देखकर जाने क्यों मुझे लगा इस पर मुझसे ज़ियादा आपका हक़ है।”

    “इसकी क्या क़ीमत रखी है तुमने।”, मैं बा-दिल-ना-ख़्वास्ता पूछ बैठती हूँ। शायद अशरफ़ के लिए ये अ’जीब जानवर एक नेक फ़ाल साबित हो।

    “क़ीमत की बात किस काफ़िर ने की है बी-बी।” वो कहता है, “और अगर क़ीमत पसंद आए तो कुछ दिनों के बा’द आप इसे लौटा भी सकती हैं।”

    और इससे पहले कि मैं कुछ कहूँ वो जानवर की ज़ंजीर मेरे हाथ में थमा देता है जिसके साथ ही सारे वाक़िआ’त बिल्कुल ही तर्तीब से पेश आते हैं। उसकी उँगली उठती है और सुनसान सड़क पर जैसे आ’लम-ए-ग़ैब से एक ख़ाली टैक्सी नुमूदार होती है।

    टैक्सी मेरे सामने आकर रुक गई है। उसका पिछ्ला दरवाज़ा खुलते ही जानवर कूद कर अंदर बैठ जाता है जैसे उसे इसके लिए ख़ास ट्रेनिंग दी गई हो और मैं उसकी ज़ंजीर से खिंच कर जानवर के बग़ल में बैठने पर मजबूर हो जाती हूँ। अभी मैंने अपने हवास पर क़ाबू भी नहीं पाया है कि मैं देखती हूँ जानवर का मालिक कार की खुली हुई खिड़की के सामने झुका हुआ उसके शीशे को जो थोड़ा सा निकला हुआ है अपनी मुट्ठियों से थामे मेरी आँखों में ताक रहा है। मुझे याद आता है और मैं एक काग़ज़ पर घर का पता और टेलीफ़ोन नंबर लिख क्रास की तरफ़ बढ़ा देती हूँ जिसे वो झिजकते हुए, जैसे अंदर से शर्मसार हो, अपनी लाँबी पतली उंगलियों के बीच थाम लेता है।

    “इस जानवर से बहुत जल्द आपका बच्चा मानूस हो जाएगा।”, खिड़की से हट कर वो खड़ा हो जाता है, “और मुझे यक़ीन है एक हफ़्ते के बा’द जब मैं आपके दौलत-ख़ाने पर हाज़िर हूँगा तो तब तक आप लोग इसके इतने आ’दी हो चुके होंगे कि वापिस लौटाने के बारे में सोचना भी नहीं चाहेंगे।

    हमारी इ’मारत के दरवाज़े पर मुतजस्सिस तमाशाइयों की भीड़ लग चुकी है। आस-पास की इ’मारतों के दरीचों से औरतें और बच्चे झाँक रहे हैं। उनके अंदर कुत्ते भौंक रहे हैं।

    “अ’जीब जानवर है ये।”, कोई भीड़ में कहता है, “कौन सा जानवर है?”

    “ये सब जानवरों का मुरक्कब है।”, मैं कहती हूँ, “इंसान की तरह।”

    दक़ियानूसी लिफ़्ट के अंदर वो फ़रमाँ-बर्दारी के साथ खड़ा है, यहाँ तक कि अपनी दुम तक नहीं हिलाता। लिफ़्ट में अपने स्टूल पर बैठा हुआ ख़ौफ़ के आ’लम में लिफ़्ट की दीवार से बिल्कुल चिपक गया है। लिफ़्ट से निकल कर हमें छत पर जाने के लिए आख़िरी कुछ सीढ़ियाँ जो लकड़ी की बनी हैं पैदल तय करनी पड़ती हैं। मगर जब मैं अपने फ़्लैट में दाख़िल होती हूँ तो अशरफ़ उसे देखकर अपने कमरे में छिप जाता है। मैं उसकी ज़ंजीर बालकनी के जंगले से बाँध देती हूँ और तब मुझे याद आता है मैंने तो जानवर के मालिक से पूछा ही नहीं था कि वो खाता क्या है? मैं एक कटोरे में पानी भर कर उसके सामने रख देती हूँ और नौकर को चना भिगोने के लिए कह कर कुछ बिस्कुट तश्तरी पर सजा कर उसे पेश करती हूँ। कुछ देर बा’द आकर मैं देखती हूँ जानवर ने इसी दौरान पानी के कटोरे को ठोकर मार कर उलट दिया है और अपने दोनों भारी-भरकम पैर सामने की तरफ़ फैलाए हुए अपनी दुम पर बैठा है। तब पहली बार मुझ पर खुलता है कि वो एक गंदा जानवर है और उसकी जिल्द पर अ’जीब तरह के बग़ैर आँखों वाले सफ़ेद-सफ़ेद कीड़े रेंग रहे हैं जिन्हें तिनके से हटाने पर वो बालों के अंदर उसकी जिल्द से इस तरह चिपक जाते हैं जैसे उसी का हिस्सा हों। वो बिस्कुट पर एक ला-यानी नज़र डालता है और अपनी चोंच आसमान की तरफ़ उठा कर अ’जीब कर्कश आवाज़ निकालने लगता है, फिर सामने के पंजों से पच्चीकारी के फ़र्श को खुरचना शुरू’ कर देता है। उसका तेज़ाबी पेशाब फ़र्श को गीला कर रहा है।

