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नीली साड़ी

MORE BYख़्वाजा अहमद अब्बास

    स्टोरीलाइन

    यह कहानी वेश्यालय से बरामद की गई एक लड़की के बयान के गिर्द घूमती है, जो फ़िल्म में स्टार बनने के चक्कर में एक वेश्यालय में पहुँच जाती है और जब वह वहाँ से भागने की कोशिश करती है तो उसके चेहरे पर तेज़ाब डालकर उसे जला दिया जाता है।

    बंबई: चौंतीस कमउमर लड़कियां तीन क़हबाख़ानों में से पिछले हफ़्ते बरामद की गईं। उनमें से तीन के चेहरे को ईज़ा पहुंचाने के लिए तेज़ाब से जला दिया गया था। पुलिस ने पाँच औरतों को रंडीख़ानों को चलाने और तवाइफ़ों की आमदनी पर रहने के जुर्म में गिरफ़्तार कर लिया है। (एक ख़बर)

    हुज़ूर। मैं सच कहूँगी, सब सच कहूँगी और सच के सिवा कुछ कहूँगी। मगर वक़्त है आपके पास और आपके समाज के पास मेरी बातें सुनने के लिए?

    मेरा नाम सलीमा है। मेरे वालिद का नाम... ख़ुदा उनकी मग़फ़िरत करे करीम बख़्श था। मेरे वालिद क्या करते थे। सच्ची बात ये हुज़ूर कि वो कुछ नहीं करते थे। किसी ज़माने में ज़मींदार थे। बाद में जब ज़मीनों पर सीलिंग लगी तो उनके बदले में जो मुआवज़े के काग़ज़ात मिले उनको बेच कर खाते रहे।

    मेरी जाये पैदाइश शिकोह आबाद की है।

    शिकोह आबाद यूपी का एक क़स्बा है। आगरे का क़स्बा क्या है पुराने खन्डर जैसे मकानों का एक मज्मूआ है।

    उन्हीं में से एक खन्डर जैसे मकान में मेरा जन्म हुआ था।

    मेरी माँ मेरी पैदाइश का बोझ बर्दाश्त कर सकीं। मेरे पैदा होते ही मर गईं बेचारी। फिर मेरे वालिद ने दूसरी शादी कर ली।

    मेरी सौतेली माँ का नाम करीमन था। वो ज़ात की नाइन थी। मगर शक्ल सूरत की ज़रा अच्छी थी। जब ही तो मेरे वालिद ने बीवी के मरने के दो महीने बाद ही उससे निकाह पढ़वा लिया। मुहल्ले वाले ये भी कहते थे कि उनका मुआमला करीमन के साथ पहले से चल रहा था।

    करीमन मेरी सौतेली माँ ज़रूर थी मगर ईमान की बात ये है हुज़ूर कि उसने कभी सौतेली माँ जैसा सुलूक नहीं किया मुझसे। इउकी अपनी कोई औलाद नहीं थी। इसलिए मुझे स्कूल पढ़ने भेजा। वो मुझे हमेशा सिनेमा साथ ले जाती थी और हर तरह के नाज़ उठाती थी।

    जब तक मैं पंद्रह बरस की हुई तो सिनेमा की पक्की शौक़ीन बन चुकी थी। सच बात ये है कि शिकोह आबाद जैसे मुर्दा क़स्बे में और कोई तफ़रीह की जगह भी तो नहीं थी। जब तक मैं कोई फ़िल्म देखती रहती तो ऐसा लगता कि मैं दूसरी दुनिया में हूँ। एक हसीन रूमानी दुनिया जिसमें सब मर्द ख़ूबसूरत थे। सिर्फ़ हीरो बल्कि विलन भी... और सब औरतें और लड़कियां हसीन थीं और सबने अच्छे अच्छे कपड़े पहने हुए थे। फिल्मों से मैंने बहुत कुछ सीखा। हुज़ूर मगर ख़ासतौर से ये सीखा कि अपनी ज़िंदगी की कठिनाइयों और महरूमियों से सिनेमा के अंधेरे में कैसे बचा जा सकता है और कुछ भी सीखा। मसलन हीरोइन की तरह कपड़े पहनना। उनके जैसे बाल बनवाना या कटवाना। उस ज़माने में मेरा माथा भी बड़ा था और फ़रंज यानी कटे हुए बालों की झालर मेरे चेहरे पर भी अच्छी लगती थी।

    अगले दिन ही मेरे ख़ालाज़ाद भाई महमूद अली ने जो मुझसे उम्र में पाँच छः बरस बड़े होंगे, पहली ही झलक में पहचान लिया कि मैंने 'लव इन शिमला' देखकर ही अपने बाल काटे हैं। इसलिए वो हल्के से मज़ाक़ में कहने लगे, क्यों सलीमा, 'लव इन शिमला' तो देखा 'लव इन शिकोह आबाद' के बारे में क्या राय है? इतनी बेशरमी की बात सुनकर मेरा सारा चेहरा गुलाबी हो गया। समझ में आया कि क्या जवाब दूं? मैं जल्दी से वहां से भाग गई। महमूद भाई भी दो चार फब्तियां कस कर वहां से चले गए। हाँ जाते-जाते इतना कह गए कि वह दो दिन के बाद अलीगढ़ जा रहे हैं। किसी को सिनेमा चलना हो तो उनके साथ वो कल चल सकता है। मैंने अम्मां से पूछा। मैं करीमन को अम्मां कहती थी, चलोगी अम्मां? अम्मां ने कोई बहाना कर दिया। अब्बा तो सिनेमा जाने को तैयार नहीं थे। अम्मां ने कहा, अपने घर का ही तो लड़का है तू उसके साथ चली जा, बुर्क़ा ओढ़ के।

    अगले दिन मैं महमूद भाई के साथ सिनेमा हो ली। रात का वक़्त था। वो भी आख़िरी दिसंबर की रात, कड़ाके की सर्दी थी। ताँगे में बैठी तो महमूद भाई पास बैठे थे। उनका हाथ जाने किस तरह मेरे बुर्के के अंदर आगया। मेरा हाथ अपने हाथ में लेते हुए बोले, उफ़, तुम्हारे हाथ तो बिल्कुल ठंडे हो रहे हैं, और अपने हाथों की गर्मी मुझे पहुंचाते रहे। थोड़ी देर में मेरे हाथ भी उनके हाथों की तरह जलने लगे।

    सिनेमा आगया तो वो ताँगे वाले को पैसे देकर मुझे अन्दर हाल में ले चले। मैं हैरान रह गई। जब मैंने देखा उन्होंने एक बॉक्स रिज़र्व कर रखा था। यहां हम दोनों अकेले थे। इसलिए फ़िल्म शुरू होने पर महमूद भाई ने मेरा बुर्क़ा उतार दिया और आहिस्ता-आहिस्ता उनका बाज़ू मेरे गर्द हमायल हो गया। फ़िल्म काफ़ी बकवास थी मगर हीरो-हीरोइन की मुहब्बत के बहुत सीन थे जो मेरे लिए काफ़ी दिलचस्पी रखते थे।

    जो नुक्ते मेरी समझ में नहीं आते थे, महमूद भाई का हाथ मेरी तर्बीयत करता रहा। एक सीन था जिसमें हीरोइन गिर पड़ती है। हीरो घबरा कर भागता है और ज़मीन पर बैठ कर पूछता है,

    चोट लगी है?

