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नेम प्लेट

तारिक़ छतारी

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तारिक़ छतारी

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    क्या नाम था उसका? उफ़ बिल्कुल याद नहीं रहा है। केदारनाथ ने अपने ऊपर से लिहाफ़ हटाकर फेंक दिया और उठ कर बैठ गए।

    ये क्या हो गया है मुझे, सारी रात बीत गई नींद ही नहीं रही है। होगा कुछ नाम वाम, नहीं याद आता तो क्या करूँ, लेकिन नाम तो याद आना ही चाहिए। आख़िर वो मेरी बीवी थी, मेरी धर्म पत्नी।उन्होंने पेशानी पर हाथ रखा। पच्छत्तर साला केदारनाथ के माथे की बे-शुमार झुर्रियाँ बूढ़ी हथेली के नीचे दब कर फड़फड़ाने लगीं।

    सरला की माँ... उनके मुँह से बे-साख़्ता निकल पड़ा।

    वो तो ठीक है मगर कुछ नाम भी तो था उसका। क्या नाम था? उसके नाम का पहला अक्षर... हाँ कुछ याद रहा है... उन्होंने पैर पलँग के नीचे लटका दिए और वो लाइट ऑन करने के लिए दीवार में लगे स्विच की तरफ़ बढ़े।

    उसके नाम का पहला अक्षर... के नहीं-नहीं, हाँ-हाँ याद गया।

    उनका झुर्रियों से भरा पोपला मुँह मुस्कुराने के लिए तैयार हो ही रहा था कि खाँसी का एक ठसका लगा और फिर भूल गए कि वो अक्षर क्या था।

    कमरे में चारों तरफ़ रौशनी फैल चुकी थी।

    ढ़ाई बजने को हैं। उनकी नज़र टाइम पीस पर पड़ गई।

    टाइम पीस...? हाँ... टा... नहीं, पीस... सा

    अरे हाँ...

    सा ही तो था उसके नाम का पहला अक्छर।

    सा? नहीं ये तो सरला की माँ...

    फिर सरला की माँ। आख़िर नाम भी तो कुछ था उसका। केदारनाथ ने झुँझलाकर सिरहाने रखी छड़ी को उठाया, गले में किसके मफ़लर लपेटा और बार-बार छड़ी फ़र्श पर पटख़ने लगे। फिर दोनों हाथों में छड़ी को जकड़ कर इस तरह सर के क़रीब लाए जैसे उसके हत्थे से अपना सर फोड़ डालना चाहते हों।

    तअज्जुब है अपनी बीवी का नाम भूल गया! उसे मरे हुए भी तो चालीस बरस गुज़र गए हैं। तीन साल का अर्सा होता ही कितना है। सिर्फ़ तीन साल ही तो उसके साथ रह पाया था मैं।

    वो ख़ाली-ख़ाली नज़रों से कमरे को घूर रहे हैं। पलँग, मेज़, कुर्सी और अलमारी, किताबें... अलमारी किताबों से भरी पड़ी होगी, अलमारी के पट बंद हैं। वो पलँग की जानिब बढ़े और फिर अलमारी की तरफ़ मुड़ गए। दरवाज़ा खोला अलमारी ख़ाली थी... उसमें किताबें थीं और ख़ाने। अरे इसमें तो पिछली दीवार भी नहीं है।

    वो लरज़ गए और घबराकर एक पाँव उसके अंदर रख दिया फिर दूसरा पाँव, अब वो दरवाज़े के बाहर खड़े थे। सब कुछ ख़ाली था, उनके ज़ेहन की तरह, वो सम्त भूल गए थे और अलमारी के बजाय बाहर जाने वाला दरवाज़ा खोल बैठे थे। बाहर सड़क पर कोहरा जमा हुआ था। खम्बों के बल्ब मद्धम दीयों की तरह टिमटिमा रहे थे। सुनसान सड़क पर उन्हें लगा कि यकायक भीड़ उमंड आई है। चारों तरफ़ शोर हो रहा है। बाजे के शोर से कान फटे जा रहे हैं। दूर कोहरे में छुपी हुई डोली... सुर्ख़ जोड़ा पहने दुल्हन मुस्कुरा रही है।

