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नई हमसाई

MORE BYअली अब्बास हुसैनी

    स्टोरीलाइन

    एक मौलवी ख़ानदान के पड़ोस में एक तवाएफ़ आकर रहने लगती है। मौलवी का परिवार उस नए पड़ोसी से दूरी बनाए रखता है। इत्तेफ़ाक़ से मौलवी को किसी ज़रूरी काम से कहीं बाहर जाना पड़ा था, जबकि उनका बच्चा सख़्त बीमार था। इस बीच बच्चे की तबियत बहुत ख़राब हो गई। ऐसी हालत में नए पड़ोसियों ने मौलवी के घर वालों की जिस तरह मदद की वह तो प्रशंसनीय थी ही मौलवी के व्यवहार और चरित्र का आईना भी था।

    नई हमसाई जब से बग़ल वाले मकान में तशरीफ़ लाईं मैंने अपने और उनके मकान की दरमियानी खिड़की बंद करा दी। मैं ये नहीं पसंद करता था कि मेरी बीवी उनकी तरह की औरतों से मेल-जोल बढ़ाएं। मैं ख़ुद उनके “मियां” से मिलने में ज़ियादा क़बाहत नहीं समझता था। मर्दों की ‘‘अलैक-सलैक’’ सैंकड़ों क़िस्म के आदमियों से होती है। मर्द कपड़ों में लपेट कर नहीं रखा जा सकता। चाक़ू की तरह रगड़ से उस में तेज़ी बढ़ती है। वो ऊनी कपड़ा है जिसे धूप ना दिखाइए तो कीड़े चाट जाएँ। मगर औरत फूल है ‘‘नाज़ुक, लतीफ़, ख़ुशबूदार, जहाँ हमसाया ख़राब मिला, बू बास में फ़र्क़ आया। जहाँ हमनशीं बुरे हुए और रंग-रूप बदल गया।’’

    फिर मैं अशरफ़ साहब से एक ज़माने से वाक़िफ़ था। वो एक रंगीले मिज़ाज के आदमी थे, वो हर साल ‘‘तक़वीम-ए-पारीना’’ अलैहिदा कर देते और नई जंतरी से दिल बहलाते। अब के नज़र-ए-इंतिख़ाब बी हमसाई पर पड़ी और वो बग़ल वाले मकान में लाकर उतार दी गईं। अशरफ़ साहब का ख़ुद घर मौजूद था। बुज़ुर्गों में कोई मर्द और अज़ीज़ों में कोई औरत ना थी। मगर अपना मकान छोड़ के ये इनायत मेरे ही हमसाए पर क्यों की गई, उसकी हक़ीक़त से ना मैं वाक़िफ़ था और ना मेरी बीवी। वो अशरफ़ साहब से मुझसे भी ज़्यादा ख़फ़ा थीं। वो कहतीं, “अगर उन्होंने ये मकान ना लिया होता तो कोई भला-मानस इसमें आके उतरता और मुझ निगोड़ी का हमसाई से दिल बहलता। मगर इन नई बी साहबा को तो रात-दिन सिवाए गाने बजाने के कोई काम ही नहीं। ऐसा मालूम होता है ढारियों और कसबियों का घर है।’’

    उनका ग़ुस्सा बजा था। इसलिए कि घर में जितने समझदार थे वो सब नमाज़ के आदी थे हम मियां बीवी की देखा देखी सही, मगर मामाएं भी नमाज़ पढ़ती थीं और मुलाज़िम भी बच्चों में सिर्फ़ एक मुनीर था। जो प्यार से “भय्या” पुकारा जाता था। उसकी उम्र उस वक़्त मुश्किल से चार बरस की होगी। बेगम सिवाए भय्या के खिलाने और मामाओं को हदीस, क़ुरआन पढ़ के सुनाने के और कोई काम ना करतीं। उनके हाँ मज़हबीयत का वफ़ूर था। अब हमसाया मिला इस तरह का, बिलकुल ही उनका ज़िद! एक तरफ़ तो तहलील-ओ-तस्बीह का दौर और दूसरी जानिब सा-रे-गा-मा पा धा-नी की रट!

    फिर मुफ़्तियों के ख़ानदान से होने की वजह से हम क़दामत-पसंद भी थे। हमारी मुआशरत वही थी जिस पर हमारे बुज़ुर्ग कारबन्द रह चुके थे। हम लोगों से आम तौर पर मिलना-जुलना पसंद ना करते थे और हमारी औरतें उन घरों में नहीं आती जाती थीं जिन पर जदीद तालीम का रंग चढ़ चुका था और जहाँ दुनियावी तरक़्क़ी की ग़रज़ से मग़रिब-परस्ती की शिद्दत थी।

    अब तक जो बीबी पड़ोस में रहती थीं, उनके मियां किसी दूकान पर काम करते थे, वो सीधे-साधे नेक मुस्लमान थे। दुनिया के झगड़ों से उन्हें कोई मतलब ना था, मुक़र्ररा वक़्त पर अपने काम से जाते। मुक़र्ररा वक़्त पर वापस आते। अपने बाल-बच्चों के साथ जो दाल-दलिया मयस्सर आता ख़ुश-ख़ुश खाते और ख़ुदा का शुक्र बजा लाते। ख़ुद बी हमसाई की ये हालत थी कि घर के काम काज से जहाँ फ़ुर्सत पातीं टोपियाँ लेकर बैठ जातीं, ऐसे-ऐसे गुल-बूटे काढ़तीं कि देखने से तअल्लुक़ रखते थे। दस बारह आने की रोज़ाना, मियां के इलावा, मज़दूरी कर लेती थीं। इस पर मिलनसार ऐसी कि दिन में दो मर्तबा महज़ भय्या की ख़ैरियत दरयाफ़्त करने के लिए हमारे हाँ आया करतीं। जब हमारे हाँ कोई काम होता तो उसमें बेगम का इस तरह का हाथ बटातीं कि महसूस होता कि कोई ग़ैर नहीं बल्कि अपनी क़रीब-तरीन अज़ीज़ हैं। बेगम उन्हें “बहन” पुकारती थीं और नन्हा मुनीर अपनी तुतली ज़बान में उन्हें “ख़ाला जान” कहना अच्छी तरह सीख गया था।

    वो जब से चली गई थीं हम लोगों को ख़ासी तकलीफ़ थी। बच्चा भी कुढ़ता था और बेगम भी उदास रहती थीं। तसकीन सिर्फ़ इतनी थी कि मुम्किन है नई हमसाई वैसी ही या उनसे बेहतर मिल जाये और अब आईं ये ज़ात शरीफ़। मुआ’मला बिलकुल ही बर-अक्स हो गया। वो तो कहिए कि बड़ी ख़ैरियत हुई कि मैंने अशरफ़ साहब को उस वक़्त देख लिया जब कि वो मकान का मुआ’इना करने आए थे, उनकी झेपी झेपी बातों से मैं ताड़ गया कि कुछ दाल में काला ज़रूर है। मैंने इसलिए नई हमसाई के वुरूद के पहले ही खिड़की में क़ुफ़्ल डलवा दिया था। अगर कहीं बे-तकल्लुफ़ी बढ़ने के बाद बेगम को मा’लूम होता कि नई हमसाई किस क़िमाश की औरत हैं तो हद-दर्जा बे-लुतफ़ी होती।