    हीरोइन मुँह बना कर कहती है, बहुत लगी है।

    कहाँ? हीरो पूछता है।

    यहां, वो टख़ने की तरफ़ इशारा कर के जवाब देती है। वो टख़ना दबाने लगता है।

    फिर वो कहती है, यहां और घुटने की तरफ़ इशारा करती है।

    वो घुटना दबाने लगता है।

    फिर वह कहती है, नहीं, वहां नहीं... यहां।

    कहाँ? वो पूछता है।

    वो अपने सीने की तरफ़ इशारा करके जवाब देती है, यहां।

    हीरो के हाथ बेइख़्तियार सीने की तरफ़ बढ़ते हैं... बढ़ते हैं फिर एक दम रुक जाते हैं। मगर महमूद भाई का हाथ नहीं रुका और मैंने भी लज़्ज़त भरे दर्द को महसूस कर के अपनी आँखें ज़ोर से भींच लीं।

    अगले दिन तो महमूद भाई अलीगढ़ चले गए और मैं उनकी याद को सीने से लगाए स्कूल चली गई। स्कूल से लौटी तो दरवाज़े पर ही मैंने बुर्क़ा उतारा और अंदर घुस रही थी कि बिंदु सक्क़े से मुड़भेड़ हो गई। वो अंदर से ख़ाली मशक कंधे पर लटकाए बाहर निकल रहा था और मैं अंदर जा रही थी। हम दोनों का मुआनिक़ा होते होते रह गया। दो पल के लिए हम एक दूसरे के मुक़ाबिल ठिठक कर रह गए। मैंने देखा कि सक्क़े का लौंडा मुझसे ज़रा ही बड़ा था और जिसके अभी मूँछें भी निकली थीं, मुँह फाड़े मेरी तरफ़ टकटकी बाँधे देख रहा है। मैं भला सक्क़े के लौंडे को कब ख़ातिर में लाने लगी थी। फिर भी घबराहट में उसको देखती की देखती रह गई। फिर चौकन्नी हो कर अंदर चली गई और ये वाक़िया दोपहर के सन्नाटे में खोया रहा। किसी ने हमको देखा नहीं था लेकिन नशा हुस्न में डूबी हुई मेरी ख़ुशी का क्या ठिकाना कि कल महमूद भाई जिस सूरत पर मर मिटे थे, आज उस सूरत को देखकर एक सांवला सलोना सक्क़े का लौंडा घनचक्कर हो गया था।

    सक्क़े के लौंडे को मैं कब मुँह लगाने वाली थी मगर मुझे ये अच्छा लगता था कि मेरे हुस्न के पुजारियों में एक का और इज़ाफ़ा हो गया था। उसके बाद जब भी मुझे मौक़ा मिलता मैं किसी किसी बहाने से बिंदु के सामने आजाती या उसे अपनी एक झलक दिखा कर फ़ौरन पर्दा कर लेती जैसे ग़लती से सामना हो गया हो। वो बेचारा तो ये उम्मीद ही कभी नहीं कर सकता था कि ये मुआमला आगे बढ़ेगा। एक शरीफ़ ज़ादी से छेड़-छाड़ की पादाश में अब्बा उसे मार मार के अधमुआ कर डालते। मगर इस आनाकानी में मुझे बड़ा मज़ा आता। वो मरे या जिये मुझे क्या ग़रज़?

    गर्मियों की छुट्टी में महमूद भाई फिर शिकोह आबाद आए।

    कभी ख़ाला अम्मां के घर जाने के बहाने हम उनके हाँ मिलते। कभी कुछ कुछ बहाना निकाल कर वो हमारे हाँ आजाते। कभी सिनेमा हम अम्मां को साथ लेकर चले जाते और कभी कभी हम ख़ुद ही सिनेमा चले जाते। उस दिन मैं नीली साड़ी पहनी, नीला मेरा महबूब रंग था और महमूद को भी बेहद पसंद था और तब बॉक्स में बैठ कर ही पिक्चर देखते। बल्कि पिक्चर बरा-ए-नाम ही देखी जाती।

    एक बार वो सक्क़े का लौंडा बिंदु हमें वहां मिल गया और मैंने महमूद भाई से कह दिया कि वो बेचारा मेरा शिकार हो गया है।

    बहुत ख़ूब, महमूद भाई बोले, तो शादी कर डालो।

    उससे शादी करे मेरी जूती।

    फिर किस से शादी करोगी?

    आपको मालूम है। मैंने उनकी आँखों में आँखें डाल कर बिल्कुल हीरोइन वाले अंदाज़ में कहा।

    फिर तो अम्मां से बात करनी ही पड़ेगी। वो हंसकर बोले।

    और मैंने उनके बाज़ू में घुस कर कुछ खुसुरफुसुर की।

    सच! फिर तो देर नहीं करनी चाहिए।

    हाँ महमूद, वर्ना मैं मर जाऊँगी।

    अरे, मरें तुम्हारे दुश्मन।

    उससे तीसरे दिन महमूद हमारे घर आया और अब्बा को बैठक में देखकर और अम्मां को सोता पा कर मुझसे आहिस्ता से बोले, अम्मां इनकार कर रही हैं।

    क्यों? मुझमें क्या बुराई है?

    तुम में कुछ बुराई नहीं है, मगर अम्मां कहती हैं ख़ाला करीमन नाई ख़ानदान से हैं। सक्क़े नाइयों में पठान लोग शादी करना नहीं चाहते।

    सक्क़े नाइयों का ज़िक्र क्यों किया?

    आहिस्ता बोलो! अम्मां उठ जाएँगी। सक्क़ों में शादी करने के तुम भी ख़िलाफ़ हो। होना?