    “बी-बी मुझे तो इससे डर लगता है। ये आपने क्या उठा लाया?”, मुझे अपने पीछे से नौकरानी की आवाज़ सुनाई देती है। उसकी आँखें ख़ौफ़ से उमंडी पड़ रही हैं।

    “चुप रहो और देखो अशरफ़ क्या कर रहा है?

    “वो मुँह तकिये में छिपा कर बुरी तरह रो रहा है।”

    “तो उसे चुप कराओ।”, मैं बालकनी की दीवार से लगे इस अ’जीब-उल-ख़िल्क़त जानवर की तरफ़ ताकती रहती हूँ जो दस मिनट पहले कितनी ख़ामोशी और फ़रमाँ-बर्दारी के साथ मेरे साथ चल रहा था। मैं इसका क्या करूँ। मैंने सोचा, मेरा शौहर घर आने पर उसे ना-पसंदीदा नज़रों से देखेगा। मगर इस मुआ’मले में भी वो एक अ’जीब आदमी साबित होता है। घर लौटने पर वो पहली नज़र में ही उस पर आ’शिक़ हो जाता है, ये अलग बात है कि इस दानिशमंद इंसान से थोड़ी सी चूक भी हो गई है क्योंकि उसके बालों से ढके सर पर मुहब्बत से हाथ फेरते ही जानवर अपने नोकीले नाख़ुनों से उसकी हथेली की पुश्त को खुरच डालता है। मेरा शौहर चीख़ कर हाथ हटा लेता है। उसके ज़ख़्म से ख़ून रिस रहा है।

    “वो एक ख़तरनाक जानवर है।” मैं कहती हूँ।

    “बिल्कुल वहशी।”, बेसिन के सामने खड़ा वो एक रूई के गाले पर डिटोल उंडेल कर अपना ज़ख़्म धो रहा है। उसकी जिल्द पर जानवर के खुरचने के निशान साफ़ नज़र रहे हैं। वो उन्हें बैंड ऐड से ढक देता है और वापिस बालकनी पर आकर जानवर की पीठ को उसी हथेली से सहलाने लगता है।

    “तुम्हें साबित करना है कि तुम एक बेहतर जानवर हो।”, वो जानवर से मुख़ातिब हो कर कहता है।

    “यही तो वो साबित करना चाह रहा था।”, मैं मुस्कुरा कर कहती हूँ।

    दोपहर तक मेरे शौहर को बुख़ार जाता है, वो सर्दी से काँपने लगता है। मैं एक डाक्टर को बुलाती हूँ। वो जानवर के बारे में सुनता है और उसे इंसानी हैरत और ना-पसंदीदा नज़रों से देखता है।

    “इनके ख़ून की जांच ज़रूरी है।”, वो कहता है, “फ़िलहाल बुख़ार में कमी गई है। बहुत बढ़ जाए तो SOS के तौर पर ये गोली मंगवा कर रख लीजिएगा।

    मगर वो एमरजैंसी की दवा हमें इस्ति’माल नहीं करनी पड़ती क्योंकि नफ़ीस की तबीअ’त अचानक सँभल जाती है।

    “मैं उसे घर से बाहर भगा देती हूँ।”, शाम के वक़्त मैं कहती हूँ।

    “नहीं। थोड़ा सा वो डर गया है, मगर मेरा ख़याल है अशरफ़ को ये जानवर पसंद आएगा। दोनों की फ़ितरत बहुत हद तक एक दूसरे से मिलती-जुलती है। शायद अशरफ़ के लिए ऐसे ही एक पेट की ज़रूरत थी। ये तुम्हें कहाँ से मिला?”