    सड़क पर एक पत्थर का टुकड़ा पड़ा था, उन्हें ठोकर लगी और लड़खड़ा कर खम्बे से जा टकराए। बहुत ज़ोर से धक्का दिया था मुहल्ले भर की लड़कियों ने और फिर दरवाज़ा बंद।

    क्या नाम है तुम्हारा? नाम मालूम होते हुए भी उसका नाम पूछा था उन्होंने। वो शर्मा गई थी और घुटनों में मुँह छुपा लिया था। उन्होंने फिर पूछा तो उसने आहिस्ते से अपना नाम बताया।

    क्या बताया था उसने? उफ़ बिल्कुल याद नहीं। और वह छड़ी ज़मीन पर टेकते हुए तेज़-तेज़ क़दमों से चल पड़े। उन्हें कहाँ जाना है? पता नहीं। फिर भी वो चलते रहे और अब अपने घर से बहुत दूर निकल आए थे।

    ये इलाक़ा कौन सा है? कैलाश नगर? हाँ शायद वही है। आगे दाएँ तरफ़ उनके दोस्त शर्मा जी की कोठी है। बाहर गेट पर नेम प्लेट लगी है। सत प्रकाश शर्मा। वो उनके दफ़्तर के साथी थे। गुज़रे हुए कई बरस हो गए।

    अचानक केदारनाथ ठिठके और रुक गए। अरे यही तो है शर्मा जी की कोठी, हाँ बिल्कुल यही है। वहाँ लगी है इनके नाम की प्लेट। केदारनाथ को कोहरे की धुँधली फ़िज़ा में एक तख़्ती नज़र आई।

    शर्मा... उन्होंने पढ़ा। राम प्रकाश शर्मा।

    राम प्रकाश...? नहीं उनका नाम तो सत प्रकाश था। फिर ग़ौर से देखा।

    राम प्रकाश शर्मा (ऐडवोकेट)। साफ़-साफ़ लिखा था।

    उन्हें याद आया कि एक रोज़ शर्मा जी ने कहा था। मेरा बेटा राम प्रकाश ऐडवोकेट हो गया है।

    अच्छा तो अपने बाप के नाम की प्लेट उखाड़ कर... खट से कोई चीज़ गिरी। उन्हें लगा कि उनके ज़ेहन से कोई चीज़ निकल कर क़दमों में आन गिरी है। वो सहम गए और मुजरिम की तरह गर्दन झुका ली। ये किसी के नाम की प्लेट थी। मगर एक हर्फ़ भी साफ़ नहीं। सब कुछ मिट चुका है। उनके जिस्म में सनसनाहट सी होने लगी। लाग़र टाँगें जो अभी-अभी काँप रही थीं, प्यासे हिरन की तरह कुलांचें मारने को बेताब हो उठीं।

    वो भाग रहे हैं। नहीं आहिस्ता-आहिस्ता चल रहे हैं। या रेंग रहे हैं या फिर खड़े-खड़े ही... ये तो मालूम नहीं मगर अब वो अपने घर से कई मील दूर सरला के घर के बहुत क़रीब आन पहुँचे हैं।

    सरला से उसकी माँ का नाम पूछ ही लेंगे।

    सरला को अपनी माँ का नाम याद होगा? क्यों नहीं... कोई माँ का नाम भी भूलता है क्या।

    पार्वती देवी... उनकी माँ का नाम पार्वती देवी था। उन्हें पच्छत्तर साल की उम्र में भी अपनी माँ का नाम याद है।

    पार्वती देवी की जय... बचपन में वो अपने बाबा के साथ बैठे पूजा कर रहे थे। बाबा... अम्माँ का नाम भी तो पार्वती देवी है। हाँ बेटे यही पार्वती देवी हैं जिनके नाम पर तुम्हारी अम्माँ का नाम रखा गया है। और उस रोज़ से वो आज तक रोज़ाना पार्वती देवी की पूजा करते हैं और जय बोलते हैं। माँ तो भगवान का रूप होती है, फिर भला सरला कैसे अपनी माँ का नाम भूली होगी। केदारनाथ का दिल अंदर से इतना ख़ुश हो रहा था कि हाथ-पाँव फूलने लगे। रफ़्तार में धीमापन गया मगर वो अपने बूढ़े जिस्म को ढ़केलते हुए आगे बढ़ते चले जा रहे थे...!