    हाय अल्लाह अब क्या होगा? मुझे तो अभी से उबकाईयां आने लगी हैं। जाने कब भांडा फूट जाये।

    फ़िक्र क्यों करती हो मेरी जान? हम तो अभी नहीं मरे। बस दो-चार दिन इंतिज़ार करो। फिर मैं कोई तरकीब निकालता हूँ।

    और वो चला गया।

    उसके बाद मैं उससे कभी नहीं मिली। तीन दिन बाद जब बिंदु पानी की मशक डालने आया तो नज़र बचा कर एक लिफ़ाफ़ा मेरे पास से गुज़रते हुए डाल गया। इसकी ये हिम्मत? मैंने सोचा। मगर ख़त के ऊपर पता महमूद की लिखाई में था।

    मैंने अपने कमरे में दरवाज़ा बंद करके लिफ़ाफ़ा खोला। अंदर बस तीन सतरें थीं।

    जान-ए-मन। आज तुम आधी रात के बाद किसी ट्रेन से आगरा जाओ।

    मैं वहां तुम्हें मिलूँगा। वहां मैंने क़ाज़ी का इंतिज़ाम कर रखा है।

    तुम्हारा महमूद

    नोट: नीली सारी पहनना

    मैंने ख़त को कई बार पढ़ा। बिल्कुल 'मुस्लिम सोशल' की फ़िल्मी सिचुवेशन थी। मैंने भी वैसी ही तैयारी की जैसी 'मुस्लिम सोशल' फ़िल्म की हीरोइन करती है।

    दो तीन जोड़े कपड़े निकाले जो मेरे पास बेहतरीन थे। कॉटन की नीली सारी रात को पहनने के लिए निकाली। जो ज़ेवर भी मेरे पास थे उनको अटैची में रखा और सिरदर्द का बहाना कर के सवेरे ही से लेट रही।

    गर्मी की रातें थीं और चबूतरे पर मेरे वालिद और वालिदा सो रहे थे। मैं नीचे सेहन में अपने पलंग पर पड़ी थी। पास ही बुढ़िया फत्तू अपनी खाट पर बेहोश पड़ी थी। होश में होती भी तो क्या करती। बेचारी बहरी थी और आँखों में मोतियाबिंद उतरा हुआथा। सो जब रात के बारह बजे तो मैं चुपके से उठी। कोठरी में जा कर नीली सारी पहनी। बुर्क़ा ओढ़ा, अटैची केस हाथ में लिया और (नंगे-पाँव जूतीयां हाथ में उठाए हुए थे) बाहर निकल गई।

    गली के मोड़ पर पहुंची थी कि सामने बिंदु खड़ा दिखाई दिया। ये कम्बख़्त यहां इस वक़्त क्या कर रहा था? पास गई तो देखा कि वो तो मेरे रास्ते में अड़ा खड़ा है। बीबी जी, आप इस वक़्त कहाँ जा रही हैं?

    तुम कौन होते हो मुझसे सवाल जवाब करने वाले?

    ये समझ लीजिए कि आपके ख़ानदान का नमक खाया है। उस नमक का हक़ पूरा कर रहा हूँ। बीबी जी वापस चली जाईए।

    मैं बुर्क़ा में से मुँह निकाले दराती हुई सीधी चली गई। आख़िर वक़्त पर वो रास्ते से हट गया।

    बीबी जी... मत। वो वहीं खड़ा था इसलिए उसकी आवाज़ पूरी आई...

    बीबी जी...

    बीबी...

    फिर वो आवाज़ जो शायद मेरे ही ज़मीर की आवाज़ थी, आना बंद हो गई।

    स्टेशन पहुंच कर मैंने दो बजे वाली गाड़ी से आगरा का टिकट ख़रीदा और एक ज़नाना दर्जे में बैठ गई।

    आगरा पर हस्ब-ए-वादा महमूद मेरा इंतज़ार कर रहा होगा। इंतिज़ार की घड़ियाँ भी कितनी दिलचस्प होती हैं, वहां वो मेरे इंतिज़ार में स्टेशन की घड़ी देख रहा होगा कि चार बजें और गाड़ी वहां पहुंचे। और यहां मैं भी उसी इंतिज़ार का शिकार हूँ और चलती हुई ट्रेन के बंद शीशे में से मुस्तक़बिल की झलकियाँ मुझे नज़र आरही थीं।

    गाड़ी आगरा स्टेशन पर पहुँचती है।

    चलती ही गाड़ी में से मेरी नज़रें दराज़-क़ामत महमूद को ढूंढ निकालती हैं।

    महमूद, मैं आवाज़ देती हूँ।

    वो हल्की होती हुई ट्रेन के साथ साथ दौड़ने लगता है। डंडा पकड़ कर दर्जे में घुस आता है। सब लोगों के सामने भींच कर मुझे गले लगा लेता है।

    सलीमा! मेरी अच्छी सलीमा! तुम आगईं ना?

    उसकी एक दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी मुझे अपने गालों पर अच्छी लगती है।

    गाड़ी ठहर जाती है।

    वो मेरा अटैची केस सँभालता है। मुझे प्लेटफार्म पर उतारता है। गेट से बाहर निकलते हुए कान में कहता है, क़ाज़ी जी, हमारा बेचैनी से इंतिज़ार कर रहे होंगे। पूरे सौ रुपये का वादा किया है, उनको दूंगा इस बेवक़्त की शादी का।

    हम टैक्सी में बैठे और टैक्सी घड़घड़ करती हुई रवाना हो गई।

    रात के धुँदलके में शहर की रोशनियां अजीब अजीब लग रही थीं और टैक्सी ऐसी चलती है जैसे रेल चल रही हो। क्या लोहे के पहिए लगे हैं इसमें।

    अरे ये सब तो मेरा तख़य्युल था। अभी तो मैं ट्रेन ही में थी और उसकी घड़घड़ाहट मेरे कानों में। बाहर आगे के शहर की धुँदली रोशनियां हल्की होती हुई ट्रेन में से दिखाई दे रही थीं। इस बार ट्रेन एक झटके के साथ ठहर गई।

    मैंने नीचे उतरने के बाद पहले झांक कर देखा। मुसाफ़िरों की भीड़भाड़ में कोई तुर्की टोपी पहने हुए दूसरे सिरों के ऊपर से झाँकता हुआ दिखाई नहीं दिया। उतरने वाले मुसाफ़िर, चढ़ने वाले मुसाफ़िर, खोंचे वाले रेलवे बाबू घमसान का आलम था। कोई ताज्जुब नहीं कि इस भीड़ में कोई खो जाये।

    मैं जान कर खुले दरवाज़े में खड़ी रही ताकि मैं ख़ुद भीड़ में खो जाऊं और महमूद को दूर से देखकर पहचान जाऊं। मगर ट्रेन चलने लगी और महमूद आया। मैं चलती गाड़ी से उतर गई। अब प्लेटफार्म तक़रीबन ख़ाली हो चुका था।

    दूर दूर तक मुझे कोई नज़र नहीं आया...