    जब नई हमसाई आईं तो उन्होंने एक दिन खिड़की पर आकर ख़ूब खटखटाया। मामा से कहला दिया गया कि “मियां का हुक्म नहीं कि खिड़की खोली जाए।’’ उन्होंने कहा, “अच्छा बेगम साहबा से सलाम कहो और कहो ज़री खिड़की तक खड़ी खड़ी हो जाएं। हम तो उनसे मिलने आए हैं और वो अपनी जगह से हिलीं तक नहीं।’’

    बेगम ने साफ़ साफ़ कहला भेजा कि “मुझे ना उनसे मिलने की फ़ुर्सत है और ना मैं उनसे मिलना चाहती हूँ।’’ इस तल्ख़ जवाब पर वो बहुत आज़ुर्दा हुईं और ये कहती हुई चली गईं कि “अच्छा तो उनसे कह देना बीबी अगर आप नहीं मिलना चाहतीं तो यहाँ किस की जूती को ग़रज़ है, ना हम उनके बसाए हुए हैं और ना हम उनका दिया खाते हैं। हुँह, क्या मिज़ाज पाया है... हमने कहा पड़ोस में के टिके हैं, चलो अपनी हमसाई से मिल लें। मगर मालूम हुआ वो तो बड़ी नक चढ़ी हैं। होंगी ख़ास रसूल अल्लाह के घराने की। हमारी पापोश को ग़रज़!”

    इसी दरमियान में मुझसे और अशरफ़ साहब से एक दिन सामना हो गया। साहब सलामत के बाद उन्होंने जिस क़दर तपाक बरता, मैं उतनी ही रुखाई से पेश आया। बिल-आख़िर वो घबरा के बोले, “क्यों मशहूद साहब, मुझसे क्या क़सूर हुआ है जो आप खासतौर से ख़फ़ा मालूम होते हैं।’’

    मैं फ़ितरतन् सीधा आदमी हूँ और गुफ़्तगू में सफ़ाई ज़्यादा पसंद है, मुझे तान-ओ-तशनीअ-ओ-तंज़ से कोई लगाव नहीं। लेकिन अशरफ़ साहब की हरकतों से इस क़दर जला हुआ था कि उस दिन मैंने उनसे कुछ इसी तरह की बातें कीं। उनके जवाब में मैंने कहा “आप और क़सूर वल्लाह आप क्या फ़रमाते हैं अजी हज़रत आपने तो मुझ पर वो एहसान किया है कि मैं हमेशा याद रखूँगा। आपके सदक़े में मुझे सुरूद-ए-हमसाया और हुस्न-ए-रहगुज़र दोनों मयस्सर हैं, भला मैं आपसे ख़फ़ा हो सकता हूँ। मेरी और ये मजाल।’’

    वो मुस्कराकर बोले, “अच्छा तो ये बात है। मगर आपको ये मालूम होना चाहिए कि मैं उसे आपके हमसाए में महज़ इसलिए लाया हूँ कि मैं उसे एक बेसवा की जगह एक नेक और पारसा औरत बनाना चाहता हूँ।’’

    मैंने कहा, “मुझे आपकी ज़ात से यही उम्मीद है। मगर मेरी ये नहीं समझ में आया कि मेरे हमसाए में ऐसी कौन सी ख़ुसूसीयत है?”

    वो बोले, “भई सच्ची बात तो ये है कि मैंने इस हुस्न, इस गले और इस मिज़ाज की रंडी आज तक नहीं देखी। मैंने इसी लिए इससे ये ख़ाहिश की कि वो मुझसे निकाह कर ले मगर वो आज़ादी की ज़िंदगी की इस क़दर आदी हो गई है और घरेलू ज़िंदगी से इस क़दर घबराती है कि किसी तरह राज़ी नहीं होती हैं। इसी लिए उसे आपके हमसाए में लाया हूँ कि वो आपके घर की ज़िंदगी और आप मियां बीवी की मुहब्बत-ओ-आश्ती को देख मेरी बात मान ले।’’

    मैंने कहा, “तो इतना बड़ा शहर है, आपको सैंकड़ों इस तरह के मियां बीवी मिल जाते। ये मुझ ही पर करम करने की क्या ज़रूरत थी?”

    वो बोले, “आप लोग मौलवियों के घराने से हैं ना, आपका असर दूसरों से ज़्यादा जल्द और गहरा पड़ेगा।“

    मैंने अपनी फ़ितरी साफ़-गोई से काम लेकर उनसे कह दिया, “तो हज़रत अगर आप ये समझते हैं कि मैं किसी हालत में अपनी बीवी को आपकी रंडी से मिलने दूँगा तो आप बड़ी ग़लती करते हैं। अगर आप मेरे हमसाया से ना उठ जाऐंगे तो मैं ख़ुद इस मकान को छोड़ दूँगा।“ मैंने उस के बाद उनकी कोई बात ना सुनी और झल्लाया हुआ घर वापस चला आया।

    उस दिन से मैंने महसूस किया कि शोर-ओ-हंगामे में बहुत कमी हो गई। गाना होता ज़रूर था मगर मुक़र्ररा औक़ात पर और ठट्ठे अब भी लगते थे मगर इस तरह की आवाज़ों में जो हमारे कामों में मुख़िल ना हूँ। अलबत्ता बेगम से ये मा’लूम हुआ के हर-रोज़ “भय्या” शाम के वक़्त गोद से उतर कर अपने “संदली” पांव से खिड़की तक ज़रूर जाता और लाख मना किया जाता मगर वो खिड़की ख़ूब पीट पीट के “हमचाई, हमचाई” कह के ज़रूर पुकारता। वो भी खिड़की पर आतीं और उसे ग़ालिब की मशहूर ग़ज़ल आशयां क्यों हो- आसमां क्यों हो, गा के सुनातीं और ज़ैल का शे’अर बार-बार दुहरातीं,

    वफ़ा कैसी, कहाँ का इश्क़, जब सर फोड़ना ठहरा

    तो फिर संग-ए-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यों हो?

    बेगम ये भी कहती थीं कि आवाज़ में इस बला की कशिश है कि बे-साख़्ता दिल खिंचता है और उनका भी ये जी चाहने लगता है कि वो भी खिड़की के पास जाके खड़ी हो जाएं। बल्कि खिड़की खोल कर गाने वाले को कलेजा से लगा लें। मैंने तै किया कि इस नई छेड़ का फ़ौरी तदारुक ज़रूरी है। इसलिए मैंने अशरफ़ साहब को उसी वक़्त ख़त लिखा।

    “मुकर्रमी। तस्लीम। बी साहबा से मेरी जानिब से अर्ज़ कर दीजिए कि मेरे घर के लोगों को हर-रोज़ खिड़की पर के परेशान ना करें। मैं ममनून हूँगा।“ उन्होंने जवाब में लिखा, “वो कहती हैं उन्हें आपके बच्चे से मुहब्बत है। दिन में थोड़ी देर के लिए वो उसे बंद खड़ी के दराड़ों से झाँक लेती हैं। अगर आप इस बच्चे को हर रोज़ मेरे हाँ आध घंटे के लिए भेज दिया करें तो वो वा’दा करती हैं कि वो आज से खिड़की पर हरगिज़ हरगिज़ ना जाएँगी।’’ मुझे उनकी इस शर्त पर हद से ज़्यादा ग़ुस्सा आया। मैंने झल्ला के लिख भेजा “मेरा बच्चा ना इस तरह के ना-शाइस्ता घरों में जा सकता है और ना इस तरह की नापाक गोदों में!”

