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पवित्र सिन्दूर

अली अब्बास हुसैनी

पवित्र सिन्दूर

अली अब्बास हुसैनी

MORE BYअली अब्बास हुसैनी

    स्टोरीलाइन

    यह कहानी आज़ादी से पहले देश में किसानों की दुर्दशा की दास्तान बयान करती है। ज़मीन पर खेती करने को लेकर 1942 में रामू का ज़मींदार से झगड़ा हो गया था और उस झगड़े ने एक आंदोलन का रूप धार लिया था। उस आंदोलन में उसने अपने जवान बेटे को खो दिया था। आखिरकार आज़ादी की सुबह आई और रामू को उसकी ज़मीन वापस मिल गई।

    रामू और उसका ख़ानदान उस वक़्त क्यारी में भद्दएं का बेहन बैठा रहा था। अगस्त की आख़िरी तारीखें थीं, रात-भर ख़ूब मेंह पड़ा था। मिट्टी की कच्ची दीवारें कट कट कर गिर गईं थीं। फूंस के छप्पर भीग कर दोहरे हो गए थे। गाओं के तालाबों, गढ़ों में मैले, गंदे पानी की चादर अब भी गिर रही थी। मेंढक ख़ुशी से बेक़ाबू हो कर बेसुरी आवाज़ों में अलाप रहे थे। पौ फट रही थी, हवा ज़रा तेज़ हो गई थी। इसलिए पानी का ज़ोर कम होने लगा था। काले-काले बादल आगे वाले मोर्चे पर चढ़ाई के लिए बढ़ते चले जा रहे थे। बिजली चमक-चमक कर उन्हें कोड़े लगा रही थी। उसकी रौशनी में रिमझिम बरसने वाली पानी की बूँदें जुगनू की तरह चमक उठतीं। कभी ऐसा महसूस होने लगता, जैसे आब-ए-रवां के गहरे धानी रंगे हुए दुपट्टे पर रुपहले सितारों की एक घनी टेढ़ी लकीर टाँक दी गई है।

    यही वजह तो थी कि रामू, बीवी और बहू और बेटी समेत क्यारी में घुसा धान रोप रहा था। रामू की उम्र कुछ ऐसी ज़्यादा थी। यही चालीस पच्चास के दर्मियान। लेकिन उसके अक्सर दाँत टूट गए थे। उसके चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई थीं और वो दोहरी हड्डी वाला होने पर भी कमर से झुक गया था। उसकी सूखी पिंडलियाँ और उसकी नंगी पीठ पर लंबे सफ़ेदी माइल दाग़ इस बात के गवाह थे कि वो भूका भी रखा गया है और बेदों से मारा भी गया है।

    उसकी बीवी रजिया पैंतीस छत्तीस बरस की थी। नाक नक़्शा भी अच्छा था। रंग भी काला था। इसमें वो कस बल भी था जो जवानी की ख़ुसूसियत है। लेकिन इस वक़्त हस्ब-ए-मंशा काम करने की उमंग से उसका उज़्व उज़्व फड़क रहा था और उसकी धंसी धंसी आँखें चमक रही थीं।

    दस बरस की धनिया एक पंखुड़ी थी। माइल-ब-सिपाही, गंदुमी रंग, नाचती हुई शरबती आँखें, बूटा सा क़द, दुबली पतली लेकिन उसमें बिलकुल एक तितली जैसी चुलबुलाहट थी और एक नीलगूं भँवरे जैसी भनभनाहट थी और गोल मोल बुधिया रामू की बहू, यक़ीनन जवान थी लेकिन बेवा होने की वजह से वो ताज़गी खो चुकी थी जो नए सुहाग की अलामत है। उसकी क़ता बिलकुल ख़ाक पर पड़ी हुई गूलर की थी। अंदर रस भरा हुआ लेकिन जिल्द में तो चमक चिकनाहट।

    रामू ने सर पर एक पगड़ी बांध रखी थी और छोटी सी धोती को रानों तक चढ़ा लिया था। औरतों ने सारी का आँचल लपेट लिया था और आगे चुने हुए हिस्से को समेट कर पीछे खोंस लिया था। उनकी भरी और सूखी पिंडलियाँ पानी में डूबी हुई थीं। उनके हाथ कोहनियों तक कीचड़ में अड़े हुए थे। रामू आधे से ज़्यादा खेत में हल चला चुका था। पानी ज़मीन के चाक को गोया मरहम लगाकर बराबर करता जा रहा था। रजिया और बुधिया अपनी मुट्ठी का बेहन खेत की मिट्टी में मुंतक़िल करने के लिए तैयार खड़ी थीं। यहाँ ये सूख जाता वहाँ वो बढ़ेगा फलेगा, कटेगा, कूटा जाएगा और फिर चावल बन कर हज़ारों इन्सानों के पेट भरेगा। कितना क़ातिल है हमारा हाथ और कितनी ज़िंदगी बख़शने वाली है ये हक़ीर मिट्टी।