    सिवाए एक पिस्ता क़द आदमी के जो मुझे घूर घूर कर देख रहा था। जो शायद इसी तरह हर अकेली लड़की को घूर कर देखता होगा। मैं जल्दी जल्दी क़दम बढ़ाती हुई ज़नाना वेटिंग रुम में दाख़िल हो गई। सोचा महमूद को भी शायद कहीं देर लग गई होगी। चंद मिनट में आता होगा। तब तक मैं मुँह हाथ धो कर ताज़ा दम हो जाऊं।

    वेटिंग रुम से बाहर निकली तो उसी पिस्ता क़द आदमी को घूरते देखा। वो मैली सी पतलून पर एक धारीदार बुशशर्ट पहने था। अब वो मेरी तरफ़ बढ़ा।

    मैं इधर उधर देखकर वापस जाने वाली थी कि वो आदमी बोला, सुनिए, मैं ठिठक कर रुक गई। सोचा शायद महमूद ने उसे मुझे लाने के लिए भेजा हो।

    आप किसी का इंतिज़ार कर रही हैं?

    जी हाँ।

    किस का?

    महमूद अली साहिब का। आप उन्हें जानते हैं?

    नहीं तो। मैं उन्हें नहीं जानता। मैं तो बोम्बे फ़िल्म कंपनी से इधर फ़िल्म स्टार के क़ाबिल लड़के और लड़कियां खोजने आया हूँ... आप देखने में क़बूल सूरत दिखाई देती हैं। मैंने सोचा शायद आपको दिलचस्पी हो?

    जी नहीं। मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है सिवाए महमूद अली साहिब से मिलने से। अगर कोई लंबे से साहिब किसी लड़की को ढ़ूढ़ने आएं तो आप मेहरबानी करके उन्हें इधर भेज दीजिए। ये कहा और मैं अन्दर चली गई।

    वो आदमी सिगरेट जला कर सामने टहलने लगा।

    मैंने कहने को तो कह दिया कि मुझे कोई दिलचस्पी नहीं मगर फ़िल्म स्टार बनने में किसे दिलचस्पी नहीं है। मैंने सोचा मुम्किन है ये आदमी झूटा हो... या मुम्किन है सच बोलता हो। महमूद आएगा तो उससे मश्वरा करूँगी। मगर सुबह से शाम हुई और महमूद नहीं आया।

    मैंने वहीं खाना मंगवा कर खाया।

    अब मैंने सोचा किसी वजह से अलीगढ़ जाना पड़ा होगा महमूद को। मुम्किन है यूनीवर्सिटी खुल गई हो। सो मैं रात की गाड़ी से अलीगढ़ के लिए रवाना हो गई।

    मुझे ये देखकर ताज्जुब हुआ। या शायद नहीं हुआ कि वो पिस्ता क़द आदमी भी उसी गाड़ी में सवार हुआ। मगर फिर उसने मुझसे कोई बात करने की जुरात नहीं की। अलीगढ़ के स्टेशन पर मैं उतरी। मुझे ताज्जुब हुआ, या शायद नहीं हुआ कि वो आदमी भी उतरा। रात का वक़्त था। मैं वेटिंग रुम में जा कर बैठ गई और सुबह का इंतिज़ार करने लगी। महमूद के होस्टल का पता मेरे पास मौजूद था। सुबह होते ही मैं एक साईकल रिक्शा पर सवार हो कर वहां पहुंची। यूनीवर्सिटी सुनसान पड़ी थी। उसके कमरे में अक्सर कमरों की तरह क़ुफ़ल लगा हुआ था।

    मगर बराबर का कमरा खुला हुआ था।

    उसमें से चिक हटा कर एक नौजवान बाहर निकला। मुझे देखकर उसकी बाछें खिल गईं।

    आप किसी को ढूंढ रही हैं शायद?

    हाँ, अपने कज़न महमूद अली ख़ां साहिब को।

    महमूद की कज़न हैं आप? पड़ोसी होने के नाते मेरा फ़र्ज़ है आपकी सेवा करूँ। वो तो अभी वापस नहीं आया। मैं ही अकेला होस्टल में हूँ। मेरा कमरा हाज़िर है। रिक्शा वाले को रुख़्सत किए देता हूँ।

    जाने क्यों उसकी आँखों की चमक मुझे अच्छी नहीं लगी और मैं जी नहीं शुक्रिया कह कर बरामदे से उतर कर रिक्शा में आकर बैठ गई।

    चलो वापस, स्टेशन।

    जब वापस पहुंची तो उस पिस्ता क़द आदमी को टहलते हुए पाया। शाम की ट्रेन से मैं शिकोहा आबाद चली आई। रात को पहुंची, वो आदमी भी उसी ट्रेन में सवार हुआ। मगर उसने मुझसे कोई बात नहीं की।

    रात को शिकोहा आबाद पहुंच कर ताँगे पर सवार हो कर मैंने गली के नुक्कड़ पर ताँगा को रुकवाया क्योंकि अब पैसे मेरे पास ख़त्म हो गए थे।

    सोचा घर जा कर माँ-बाप से कहूँगी। किसी सहेली के हाँ गई थी और उनसे ताँगे का किराया दिलवा दूँगी। मगर डेयुढ़ी तक ही पहुंची थी कि इरादा बदल गया।

    अंदर से अब्बा और करीमन बुआ की आवाज़ें आरही थीं।

    उस लड़की को कभी सौतेली बेटी नहीं समझा। अपनी बेटी से बढ़कर पाला और ये हमारे ख़ानदान की नाक कटवा कर बंबई चली गई फ़िल्म स्टार बनने।

    हाँ भई। तो मैं सिनेमा देखने को इसी लिए मना करता था। महमूद कहता था कि कब से उसके पीछे पड़ी हुई थी। उससे कहती थी दोनों साथ चलेंगे। तुम हीरो बनना, मैं हीरोइन बनूंगी। मगर वो शरीफ़ का बच्चा है। उसने मना कर दिया तो किसी और के साथ भाग गई है अब!

    दो-चार महीनों में ठोकरें खा कर आजाएगी, अपने चहेते बाप के पास।

    क्या मुँह लेकर आएगी। अब आई तो मैं टांगें तोड़ दूँगा उसकी...

    मैं यहीं तक सुन पाई थी कि मुझे फ़ौरन ताँगे का ख़याल आया। दबे पैरों वहां से लौटी।

    वापस स्टेशन चलो, ताँगे वाले से कहा।

    मगर रास्ते भर सोचती गई कि पैसा कैसे अदा करूँगी। शायद कोई ज़ेवर गिरवी रखना पड़े। मगर इस वक़्त रात को गिरवी कौन रखेगा?