    उसी दिन खिड़की में दूसरी जानिब से भी क़ुफ़्ल पड़ गया और दराड़ों में काग़ज़ के टुकड़े भी चिपका दिए गए। ना खिड़की के पास फिर गाना हुआ ना भय्या के चीख़ने और पुकारने पर किसी ने ए’तिना की। मुझसे और अशरफ़ साहब से भी साहब सलामत बंद हो गई। ग़रज़ बाईकॉट पूरे तौर पर हो गया।

    मगर भय्या हर-रोज़ खिड़की पर जाने के लिए मचलता ज़रूर था और रो के जाने पर फ़ेल लाता था। इतना ही नहीं बल्कि कुछ मांदा सा भी रहने लगा। लेकिन मैंने किसी अम्र की परवा नहीं की। मैं अपने ना-समझ मासूम बच्चे को गाने बजाने का आदी नहीं बना सकता था और ना मैं उस की ज़िद पर उसे हमसाई की सी औरत के पास भेज सकता था। मैंने इसलिए ये तै कर लिया के महीना ख़त्म होते ही इस मकान और इस हमसाए को ख़ुद ही छोड़ दूँगा।

    इस फ़ैसले के दो ही चार दिन बाद मुझे दफ़्अतन एक सरकारी काम से देहात जाना पड़ा। गो तक़रीबन मील का सफ़र था मगर मेरी फिटन का घोड़ा काफ़ी तेज़ और मज़बूत था और मुझे यक़ीन था कि मैं शाम तक वापस चला आऊँगा। भय्या की तबीयत हसब-ए-मा’मूल सुस्त थी। मैंने कोई वस्वसा दिल में ना आने दिया और इतमीनान से अपना फ़र्ज़ अदा करने चला गया। वहाँ क़स्बा में ख़िलाफ़ मा’मूल देर हो गई और रात के आठ बज गए। शहर से पंद्रह मील का फ़ासिला था और निस्फ़ के क़रीब सड़क ख़ाम थी, मगर भय्या की मांदगी का ख़्याल, जो अब तक फ़राइज़ की अंजाम दही के सिलसिले में बिलकुल ज़हन में ना था, आते ही दिल घबरा उठा और गो अहल-ए-क़र्या मुझे रोकते रहे मगर मैं उसी वक़्त रवाना हो गया। अभी गांव से मुश्किल से एक मील के फ़ासले पर पहुंचा हूँगा कि दफ़्अतन शुमाल-ओ-मशरिक़ की जानिब से घटा उठी। साईस ने घबराकर कहा “हुजूर। पानी आन वाला है। गांव पलट चलें।’’ मैंने घोड़े को तेज़ करके कहा “नहीं जी बरसेगा नहीं। फिर हम लोग डेढ़ घंटे में तो घर पहुंच जाऐंगे।’’

    मुझे ख़्याल था कि इस घटा की भी वही हालत होगी जो उस साल लखनऊ के लिए रिवायत हो गई थी। तीन-तीन चार-चार दिन मुतवातिर अब्र आता था मगर बिला-ता’म्मुल सीधा पच्छम भागता चला जाता था। गोया मंज़िल-ए-मक़सूद कहीं मग़रिब में थी और लखनऊ महज़ गुज़रगाह था। लेकिन मेरे इस यक़ीन को चंद ही मिनट बाद पानी की चादर ने पाश-पाश कर दिया। पानी बरसा और इस तरह से बरसा कि जिस्म पर चोट लगती थी। मालूम होता था जैसे किसी आसमानी दरिया में सैलाब गया है और उसने सारे बंद तोड़ डाले हैं। बिजली अलैहिदा चमकती थी और गरज इस आफ़त की थी कि अल-अमाँ-वल-हफ़ीज़।

    अब आप ही ख़याल फ़रमाईए कि रात का वक़्त, कच्ची सड़क, भड़कने वाला घोड़ा। सुनसान मैदान और पानी का ये शोर। मज़ीद मुसीबत ये आई कि घोड़े के झटकों और हवा के झोंकों ने फ़िटन की लालटेनें भी बुझा दीं। बस कुछ ना पूछिए कि रास्ता क्योंकर तै हुआ और जान क्योंकर बची, मौत ख़ुद ही हिफ़ाज़त कर रही थी। वर्ना मर जाना यक़ीनी था।

    ख़ैर ख़ुदा-ख़ुदा करके पुख़्ता सड़क पर पहुंचे। थोड़े ही फ़ासले पर बीड़ी सिगरेट बेचने वालों ने कुछ फूंस के छप्पर लब-ए-राह डाल रखे थे। जब हम लोग उनके क़रीब पहुंचे तो साईस ने सर्दी और ख़ौफ़ से काँपते हुए कहा ‘‘हुजूर याँ दम ले लीजिए, जरा पानी रुके तो फिर चलें।’’ मेरा भी सर्दी से बुरा हाल था। दूसरे घोड़े की मुँह-ज़ोरियों से दोनों हाथ शल हो गए थे। मैंने अब के साईस की राय पर अमल किया और फ़िटन रोक के उतर पड़ा और एक छप्पर के नीचे जहाँ पाँच सात देहाती आग जलाए बैठे थे, मैं भी जा के खड़ा हो गया। साईस भी घोड़े को एक पास ही के दरख़्त में अटका के जल्दी से भाग आया। देहाती मेरे मुता’ल्लिक़ साईस से ये मा’लूम करके कि मैं सरकारी अफ़्सर हूँ थोड़ा बहुत सहम गए और सिमट के मुझसे थोड़ी दूर पर बैठ गए, दूकानदार ने एक छोटी सी तिपाई ला के मुझे बैठने के लिए दी और आग को लकड़ियाँ बढ़ाकर तेज़ कर दिया। मैं अपना कोट उतार कर उसी पर सुखाने लगा।

    पानी की शिद्दत में किसी तरह कमी ना हुई, यहाँ तक कि रात के बारह बज गए। देहातियों में कई एक वहीं गठड़ी बन के पड़े रहे और उनके ख़र्राटों की आवाज़ें पानी की आवाज़ों में मिलकर उसे और भयानक बनाने लगीं। दूकानदार भी ऊँघ रहा था। भूक और नींद से मेरी ख़ुद बुरी हालत थी। मगर पानी की वजह से सब महबूर थे, ना किसी तरह खुलता था और ना रुकता था। बिलआख़िर एक बजे के बाद कुछ कम हुआ। मैं ने साईस से कहा, ‘‘भई गाड़ी की लालटेनें जला लो, अब हम चलेंगे।’’ ग़रज़ हम लोग फिर भीगते हुए घर चले। घोड़े ने भी अब की तेज़ी नहीं की, बज़ाहिर वो भी थक गया था या नींद की ग़नूदगी में था। बहर-ए-नौअ हमने हल्की दुलकी की रफ़्तार से बक़िया रास्ता तै किया और कोई तीन बजे सुबह को घर पहुंचे।

