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नियॉन साइंज़

अल्ताफ़ फ़ातिमा

नियॉन साइंज़

अल्ताफ़ फ़ातिमा

MORE BYअल्ताफ़ फ़ातिमा

    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसी लड़की की कहानी है जो अपने साथी के साथ एक सर्द, अंधेरी रात में सड़क पर चली जा रही है। वह एक जानी-पहचानी सड़क है, मगर उससे गुज़रते हुए उन्हें डर लग रहा है। उस सड़क पर एक विशाल बरगद का पेड़ भी है, जिसके मुताल्लिक़ उस लड़की का साथी उसे एक दास्तान सुनाता है जब उसने उसके पास उस नियॉन साइंज़ को देखा था, जिसमें ढेरों गोल-गोल दायरे थे। दर हक़ीक़त वे दायरे कुछ और नहीं बल्कि ज़िंदगी की शक़्ल पर उभरे हुए धब्बे थे।

    और अब हमने सरमा की सर्द और अँधेरी रातों में लौरंस जाना छोड़ दिया है और इस बात का मुझे क़लक़ भी बहुत है। पूछो! वो क्यों?

    यूं कि लौरंस की ठिठुरी हुई काली रातों में रात की रानी की आवारा महक और लाँबे लाँबे घने और उम्र रसीदा दरख़्तों के मुहीब साये बहुत याद आते हैं।

    घुप-अँधेरे में ऊंचे दरख़्तों और बेचिराग़ लैम्प पोस्टों से घिरी पुख़्ता स्याह रविश और दूर दरख़्तों के कुंज में से टिम टिम नज़र आती तूरत मुराद शाह के मज़ार के देवों की रोशनी बहुत हैबतज़दा कर दिया करती थी। नामालूम सी दहश्त की एक ख़ुन्क और जमा देने वाली लहर सारे वजूद में दौड़ जाया करती थी।

    और ख़ौफ़-ओ-दहश्त इन्सान के लिए कितनी अहम और ज़रूरी शय है कि इन्सान ख़ौफ़ ज़दा हो तो बहुत फैलता है और आदमी से आदमी दूर भागता है और जब वो दहशत-ज़दा होता है तो वो सिकुड़ता है और एक दूसरे के बहुत क़रीब होना चाहता है।

    हाँ तो हम अपनी साँसों और आहटों से डरते लरज़ते जिमख़ाने वाली सड़क पर चलते चलते पंजाब क्लब की जानिब निकलते। क्लब हाल के शीशों से छनछन कर आती रोशनी और सायों के सिवा एक आवाज़ भी सुनाई देती और हमें ख़ूब मालूम होता था कि अंदर ताशों की बाज़ी और व्हिस्की के पैग पर बिज़नस पैकेट तय हो रहे होंगे, लेन-देन के मुआमले और खु़फ़ीया मुआहिदे ज़ोर-शोर से किए जा रहे होंगे।

    व्हिस्की के एक पैग के गर्दिश में आने और किसी औरत के इधर से उठकर उधर बैठ जाने पर लाखों और हज़ारों के वारे न्यारे हो रहे होंगे।

    और हमें ये भी ख़ौफ़ मालूम होता था कि अब लोग शराब पी कर बदमस्त नहीं होते, बेख़ुद होने की बजाय अपनी बिज़नस के सारे मुआमले उसी आलम में करते हैं और अगर लोग शराब पी कर बदमस्त होजाया करते तो उन्हें एल.एस.डी ईजाद करना पड़ती थी।

    फिर भी इस सड़क पर आकर ख़ून जमने लगता और हर लहज़ा यूं मालूम देता जैसे कोई अभी झूमता झामता पड़े गा। क़दम तेज़ उठते, सांस तेज़ तेज़ चलती और हम सर्दी में यख़ हुई गाड़ीयों में बे आरामी से सोए हुए ड्राईवरों को देखते और उनसे भी डरते जल्द जलद क़दम उठाते इस गेट पर निकलते जिसके ऐन मुक़ाबिल आर्ट कौंसिल की इमारत है और जिसके साथ बरगद का घना और इतना ज़बरदस्त दरख़्त है कि उसकी जड़ों की क़ुव्वत ने पुख़्ता और शफ़्फ़ाफ़ सड़क के साथ साथ वाली फ़ुटपाथ को जा जा से शिक़ कर दिया है और वो एक बहुत बड़े जड़ीले कार्नीकल की सूरत में उभर आई है और इस दरख़्त तले आते ही हमारे क़दम ठिटक जाया करते थे। बरगद का दरख़्त, तड़खी हुई फ़ुटपाथ, बरगद के तने में उभरे हुए फोड़े और मोखले, उसकी घनी मुहीब डालों के अँधियारों से लटकती जटाएं, यानी बरगद की डाढ़ीयाँ, ख़ामोशी और मुहीब अंधेरा। वक़्त थम जाता, ज़माने की पायलें बज उठतीं। बरसों पुरानी ज़िंदगी छमछम रक़्साँ नज़र आती... गए वक़्तों के क़ाफ़िले क़तार दर क़तार गुज़रते और उस बूढ़े बरगद के रेशे रेशे में ख़लीए ख़लीए में कितने अह्द ख़्वाबीदा होते और कितने नए ज़माने अंगड़ाई लेते महसूस होते। तारीख़ सर-बरहना खड़ी होती।