    मुझे ताज्जुब हो... या शायद नहीं हुआ... कि पिस्ता क़द आदमी स्टेशन के बाहर ही टहल रहा था। उसने ताँगा रुकते ही उसका किराया चुका दिया।

    आपने अच्छा किया, वक़्त पर आगईं। मथुरा की गाड़ी आने वाली है। वहां से फ़रंटीयर मेल पकड़नी है हमें।

    उसने मेरा टिकट नहीं ख़रीदा। उसके पास मेरा टिकट पहले से मौजूद था। गाड़ी आने से पहले सिर्फ़ इतना कहा, आप मुझ पर भरोसा रखिए। आपको हाथ नहीं लगाऊँगा। ज़नाने डिब्बे में आप सफ़र करेंगी। आपको कंपनी वालों के सपुर्द करते ही मैं तो कलकत्ता चला जाऊँगा... कुछ बंगाली चेहरे भी लाने हैं।

    वो अपने क़ौल का पक्का निकला।

    मुझे ज़नाने दर्जे में सवार करा के ख़ुद मर्दाने दर्जे में बैठ गया। जब गाड़ी किसी बड़े स्टेशन पर रुकती थी तो चाय और खाने को पूछने जाता था।

    और हाँ एक बार बहुत से फ़िल्मी पर्चे मुझे दे गया और कहने लगा, अब देखिए, अगले महीने इन सबमें आपकी तस्वीरें छपेंगी। और मैंने सोचा महमूद इन सब पर्चों को पढ़ता है, देखकर कितना जलेगा।

    मैंने अटैची केस को तकिया बना कर बुर्क़ा रात को ओढ़ लिया। लेकिन बंबई पहुंचते पहुंचते अब वो ग़ैर ज़रूरी हो गया था। इसलिए मैंने उसे वहीं ट्रेन के डिब्बे में छोड़ दिया।

    बंबई पहुंच कर उसने मुझे टैक्सी में बिठाया। ख़ुद ड्राईवर के पास बैठा और कहा, मैरीन ड्राईव चलो।

    क्या कंपनी का दफ़्तर वहां है?

    हाँ यही समझो। स्टूडीयो तो हमारा दादर में है। ये सेठानी जी का फ़्लैट है। वो तुम्हें अपने पास ही रखना चाहती हैं।

    तुम्हारी कंपनी की मालकिन औरत है?

    हाँ। जब ही तो हम जब किसी लड़की को लेकर आते हैं तो रास्ते भर उसका ख़याल रखना पड़ता है।

    क्या नाम है तुम्हारी सेठानी का?

    मिस ललिता कुमारी। पहले वो भी हीरोइन होती थीं मगर किसी और नाम से काम करती थीं। अब ज़रा मोटी हो गई हैं, सो कंपनी खोल ली है।

    फ़्लैट के दरवाज़े पर बोर्ड लगा हुआ था, मिस ललिता कुमारी। फ़िल्म प्रोडयूसर।

    मगर मैंने देखा एक जंगला भी लगा हुआहै। दरवाज़े के बाहर गैलरी में जिसे एक चौकीदार ने खोला और फिर बंद कर दिया। क़ुफ्ल लगा दिया। मुझे ये देखकर ताज्जुब तो हुआ मगर मेरे पिस्ता क़द साथी ने इत्मिनान दिला दिया, सेठानी जी बहुत वहमी हैं। हमेशा चोरों से डरती हैं, कोई उनके हीरे जवाहरात चुरा कर ले जाये।

    एक बढ़िया रुम में ले जा कर बिठा या गया।

    पिस्ता क़द आदमी बराबर के कमरे में चला गया। दरवाज़ा बंद कर लिया।

    जाने क्यों मुझे यूं महसूस हुआ कि कोई मुझे देख रहा है, परख रहा है। मगर कमरा ख़ाली था कोई भी नहीं था। शायद ये मेरा वहम था।

    कुछ ही देर बाद दरवाज़ा फिर खुला और वही पिस्ता क़द आदमी एक मोटी औरत के साथ दाख़िल हुआ जो किसी ज़माने में बहुत ख़ूबसूरत रही होगी।

    अच्छा नीली सारी।

    जी। अच्छा गुडबाई और गुडलक।

    और ये कह कर वो आदमी चला गया।

    और सेठानी मेरी तरफ़ आईं। मुझे बड़े ग़ौर से देखा, फिरा उन के चेहरे पर मुस्कुराहट फैल गई।

    बड़े प्यार से मेरे सर को थपथपाते हुए कहा, अभी तो तुम थकी हुई हो कुछ खा-पी कर आराम करो। रात को तुम्हारा टेस्ट लेंगे। मुझे यक़ीन है तुम कामयाब होगी और ललिता कुमारी का नाम रोशन करोगी।

    ये कह कर उन्होंने ताली बजाई।

    एक नौकरानी एक ट्रे में कुछ मिठाई और दूध का गिलास ले कर आई।

    खाओ-पियो।

    आप नहीं खाएंगी?

    नहीं, मैं अभी खा-पी कर उठी हूँ। ये सब तुम्हारे लिए है।

    ये कह कर उन्होंने मिठाई की एक डली मेरे मुँह में डाल दी। कहने लगीं कि ये शगुन की मिठाई है। मिठाई का मज़ा तो अच्छा था मगर इसमें कुछ कड़वाहट मिली हुई थी। मैंने सोचा पिस्ता-ओ-बादाम शायद कड़वा होगा।

    फिर उन्होंने दूध का गिलास मेरी तरफ़ बढ़ाया।

    पियो मेरी जान, उन्होंने बड़े प्यार से दूध अपने हाथ से पिलाया। दूध ख़ुशबूदार था। गुलाब की सी ख़ुशबू थी। मगर साथ में हल्की सी कड़वाहट भी थी। सेठानी ने अपना हाथ हटाया जब तक मैंने दूध का गिलास ख़त्म कर लिया और फिर उनकी आवाज़ एक दूसरी दुनिया से आई, और भूल जाओ सब कुछ। अब तुम्हारी नई ज़िंदगी शुरू होती है...

    एक लामतनाही रात में एक डरावना ख़्वाब देखती रही।

    देखती हूँ कि एक हाथ मेरे बाप ने पकड़ा हुआ है। दूसरा हाथ मेरी सौतेली माँ ने।

    एक टांग महमूद ने पकड़ी हुई है।

    दूसरी टांग उस पिस्ता क़द आदमी ने जो मुझे बंबई लाया था।

    और सेठानी की निगरानी में मेरे बदन में ये लंबे लंबे आग के सुए घपोए जा रहे हैं।

    और मेरे बदन में से सारा ख़ून पानी बन कर निकल रहा है।

    जाने कितनी देर ये ख़्वाब देखती रही।

    उसके बाद जब होश आया तो मैं एक गद्देदार पलंग पर पड़ी थी।

    मेरे सर के नीचे एक मख़मली तकिया था।

    जब मैंने अपनी ठोढ़ी खुजाने के लिए अपना हाथ हिलाना चाहा तो मालूम हुआ कि हाथ बंधा हुआ है। दोनों हाथ बंधे हुए हैं टांग सिकोड़नी चाही तो टांग भी पाए से बंधी हुई है। दूसरी टांग भी, सर भी। उसी तरह किसी चीन से बाँधा गया है कि मैं सिर्फ़ सामने से देख सकती हूँ और पैराहन के बग़ैर आरामदेह सूली पर चढ़ा दी गई हूँ।

    इतने में सेठानी मेरे सामने खड़ी थी।

    कहने लगी, ऐश-ओ-आराम करोगी या तकलीफ़ उठाओगी, इसका फ़ैसला तुम पर है? देर या सवेर सब राम हो जाती हैं। तुम भी हो जाओगी। मगर अभी या कुछ और देर के बाद?