    ख़याल था कि वहां सब ख़र्राटे ले रहे होंगे और दरवाज़ा खुलवाने के लिए काफ़ी चीख़ना पड़ेगा। मगर मुझे देखकर तअ’ज्जुब हुआ कि मर्दाने कमरे में रोशनी हो रही थी और दरवाज़े खुले हुए थे। मैंने कमरे में जाकर देखा तो अशरफ़ साहब बैठे हुए एक नावेल पढ़ रहे हैं। मैं अपने घर में उन्हें इस तरह देख के हद दर्जा घबरा गया। मैंने उनसे पूछा “क्यों आप इस वक़्त यहां कहाँ? ख़ैरियत तो है?” उन्होंने कहा “हाँ सब ख़ैरियत है, आप अन्दर जा के फ़ौरन कपड़े बदल डालिए।’’

    मैं भी घबराया हुआ ज़नानख़ाने में चला गया। वहाँ जा के देखा तो सारे घर की रौशनियां जल रही हैं, बेगम अपने पलंग पर लेटी हैं। मामा ज़हूरन पांव सहला रही हैं और भय्या को एक बीस बरस की हसीन दोशीज़ा गोद में लिए कलेजे से लगाए बैठी है। मैं एक अजनबी औरत को अपने घर में बे-नक़ाब देखकर पहले तो झिझका। मगर जब मैंने देखा कि उस की सारी तवज्जाे बच्चे की तरफ़ मबज़ूल है, तो मैं इस्ति’जाब और घबराहट का बुरी तरह शिकार हो कर बेगम के पलंग की तरफ़ बढ़ गया। वो भी घबरा के उठ बैठी थीं, मैंने उनसे पूछा “क्यों ख़ैरियत तो है?” मेरे इस मा’मूली से सवाल पर वो “भय्या” कह के बच्चों की तरह फूट-फूटकर रोने लगीं।

    मामा ने कहना शुरू किया “ना बीबी ना! आज शाम से रो-रो के बे-फ़ज़ूल को अपने को हलकान कर रही हैं। अब तो माशा-अल्लाह बच्चा अच्छा है। दिल को सँभालिये, आँखें लाल अंगारा हो रही हैं।“

    मैंने देखा कि बेगम के मुँह से इस वक़्त पूरा वाक़िया सुन लेना मुहाल है, इसलिए मामा ज़हूरन से कहा “तुम ही बताओ कि हुआ क्या। क्या भय्या बीमार हो गया था? क्या बात हुई आख़िर?” उसने कहा “ऐ हुज़ूर, कोई बात नहीं, बीबी बी माशा अल्लाह ख़ुद ही बच्चा हैं, इसी लिए ज़रा सी बात से घबरा उठती हैं। भय्या की तबीयत माँदी थी, मुझे हुक्म हुआ कि डाक्टर को बुलवाओ, वो मुआ अम्मन गया तो डाक्टर ना मिले। वो कहीं निकल खड़े हुए थे। अपनी फेरी पर। मैं अभी बाहर ही थी कि लड़के के चीख़ने की आवाज़ सुनाई दी, अब जो के देखती हूँ तो लड़का तो ख़ैर लड़का ही है, बेगम साहबा भी बचपना कर रही हैं। भय्या मचला था कि हम खिड़की ही पर जा के दम लेंगे और ये अड़ी थीं कि अपना और तेरा ख़ून एक कर दूँगी, मगर खिड़की पर ना जाने दूँगी। बच्चा ज़मीन पर लौट रहा था और ये उसे घुड़क रही थीं। जब वो किसी तरह ना माना तो इन्होंने हुज़ूर को धोईं धोईं पीट डाला।’’

    मैंने देखा कि मेरे ही चेहरे पर आसार-ए-ग़म-ओ-ग़ुस्सा ना थे बल्कि अजनबी दोशीज़ा ने भी एक-बार बेगम को बहुत ही ग़ुस्से से देखा और फिर गर्दन निहोड़ा ली। बेगम ने देखा कि ज़हूरन बच्चे की सफ़ाई में उनके सर सारा इल्ज़ाम मंढे देती है। तो झिड़क कर बोलीं “तुम्हें बात का बतंगड़ बनाना ख़ूब ही आता है। मैंने तो उसे एक हल्का सा तमांचा मारा और तुम कहती हो कि मैंने उसे पीट के रख दिया। बालिश्त भर का तो लौंडा है लेकिन ऐसे-ऐसे फ़ेल लाता है और ऐसी ऐसी ज़िदें करता है कि जान अज़ाब हो गई है...’’

    ज़हूरन ने बात काटी, “हाँ तो बीबी अब रोती क्यों हो? अब जब उस के दुश्मनों का ये हाल है तो दोनों आँखों से गंगा जमुना क्यों बह रही हैं?”

    मैंने देखा इन दोनों में लड़ाई छिड़ी और ज़हूरन ने दाया होने की हैसियत से माँ की ज़्यादतियाँ गिनवाना शुरू कीं। मैंने डाँट के कहा “अच्छा ज़हूरन तुम ख़ामोश रहो, हाँ जी बेगम। ख़ुदा के लिए बयान करो कि क्या हुआ?”

    उन्होंने कहा, “अरे हुआ क्या, मैं क्या जानती थी कि आज ये खिड़की पर जाने के लिए ऐसा शोर मचाएगा। मैंने उसे खिड़की पर ना जाने दिया। बस उसने चीख़ते चीख़ते आसमान सर पर उठा लिया। डाक्टर को बुलवाया। वो मिला नहीं जब शाम होने को आई तो सारा पिंडा इस तरह जलने लगा कि मालूम होता कि अगर दाना डाल दो तो भुन जाएगा, मेरी कुछ समझ में ना आता था कि मैं क्या करूँ, ज़हूरन के तानों ने दिल पका रखा था। मैं सिवाए दुआएं दम करने और रोने के कर ही क्या सकती थी।“

    ज़हूरन ने फिर बात काटी, “ऐ तो मैं ताने क्यों ना देती, ख़ुद ही बच्चे को मारपीट के इस हाल को पहुंचाया और ख़ुद ही बैठ के टसवे बहाती थीं, मैंने कहा अब बीबी बिसोरने से क्या फ़ायदा, जब ना सोंचा जब धोईं धोईं उसे पीट रही थीं...”