    बाबू जी आज इतने सवेरे आप इधर...? सरला ने किसी सोच में डूबे केदारनाथ को चाय की प्याली देते हुए पूछा। बूढ़े आसमान की गोद से नए सूरज का गोला झाँक रहा है। केदारनाथ के पंजों की उंगलियाँ सर्द होकर सुन पड़ चुकी हैं, जैसे उनमें गोश्त है ही नहीं और वो अंदर से बिल्कुल ख़ाली, बिल्कुल खोखली हो चुकी हैं, परिंदे उनके सर पर मंडलाते सरला के मकान के ऊपर जा बैठते हैं और वो सरला के मकान के बाहर खड़े-खड़े थक चुके हैं। मैं यहाँ खड़ा हूँ। आते जाते लोग देख कर क्या सोचेंगे। अब तो दिन चढ़े काफ़ी देर हो गई है। सरला सोकर उठ गई होगी। अंदर चलना चाहिए। लेकिन क्या वाक़ई सरला ने अब तक अपनी माँ का नाम याद रखा होगा? शर्मा जी के बेटे ने अपने बाप की नाम की प्लेट उखाड़ कर... खट से कोई चीज़ गिरी, उन्हें लगा कि उनके ज़ेहन से कोई चीज़ निकल कर क़दमों में आन गिरी है। धुंदले-धुंदले हुरूफ़ उभरने लगे और उनकी आँखों में अंधेरा छा गया। अंधेरी रात... कोहरे से भरी हुई सर्द रात... बे-शुमार कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें, कई आवारा कुत्ते उनके पीछे लग गए हैं। वो कुत्तों से बचने के लिए मिल्टन पार्क में घुस जाते हैं। मिल्टन पार्क? अब तो इसका नाम गांधी पार्क हो गया है। गाँधी पार्क हो या मिल्टन पार्क, है तो ये वही पार्क जहाँ वो शादी के दो दिन बाद उसे लेकर आए थे। पार्क की बारह-दरी टूट कर खंडर बन गई है। टूटी हुई बारह-दरी के पत्थरों के नीचे से होती हुई उनकी नज़रें चालीस बरस पुरानी बारह-दरी में घुस जाती हैं। आओ यहाँ बैठो... कितनी ख़ूबसूरत हैं ये मेहराबें। वो दोनों संग-मरमर के सुतून से कमर टिका कर बैठ जाते हैं और फिर वो दुनिया से बे-ख़बर बहुत देर तक उसके पास बैठे रहे। महीनों... बरसों... कि अचानक उनकी बेटी सरला ने उन्हें चौंका दिया।

    बाबू जी आप चुप क्यों हैं? क्या सोच रहे हैं?

    कुछ नहीं बेटी, मैं सोच रहा था आज इतने सवेरे... अस्ल में, मैंने सोचा जोगेंद्र के दफ़्तर जाने से पहले ही पहुँच जाऊँ तो अच्छा है।

    बाबू जी आज तो इतवार है।

    ओह, हाँ आज तो इतवार है। क्या करूँ बेटी रिटायर होने के बाद दिन-तारीख़ याद ही नहीं रहते।

    वो दिल ही दिल में सोचने लगे,दिन तारीख़ क्या अब तो बहुत कुछ याद नहीं रहा।

    इतने में जोगेंद्र भी आँखें मलते हुए आए और केदारनाथ को परणाम कर के सोफ़े पर बैठ गए।

    बाबू जी इतने सवेरे? सब ठीक है ना।

    मेरे जल्दी आने पर ये लोग इतना ज़ोर क्यों दे रहे हैं। ज़रूर मेरे अचानक आने से ये सब डिस्टर्ब हुए होंगे। मुझे चले जाना चाहिए, अभी... केदारनाथ को ख़ामोश बैठा देख कर सरला बोल पड़ी,अरे बाबू जी तो भूल ही गए थे कि आज इतवार है इसीलिए तो इतनी जल्दी...