    और ये सारी तिलिस्मात अंधेरे और तारीकी की थी।

    हर शब यही कुछ होता!

    दास्तानी अंदाज़ में बोलते बोलते वो अचानक यूं ख़ामोश हो गई, जैसे किसी पहाड़ी चशमे के सोते क़तरा-क़तरा टपकते टपकते अचानक ख़ुश्क होजाएं।

    तब उसने अंधेरे कमरे में सड़क के लैम्पपोस्ट की शीशों में से छन कर आती रोशनी की मद्धम लकीरों से क़ायम होने वाली रोशनी में टटोल कर थ्री कासल की सब्ज़ डिब्बी निकाली, टटोल कर सिगरेट निकाल कर रोशन किया और डिबिया आगे सरका दी।

    पीना हैं?

    फिर वो अंधेरे में हंसी।

    मैंने सिगरेट का कोई ब्रांड मुक़र्रर नहीं किया है। कार्लटन से लेकर के और के टू तक सारे के सारे मेरे ही ब्रांड हैं। अलबत्ता माचिस का ब्रांड ज़रूर मुक़र्रर है कि मैं हमेशा और हर काम के लिए फ्लावर बास्कट माचिस इस्तिमाल करती हूँ कि उसकी तीली लकड़ी से नहीं, मोमियाए हुए काग़ज़ से तैयार की जाती है और मेरे नज़दीक लकड़ी को आग दिखाना गुनाह है।

    लकड़ी जो दरख़्त होती है, जो बर्ग-ओ-बार लाती है और दरख़्त जितना पुराना होता है उतना ही ख़ामोश, पुर वक़ार और मेहरबान होता है। कहते हैं, कभी इन्सान भी पुर वक़ार और मेहरबान हुआ करता था।

    हाँ तो फिर क्या हुआ। एक दम ही दास्तानी अंदाज़ फिर लहजे पर ग़ालिब आगया था। एक रात यूं हुआ...

    एक सिरे पर बरगद का दरख़्त था और दूसरी तरफ़ विक्टोरिया गेट और उसके आगे दीवारों से घिरा हुआ रास्ता यानी चिड़ियाघर की सड़क।

    तो क्या हुआ कि उस शब बरगद तले वक़्त की छागलें ख़ामोश रहीं, उसकी एक भी पायल बजी। अगले और पिछले ज़मानों के सारे क़ाफ़िले गुम थे। जैसे किसी ने भूले से रात की बजाय दिन को कोई कहानी सुना दी हो और सारे ज़माने रस्ता भूल गए हों।

    और हमने चौंक कर देखा तो विक्टोरिया गेट के नुक्कड़ पर कोका-कोला का एक बहुत बड़ा सा नियोन साइन नस्ब था। एक बड़ा सा गोल दायरा और उसके अंदर कई दायरे। हर दायरे का रंग दूसरे से मुख़्तलिफ़ था। हर दायरे का अपना अलग रंग था और सारे दायरों पर हावी। कोका-कोला का नाम था। ये सारे दायरे, गाह जल उठते और गाह बुझ जाते। आँखों में चकाचौंद सी हुई, नज़र तिलमिलाई।

    उस तरफ़ बरगद का पुराना दरख़्त था और इस तरफ़ मेसन हाल की तारीकी की मुतलाशी पुर इसरार इमारत। हमारे इस हाथ को वापडा बिल्डिंग का प्याले नुमा सब्ज़ रोशनी से लबरेज़ क़ुब्बा था और उससे कुछ आगे, अलफ़लाह की रोशन जबीन और उसकी नियोन साइन्ज़ से दमकती पेशानी पर सर्विस शो वालों का बार-बार लपकता हुआ जूता। हद हो गई थी...