    मैंने ग़ुस्सा में कहा। फिर तुम लड़ने लगीं। मैं वाक़िया पूछता हूँ और तुम्हें तानों से ही फ़ुर्सत नहीं मिलती, सिर्फ वाक़िया बयान करो और कुछ नहीं।

    ज़हूरन ने आरज़दा हो कर कहा, “अरे तो हुआ क्या बच्चे की एक चीख़ आसमान पर थी तो एक ज़मीन पर। कुछ ना समझ में आता था कि क्या किया जाये। इतने में ख़ुदा भला करे इनका, ये जो बी हमसाई बैठी हैं, इनके मियाँ को, इन्होंने बाहर के आवाज़ दी और पूछा कि क्या मुआ’मला है। मैंने इनसे दास्तान कह सुनाई। इन्होंने कहा, घबराओ नहीं, मैं अभी डाक्टर को लिए आता हूँ। वो ये कह के जाने को ही थे, कि ये निगोड़ा मेंह फट पड़ा और ठिटक के खड़े हो गए कि ज़रा पानी रुके तो मैं जाऊं। ऐसे आलम में तो डॉक्टर हकीम कोई ना मिलेगा। उधर भय्या की ये हालत थी कि जब कौंदा लपकता तो ऐसा मालूम होता कि जैसे कोई इसे कोड़े लगाता है। बस एक चीख़ ऊपर एक नीचे। बस इसी से समझ लीजिए कि इन हमसाई से इस की चीख़ ना सुनी गई और बेताब हो कर उसी पानी बरसते में, छतरी लगा के खिड़की पर आईं और चीख़ चीख़ कर खिड़की खुलवाई। उनको देखते ही भय्या उनकी गोद में चला गया और इस तरह सिसक सिसक कर रोने लगा, जैसे मुद्दतों के बिछड़े मिल के रोते हैं। इन्होंने लेते ही जैसे जादू कर दिया...”

    बी हमसाई अब तक ख़ामोश थीं, जादू के लफ़्ज़ पर चमक के बोलीं, “तो बीबी मैंने कोई जादू नहीं किया, बेगम साहबा की मार-धाड़, खींचा-तानी में बच्चे की कलाई की रंगें खिंच गई थीं। तुम में से किसी ने उधर ध्यान ही नहीं दिया था...”

    ज़हूरन ने फिर बात काटी, “ऐ अल्लाह जीता रखे। बेटा तुमने मेरे मुँह की बात लोक ली। मैं तो ख़ुद यही कहने वाली थी कि बच्चे खिलाते खिलाते मेरा चोंडा सफ़ेद होने को आया और इत्ती बात ना सूझी। तुमने जो ज़रा सा तेल कलाई में कल के उसे सेंक के लपेट दिया तो गोया जान में जान गई। फिर भी जब से तुम ही लिए बैठी हो, चीख़ तो बिलकुल कम हो गई, मगर बुख़ार इसी तरह है फिर तुमने कैसा कैसा बहलाया कैसा कैसा गाना सुनाया...”

    गाने का नाम सुनते ही मुझे बी हमसाई का पेशा याद गया और बे-साख़्ता मेरे चेहरे पर उन जज़्बात-ए-हक़ारत-ओ-नफ़रत के आसार नुमायां हो गए, जो मेरे दिल में उस पेशे की औरतों की तरफ़ से भरे पड़े थे। अल्लाह अल्लाह मैं और एक क़हबा का अहसान-मंद! मेरा घर और एक बाज़ारी रंडी, मेरा बच्चा और एक फ़ाहिशा की गोद...

    हमसाई ने मेरे चेहरे को ब-ग़ौर देखा। नज़रें नीची कर लीं और बच्चे को आहिस्ता से उठाकर माँ की गोद में दे दिया, ऐसा मालूम हुआ जैसे फूलों की सेज से उठाकर उसे कांटों के बिस्तर पर लिटा दिया गया। इसलिए कि भय्या ने एक बार आँखें खोल कर माँ का चेहरा देखा और फिर चीख़ने लगा। बेगम ने लाख जतन किए, चुमकारा प्यार किया। गले से लगाए उठ के खड़ी हो गईं, टहला टहला के लोरी देती रहीं, मगर बक़ौल ज़हूरन के उस की चीख़ “एक ऊपर थी तो एक नीचे।’’

    हमसाई अपनी जगह से उठ के कमरे के बाहर दालान के किनारे आकर खड़ी हो गई थीं, गोया इस इंतिज़ार में थीं कि पानी कम हो तो वो घर वापस चली जाएं। मैं अब तक उसी तरह भीगा खड़ा था। मुझे ग़ुस्सा भी था और डर भी। इस्ति’जाब भी था और तकलीफ़ भी, ग़रज़ इतने क़िस्म के जज़्बात ब-यक-वक़्त मेरे दिल में जमा थे, कि मुझे अपनी जिस्मानी अज़ीयतों का ख़्याल तक ना था। मेरा जी चाहता था कि हमसाई की ख़ुशामद करके भय्या को गोद में ले लेने पर राज़ी कर लूं। मगर अपने मासूम को एक मासियत परवर आग़ोश में देने से कराहत मा’लूम होती थी, मैं इसी हैसबैस में था कि मामता ने ख़ुद्दारी पर फ़तह पाई और बेगम ने हमसाई से गिड़गिड़ा के कहा, “बहन तुम फिर ले लो, ये तुम्हारी ही गोद में चुप रहेगा।’’

    हमसाई ने मेरी तरफ़ एक बार देखा। मेरा चेहरा भी बजाय हक़ारत-ओ-नफ़रत के अब आजिज़ी और ख़ुशामद के आसार ज़ाहिर कर रहा था। उन्होंने अपना आग़ोश फैला के भय्या को ले लिया और इंबिसात से गुनगुना के उसे चुमकारना शुरू किया। बच्चे की चीख़ में आहिस्ता-आहिस्ता कमी होने लगी, वो आँखें खोल के हमसाई का मुँह इस तरह तकने लगा जैसे वो उनकी ज़बान से किसी ख़ास चीज़ का सुनने का मुश्ताक़ है, हमसाई इस पर मुस्कुराईं और कुर्सी पर बैठ के उस की आँखों में आँखें डाल कर ग़ालिब की वही ग़ज़ल गाने लगीं,

    किसी को दे के दिल कोई नवासंज-ए-फ़ुग़ां क्यों हो

    ना जो जब दिल ही पहलू में तो फिर मुँह में ज़बां क्यों हो

    बच्चा इत्मिनान से मुस्कुराया और आँखें झपकाने लगा।

    मैं ख़ुद-फ़रामोशी की हालत में ये सब देख रहा था कि बेगम ने मेरा शाना हिला के कहा “ये भीगे कपड़े कब तक पहने रहिएगा?” मैं इस तरह चौंक पड़ा जैसे मैं गहरी नींद से जगाया गया हूँ, मुझे उस वक़्त अपनी हालत का ख़्याल आया। ये दूसरी बार एक ही शब में बुरी तरह भीगा था और दोनों बार सारे कपड़े जिस्म ही पर क़रीब क़रीब ख़ुश्क हो गए थे। सोया भी ना था। दिन भर का थका-माँदा भी था और भूका भी। मुझे उस वक़्त याद आया कि मुझे बड़ी देर से एक ग़ैर-मा’मूली ठंडक सी भी महसूस हो रही है। मैं जल्दी से दूसरे कमरे में कपड़े उतारने चला गया।