    आज इतवार है और मैं इस तरह बग़ैर बताए यहाँ चला आया हूँ। हो सकता है इन दोनों का कोई प्रोग्राम हो। अब मेरी वजह से...

    हफ़्ते में छुट्टी का एक ही दिन तो मिलता है इन लोगों को। मगर मैं भी तो रोज़-रोज़ नहीं आता, घर से चल पड़ा था, बस चलता रहा और चलते-चलते जब सरला के घर के क़रीब गया तो सोचा, मिलता चलूँ, क्या ये लोग आज मेरे लिए अपने प्रोग्राम नहीं छोड़ सकते?

    केदारनाथ की आँखों में आँसू छलक आए हैं।

    कमबख़्त बुढ़ापे में आँसू भी कितनी जल्दी निकल आते हैं। वो आँसुओं को छिपाने की कोशिश कर रहे थे कि सरला ने उनकी आँखों में झाँक कर देखा, ये इस तरह क्या देख रही है? कहीं सब कुछ समझ तो नहीं गई।

    क्या समझेगी? ये कि मैं अपनी बीवी का नाम भूल गया हूँ और रात भर जागता रहा हूँ या ये कि मैं रो रहा हूँ।

    बेटी आज मुझे जोगेंद्र से कुछ काम था...

    बाबू जी मुझसे? जोगेंद्र ने हैरत-ज़दा होकर पूछा।

    हाँ यूँ ही, कोई ख़ास बात नहीं थी... फिर वो लॉन की तरफ़ झाँकने लगे।

    आज बहुत सर्दी है। तुम्हारे लॉन में तो सवेरे ही धूप जाती है। सरला ने लॉन की तरफ़ देखते हुए कहा,

    हाँ बाबू जी, अभी तो धूप में तेज़ी भी नहीं आई और ओस भी बहुत है, पूरा लॉन गीला...

    वो कह रही थी कि जोगेंद्र बीच में बोल पड़े।

    बाबू जी अभी कुछ काम के सिलसिले में आप कह रहे थे...

    क्या ये लोग चाहते हैं कि मैं जल्दी से काम बताकर चलता बनूँ ताकि इनके प्रोग्राम डिस्टर्ब हों। केदारनाथ खाँसने लगे और काफ़ी देर तक खाँसते रहे। वो खाँस रहे थे और सोचते जा रहे थे कि अब क्या कहूँ कि बग़ैर सोचे-समझे ही बोल पड़े...

    बेटे तुम्हें नाम याद रहते हैं?

    कैसे नाम बाबू जी? वैसे मैं हमेशा नाम याद रखने में कमज़ोर रहा हूँ, इसीलिए हिस्ट्री के पर्चे में मेरे नंबर बहुत कम आते थे।

    अब क्या पूछूँ? क्या सरला से यही सवाल करूँ? मगर यह तो बड़ी बे-तुकी बात होगी। अगर सरला ख़ुद ही बोल पड़े कि बाबू जी मुझे नाम याद रहते हैं, तो जल्दी से पूछ लूँ कि बताओ तुम्हारी माँ का नाम क्या था...

    केदारनाथ ने हसरत भरी नज़रों से सरला की तरफ़ देखा लेकिन वो ख़ामोश बैठी रही और फिर उठ कर किचन की तरफ़ चल दी...