    मैं आपका मतलब नहीं समझी?

    मैं चाहती हूँ इस ख़ूबसूरत बदन को इन्सानियत को आराम पहुंचाने के लिए इस्तिमाल करो। जो मुजर्रिद हैं उनके लिए एक रात की बीवी बनो। जो अपनी बीवियों की बदसूरती से भागे हुए हैं उनके बदन को तस्कीन पहुँचाओ। जो सियासी, समाजी, इक़तिसादी ज़िम्मेदारियों में दबे हुए हैं उनका दिल बहला कर उनको इस क़ाबिल बनाओ कि वो हमारे समाज की ज़िम्मेदारियाँ उठा सकें।

    तुम चाहती हो कि मैं रंडी बन जाऊं। मैंने सवाल सेठानी से किया और अपने आपसे भी, अरे मैं माँ बनने वाली हूँ। माँ!

    तुम कभी नहीं बनोगी। इस बार भी नहीं, किसी बार भी नहीं। देखना चाहती हो ये ऑप्रेशन किस ने किया है? और बग़ैर किसी लोहे के आले के?

    इतने में उसके इशारे पर एक के बाद एक आदमी आता गया और मेरे पाइंती खड़ा हो कर मेरी निगाह के दायरे से ओझल होता गया।

    हिंदू, मुसलमान, सिख, क्रिस्चियन, पूरबी भय्या, मद्रासी।

    जाने कहाँ कहाँ से ये मुस्टंडे इकट्ठे किए गए थे...

    अब मुझमें चीख़ने चिल्लाने की ताक़त नहीं थी। मेरा कलेजा मुँह को आया और एक उबकाई के बाद मैंने क़ै कर दी और बेहोश हो गई।

    जब फिर होश आया तो मेरी बाक़ायदा ट्रेनिंग शुरू हुई।

    एक बार हुक्म की ख़िलाफ़ वरज़ी की सज़ा में कोड़े पड़े थे और खाना बंद।

    दो बार हुक्म की ख़िलाफ़ वरज़ी की सज़ा में मुँह काला कराना था।

    तीन बार हुक्म की ख़िलाफ़ वरज़ी की सज़ा एसिड मुँह पर फेंकना था। इसका मुज़ाहरा मेरे सामने एक मासूम बिल्ली पर कर दिया गया था जो एसिड से जल कर लोट-पोट कर वहीं मेरे सामने ढेर हो गई।

    मैंने एक दरख़्वास्त की कि मुझे ये बता दो कि उस पिस्ता क़द आदमी ने मुझे पहचाना कैसे कि ये घर से भागी हुई लड़की है। जवाब मिला, तुम्हारी नीली सारी से। तुम्हारे आशिक़ ने दो सौ रुपये लेकर ये इत्तिला दी थी कि इस ट्रेन से तुम आओगी और ये कपड़े पहने होगी।

    ये सुनने के बाद में तैयार हो गई। अब रह ही क्या गया था।

    अगर मैं बताऊं कि अगले छः बरस तक क्या हुआ तो एक किताब तैयार हो जाएगी।

    मेरे ग्राहकों में कौन नहीं था?

    अफ़्सर, बड़े बड़े ब्योपोरी, राजा, महाराजा, नवाब, फ़िल्म स्टार, फ़िल्म प्रोडयूसर, पहले मेरे साथ एक आदमी जाया करता था। रफ़्ता-रफ़्ता मुझ पर भरोसा होने लगा। फिर मुझे जो रुपया मिलता था उसमें से एक तिहाई अपने पास रखने की इजाज़त मिल गई।

    मैं अपना पुराना नाम भूल गई। नया नाम ही काफ़ी था। नीली सारी मेरे पास हर शैड की नीली सारियां थीं। शीफ़ोन की नीली सारी, कांजीवर्म की नीली सारी, जॉर्जट की नीली सारी... और सूटकेस के सबसे नीचे कॉटन की नीली सारी।

    एक दिन मुझे छुट्टी थी। (जुमा को ये छुट्टी मैं ज़रूर लिया करती थी)

    उस दिन जाने क्या हुआ कि मुझे जुहू जाने की सूझी और जाने क्यों मैंने वही पुरानी कॉटन की नीली सारी पहनी। जुहू पहुंच कर मैंने नारीयल का पानी पिया, भेल पूरी खाई। कोई मुझे जानता नहीं था और मैं अपनी गुमनामी का फ़ायदा उठा रही थी। इधर उधर घूमती रही।

    एक जगह एक आदमी रेत के पुतले बना रहा था। मैंने भी उसकी फैली हुई चादर में बीस पैसे फेंक दिये। उसके आगे को बढ़ी तो क्या देखती हूँ कि ज़मीन से दो उल्टी टांगें उग आई हैं। मालूम हुआ कि किसी बेचारे को उल्टा ज़मीन में गाड़ा गया है। पास ही चादर फैलाए एक आदमी पैसे इकट्ठा कर रहा है। मैंने उसे एक रुपया दिया और पूछा ये आदमी कब निकलेगा। उसने कहा सूरज छुपते उसे यहां से निकालूँगा। हिमालया पहाड़ की चोटी पर बरसों तपस्या की है तब जाकर ये कमाल हासिल कर पाया है कि शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सर दे कर दिन भर उल्टा लटका रहता है।

    मुझे जाने क्या सूझी कि सूरज जब समुंदर में डूबने लगा तो फिर वहां पहुंच गई।

    वो ढोंगी ढोल बजा रहा था। कह रहा था, देखो, देखो दुनिया का सबसे बड़ा कमाल। बारह घंटे रेत में दफ़न रह कर आदमी ज़िंदा हो रहा है...

    टांगों में हरकत पैदा हो रही थी और फिर वो आदमी जो एक नेकर पहने हुए था, निकल आया और मैं उसे देखकर हैरान रह गई। वो तो अपनी आँखों में से रेत निकाल रहा था। लोग तालियाँ बजा रहे थे। पैसे खना खन गिर रहे थे और मैं मुँह फाड़े देख रही थी। जैसे सचमुच कोई मुर्दा ज़िंदा हो गया हो और मैं एक मोजिज़ा देख रही हूँ क्योंकि मेरे सामने शिकोहाआबाद का वो सक्क़े का लौंडा खड़ा था, बिंदु।

    तालियाँ बजनी बंद हो गईं।

    लोग उमड़ते हुए अंधेरे में ग़ायब हो गए। बिंदु और उसका साथी पैसे बटोरने लगे। आधे उस आदमी ने लिये आधे बिंदु ने। फिर उस आदमी ने कहा, अच्छा बे, मैं चलता हूँ। कल ये तमाशा चौपाटी पर जमाएँगे।

    ये कहा और वो चलता बना।

    और मैं वहीं खड़ी बिंदु को देखती रही। वो भी मुझे देख रहा था।

    फिर वो आगे बढ़ कर मेरी तरफ़ देखता रहा।

    मैंने कहा, बिंदु।

    उसने कहा, जी बीबी जी।

    तुम शिकोहा आबाद से कब आए?