    गरचे मुझे पता था नफ़ीस ने शऊ’री तौर पर ये बात नहीं कही थी मगर जाने क्यों मुझे उसकी बात पसंद नहीं आई।

    “वो पेट नहीं, एक ख़ालिस जानवर है। उसे मैंने एक जानवरों के ट्रेनर से ख़रीदा है।”, मैं कहती हूँ, “और अगर हम इसे लौटाना चाहें तो उसने हमें कुछ दिनों का वक़्त दिया है।”

    “मुझे उससे मिलकर ख़ुशी होगी। शायद इस जानवर के सिलसिले में हम उससे मज़ीद जानकारी हासिल कर सकें।”

    मैं अशरफ़ के कमरे में जा कर देखती हूँ वो तकिये के नीचे सर रखकर गहरी नींद सो रहा है। तकिया उसके सर से हटा मैं उसके पसीने में डूबे हुए बालों पर प्यार से हाथ फेरते हुए एक लोरी गाती हूँ जिसे बरसों पहले मैं भूल चुकी थी और लोरी ख़त्म हो जाने के बा’द दोबारा भूल जाती हूँ।

    उस रात घर का सुकून ज़ियादा देर तक क़ाएम नहीं रहता। सोने से क़ब्ल घर की रोशनियाँ बुझते ही वो जानवर चीख़ने लगता है और अपनी तोते की तरह कर्कश आवाज़ से घर सर पर उठा लेता है।

    “इसे तीरगी नहीं भाती।”, मेरा शौहर बालकनी का बल्ब जला देता है जिसके साथ ही जानवर चुप हो जाता है। मैं देखती हूँ बालकनी से एक अ’जीब बदबू रही है। चूँकि नौकरानी उसके क़रीब जाने से डरती है मुझे ही बालकनी साफ़ करनी पड़ती है। उसका पेशाब और उसकी नजासत किसी इंसान से मिलती-जुलती है जिसकी मुझे आ’दत है। मैं जब अपने मख़्सूस ब्रश और गीले कपड़े से हमेशा की तरह नाक पर कपड़ा लपेट कर पेशावराना महारत से बालकनी साफ़ करती हूँ तो उसका चेहरा अ’जीब ढंग से मेरी तरफ़ उठा हुआ है जैसे उसकी आँखों के अंदर से मेरा बच्चा झाँक रहा हो। उसकी चोंच खुली हुई है जिसके कोने से रतूबत फ़र्श पर टपक रही है। मैं उससे फ़ासिला रखते हुए अपना काम करती रहती हूँ। बा’द में हम उसे छत में एक खुली जगह पर बाँध देते है।

    मैं उस दिन से शिद्दत के साथ जानवर के मालिक का इंतिज़ार करने लगती हूँ, मगर एक हफ़्ता गुज़र जाने के बा’द भी वो नुमूदार नहीं होता और इसके बा’द कई हफ़्ते गुज़र जाते हैं और हमें पता चलता है कि अब हम इस जानवर के साथ ज़िंदगी गुज़ारने पर मजबूर हैं। इसी दरमियान नफ़ीस के हाथ का ज़ख़्म ठीक हो गया है गरचे खुरचने के निशान दाइमी तौर पर उसकी जिल्द पर रह गए हैं।

    “हमें इसके लिए एक पिंजङ़ा बनाना चाहिए।”, एक दिन मेरा शौहर कहता है और मैं चौंक पड़ती हूँ। पिंजङ़ा? ये बात उसकी फ़ितरत से मुताबिक़त तो नहीं रखती।

    “कौन जाने अगर ज़ंजीर उसकी गर्दन से छूट गई तो वो किसी को भी ज़ख़्मी कर सकता है।”, उसने डरते-डरते अपना जवाज़ पेश किया।

    “हम इस तरह के मुआ’मलात से पहले भी गुज़र चुके हैं ना?”, मैं उसका ढारस बँधाने के लिए अशरफ़ का हवाला देती हूँ जो इस जानवर ही की तरह कभी-कभार इंतिहा-पसंदी पर उतर आता है। मगर मुझे अंदर ही अंदर मेरे शौहर का मश्वरा बुरा नहीं लगता और हम एक लोहार के ज़रीए’ छत पर उसके लिए एक पिंजङ़ा बनवाते हैं। अब वो पिंजड़े के अंदर बैठा हमारी तरफ़ ताकता रहता है। उसके पिंजड़े को नजासत से साफ़ रखने के लिए हर-रोज़ उसे पिंजड़े से बाहर लाना पड़ता है और ये बहुत ही ख़तरनाक लम्हा होता है।