    मैं कपड़े बदल ही रहा था कि मुझे सख़्त सर्दी मालूम हुई। साथ ही कुछ चक्कर सा भी महसूस हुआ। मैं जल्दी से अपने पलंग पर के कम्बल ओढ़ के पड़ रहा। सर्दी बढ़ती ही गई। मेरे जिस्म पर घर भर की रज़ाईयाँ, दलाइयाँ और कम्बल ला के डाल दिए गए। मगर मेरी सर्दी कम ना हुई। यहां तक कि बेगम को बजाए “भय्या” के सारी तवज्जा मेरी तरफ़ मबज़ूल करना पड़ी और वो हमसाई के सामने ही सारी दलाइयाँ और कम्बल दबा के मेरी पीठ से लग के बैठ गईं। आध घंटे के सख़्त लरज़े के बाद मुझे तेज़ बुख़ार गया और मैं बेहोश हो गया।

    मुझे नहीं मालूम कि तीन दिन तक मैं किस आलम में था। किसी वक़्त एक सौ छे डिग्री से बुख़ार कम नहीं हुआ। सर सामी बिक झुक अलैहदा थी। बार-बार यही कहता था “मेरा बच्चा और बेसवा की गोद! भय्या और नापाक आग़ोश में! मेरा फूल और मैंले के ढेर पर! ये अशरफ़ से ज़लील शख़्स से मिलने का नतीजा है! हाय अब्बा जान ज़िंदा होते तो क्या कहते! गाने बजाने वाली रंडी और मेरा घर। मौलवियों का ख़ानदान, मुफ़्तियों का घराना!” हमसाई और अशरफ़ दोनों ने ये सर सामी बड़ बार-बार सुनी, मगर बाहर और अंदर ये दोनों मेरी और बच्चे की ख़िदमत में हद दर्जा ख़ुलूस से मुनहमिक-ओ-मशग़ूल रहे। अशरफ़ साहब डाक्टर को बुलाते थे। दवाएं लाते थे और रूपियों का बंद-ओ-बस्त करते थे, इसलिए कि घर में जितने रुपय थे वो सब ख़र्च हो चुके थे और बंक से बग़ैर मेरे दस्तख़त के निकल ना सकते थे। अंदर हमसाई की ये हालत थी कि दिन भर भय्या को लिए रहतीं और तीमारदारी और ख़िदमत में बेगम का हाथ बटातीं। बेगम तो कभी कभी थक के मेरे पास वाले पलंग पर सो जाती मगर उनका बयान है कि बी हमसाई ख़ाह दिन में सोई हो तो सोई हों। लेकिन तीन रातें तो इस अल्लाह की बंदी ने पलक से पलक नहीं मिलाई।’’

    चौथे दिन मुझे होश आया और सिविल-सर्जन जिसका ईलाज हो रहा था बोला अब “कोई ख़तरे का बात नहीं।“ दो दिन और अशरफ़ साहब बाहर और हमसाई अंदर दोनों मेरे मकान में आते-जाते रहे। तीसरे दिन हमसाई थोड़ी देर के लिए आईं। जब वो जाने लगीं तो बेगम इत्तिफ़ाक़ से उनसे बातें करती खिड़की तक चली गईं। जब हमसाई अपने मकान में पहुंच गईं तो उन्होंने खिड़की अपनी जानिब से बंद करके क़ुफ़्ल डाल दिया और किवाड़ों की आड़ से बोलीं-“बीवी अब माशा-अल्लाह भय्या जी अच्छा है और इस के बाप भी। मौलवी साहब को ज़ो’फ़ अलबत्ता है, वो भी दो-चार दिन में चला जाएगा। मगर मेरी इत्ती बात याद रखिएगा कि जिस दिन उनका ग़ुस्ल-ए-सेहत हो, तो बेसिन और साबून का ज़रा ज़्यादा इंतिज़ाम कीजिएगा और उनसे कह दीजिएगा कि अपने को और भय्या को अच्छी तरह से पाक कर लें। एक मेरी नापाक गोदों में हफ़्ता भर रहा है और दूसरे को मैंने अपने नजिस हाथों से कई बार छुवा है।“

    बेगम, “बहन, बहन, अरे खिड़की तो खोल बहन!” कहती ही रही, मगर उन्होंने एक ना सुनी। ये भी वहां से हद दर्जा रंजीदा पलट आईं और घर के किसी काम में लग गईं।

    इस वाक़िए के दूसरे ही दिन सुबह को, जब मैं उठा तो तबीयत चाक़ थी, महज़ ज़ो’अ्फ़ था और किसी किस्म की कोई शिकायत ना थी, मैंने उस दिन बेगम से घर की हालत और बीमारी की सारी कैफ़ियत सुनी, जब मुझे अपनी सर सामी बिक झुक की ख़बर मिली और ये मालूम हुआ कि अशरफ़ और हमसाई ने बावजूद इन तमाम बातों के, अज़ीज़ों से ज़्यादा मुहब्बत-ओ-मुवानिसत बरती, तो मुझे हद से ज़्यादा ख़जालत-ओ-निदामत हुई। मुझे इस रोज़ महसूस हुआ कि रज़ील-ओ-शरीफ़ का फ़र्क़ हद से ज़्यादा मुश्किल है और सोसाइटी के क़वानीन की पाबंदी में इफ़रात बाअज़ वक़्त ख़ुद हमें बद-अख़लाक़-ओ-बद-तह्ज़ीब बना देती है। चुनांचे मैंने हद दर्जा शर्मसार-ओ-मुनफ़इल होके बेगम से कहा, “लिल्लाह हमसाई को बुलाओ। मैं उनसे माफ़ी माँगूँगा। मेरी अख़लाक़ी हालत उनसे पस्त तर है। मुझे उनको ज़लील करने का कोई हक़ ना था।“

    बेगम ने खिड़की ख़ूब ख़ूब खटखटाई और “बहन बहन” कह के पुकारा मगर सदा-ए-ना-बर्ख़ास्त। मैं ने ज़हूरन से कहा कि इमामन को भेज के अशरफ़ साहब को बुलवाओ। वो थोड़ी देर में वापिस आया। मालूम हुआ वो लोग कल शाम ही को इस मकान से उठ गए।

    मैं अपने ज़ोफ़ की वजह से मजबूर था, वर्ना उसी वक़्त उन लोगों की तलाश में निकल खड़ा होता। दो दिन और इसी मजबूरी में गिरफ़्तार रहा। तीन दिन के बाद डाक से एक लिफ़ाफ़ा मिला। चाक करके पढ़ा तो लिखा था,