    छः साल हो गए।

    सब ख़ैरियत है?

    उसके चेहरे से पता चलता था कि सब ख़ैरियत नहीं है।

    अब्बा तो ख़ैरियत से हैं? मैंने कुरेद कर पूछा।

    अब्बा तो जन्नत को सिधारे।

    मैंने दिल ही दिल में इन्ना लिल्लाहे इन्ना इलैहे राजेऊन पढ़ा।

    यहां कहाँ रहता है?

    उसने कहा, महालक्ष्मी के पास एक झोंपड़ी में।

    मुझे वहां ले जा सकता है?

    बीबी जी... उसका चेहरा ख़ुशी और ताज्जुब से फटा का फटा रह गया।

    तुम्हारी बीबी साथ रहती है क्या?

    बीबी जी मेरी शादी नहीं हुई।

    फिर तो ठीक है... मैं तुम्हारे साथ रह सकती हूँ।

    उसका हाल तो ये था कि शादी-ए-मर्ग हो जाए।

    चलिए बीबी जी।

    चलो।

    सो हम महालक्ष्मी वाली झोंपड़ी में आगए। झोंपड़ी इन पाइयों से अच्छी थी जो सड़क किनारे फैले हुए थे और जिनमें बेघर लोग आबाद हो गए थे। और वो लोग उनसे अच्छे थे जो सड़क के किनारे फ़ुटपाथ पर सोने के लिए मजबूर थे। झोंपड़ी में एक टूटी फूटी खटीया थी। मैं उस पर ऐसी सोई जैसे दुनिया की ख़बर हो। छः साल के बाद मैं सचमुच की छुट्टी मना रही थी।

    सुबह को मैंने देखा बिंदु झोंपड़ी के बाहर सो रहा था।

    मैंने उसे उठाया।

    अंदर आया पूछा, मुझे तो बहुत अच्छी नींद आई। तुम भी अंदर क्यों नहीं आगए?

    बीबी जी। अंदर तो एक ही चारपाई थी और आप उस पर ऐसी थकी-हारी सो रही थीं जैसे एक बच्चा सो रहा हो।

    मुझे तो साथ सोने की आदत है। तुम ही आजाते।

    बीबी जी।

    नाम बताऊं दो चार के? और मैं बताने ही लगी थी। मगर उसने इतनी लजाजत से बीबी जी कहा कि मैं चुप रह गई।

    फिर वह कहने लगा, क़ाज़ी जी जब निकाह पढ़ा देंगे तब ठीक है।

    क़ाज़ी जी! मुझे बे-इख़्तियार हंसी आगई।

    क़ाज़ी जी! मैं हँसती रही।

    उसके चेहरे पर ऐसा भोलापन था कि मुझे उस पर ग़ुस्सा भी रहा था और हंसी भी रही थी।

    क्या तुम्हें नहीं मालूम कि मैं पिछले छः बरस से क्या करती रही हूँ?

    बीबी जी, मैं नहीं जानना चाहता।

    कि एक एक रात मैं...

    बीबी जी, ख़ुदा के लिए चुप रहिए। मैं नहीं जानना चाहता... क़ाज़ी जी निकाह पढ़ा देंगे फिर जो जी चाहे मुझे बता देना।

    क़ाज़ी जी! और मुझे फिर हंसी का दौरा पड़ गया और मेरे मुँह से निकल गया, क्या तुम समझते हो कि मैं एक सक्क़े के लौंडे से ब्याह करूँगी?

    ये सुनकर वो चुप हो गया और बाहर चला गया।

    दो घंटे के बाद खाने की चीज़ें लेकर आया और मेरे सामने रख दीं। बग़ैर एक लफ़्ज़ कहे अपना खाना बाहर ले गया और वहां ही खाया।

    मेरा जी तो अकेले खाने को नहीं चाहता था। फिर भी जब भूक लगी तो ज़हर मार कर लिया। सह पहर को वो आया और कहने लगा, मैं जा रहा हूँ। तुम झोंपड़ी का दरवाज़ा अंदर से बंद कर लेना। मेरे आने तक किसी के लिए खोलना।

    तुम कहाँ जाओगे?

    रोज़ी कमाने।

    सर रेत में दे कर उल्टे लटकने को तुम रोज़ी कमाना कहते हो।

    मैं जानती थी वो क्या जवाब देगा। मैं उस जवाब को सुनना चाहती थी कि वो कहे कि हर आदमी को अपने अपने ढंग से रोज़ी कमाना पड़ती है। कोई रेत में सर देता है कोई... मगर उसने कुछ नहीं कहा और चला गया।

    मैंने दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया और खटीया पर लेटी रही।

    थोड़ी देर में बाहर से सीटियाँ सुनाई देने लगीं।

    मैंने ऐसी सीटियाँ पिछले छः बरस में बहुत सुनी थीं। मैं उनका मतलब ख़ूब समझती थी। दो एक ने दरवाज़े पर ठक ठक भी की लेकिन किसी को हिम्मत हुई थी कि वो पुरानी लकड़ी का दरवाज़ा जो रस्सी से बंधा हुआ था लात मार कर तोड़ दे और अंदर चला आए। ग़रीब भी बुराई करते हैं और अमीर भी।मगर ग़रीब की बुराई में अमीरों की सी बेहयाई नहीं होती।

    वो रात को देर में आया और कुछ खाना साथ लाया।

    मैंने कहा, क्या हुआ?

    उसने कहा, वही जो तुमने देखा था। शायद तुम्हारे आने की बरकत है।

    बरकत! मेरे जी में आया कि कहूं कचोके क्यों देते हो। मगर उसने ऐसे भोलेपन से कहा था कि मैं चुप रही।

    उस रात मैं सोचती रही कि मैं ये क्या कर रही हूँ। फिर मैंने सोचा कि क्या कर रही हूँ। छुट्टी पर हूँ, छः बरस हो गए, मेहनत करते करते कुछ दिन तो छुट्टी करूँ... यहां झोंपड़ी में कौन मुझे ढ़ूढ़ने आएगा?

    बिंदु रोज़ दो तीन बजे जाता और रात गए आता।

    मैं उससे पूछती क्या हुआ?