    “जानवर की फ़ितरत!”, मेरा शौहर कहता है और मैं देखती हूँ उसने चमड़े का एक चाबुक ख़रीद लाया है। पहला चाबुक पीठ पर पड़ते ही जानवर हैरत से हमारी तरफ़ ताकता है जैसे इसकी उसे उम्मीद थी। वो अपनी ज़ंजीर तोड़ कर निकलना चाहता है मगर पै-दर-पै चाबुक पड़ते रहने पर वो बिलबिला कर सिपर डाल देता है। बहुत जल्द मेरा शौहर उस पर चाबुक मारने में अच्छी ख़ासी महारत हासिल कर लेता है जैसे वो इसी चाबुक के साथ पैदा हुआ हो। बल्कि अब तो उसने उसे चाबुक मार-मार कर पिछले दोनों पैरों पर खड़े हो कर चलना भी सिखा दिया है। मुझे लगता है उसे अब अपने इस काम में लुत्फ़ आने लगा है क्योंकि अब बिला-वज्ह भी उसने उस पर चाबुक का इस्ति’माल करना शुरू’ कर दिया है। शायद इस चाबुक के सबब है कि जानवर अब ठीक से खाने पीने लगा है बल्कि अब खाने-पीने की चीज़ों में वो कोई भी तफ़रीक़ नहीं करता। उसके बालों के बीच चाबुक के निशानात साफ़ नज़र आने लगे हैं। गाहे-गाहे हमें उसकी मरहम-पट्टी भी करनी पड़ती है। मगर ये अ’जीब वाक़िआ’ है कि उसके अंदर जितनी वहशत कम होती जा रही है हमारे बच्चे के अंदर उसी तनासुब से वो बढ़ने लगी है। इसी दौरान उसने टीवी को ढकेल कर नीचे गिरा दिया है, बहुत सारी किताबें फाड़ दी हैं (गरचे उन्हें खोले हमें अ’र्सा गुज़र चुका है), तिपाई को सामानों समेत उलट दिया है और ओवेन में अपना दाहिना हात डाल कर उसे जलाने की कोशिश भी की है। मैं उसे रोकने के लिए अपनी उँगली पर उसके दाँतों के ज़ख़्म खा चुकी हूँ। उसने बिस्तर को पेशाब और नजासत से कुछ ज़ियादा ही गंदा करना शुरू’ कर दिया है जैसे उसके ला-शऊ’र में अज़ीयत-कोशी का कोई जज़्बा पल रहा हो। मगर हमेशा की तरह मैं अपने शौहर के साथ मिलकर उसे सँभाल लेती हूँ।

    “मामा पेट, मामा पेट।”, वो चिल्लाता रहता है। आख़िर-कार थक कर हम उसे इस अ’जीब उल-ख़िल्क़त जानवर के पास ले जाते हैं जिसकी दाहिनी आँख चाबुक की मार खा-खा कर टेढ़ी हो गई है। उसका दिल बहलाने के लिए नफ़ीस जानवर को पिंजड़े से निकाल कर उस पर चाबुक बरसाने लगता है। हमारा बच्चा उसे चाबुक खाते देखकर तालियाँ बजाना शुरू’ कर देता है और हम हैरानी से देखते हैं कि इन लम्हों में वो एक बिल्कुल नॉर्मल इंसान नज़र रहा है।

    “पेट मामा, पेट, घोड़ा, हिप्पो, एलीफ़ेन्ट...”, अशरफ़ तालियाँ बजाते हुए चीख़ रहा है।

    “और डक”, मेरा शौहर चाबुक से जानवर की मक़अ’द पर वार करता है। जानवर के बदन में कपकपी दौड़ जाती है। वो पिंजड़े की तीलियों को पंजों से थाम कर पिछले दोनों पैरों पर खड़ा है और समाज का एक बहुत ही मज़लूम इंसान नज़र रहा है।

    “मुँह खोलो।”, मेरा शौहर चाबुक उठाता है। वो अपनी चोंच खोल देता है जिसके अंदर हम गोश्त का एक टुकड़ा डाल देते हैं। उसे वो फ़ौरन निगल जाता है। इन दिनों वो बे-चून-ओ-चरा सब कुछ निगलने लगा है यहाँ तक कि एक दिन अशरफ़ के हाथ से वो एक टूथ ब्रश भी खा जाता है। उसने नजासत के लिए एक ख़ास वक़्त भी मुक़र्रर कर लिया है और रात की तीरगी में हम उसके मुँह पर चमड़े की एक थैली कस देते हैं जो इसी मक़सद से बनाई गई है। उसे पहले तो उसने पिंजड़े की तीलियों से रगड़ रगड़ कर अलग करने की कोशिश की थी मगर फिर चाबुक की मार खा-खा कर उसे पहने रहना क़ुबूल कर लिया था।