    बेहन मेंढ़ पर रखा था, छोटी धनिया भी खड़ी थी कि दौड़ कर जाये और उसे लॉकर माँ और भौजी के हाथों तक पहुँचा आए। वो इस दरमयान में मुड़-मुड़ कर भी देख लेती कि चार बरस का भतीजा कमल की तहों में छिपा और ताड़ के पत्तों से ढका अब भी सो रहा है कि नहीं।

    आज पूरा घर खेत पर था। वो घर में कैसे अकेला छोड़ दिया जाता। फिर वही तो इस खेत खलियान का होने वाला वारिस था। उसको तो इसी कीचड़, मिट्टी और पानी में पूरी ज़िंदगी बिताना थी।

    दफ़’अतन सूरज की सुनहरी थाली का एक टुकड़ा पूरब में झलका। रात की काली सारी पर सुनहरी लेस टकी। पूरा खेत सुनहरी रंग में नहा गया और नागौरी बैलों के कंधों पर लगी हुई ज़रदी नए कंगन की तरह जगमगा उठी। रामू ज़रा सा मुस्कुरा दिया। पगड़ी टेढ़ी करके उसने बीवी को देखा और हल्के-हल्के झूम कर ललकारा।

    “धनिया की माँ सो रही हो क्या। अब सुरू (शुरू) क्यों नहीं करतीं।”

    झुकी हुई रजिया तन कर खड़ी हो गई। उसने हाथ चमका कर कहा, “तुमसे खुद (ख़ुद) काम होता नहीं और इलजाम देते हो दूसरों को। तुम खेत से बैल निकालो।”

    रामू ने कहा, “अरे तुम इधर सुरू (शुरू) करो ना। मैं जो बाकी है वो अभी खत्म किए देता हूँ।” उसने बैलों की दुम एँठी। “आओ रे बेटो साबहस!” और बेल तेज़ चलने लगे। बैल के चलने की वजह से पानी में “हड़बड़, हड़बड़” की आवाज़ धनिया का छप-छप दौड़ना, रामू का बैलों को बार-बार चुमकारना, ललकारना। रजिया का मियाँ के मुक़ाबला में जल्दी करने से दम फूलना, इन बुड्ढों के बालक पन पर बुधिया की खिल खिलाहट हल्का-हल्का मेंह, ठंडी हवा और ऐसे में तारीकी को हटाती, दबे-पाँव आती हुई रैशनी, फिर मेंढ़ पर ढेर “बेहन” का सब्ज़ादार लहकना और दूर के भीगे हुए दरख़्तों पर चिड़ियों का चहचहाना, एक अजीब दिलकश मंज़र था। रामू इस क़दर ख़ुश था कि वो दिल ही दिल में एक देहाती गीत गाने लगा इतने में बुधिया ने हारती हुई सास की दिलदही के लिए कहा, “अरे काहै हलकान हो काकी। जल्दी काहै की है अब तो अपना ही खेत है।”

    और रामू को वो ज़माना याद गया जब खेत अपना था। १९४२ए- में जून का महीना था कि ज़मींदार ने कहा, “धान की क्यारियाँ छोड़ दो। महेन्द्र हमें नज़र भी दे रहा है और तुमसे दुगना लगान भी। अब ये क्यारियाँ वही जोतेगा रामू ने ख़ुशामद की गिड़गिड़ाया, वो अकड़ते ही चले गए। आख़िर उसे भी ग़ुस्सा गया। उसने कहा...

    “बाप दादा के समय से ये क्यारियाँ हमारी दख़ीलकारी में हैं। हम पर कभी लगान बाक़ी रहा। आप उसे हमसे निकाल नहीं सकते।” वो उनकी गालियाँ और घुड़कियाँ सुन कर घर चला आया। लेकिन रात-भर ये सोचता रहा कि क्या सूरत हो कि बरसात से पहले ही वो खेतों पर हल चढ़ा दे। इत्तेफ़ाक़ से ऐसा हुआ कि या तो कहीं दूर दूर बादल का नाम था या दफ़’अतन बारह बजे रात को हवा चली और उत्तर से घिर कर घटाऐं आईं। तीन घंटे इस तरह टूट-टूट कर पानी बरसा कि सारे में जल-थल हो गया। रामू ने मेंह रुकते ही बेटे, बीवी, बहू, बेटी, सबको साथ लिया और उसी वक़्त पानी से भरी क्यारियों में हल चलाया और धान छिड़क दिया। ये सारे काम इस फुर्ती से किए गए कि सुबह के धुँदलके से पहले ही सारा कुन्बा घर पलट कर आराम से लेट रहा।