    सूरज चढ़े काफ़ी देर हो चुकी थी। धूप में भी तेज़ी आती जा रही थी। लॉन की हरी घास पर जमे शबनम के क़तरे अपना वुजूद खो चुके थे। केदारनाथ ने अपने जिस्म पर चढ़े गर्म कपड़ों को इस तरह टटोला जैसे वो ढ़ूँढ़ रहे हों कि कपड़ों के अंदर जिस्म है भी या नहीं।

    दोपहर का खाना तैयार था। लेकिन अभी तक सरला से उसकी माँ का नाम पूछने का मौक़ा नहीं मिल पाया था। सरला सुबह से खाना तैयार करने में लगी हुई थी। केदारनाथ बाहर धूप में जाकर बैठते तो कभी अंदर आकर बरामदे में टहलने लगते। कभी जोगेंद्र से इधर-उधर की बातें होतीं और कभी सरला आती तो इस मौक़े की तलाश में रहते कि ज़रा जोगेंद्र उठ कर जाएँ और वो अकेले में सरला से उसकी माँ का नाम पूछ लें।

    अब दोपहर के खाने का वक़्त हो चुका है। खाने पर बात में बात निकलेगी, तब तो पूछ ही लूँगा। उन्होंने सोचा और मुत्मइन हो गए।

    खाने की मेज़ सज चुकी है। सरला ने कई तरह की सब्ज़ियाँ बनाई हैं... खाना बहुत लज़ीज़ है। आज बहुत दिनों बाद अपनी बेटी के हाथ का खाना मिला है। नौकर के हाथ का खाते-खाते उनका दिल भर गया था। सरला की माँ के हाथ का ज़ाइक़ा तो अब उन्हें याद भी नहीं। उसका नाम भी तो याद नहीं... उनका जी चाहा कि जल्दी से पूछ लें।

    बेटी तुम्हारी माँ का क्या नाम था।

    अरे ये क्या। अगर इस तरह वो कोई सवाल करेंगे तो ये दोनों क्या सोचेंगे। दोनों क़ह्क़हा मार कर हँस पड़ेंगे... केदारनाथ ख़ुद पर क़ाबू पाने की कोशिश करने लगे कि कहीं भूल कर ये सवाल उनके मुँह से निकल पड़े... किससे पूछूँ? कमबख़्त ख़ुद ही मेरे ज़ेहन में जाए तो पूछना ही क्यों पड़े? उन्होंने भँवें सिकोड़ीं, पेशानी पर बे-शुमार बल पड़ गए फिर आँखें बंद कर लीं और अपने ज़ेहन से जूझने लगे। आज सरला का बेटा नज़र नहीं रहा है, शायद उसे अपनी नानी का नाम याद... बातों-बातों में उससे तो पूछ ही लूँगा... ''सरला आज तुम्हारा बेटा...?

    हाँ पिताजी मैं तो बताना भूल ही गई। बी.ए पास करने के बाद उसने कम्पटीशन की तैयारी शुरू कर दी थी। कल से उसके इम्तिहान हैं। दो दिन पहले ही दिल्ली चला गया है... ओ... अच्छा... तो घर पर नहीं है। केदारनाथ एक ठंडी साँस लेकर फिर खाने में मसरूफ़ हो गए। खाना ख़त्म हो गया और केदारनाथ को अपनी बीवी का नाम याद नहीं आया। खाने के बाद चाय और फिर देखते-देखते ही शाम हो गई। केदारनाथ बग़ैर नाम पूछे ही वहाँ से उठ पड़े। घर लौटने के लिए बस पकड़ी। अब उनके जिस्म के सारी रगें ढ़ीली पड़ चुकी थीं। हर एक शख़्स को देख कर उन्हें लगता कि उसे ज़रूर मेरी बीवी का नाम मालूम होगा। वो हर एक से पूछना चाहते हैं मगर कोई शख़्स तो उनकी तरफ़ मुतवज्जे होता और ही कुछ पूछने के लिए उनके होंट खुलते। सफ़र जारी रहा और फिर अचानक एक झटके के साथ बस रुकी। उन्होंने खिड़की से बाहर झाँका और उतरने के लिए सीट से उठ खड़े हो गए।