    “इस रफ़्तार से वो कुछ दिन के अंदर बिल्कुल तहज़ीब-याफ़्ता हो जाएगा।”

    “हम इंसानों की तरह।”, मैं मुस्कुरा कर कहती हूँ।

    “बिल्कुल, बल्कि इंसानों से भी ज़ियादा।”

    हमें इस बात की ख़ुशी है कि हमने इस जानवर को सिधा दिया है। इस जानवर के सबब हमारा घर एक ख़ास घर बन गया है। पास-पड़ोस के लोग इस जानवर को देखना चाहते हैं, मगर हम इसकी इजाज़त नहीं देते। हम तो इस क़ाबिल भी हो गए हैं कि उसे हमारी ज़रूरत के मुताबिक़ आवाज़ निकालने पर मजबूर करें या या किसी पालतू कुत्ते की तरह “टाइगर साइलेन्स” कह कर यकलख़्त ख़ामोश कर दें। कल तक वो जिस खाने की तरफ़ आँख उठा कर भी नहीं देखता था आज उसे नफ़ासत से खाना सीख गया है। काश, हम सोचते, उसकी तरह हम अपने बच्चे को भी ठीक कर पाते जो पिछले बीस बरस में ज़रा भी नहीं सुधरा। एक दिन हम देखते हैं कि जानवर और हमारा बच्चा एक जैसी आवाज़ें निकाल रहे हैं।

    “दोनों एक दूसरे को समझ पा रहे हैं।”, मेरा शौहर कहता है मगर मुझे पता है वो सिर्फ़ जानवर की नक़्ल कर रहा है। एक बार अशरफ़ चाबुक अपने बाप के हाथ से लेकर जानवर को मारने लगता है। ज़ंजीर से बँधा जानवर अशरफ़ के ताक़तवर हाथों से चाबुक की मार खा-खा कर लहू-लुहान हो जाता है मगर इसका एक फ़ाइदा ये होता है कि इससे थक कर हमारा बच्चा उस रात गहरी नींद सो जाता है और ये उन चंद नादिर रातों में से एक है जब हम दोनों बिस्तर पर अपनी शहवानी भूक बिला रोक-टोक किसी वहशी की तरह मिटा पाते हैं।

    “तुम इन पच्चीस बरसों के बा’द भी एक हैरत-अंगेज़ औ’रत हो।”, पसीने में शराबोर मेरा शौहर मेरी गर्दन को चूमते हुए कहता है जहाँ इंज़ाल के वक़्त उसके दाँतों के काटने का निशान रह गया है। अपनी टांगों के बीच के गीलेपन को महसूस करते हुए मुझे याद आता है कि मैं तो ये भूल ही चुकी थी कि मैं एक औ’रत हूँ।

    वो ख़ूबसूरत रात गुज़र जाती है मगर बहुत ही अ’जीब तौर पर हमारे अंदर दबी हुई नफ़रत और ग़ुस्से के सेफ़्टी वॉल्व को भी खोल देती है।

    “अच्छा हुआ कि जानवर का मालिक नहीं आया।”, सुब्ह टूथ ब्रश करते हुए मैं नफ़ीस से कहती हूँ। वो गहरी नींद सो कर उठा है और दूसरे दिनों के मुक़ाबले बहुत पुर-सुकून नज़र रहा है।

    “हमें शायद इसी जानवर की ज़रूरत थी।”

    क्या ये हमारी गुफ़्तगू का नतीजा था कि दूसरे ही दिन जानवर का मालिक धमकता है? वो काफ़ी ख़ुश दिखाई दे रहा है। उसने एक नई ऐ’नक लगा रखी है जिसके काले शीशों पर बादल बने हुए हैं। इन बादलों के पीछे उसकी आँखें काफ़ी बड़ी नज़र रही हैं।

    “हम इस जानवर की क़ीमत देने के लिए तैयार हैं।”, मैं ना-ख़ुशगवारी से कहती हूँ। हम उसे चाय के लिए भी नहीं पूछते। मगर वो बहुत ही पुर-असरार ढंग से मुस्कुरा रहा है।

    “क़ीमत?”, वो कहता है और उसके लिपस्टिक से रंगे होंटों के बीच उसके सफ़ेद दाँत इस बुरी तरह चमक उठते हैं जैसे वो नक़्ली हों।

    “क़ीमत की बात आपसे किसने की बी-बी? मैं तो इससे ज़ियादा बेहतर ऑफ़र आपको देने वाला हूँ। वो जिसे Once in a lifetime ऑफ़र कहते हैं।”

    और मुझे ख़ामोश देखकर वो सामने की तरफ़ झुक कर कहता है,

    “आपका बच्चा!”