    सुबह को जब ज़मींदार को ख़बर हुई तो वो बहुत जिज़बिज़ हुए। उन्होंने महेन्द्र से कहा कि वो जाकर खेत पल्टा दे। वो अपना पूरा जत्था साथ ले कर आया। लेकिन दूसरे किसानों ने लानत मलामत की और वो उस वक़्त गाओं वालों का पास करके वापिस चला गया। लेकिन दस ही दिन बाद जब धान के पौदों ने पतली पतली गर्दनें निकाल कर एक ज़मुर्रदीं फ़र्श से ढक दिया तो महेन्द्र और उसके साथियों ने सारी क्यारियों में मवेशी डाल कर उन्हें कुचलवा और चिरवा डाला। वो सुबह भी कितनी ग़मआलूद थी जब एक पड़ोसी ने रामू को झिंझोड़ कर जगाया और ये सुनानी सुनाई कि उसकी सारी क्यारियाँ बर्बाद हो गईं और उसकी मेहनत पर पानी फिर गया। उसके बेटे राम प्रशाद की तो ये हालत थी कि वो ग़ुस्से से अपनी बोटियाँ नोचता और बार-बार लाठी उठा कर कहता, “आज मैं महेन्द्र को मार डालूँगा, उसने हमारी रोज़ी हमसे छीन ली।”

    रामू ने बड़ी मुश्किल से उसे रोका था और उसे साथ लेकर शहर की तरफ़ चला था कि थाने में रपट लिखवाएगा, कचहरी में दावा करेगा और रास्ते ही में ख़बर मिली कि महात्मा जी रात के अंधेरे में चोरों की तरह पकड़ लिए गए और सारे नेता एक-एक करके क़ैद कर लिए गए। राम प्रशाद और रामू क़ौमी ग़म-ओ-ग़ुस्से में निजी ग़म-ओ-ग़ुस्सा भी भूल गए। सब के साथ वो भी सोचने लगे कि “हत्यारे अंग्रेज़” बातों से नहीं मानेंगे। उनको लाठी ही दरुस्त कर सकती है। उनसे हुकूमत ज़बरदस्ती छीनना पड़ेगी। ख़बर देने वाला एक मजमा था। मालूम हुआ कि ये सब पास वाली तहसील पर क़ब्ज़ा करने और ज़ालिम थानेदार को गिरफ़्तार करने जा रहे हैं। रामू अकेला होता तो शायद इस तरह की दहश्त अंगेज़ी में हिस्सा लेने के लिए तैयार होता। लेकिन जवान बेटा भी साथ था। आज सुबह से वो मारने मरने पर तुला था। उसको कैसे अकेला छोड़ा जा सकता था। वो भी भीड़ के साथ बह गया। वहां थानेदार को पहले ही ख़बर मिल गई थी। उसने थाने की छत पर और खु़फ़िया कमीन गाहों में मुसल्लह सिपाही बिठा रखे थे। मजमे के तेवर देखते ही उसने गोलियों की बारिश कर दी। पाँच सात तो वहीं ठंडे हो गए और बीसियों ज़ख़्मी हो कर तड़पने लगे। उन लोगों में से जो पहले गोली का निशाना बने, राम प्रशाद भी था। रामू उसे तड़पता और कराहता हुआ कंधे पर लाद कर जल्दी से बग़ल वाले खेत में भागा। उम्मीद थी कि ज़ख़्म शायद कारी लगा हो, लेकिन जब उसने अपने बेटे को ज़मीन पर लिटाया तो वो मर चुका था। रामू की आँखों में सारी दुनिया तारीक हो गई। वो जिससे उसका ख़ानदान चलने वाला था, वो जिसे उसने ग़ुर्बत मैं हज़ारों दुख सह कर परवान चढ़ाया था, वो जिससे उसकी मुस्तक़बिल की सारी उम्मीदें वाबस्ता थीं। यूँ चश्मज़दन में जान तोड़ दे और वो कुछ कर सके। फिर वो अपनी बीवी, उसकी माँ को क्या जवाब देगा? वो अपनी बहू, उसकी जवान बेवा को, कैसे मुँह दिखाएगा।

    गोली चल रही थी, मजमा ढेले फेंक रहा था। गालियाँ दे रहा था। थाने पर छिड़कने के लिए मिट्टी के तेल का इंतेज़ाम कर रहा था। शोर था, चीख़ थी, कराह थी, लेकिन रामू एक बुत की तरह बेटे की लाश के सिरहाने बैठा रहा फिर वो एक-बार उठा, उसने राम प्रशाद की लाश फिर कंधे पर लादी और लाठी टेकता हुआ दरिया की तरफ़ चला। गंगा थाने की पुश्त पर दो फ़र्लांग के फ़ासले पर बह रही थी। वो हाँफ्ता हुआ ये क़ीमती बोझ किनारे लाया। चारों तरफ़ नज़र डाली, कहीं सूखी लक्कड़ी नज़र ना आई। उसने हाथ जोड़ कर “माता” को सलाम किया, लड़के की पेशानी चूमी और उसे गंगा की गोद में दे दिया।