    हमारे अह्द की रातें सोगवार और मातम कुनाँ थीं। तुमने रातों की ख़ल्वतों पर छापे मारे हैं। पहले तुमने हमारी अजानों के इसरार गुम किए। माईक्रो फ़ोन की लहरों पर करख़्त आवाज़ों में दी जाने वाली अजानों में कोई भेद और कोई राज़ बाक़ी रहा और अब तुमने हमारी रातों के सुहाग भी लूट लिये।

    और शबों का तक़द्दुस तो उनकी अफ़्सुर्दगी, उनकी ज़ुल्मतों और हैबत से इबारत है।

    अब हमारी रातों में सुकूत बाक़ी है और ज़ुल्मतें। इन्सान अब रातों को भी इतना ही निडर है, जितना वो दिन को था।

    नियोन साइन्ज़ ने रात की चादर को पारा-पारा कर दिया है।

    आह ये नियोन साइन्ज़... रात के जिस्म पर चमकते हुए दाग़... मुझे उनसे ख़ौफ़ आता है और उनके नज़्ज़ारे से मेरी ये आँखें दर्द करने लगती हैं।

    फिर उस रोशनी में इन्सान कुछ भी तो नहीं देख सकता और इस दुनिया में कितनी बहुत सी चीज़ों को इंतिज़ार होता है कि उनकी तरफ़ देखा जाये। मगर नियोन साइन्ज़...हमें तारीकी और ज़ुल्मतों की ज़रूरत है...कि बहुत सी रोशनी नज़र को खैरा कर देती है।

    वो फिर अंधेरे में हंसी और अजीब बात है कि इतनी बहुत सी पगली और बे सर-ओ-पा बातें करने के बावजूद उसकी हंसी में ज़रा भी पगला पन था।

    और पता है क्या होता है, जब हम बहुत देर तक चौंधिया देने वाली रोशनी की तरफ़ देखते हैं तो वो हमारी आँखों में बस जाती है। हम आँखें बंद भी करलें तो भी इन बंद आँखों में वो रोशनी दर आती है।

    और पता है क्या हुआ...शायद ये नियोन साइन्ज़ मेरी आँखों में समा गई हैं। ये हर घड़ी रंगत बदलती और अंधेरे-उजाले से आँख-मिचोली खेलती हुई मेरी आँखों में बस गई हैं।

    जब ही तो मैंने ये नियोन साइन्ज़ इन्सानी चेहरों पर जलती बुझती देखी हैं। अब उसकी आवाज़ पर वहशत थी।

    देखो मुझे लगता है... नहीं नहीं लगता क्या है ये हक़ीक़त है। मैं क्रैक हो गई हूँ, मुझे लगता है कि जैसे मेरे दिमाग़ का एक हिस्सा ज़रूर ख़राब है।

    मैं रोशनी कर लूं? उसके साथी ने घबरा कर पूछा।

    तुम रोशनी करके क्या पाओगे, जबकि अंधेरे और उजाले में फ़र्क़ ही नहीं रह गया। उजाले अब इतने अनक़ा तो नहीं। अब तो रातें भी अँधेरी नहीं होतीं।

    तारीकी में सिगरेट का रोशन सिरा बुझ जाने वाली शम्मा के गुल की तरह दमक रहा था।

    फिर भी रोशनी कर लेने में क्या हर्ज है। तुम यूं सदा अंधेरे में तो नहीं बैठ सकतीं।

    तुम रोशनी कर लो।

    तब उसने बत्ती जलाई और वो ये देखकर हैरान रह गया कि वो निहायत मुतमइन और बाहोश नज़र आरही थी। उसको इत्मिनान सा हुआ और हैरत भी।

    अरे!

    अरे का क्या मतलब, तुम्हें किस बात पर हैरत हुई!

    कुछ नहीं। उसने बात बनाई, तुम्हारे गिर्द क़लम है, काग़ज़ हैं, ब्रश है, रंग और रोग़न हैं। तुम क्या एक वक़्त में दो काम करती हो।