    “शट अप!”, मैं चीख़ पड़ती हूँ, “क्या वो कोई जानवर है जो मैं तुम्हें दूँगी?”

    “ये है हैरत-अंगेज़, मैंने कहा सिर्फ़ “आपका बच्चा” और आपने उसे मुआ’वज़े के तौर पर सोच लिया क्योंकि ये आपके ज़हन में पहले से मौजूद था। हाँ मैं यही ऑफ़र दे रहा हूँ जिसे आप ठुकरा भी सकती हैं।”

    उसकी ख़ुश-मिज़ाजी में ज़रा सा भी फ़र्क़ नहीं आया था बल्कि वो अपनी दोनों हथेलियाँ भी मसल रहा था जैसे अंदर ही अंदर किसी बात पर नादिम हो।

    “मैं जानता हूँ आपका बच्चा एक इंसान का बच्चा है मगर आपको यक़ीनन इस बात का पता होगा कि वो अस्ल में क्या है? आपने देखा होगा मेरे जानवर को कितनी आसानी से आपने बदल डाला है। मगर क्या अपने बच्चे को पिछले बीस बरस की कोशिश के बा’द भी आप बदल पाए? क्यों? क्योंकि आप दोनों इंसानी जज़्बात के हाथों मजबूर थे जो मजबूरी मेरे जानवर के साथ आपको कभी पेश नहीं आई। इसीलिए मैं ये ऑफ़र आपको दे रहा हूँ। मैं एक महीने के बा’द फिर आऊँगा अपना जानवर लेने, अब ये आपके हाथ में है कि आप कौन सा जानवर देना चाहेंगी।

    वो तेज़ी से हमारे ड्राइंगरूम से निकल जाता है। मैं छत की चहार-दीवारी से सर निकाल कर देखती हूँ। वो उसी वैन में जा कर बैठ रहा है जिसमें तरह-तरह के जानवर-नुमा इंसान और इंसान-नुमा जानवर बैठे हुए हैं। वैन के गिर्द मुतजस्सिस लोगों का हुजूम खड़ा है। उस दिन मेरे शौहर के लौटने पर मैं उसके सीने से लिपट कर सिसक-सिसक कर रोने लगती हूँ।

    “हम उसे उसका जानवर वापिस कर देंगे।”, मेरा शौहर मेरे सर पर दिलासे का हाथ फेरते हुए कहता है फिर वो डाक्टर लाने चला जाता है क्योंकि अशरफ़ ने अपना जला हुआ हाथ फिर से ज़ख़्मी कर लिया है। डाक्टर के जाने के बा’द वो एक आह भर कर अशरफ़ की तरफ़ ताकता है।

    “बीस साल?”, वो कहता है। हमें पता है हम दोनों एक ही चीज़ सोच रहे हैं, बीस साल, अशरफ़ बीस बरस का हो चुका था और इतने बरस हम कहीं घूमने गए नन हमने दोस्तों-रिश्तेदारों की तक़रीबात में ठीक से हिस्सा लिया बल्कि हमने तो कभी किसी को मदऊ’ करने की जुरअत भी नहीं की। दूसरी तरफ़ मुझे अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी थी क्योंकि अशरफ़ के लिए हर पल घर में किसी किसी आदमी का रहना ज़रूरी था। वो कोई जानवर तो था कि हम उसे पिंजड़े में डालते, उस पर चाबुक बरसाते, उसके मुँह पर कपड़ा बाँधते। एक-बार शुरू’ की तरफ़ हमारी ग़ैर-मौजूदगी में एक नौकर (जिसे हमने इस वाक़िए’ के बा’द काम से निकाल दिया था) उसे रस्सी से बाँध कर सो गया था। इसके बा’द वो कई दिनों तक तोड़-फोड़ पर उतर आया था। यही वक़्त था जब हम उसे Home भी ले गए जहाँ इस तरह के मरीज़ रखे जाते थे। मगर एक हफ़्ते के बा’द जब हम उससे मिलने गए तो उसकी हालत पहले से भी अबतर हो चुकी थी।