    कमरे में चारों तरफ़ अंधेरा है। वो बग़ैर रौशनी किए बिस्तर पर ढ़ेर हो गए। अंधेरा गहरा होता जा रहा था, केदारनाथ को महसूस हुआ कि दीवारें उनकी तरफ़ खिसकती चली रही हैं। उन्होंने आँखों पर ज़ोर दे कर दीवारों की तरफ़ देखा तो उनकी आँखों में जलन होने लगी। पूरे कमरे में धुआँ भर गया था। उठ कर लाइट जला दी जाए। उन्होंने सोचा। मगर रौशनी में तो उन्हें नींद ही नहीं आती। अंधेरे में भी कब आती है। अब उनकी आँखें शोलों की तरह दहकने लगी थीं। जिस्म से भी आग निकलने लगेगी। आग की लपटें बहुत तेज़ हो गई हैं। सरला की माँ की चिता जल रही है, रौशनी बहुत तेज़ है और उन्हें नींद नहीं रही है। तो फिर आँखें नींद से बोझिल क्यों होती जा रही हैं...? जगह-जगह से जिस्म गल गया है। वो जिधर करवट लेते हैं उधर ही से शदीद दर्द की लहर उठती है। उनके हाथ पैर बिल्कुल ठंडे होते जा रहे थे कि अचानक ज़ेहन से कोई चीज़ निकल कर पलंग के नीचे फ़र्श पर जा पड़ी। केदारनाथ उठ कर बैठ गए। लाइट जलाई और अलमारी खोल कर तमाम किताबें फ़र्श पर बिखेर दीं। एक-एक करके मेज़ की दराज़ के तमाम काग़ज़ात निकाल डाले और पुराने बुक्स से कुछ फ़ाइलें निकालीं फिर दीवानों की तरह उन्हें उलट-पलट कर देखने लगे... किसी काग़ज़ को पढ़ते, किसी को फाड़ कर फेंक देते और किसी को तह करके रख लेते। कमबख़्त उसकी कोई चिट्ठी भी तो नहीं मिल रही है। अब केदारनाथ ने झुँझला कर किताबों, काग़ज़ों और फ़ाइलों को नोच कर फेंकना शुरू कर दिया है। दोनों हाथ बिल्कुल शल हो चुके हैं। साँस रुकने लगी है। उन्होंने घबराकर गले में बँधे मफ़लर का बल खोलना चाहा कि पता नहीं कैसे गिरफ़्त और तंग हो गई फिर एक झटके के साथ मफ़लर खींच लिया और बुरी तरह हाँफने लगे। ढ़ूँढ़ने से कोई फ़ायदा नहीं... याद करना भी बेकार है, अब कुछ याद नहीं आएगा। और वो याद करने लगे कि उनकी बीवी का नाम क्या था।

    शांति...?

    नहीं...

    सरोजनी...

    नहीं... नहीं

    सृष्ठा...?

    उफ़ ये भी नहीं...

    हज़ारों नाम उनके ज़ेहन में तेज़ी से आने लगे। फिर वो भूल गए कि वो क्या याद कर रहे थे।

    आज कौन सा दिन है?

    इतवार...

    नहीं इतवार तो कल था।

    कल?

    इतवार तो उस दिन था जब वो सरला के घर गए थे और सरला के घर गए हुए अब सदियाँ गुज़र चुकी हैं।

    उनकी आँखों से ज़र्द रौशनाई टपक कर पूरे कमरे में फैल गई है। किताबें, काग़ज़ात और फ़ाइलें... कुछ धुँदले-धुँदले हुरूफ़ नज़र आए।

    शर्मा, हाँ मेरे दफ़्तर के साथी शर्मा।

    पूरा नाम क्या था उनका?

    ये भी भूल गया?

    और उनके बेटे का?

    नहीं, अब मुझे कुछ भी याद नहीं है।

    पार्क...

    कौन सा पार्क?

    हाँ वही पार्क जहाँ वो खड़ी मुस्कुरा रही है।

    लेकिन अब तो उस पार्क का नाम भी बदल गया है।

    क्या है उसका नया नाम?

    नया ही क्या अब तो पुराना भी याद नहीं। मैं सब कुछ भूलता जा रहा हूँ।

    मेरी बेटी...

    उफ़ उसका नाम भी याद नहीं रहा है।

    उसके शौहर का नाम?

    हे भगवान मुझे क्या होता जा रहा है। अब तो कुछ भी याद नहीं।

    क्या सिर्फ़ बीवी के नाम के लिए वो इतने परेशान हैं।

    नहीं, कोई और चीज़ भी है जिसे वो भूल गए हैं।

    क्या चीज़ है वह?