    दरअसल, मैं कुछ भी नहीं करती हूँ। जब हम सब कुछ करना छोड़ देते हैं तो अपने इर्द-गिर्द बड़ा तुमतराक़ इकट्ठा करलेते हैं और लवाज़मात का एक जाल बुन लेते हैं। अच्छा, अब तुमने असल बात कहने से गुरेज़ करके दूसरी बात क्यों की थी। इसलिए कि तुमने ये नहीं कहना चाहा था कि अरे तुम तो ज़रा भी पागल नहीं नज़र आरही हो। नहीं, मैं पागल नहीं हूँ, लेकिन मेरे दिमाग़ का एक हिस्सा ज़रूर ख़राब है। जब ही तो मुझे महसूस होता है कि मेरे इर्द-गिर्द, मेरे जानिब कारों और उन लोगों के चेहरों पर जिनसे में ख़ूब और अच्छी तरह वाक़िफ़ हूँ, ये बड़े बड़े से बोर्ड आवेज़ां हैं जो घड़ी घड़ी रंग बदलते और जलते बुझते हैं और अब ये हाल है कि मैं किसी को भी नहीं पहचान पाती। अब हर शख़्स अजनबी और हर घड़ी नया नज़र आएगा, लोगों की मुहब्बतें, वफ़ाएं, नफ़रतें और सारे उसूल घड़ी घड़ी बदलते हैं।

    कौन क्या था? और अब क्या है?ये फ़ैसला मुश्किल हो जाएगा।

    कभी कभी मुझे यूं लगता है, मैं यहां अजनबी हूँ और अपनी बस्ती से नावाक़िफ़।

    जैसे मेरी बस्ती खोई गई हो... मेरे रस्ते गुम हो गए हूँ...

    चेहरे बहुत जल्द जल्द अपने रंग बदल रहे हैं, यगानगत और बेगानगी के फ़ासले ख़त्म हो चुके हैं। एक एक इन्सान के बेशुमार रूप मुझे अपने मुहीत में ले रहे हैं।

    तब उस की आँखों की चमक से घबरा कर उसने एक-बार और इल्तिजा की, मैं रोशनी गुल कुर्दों। बत्ती बुझा दूं।

    हाँ, ज़रूर। उसने फ़ौरन जवाब दिया। अंधेरे और ज़ुलमात में बड़ा तहफ़्फ़ुज़ और बड़ी यकसानियत है। अंधेरे बड़े पर्दापोश होते हैं।

    बत्ती बुझी तो वो चौंक कर पूछने लगी, हाँ, तो में क्या कह रही थी?

    क्या बहुत ज़रूरी है कि इन्सान कुछ ना कुछ कहता ही चला जाये?

    हाँ, कम से कम उस के लिए बहुत ज़रूरी है जिसे हर चेहरे पर छोटे बड़े बे-हिसाब दायरे नज़र आते हैं। घड़ी घड़ी जलते बुझते, रंग बदलते और तमाम दायरों पर मुहीत कोई ना कोई इश्तिहार नुमायां और ख़ूबसूरत हुरूफ़ में लिखा हुआ। अब इन्सान किस-किस से कहे और किस-किस को जताता फिरे कि मैंने तुम्हारे कौन कौन से और कितने रूप देखे हैं और ये बताओ! कि तुम्हारा कोई सच्चा और अपना रूप भी है।

    अब गए दिन की बात है कि मैंने वो चेहरा देखा जिससे में बहुत वाक़िफ़ थी औरमैं ने उसे बहुत देखा था और अब मैं तुम्हें क्या बताऊं कि वो कितना बदला और मैंने इस पर कितने दायरे और कितने रंग देखे। हद तो ये है कि इस पर लिखे हुए इश्तिहार भी घड़ी घड़ी बदलते थे और इस चेहरे के मुक़ाबले में कोकाकोला का वो नीवन साइन कितना बेहतर लगा था कि जिसके दायरे घड़ी घड़ी रंग बदलते और जलते बुझते थे लेकिन कम से कम एक चीज़ तो मुस्तक़िल और बरक़रार थी कि इस पर मुस्तक़िल कूका कोला का इश्तिहार आवेज़ां था।

    और अब क्या तुम्हारा ख़्याल है कि मुझ पर ये फ़र्ज़ था कि मैं अपनी इस वाक़िफ़ और दोस्त को ये बताती कि मुझे तुम्हारे चेहरे पर मुख़्तलिफ़ दायरे नज़र आए हैं और सितम बाला-ए-सितम ये कि इस पर कोई मुस्तक़िल किस्म का इश्तिहार भी तहरीर नज़र नहीं आया है।

    नहीं, ये बात दरुस्त नहीं। किसी को इस के बारे में बताना और जताना बड़ा ख़तरनाक और ग़ैर मुनफ़अत बख़श सौदा है। दूसरों के पर्दे फ़ाश करना हम पर लाज़िम नहीं... कि ख़ुदावंद सितार अलओब है। वो ख़ुद पर्दापोश है और उसने इन्सान को नीवन साइन्ज़ अता किए हैं कि वो अपने चेहरों को निक़ाब अन्दर निक़ाब रखें।