    “मुकर्रम मौलाना। तस्लीम। उम्मीद है कि आपका मिज़ाज अब बिल्कुल अच्छा होगा, बुख़ार तो हमारे सामने ही उतर गया था। सिर्फ ज़ो’फ़ था। यक़ीन है कि अब जब कि हमसाए से नापाक हस्तियाँ उठ गईं हैं तो वो भी जाता रहा होगा। भय्या अलबत्ता अपनी ख़ाला के लिए कुढ़ता होगा। मगर मैं क्या करूँ, मुझे उस से ज़्यादा तकलीफ़ है वो तो बचा है बहेल ही जाएगा मगर ख़ुद मेरे पहलू में ऐसा नासूर है कि जिसका इंदिमाल मुहाल है, मुझे उस की “ख़ाला” और आपकी “नई हमसाई” से उस से कहीं ज़्यादा मुहब्बत है और उसने महिज़ आपकी वजह से हम दोनों को छोड़ दिया। मैंने आपसे दरमयान-ए-गुफ़्तगू में एक बार कहा था कि मैंने इस सूरत की, इस गले की और इस दिल की रंडी नहीं देखी, सूरत तो आप ने देख ली है। आप ख़ुद ही फ़ैसला कर सकते हैं, गले-बाज़ी की हालत आप क्या जानें। मौलवी आदमी, मगर इतना तो शायद आपने भी देखा होगा कि भय्या कैसी ही तकलीफ़ में क्यों ना हो कितना ग़ुस्सा ही क्यों ना हो। जहाँ “ख़ाला” ने कुछ गुनगुना दिया और वो ख़ामोश हो जाता था। रहा दिल! हाय कैसे कहूं। आपको शायद यक़ीन ना आएगा। मगर उसने आज तक बा-क़ायदा पेशा नहीं किया, वो मुहब्बत की भूकी और अपने मादरी पेशे से मुतनफ़्फ़िर है। फिर इतनी मिलनसार। इतनी ख़ुश-खुल्क़, इतनी फ़ितरतन नेक है कि शायद ही कोई “शरीफ़ ज़ादी”, उस के मुक़ाबला में पेश की जा सके। बस इसी से समझ लीजिए कि आपकी और भय्या की बीमारी में मैंने रुपये नहीं ख़र्च किए हैं। मेरे पास इत्तिफ़ाक़ से एक पैसा ना था। इसी ने कई सौ रुपये अपने ज़ेवरात रहन रखकर दिए हैं। इस तरह की औरत और इस के साथ आपका ये ज़ालिमाना बरताव कि उठते बेसवा, बैठते क़हबा, वल्लाह दिल फट गया! जिस दिन वो आपके हाँ से आई है, उसी दिन शाम को वो मुझसे हमेशा के लिए क़त-ए-तअल्लुक़ करके माँ के हाँ चली गई। मैंने हाथ जोड़े, क़समें दीं कि मुझसे निकाह कर ले मगर उसने कहा “नहीं मैं बेसवा के घर में पैदा हुई, बेसवा ही बन के रह सकती हूँ। शरीफ़ नहीं बन सकती! ख़ुदा तौबा क़बूल कर सकता है मगर इन्सान नहीं बख्श सकता है, वो और उस के क़ानून, ख़ुदाई क़ानून से भी ज़्यादा सख़्त हैं। मैंने ग़लती की कि मैंने शरीफ़ बनने की कोशिश की। मुझे अपने किए का फल मिला। मुझे मौलवी साहब के बच्चे से मुहब्बत है। मैं तुम दोनों को कभी ना भूलूँगी। मगर मैं तुम दोनों को अब कभी गले नहीं लगा सकती। इसलिए कि मैं रज़ील हूँ और तुम शरीफ़, मैं नापाक हूँ और तुम पाक।“

    मैं उस दिन के बाद से इस वक़्त तक उस की माँ के कोठे के कोई दस फेरे कर चुका हूँ। मगर वो मुझसे ना मिली, उसने कहला दिया “समझ लें कि मर गई। मैं उनसे ज़िंदगी भर ना मिलूंगी!” मैंने इसी लिए ये हतमी क़सद कर लिया है कि चूँकि आप मेरे लिए इस “अज़ाब-ए-अलीम” का बाइस हुए हैं लिहाज़ा मैं भी आपसे ज़िंदगी भर ना मिलूँगा। मैं ये ख़त आपको इसी लिए लिख रहा हूँ ताकि आइन्दा आप मुझसे मिलने की कोशिश फ़रमाकर रंज ना पहुंचाएं। ज़ियादा वस्सलाम। ख़ैर तलब “अशरफ़।”

    मैंने उसी वक़्त फिटन कसवाई और भय्या को साथ ले कर अशरफ़ साहब के हाँ पहुंचा। जब इत्तिला हुई तो उन्होंने कहला भेजा मैं नहीं मिल सकता। जो लड़का पैग़ाम लाया था उस के हाथ में भय्या का हाथ दे दिया और कहा इसे उनके पास ले जाओ। भय्या जाने के लिए तैयार ना था मगर मैंने समझा बुझा के उसे अंदर भिजवा दिया। थोड़ी देर बाद अशरफ़ साहब बच्चे को गोद में लिए हुए बाहर आए और मुझसे मुँह फेर के हद दर्जा ग़ुस्से से बोले- “फ़रमाए क्या इरशाद है?” मैंने अपने सर से टोपी उतारी और उनके क़दमों की तरफ़ बढ़ाकर कहा “भई माफ़ कर दो!” और हम आबदीदा होके एक दूसरे से लिपट गए!

    जब आँखों में मचलते हुए आँसू पी चुका तो मैंने कहा “भई मैं इस की कोशिश करना चाहता हूँ कि ग़लतियों की तलाफ़ी हो जाए और बिछड़े मिल जाएं।“

    उन्होंने कहा “मगर उस के लिए आपको उसकी माँ के कोठे पर चलना होगा।“

    मैंने कहा, “मैं इस के लिए तैयार हो के आया हूँ। आप मेरी रहनुमाई करें, इंशाअल्लाह नाकामयाब ना पलटूंगा, आख़िर बी हमसाई ये तो देख लें कि मैं निरा मौलवी ही नहीं हूँ, बल्कि इन्सान भी हूँ!” ग़रज़ हम लोग फिटन पर सवार हुए और चौक पहुंचे और उम्र में पहली बार मैं सारे बाज़ार के सामने दिन दहाड़े अपने मासूम बच्चे को लिए हुए एक रंडी के मकान पर चढ़ गया। पांव में रअशा ज़रूर था और मेरी पेशानी पर पसीने के क़तरे यक़ीनी तौर पर मौजूद थे और मेरी आँखें शर्म से बिला-शुबा झुकी जाती थीं, मगर मेरा दिल हर ज़िल्लत के लिए आमादा था, मैं ख़ुश था कि आज मैं मुहब्बत-ओ-इन्सानियत की देवी के हुज़ूर में अपनी ख़ुद-बीनी-ओ-ख़ुद्दारी की क़ुर्बानी चढ़ा रहा हूँ।

    हम लोग एक तंग ज़ीने से हो कर एक छोटे से सेहन में पहुंचे। सामने वाले कमरे में एक अधेड़ औरत बैठी थी और उस के गले से चिम्टी हुई बी हमसाई रो रही थीं। हम लोगों के पांव की आवाज़ सुनके हमसाई माँ के सीना से आँसू पोंछती अलैहदा हुईं और मुझे देख के घबरा के खड़ी हो गईं, मैंने जल्दी से भय्या को गोद में उठाके उनकी तरफ़ बढ़ाया। उनका हाथ फ़ितरतन फिसल गया, मगर वो कुछ सोच के झिझकीं। मैंने कहा “ये अपनी ख़ाला की तलाश में यहां तक आए हैं।’’ बच्चे ने भी दोनों बाहें फैला दीं। बड़ी मुहब्बत से “ख़ाला! ख़ाला” कहा और हमसाई ने रोते हुए उसे आग़ोश में ले के गले से चिमटा लिया।

    बड़ी-बी ने अशरफ़ साहब से कहा “अशरफ़ मियाँ, बिटिया ने जब आपसे कह दिया कि वो अब आपसे नहीं मिलना चाहती तो फिर आप क्यों उसे परेशान करते हैं?”