    वो नेम प्लेट जो बारबार उनके ज़ेहन से निकल कर गिर पड़ती है! क्या लिखा है उसमें? कुछ दिखाई नहीं देता। सब कुछ मिट चुका है...

    दीवारें, छत, दरवाज़े और फ़र्श... कुछ भी नहीं है। दूर तक फैला हुआ एक बहुत बड़ा मैदान है। ज़मीन में जगह-जगह दराड़ें पड़ चुकी हैं। सूरज का गोला फैल कर इतना बड़ा हो गया कि पूरा आसमान उसके पीछे छुप जाता है। रौशनी इतनी तेज़ है कि कुछ दिखाई नहीं देता कि अचानक दूर कोई बहुत छोटी सी चीज़ नज़र आई।

    क्या है वह?

    कोई इंसान है जो अपने चारों तरफ़ मुड़-मुड़ कर देख रहा है। उसके क़रीब कोई भी नहीं है, वो तन्हा है, बिल्कुल तन्हा।

    अरे वो तो मेरी तरफ़ बढ़ रहा है और अब मेरी आँखों के इतना क़रीब गया कि उसके पीछे सारा मैदान, आसमान और सूरज का फैला हुआ गोला भी छुप गया है।

    कौन है ये शख़्स?

    मैं? और उनकी आँखों के सामने ख़ुद उनकी अपनी ज़ात अंधेरा बन के छाने लगी।

    मगर मैं कौन हूँ? क्या नाम है मेरा?

    ऐं... अब तो मैं अपना नाम भी भूल गया। वो माथे पर हाथ रख कर ज़ोर से चीख़े और बग़ैर रीढ़ की हड्डी वाले आदमी की तरह दोहरे होते-होते अपने आप में सिमटने लगे। उन्हें लगा कि वो कई गज़ ज़मीन के अंदर धँस गए हैं। उनका दम घुट रहा है। सर बुरी तरह चकराने लगा और आँखों में नीले-पीले बादल उमंड आए। हाथ-पाँव सुन पड़ चुके हैं और गला रुँध गया है, जैसे कोई बहुत मोटी सी चीज़ इसमें अटक गई हो। काँपता हुआ हाथ उन्होंने गर्दन पर रख लिया और खँकारना चाहा मगर उन्हें लगा कि खँकारते ही हिचकी जाएगी और वो मर जाएंगे।

    नहीं... वो बहुत ज़ोर से चीख़े। उनके हाथ की गिरफ़्त गले पर ख़ुद-ब-ख़ुद मज़बूत हो गई थी। धुँदले-धुँदले हुरूफ़ उभरने लगे।

    के... के... उफ़ लगता है दिमाग़ के परख़चे उड़ जाएंगे और ज़बान कट कर दूर जा गिरेगी। उन्होंने ग़ौर से देखा, हर्फ़ कुछ-कुछ साफ़ दिखाई देने लगे थे। के दाााााा...

    और फिर उन्होंने पढ़ लिया। केदारनाथ। वो ख़ुशी से चीख़ पड़े और गले पर हाथ की गिरफ़्त ढ़ीली पड़ गई। दिल बहुत ज़ोर से धड़का, पूरे बदन में गुदगुदी सी होने लगी और वो लड़खड़ाते हुए पलँग पर जा पड़े।

    केदारनाथ, केदारनाथ... वो ज़ोर-ज़ोर से कहने लगे जैसे अब उन्हें सब कुछ याद गया हो।

    अपनी बेटी का, दोस्त का, इस पार्क का और अपनी बीवी का नाम... केदारनाथ! महसूस हुआ कि सारी दुनिया का नाम केदारनाथ है।

    फिर आहिस्ता से उठे, लाइट बुझाई और केदारनाथ, केदारनाथ कहते हुए लिहाफ़ में घुस गए।

    सुबह हुई तो उन्होंने ख़ुद को बहुत मुत्मइन महसूस किया। रात बहुत गहरी और सुकून की नींद आई थी।

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