    लेकिन ये बात भी है कि देखने वाली नज़र का ख़्याल ना किया कि ये घड़ी घड़ी जलती बुझती रोशनीयां नज़र पर ज़ुलम करती और बड़ा दुख देती हैं और बसा-औक़ात नज़रों में समा कर रह जाती हैं, कि में इस रात को बहुत खोजती और नहीं पाती हूँ कि जिस रात मैंने बरगद तले से खड़े हो कर विक्टोरिया गेट के नुक्कड़ पर झिलमिल करते कोकाकोला के इस नीवन साइन को देखा था और फिर उस शब के बाद उजाले और अंधेरे ने अपने आपको उनके मुहीत में महसूर पाया।

    लौरंस की रात अब भी वैसी ही सर्द, ख़ामोश और अँधेरी हैं और रविश-रविश रात की रानी की आवारा महक भटकती है। अब सभी जम-ख़ाने और पंजाब कलब के बाहर शीशों से छिनछिन कर आने वाली रौशनियों की तारीकी के पर्दे चाक करने की नाकाम कोशिशों में मसरूफ़ नज़र आती हैं। अब भी वहां ताश की बाज़ीयों और औरतों के उलट-फेर से मुआमले और सौदे तै होते हैं। लोग बढ़िया सूटों में मलबूस, बढ़िया शराबों के जाम हाथों में उठाए अपने चेहरों पर नीवन साइन्ज़ के बोर्ड आवेज़ां किए हंस बोल रहे हैं और रात गए या सुब्ह-ए-काज़िब के धुँदलके में कोई बैरा उन को नियम बे-होशी के आलम में घसीट कर उनकी गाड़ीयों में डाल देता होगा और ड्राईवर का शाना हिला कर उस को बेदार करता होगा। उन्हें ले जाओ कि उनके मुआमले और सौदे मुकम्मल हो चुके हैं।

    वक़्त दबे क़दमों यूँही अपने कामों में मसरूफ़ रहेगा और मैं शायद अंधेरे और ज़ुल्मतों की आफ़ियतों की तलाश में यूँही बे कुल रहूंगी। मेरे इर्दगिर्द नीवन साइन्ज़ के बोर्ड किसी दरख़्त की डालूं पर तेज़ी से बढ़ते हुए पत्तों के इज़ाफ़ी और ज़रबी अमल की सूरत में बढ़ते जाऐंगे और कहते हैं जब दरख़्त नाक़िस पत्तों और डालूं का बोझ उठाए उठाए उकता जाता है, तब ख़िज़ां के क़दमों की आहट सुनाई देती है और ख़िज़ां के दामन में बहारों से कई गुना ज़्यादा रंग होते हैं। पत्ते पत्ते का रूप बदलता है। पत्ते पत्ते का रंग जुदा होता है। तुमने देखा है कभी फ़स्ले खिज़ाँ का वो दौर, जब पता पत्ता रंग बदलता है और फिर धीरे धीरे तमाम रंग आपस में गुड मिड होते हैं तो मुकम्मल और भरपूर ख़िज़ां आती है।

    और ये कहें फ़स्ले खिज़ाँ तो नहीं।कहीं तुमने ख़िज़ां के पांव की चाप तो नहीं सुनी!

    नहीं ठहरो! पहले में अपनी खिड़कियाँ और दरवाज़े मज़बूती से बंद करलूं। तब तुम कोई जवाब देना। अच्छा छोड़ो! मुझे नींद आरही है।मैंने तकिया पर सर रख लिया है।

    और अब तुम भी सो जाओ!

    इस के साथी ने इस की नींद में डूबी आवाज़ को आख़िरी बार सुना।

    और बहुत देर बाद मुकम्मल सुकूत को महसूस किया। बजुज़ धीरे धीरे आती हुई नरम नरम साँसों के।

    खिड़की के शीशों में से छिनछिन कर आती हुई रोशनी में इस के चारों तरफ़ बिखरे हुए काग़ज़ थे और बुला कैप का एक क़लम था जिसकी रोशनाई शायद ख़त्म हो चुकी थी और सिगरेटों की राख से लबरेज़ दानी, बरशश, रंग-ओ-रोग़न। खिड़की के शीशों में से आती हुई मद्धम रोशनी अपने साथ दरख़्तों की डालूं के जो साय लाई थी, वो दीवार पर मद्धम और पुरासरार नक़्श उभार रहे थे।

    फिर उसने उकता कर खिड़की का पर्दा हटा दिया रखड़की के पट खोल कर देखा, सामने कोका-कोला का एक नीवन साइन घड़ी घड़ी जल बुझ रहा था।

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