    “मैंने सुना है इस तरह के बच्चे ज़ियादा दिनों तक ज़िंदा नहीं रहते।”, एक दिन मेरे शौहर ने कहा था और इसके बा’द हमने अपनी सारी मुहब्बत उस पर मर्कूज़ कर दी थी। मगर बीस बरस का एक लंबा अ’र्सा गुज़र गया था और बीस बरस का अ’र्सा और भी लंबा हो जाता है ख़ास तौर पर जब जंग इतनी शदीद हो। और इसी दरमियान अशरफ़ दिन-ब-दिन ज़ियादा तंदुरुस्त ज़ियादा लहीम-शहीम होता चला गया। शायद इस तरह के बच्चों के साथ क़ुदरत दूसरी तरह से हर कमी पूरी कर देती है।

    “क़ुदरत के पास कोई इंसाफ़ नहीं।”

    मेरे शौहर ने रात के हिस्से में कहा जब कि जानवर कर्कश आवाज़ निकाल रहा था क्योंकि हम उसका मुँह बाँधना भूल गए थे। मगर उस वक़्त हमारे अंदर इतनी सकत थी कि इतनी रात गए जब कि छत कोहरे में डूबी हुई थी पिंजङ़ा खोल कर ये काम अंजाम देते।

    “इतने बरस गुज़र गए, हमने अशरफ़ की ख़ातिर दूसरे बच्चे के बारे में भी नहीं सोचा।”

    क्या हम शिकायत कर रहे थे? तो किससे।

    दूसरे दिन धूप बहुत देर से निकली। मगर उसके निकलते ही नफ़ीस ने जानवर पर रात-भर के चिल्लाने का गु़स्सा इस तरह निकाला कि वो पिंजड़े के बाहर फ़र्श पर ढेर हो गया। हमने उसके मुँह पर पानी मार-मार कर उसे होश में लाने की कोशिश की। अशरफ़ उसे देख देखकर तालियाँ बजा रहा था, उसकी भारी दुम खींच रहा था। उसने उसके ऊपर बैठ कर उसकी तरह कर्कश आवाज़ निकालने की भी कोशिश की। लेकिन आज हमें उसे देखकर कोई ख़ुशी नहीं हो रही थी और गरचे जानवर धीरे-धीरे होश में गया और हमारे इशारे का इंतिज़ार किए बग़ैर चुप-चाप पिंजड़े के अंदर चला गया। बा’द में उसकी मरहम-पट्टी करते वक़्त हम उसकी आँखों से गुरेज़ कर रहे थे जैसे वो कोई जानवर नहीं इंसान हो। छत के कोने में उसकी चोंच से नुची-नुचाई मरहम पट्टियों का पहाड़ सा बन गया था जिससे एक अ’जीब बदबू आने लगी थी। हमने इसके लिए किसी डाक्टर से गुरेज़ किया था। हमें लगा था उसका इ’लाज हम कर सकते हैं। इस दिन के वाक़िए’ के बा’द मैंने महसूस किया मेरे शौहर का सुलूक इस जानवर के साथ बदल गया था, वो सिर्फ़ उसके साथ हमदर्दी के साथ पेश आने लगा था बल्कि उसी तनासुब से उसने अब अशरफ़ की तरफ़ सर्द-महरी का रवैया इख़्तियार कर लिया था।

    “तुम अशरफ़ से नफ़रत करने लगे हो।”, एक दिन मैंने इस से शिकायत की।

    “झूट है ये।”, उसने जवाब दिया, “मैं अशरफ़ से जितना प्यार करता हूँ उसका तुम अंदाज़ा नहीं लगा सकती। मगर इस जानवर के अंदर की तब्दीली हैरत-अंगेज़ है। है ना?”

    मुझे पता था वो झूट कह रहा है, मगर मेरे पास अशरफ़ के दिफ़ा’ के लिए कोई असबाब थे। पिछले बीस बरस की थकन ने मुझे भी लिया था। अशरफ़ की नजासत से अब मुझे बू आने लगी थी। उसके थूके हुए खाने मेरे बदन में कपकपाहट पैदा करने लगे थे। अब नींद के आ’लम में उसके बाल और नाख़ुन काटना, उसकी शेविंग करना मुझे अच्छा लगता था, कपड़ा पहनाते वक़्त उसके नंगेपन से मैं घबराने लगी थी क्योंकि (शायद मेरे हाथों के लम्स से) अब वज्ह बे-वज्ह उसे Erection भी होने लगा था।

    “हम लोग दुनिया के सबसे दुखी इंसान हैं।”, एक दिन मैंने अपने शौहर के सीने पर सर रखकर कहा। मेरे गर्म आँसू उसकी पसलियों पर उगे बालों के अंदर जज़्ब हो रहे थे।

    “क्या हमें और दूसरे लोगों की तरह ख़ुश रहने का हक़ नहीं?”