    वो मुझसे पूछता कि मैंने क्या किया।

    ही उसने पहले दिन के बाद कभी क़ाज़ी जी की बात छेड़ी।

    वो अपने मैले कुचैले बिस्तर का ढेर लेता और बाहर जा कर बिछा देता। मगर वो मेरे लिए नई दरी, नई चादर, नया तकिया ले आया था। खटीया को भी ठोक पीट कर ठीक कर लिया था।

    मैं उस खटीया पर अकेली सोती थी।

    वो बाहर फ़ुटपाथ पर अकेला सोता था।

    इस तरह तीन हफ़्ते बीत गए।

    मेरी पड़ोस में दो तीन औरतों से दोस्ती हो गई। मैंने उन्हें बताया कि मेरे शौहर का इंतिक़ाल हो गया था और मैं बंबई में नौकरी ढ़ूढ़ने आई थी। यहां आकर बिंदु सक्क़े से मुलाक़ात हो गई थी जिसने अपनी झोंपड़ी में पनाह दी थी। झूट बोलने की मुझे आदत हो गई थी।

    फिर एक दिन उसे आने में देर हुई तो मैंने सोचा कि आज उससे कहूँगी कि तुम ये काम छोड़ दो। वो कहेगा, रोज़ी कमाने का एक ही ज़रिया आता है मुझे।

    मैं कहूँगी, मुझे भी रोज़ी कमाने का एक ही ज़रिया आता है। मगर मैं छोड़ने को तैयार हूँ।

    फिर वो कहेगा, क़ाज़ी जी को बुला लाऊं।

    मगर वो उस रात आया।

    अगले दिन आया।

    तीसरे दिन आया।

    मैंने पड़ोसी औरतों से कहा। उन्होंने अपने मर्दों से कहा। उन्होंने कहा, वो मालूम करेंगे। उस आदमी से पूछेंगे जिसके साथ वो काम करता है।

    रात को एक आदमी उनमें से आया और कहने लगा, बिंदु तो जेल में है।

    जेल में! क्यों क्या किया उसने?

    रेत में दफ़न होना ख़ुदकुशी के बराबर है। सिपाही को हफ़्ता नहीं खिलाया, इसलिए वो आत्म हत्या के जुर्म में पकड़ ले गया। दूसरा आदमी भाग गया। अब बिंदु जेल में है। ज़मानत पर ही बाहर आसकता है।

    कितनी ज़मानत देनी होगी?

    दो हज़ार रुपये। उस आदमी ने कहा जैसे दो लाख रुपये हों। मगर मैंने सोचा, इससे कहीं ज़्यादा तो मैंने बचा कर रखे हैं। शायद पाँच छः हज़ार तो होंगे। मगर वो तो पेडर रोड वाले फ़्लैट में हैं। (हमारी जाये रिहायश बदलती रहती थी)

    मैं इसी शाम को पेडर रोड वाले फ़्लैट में पहुंची। मुझे देखते ही ललिता कुमारी आग बगूला हो गई।

    मैं तो समझी थी तू मर गई या कोई भगा कर ले गया तुझे।

    मैंने आवाज़ को क़ाबू में करते हुए कहा, मैं जा रही हूँ। अपना रुपया लेने आई हूँ।

    ये कह कर में अंदर अपने कमरे में गई और अपना सूटकेस खोल कर रुपये और अपना ज़ेवर निकाला। ये कर ही रही थी कि अचानक मैंने देखा कि एक मुस्टंडा पीछे खड़ा है हाथों पर लंबे लंबे काले रबड़ के दस्ताने चढ़ाए हुए। हाथ में एक बोतल है जिसमें मुझे मालूम था तेज़ाब रहता है।

    क्या कर रही है हरामज़ादी?

    छः साल के बाद आज जाने कहाँ से मुझमें हिम्मत आगई। मैं बोली, अपना रुपया और ज़ेवर ले जा रही हूँ और देखती हूँ, कौन मुझे रोकता है?

    उस बदमाश ने अपने सडे हुए दाँतों की नुमाइश करते हुए कहा, तो जाओ मेरी जान।

    और जब मैं उसके पास से गुज़रने लगी तो उसने मेरे मुँह पर तेज़ाब का वार किया।

    जानती थी तेज़ाब का असर क्या होगा। मैं दो एक औरतों को देख चुकी थी जो अपना गला सड़ा चेहरा लिये अपनी ज़िंदगी के आख़िरी दिन इस चकले में गुज़ार रही थीं क्योंकि कहीं और वह अपना मुँह दिखाने के क़ाबिल नहीं रह गई थीं, मगर मैं तो मरने के लिए ही तैयार थी क्यों इस ज़ालिम को भी साथ लेती जाऊं। मैंने अपने चेहरे की नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त अज़ीयत के बावजूद उसके हाथ से बोतल छीन कर उसके सिर पर दे मारी। बोतल टूट गई और आधा तेज़ाब जो इस में था वो इस आदमी के चेहरे पर गिर पड़ा। एक ग़ज़ब की चीख़ उसके मुँह से निकली और उस चीख़ का निकलना था कि उसके खुले हुए मुँह में भी तेज़ाब गिर गया और वो आदमी फिर चीख़ सका।

    मेरा मुँह जल रहा था। फुंक रहा था, मगर वो रुपया और ज़ेवर अब भी मेरे हाथ में था। उसे लेकर में बाहर आई तो देखा कि पुलिस की रेड हुई है। ललिता कुमारी बड़े ठस्से से सोफ़े पर बैठी पुलिस इन्सपेक्टर से बात कर रही थी। इन्सपेक्टर साहिब, मेरी तो डांस क्लास की अभी छुट्टी है। इसलिए लड़कियां अपने अपने घर जा रही हैं... आपको कुछ ग़लतफ़हमी हुई है... क्या मंगाऊँ आपके लिए... ठंडा या गर्म?

    इन्सपेक्टर साहिब।

    अब मैं उनके सामने खड़ी थी और तेज़ाब मेरे मुँह पर बह रहा था और मेरे गोश्त के लोथड़े लटक रहे थे। इससे पहले कि मैं बेहोश हो जाऊं... या शायद मर जाऊँ। मैं एक बयान देना चाहती हूँ।

    बस हुज़ूर यही सब कहा था इस बयान में मैंने। मेरा चेहरा जिस पर पट्टियाँ बंधी हैं अब इस क़ाबिल नहीं है कि आप देखें लेकिन एक ज़माना था लोग इस चेहरे की तारीफ़ करते नहीं थकते थे। बस मुझे यही कहना है आपसे...। अब इजाज़त दीजिए।

    बिंदु मेरा इंतिज़ार कर रहा है।

    वही एक आदमी है जो इन्सान का चेहरा नहीं देखता। इस चेहरे के पीछे जो रूह है उसको देखता है और अब मैंने फ़ैसला कर लिया है कि मुझे उसके पास जाना है क्योंकि क़ाज़ी साहिब हमारा इंतिज़ार कर हैं।

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