    मैं ने आगे बढ़के कहा, “आप पहले मेरी दो बातें सुन लीजिए। फिर अशरफ़ साहब से कुछ कहियेगा।

    बड़ी बी बोलीं, “फ़रमाईए।’’

    मैंने कहा, “ये तो आप शायद जानती होंगी कि अशरफ़ साहब और आपकी साहबज़ादी से मुहब्बत है। वो उनसे निकाह करना चाहते हैं। माशा-अल्लाह रईस हैं, साहब-ए-जायदाद हैं, बिन ब्याहे हैं, एक से एक लड़की उन्हें मिल सकती हैं। लेकिन वो इन्हीं के गरवीदा हैं और इन्हीं के आशिक़ और वो भी ग़ालिबन उन से मुहब्बत करती हैं। क्या ऐसी सूरत में इन दोनों का अक़द बेहतर और ज़रूरी नहीं?”

    बड़ी बी बोलीं, “मियां मैंने कब कहा कि बेहतर नहीं, मगर ख़ुदा जाने क्यों वो अब इनसे नहीं मिलना चाहती, हालाँकि उन्हीं के लिए रोती भी है, कुढ़ती भी है...”

    हमसाई ने कहा, “अम्मां, अम्मां...”

    बड़ी बी बोलीं, “चल छोकरी, मैंने धूप में बाल सफ़ेद नहीं किए हैं। इस वक़्त मेरी बातों में दख़ल ना दे...”

    मैंने कहा, “आपकी साहबज़ादी को मेरी ज़ात से बड़ी तकलीफ़ पहुंची है। इसी लिए वो अशरफ़ साहब से भी ख़फ़ा हो गई हैं। मैंने उन्हें बेसवा और क़हबा कहा और उन्हें अपनी औरतों से ना मिलने दिया, वो उसी पर आज़ुर्दा हैं...”

    बड़ी बी बोलीं, “तो मियां आपने बड़ी ज़्यादती की, आप मुझे ये सब कह सकते थे मगर उसे नहीं। क़सम ले लीजिए जो सिवाए अशरफ़ मियां के...”

    मैंने घबराकर बात काटी और कहा, “तो मैं इसी लिए तो आज माफ़ी मांगने आपके कोठे पर आया हूँ...”

    मैं ये कह के हमसाई की तरफ़ पलट पड़ा। वो उस वक़्त तक भय्या को कलेजे से लगाए थीं, वो भी उनकी सूरत देख देखकर खुला जाता था और बस एक बात की रट लगाए था, “ख़ाला घर चलो! ख़ाला घर चलो।’’

    मैंने हमसाई से बहुत ही लजाहत से कहा, “बी हमसाई अब ख़ुदा के लिए मेरा क़सूर माफ़ कर दो, वल्लाह तुम मेरे ऐसे लाख शरीफ़ों से बेहतर हो! देखो भय्या तुमसे किस-किस तरह घर चलने को कह रहा है। तुम्हारी बहन सख़्त इंतिज़ार कर रही हैं। मुझे हुक्म है कि मैं तुम्हें ले ही के पलटूँ। मैं ख़ाली हाथ वापस नहीं जा सकता, फिर अपनी और अशरफ़ साहब की ज़िंदगी। मेरी ग़लतियों की वजह से क्यों बरबाद करो? तुम हम-साए में नहीं। मेरे घर चलो, तुम्हारी बहन अपने हाथों से तुम्हें दुल्हन बनाएँगी। मेरे ही घर से तुम्हारी शादी होगी। मेरे ही पड़ोस में तुम दोनों हमेशा रहोगे और मैं ज़िंदगी भर तुम्हें अपनी हक़ीक़ी साली और छोटी बहन समझूँगा और तुम्हारी ख़िदमत करूँगा।“

    हमसाई ने मेरे तरफ़ ताज्जुब से देखा। भय्या ने फिर कहा “ख़ाला घर चलो।’’ मैंने कहा,

    “देखो तुम्हारा भाँजा क्या कह रहा है। अगर मेरी बात नहीं मानतीं तो इस की बात मान लो।’’ हमसाई ने घबरा के माँ का मुँह देखा। वो बोलीं “बीबी मैं तुम्हारी बातों में दख़ल देना नहीं चाहती मगर इतना कहे बग़ैर भी जी नहीं मानता कि अशरफ़ मियां का सा चाहने वाला मियाँ और मौलवी साहब के ऐसे शरीफ़ हमसाए रन्डियों और कसबियों को नसीब नहीं होते!”

    मैंने कहा, “अशरफ़ साहब ख़ामोश खड़े हम लोगों का मुंह क्या देख रहे हो। किसी से कह के डोली मँगवाओ।’’ उन्होंने हमसाई की तरफ़ सवालिया नज़रों से देखा। उनकी मुस्कुराती हुई आँखों पर भय्या ने अपना फूल सा हाथ रख दिया। वो उस की इस शोख़ी पर खिलखिला के हंस पड़ीं।

    मैंने अशरफ़ साहब से फिर कहा, “अरे यार डोली मँगवाओ। तुम अब तक खड़े मुँह देख रहे हो!”

    बड़ी बी ने कहा “ऐ तो यूं ही, ना सिर में कंघा, ना बाल में तेल, ना ज़ेवर पहने, ना कपड़े बदले।’’

    मैंने कहा, “हाँ, हाँ यूं ही! मेरे घर में अल्लाह का दिया सब कुछ मौजूद है और फिर मैं तो बी हमसाई का क़र्ज़दार भी हूँ।’’

    बड़ी बी ने घबरा के मेरे तरफ़ देखा। हमसाई ने जल्दी से होंटों पर उंगली रख के मुझे कुछ कहने से मना किया और जल्दी से बोलीं, “तो डोली तो मंगवाइए।’’

    भय्या ने ख़ुश होके अपनी ख़ाला के मुँह पर मुँह रख दिया। गोया गुलाब पर गुलाब रखा था। किस की मजाल थी कि कहता एक नजिस है, दूसरा ताहिर, एक नापाक है, दूसरा पाक? मुहब्बत की शुआएं दोनों के चेहरों को नूरानी कर रही थीं और दोनों की आँखें रुहानी मुसर्रत से चमक रही थीं।

    मैंने दिल में कहा, “मौलवियाना-पन उन पर से क़ुर्बान और क़दामत-परसती उन पर से निछावर।’’

    स्रोत:

    Basi Phool (Pg. 86)

    • लेखक: अली अब्बास हुसैनी
      • प्रकाशक: मकतबा उर्दू, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 1942

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