    “बीस साल बा’द यक़ीनन हम इतना तो सोच सकते हैं।”, उसने जुमला अभी पूरा नहीं किया था कि हमें अशरफ़ की चीख़ सुनाई दी और हम दोनों उसके कमरे की तरफ़ भागे। अंदर हमने जो मंज़र देखा उसने हमें कराहियत से भर दिया। अशरफ़ पतलून घुटनों के नीचे सरकाए खड़ा था और मुश्तज़नी में मसरूफ़ था। तलज़्ज़ुज़ की इंतिहा पर पहुँच कर उसकी आँखें जल रही थीं, उसके हल्क़ से चीख़ने और ग़ुर्राने की आवाज़ें रही थीं। यकायक उसने एक ज़ोर की चीख़ मारी और उसके बदन पतलून और बिस्तर पर माद्दा-ए-मनवीह की बरसात सी हो गई।

    “मैं इसे साफ़ नहीं कर सकती।”, मैंने चीख़ मार कर अपने सर को दोनों हाथों से दबाए हुए बाहर भागते हुए कहा, “आख़िर मैं एक औ’रत हूँ। मैं एक औ’रत हूँ।”

    वो इतवार के दिन नुमूदार हुआ था, ताकि, जैसा कि उसने हमें बताया, हम दोनों मियाँ बीवी घर पर मौजूद रहें।

    “कहाँ है मेरा जानवर?”, उसने एक हाथ में ज़ंजीर और दूसरे हात में चमड़े का चाबुक थाम रखा था। उसने हम दोनों को सिरे से नज़र-अंदाज कर दिया था। हम दोनों सर झुकाए बैठे रहे। वो घर के अंदर गया और हमें चाबुक की आवाज़ के साथ-साथ जानवर के चीख़ने की आवाज़ सुनाई देने लगी। फिर वो शोर फ़र्द हो गया और वो आदमी नुमूदार हुआ। अशरफ़ उसके पीछे था। उसकी कमर से ज़ंजीर बंधी थी और अशरफ़ धुँदली आँखों से उस आदमी की तरफ़ ताक रहा था जैसे उसे हम लोगों से कोई मतलब हो।

    “ये सौदा महंगा नहीं बी-बी”, उस आदमी ने हम दोनों को मुख़ातिब करते हुए कहा। वो पसीने में डूबा हुआ था। “मैं जो जानवर ले जा रहा हूँ उससे हमारा कोई जज़्बाती तअ’ल्लुक़ नहीं जिस तरह जो जानवर मैं छोड़े जा रहा हूँ उससे आप लोगों का कोई जज़्बाती रिश्ता नहीं। आप देख सकते हैं सौदा वाक़ई’ बुरा नहीं। आपको अच्छी तरह पता है ये इंतिज़ाम सबसे बेहतर है बल्कि इस इंतिज़ाम के तहत ज़िंदगी ज़ियादा बेहतर तरीक़े से गुज़ारी जा सकती है। सबसे अहम बात ये है कि आप किसी भी दिन अगर उस जानवर से जिसे मैं छोड़े जा रहा हूँ उकता जाएँ तो किसी जानवर के डाक्टर के पास ले जा कर मोहलिक इंजैक्शन के ज़रीए’ उसे एक अबदी नींद सुला सकते हैं जिसकी क़ानून की तरफ़ से इजाज़त है, और वो इजाज़त-नामा बहुत जल्द ब-ज़रीआ’-ए-डाक मैं आपको भिजवा दूँगा या अगर आप बहुत ही कमज़ोर साबित हुए तो किसी भी सड़क पर या किसी पब्लिक पार्क के अंदर उसे छोड़कर पीछा छुड़ा सकते हैं। इस तरह के जानवरों की हमारे समाज को हमेशा ज़रूरत रहती है।”

    हम छत पर खड़े उन्हें नीचे सड़क से गुज़रते देखते रहे। अशरफ़ उसके पीछे-पीछे अपनी कमर से बंधी ज़ंजीर को दोनों हाथों से थामे, सर झुकाए वफ़ादारी से नंगे-पाँव चल रहा था। सड़क के बीचों-बीच एक पल के लिए वो रुक कर घुटनों के बल बैठ गया मगर पीठ पर चाबुक की मार पड़ते ही दौड़ता हुआ गाड़ी तक गया जिसका पिछला दरवाज़ा एक अ’जीब-ओ-ग़रीब हाथ ने नुमूदार हो कर खोल दिया।

    उस वैन के अंदर हमेशा की तरह बहुत सारे इंसान-नुमा जानवर और जानवर-नुमा इंसान बैठे हुए थे।

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