    वो पहले तो आहिस्ता आहिस्ता थाने की तरफ़ चला, उसका बेसाख़्ता जी चाहता था कि वो भी किसी तरह ख़ून में रंग जाये, शायद खोया हुआ राम प्रशाद उसी सूरत में मिल सकेगा, मगर दफ़’अतन उसे बीवी और बहू याद आईं। दोनों मुंतज़िर होंगी, दोनों देर हो जाने से परेशान होंगी। दोनों कचहरी थाने से डरती हैं। जाने क्या-क्या सोचती होंगी। उन तक पहुँचना बहुत ज़रूरी है। बेटे की जान तो गई ही, उन सबको हलाकत में डाल देना किसी तरह मुनासिब होगा इसलिए वो गाओं की तरफ़ पलट पड़ा।

    अंधेरा हो गया था। रात का सन्नाटा आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ने लगा था, बस कभी-कभी गोली दगने और ख़ाना-साज़ पटाख़ों के छूटने की आवाज़ें आतीं। कभी-कभी किसी बड़ी तेज़ चीख़ की, जैसे कोई कड़ियल जवान तड़प-तड़प कर जान दे रहा हो। वो काँप उठता था। उसकी कनपटियाँ धमकने लगती थीं। उसके हाथ पसीज जाते थे, मगर वो तो ठिटकता था पलट कर देखता था। वो तो सुनानी सुनाने जा रहा था। वो तो सब कुछ खोकर रहा था। उसकी उम्मीदों के सारे रिश्ते टूट चुके थे, अब वो क्यों मुड़ता, किस पीछे आने वाले का इंतेज़ार करता।

    रात के दस बजे जब उसने अपने झोंपड़े में बीवी और बहू को ख़बर सुनाई तो सारा गाओं उनकी चीख़ से गूंज उठा। सब अपने बिस्तर छोड़कर दौड़ पड़े। यहाँ तक कि ज़मींदार का कारिंदा भी पूछने आया कि क्या बात है। जिसने सुना उसने आह भरी। हर एक अंग्रेज़ों को कोसने और गालियाँ देने लगा। अजीब बात ये हुई कि राम प्रशाद के मारे जाने से किसी पर ख़ौफ़ तारी हुआ बल्कि हर शख़्स ग़ुस्से से पेच-ओ-ताब खाने लगा। रामू तो बराबर बीवी और बहू को सँभालने में लगा रहा। लेकिन एक हफ़्ता तक गाओं के मुख़्तलिफ़ नौजवान, थानों और तहसीलों के हमलों में हिस्सा लेते रहे, महेन्द्र के गिरोह ने इस मौक़े से भी फ़ायदा उठाया, उसने ओड़ी हाड़ के पास मालगाड़ी के कई डिब्बे लूट लिए और गाओं में कई दिन नए नए मोज़ों, रुमालों, बिनयानों की ख़ासी तौर पर-बहार रही। ठाकुर साहब घर पर नौकरों का पहरा बैठा कर बीवी बच्चों को लेकर शहर चले गए थे। अब कोई हाकिम था, इसलिए नौजवानों का राज था।

    कोई दस दिन बाद ख़बर मिली कि गोरों की पलटनें गई हैं और एक बड़ा ही ज़ालिम अंग्रेज़ अफ़्सर भेजा गया है। वो हर तरफ़ गोलीयाँ चलाता, कोड़े मारता और आग लगाता जाता है। क़ुसूरवार और बेक़ुसूर दोनों को यकसाँ मौत के घाट उतारता है। बनियानें, मोज़े और लूटी हुई चीज़ें आहिस्ता-आहिस्ता ग़ायब होने लगीं और हर शख़्स अपनी-अपनी जान बचाने की सोचने लगा। पंद्रहवें दिन दो लारियों में लदे हुए सच-मुच अंग्रेज़ पहुँचे और उनके पीछे-पीछे एक मोटर में डिप्टी साहब और गाओं के ज़मींदार ठाकुर राम पाल सिंह।

    गोरों ने घर-घर तलाशी ले डाली। चीज़ें पहले ही हटा दी गई थीं। या कुओं, तालाबों में फेंक दी गई थीं या ज़मीन में बहुत गहरी गाड़ दी गई थीं। कुछ मिला। ठाकुर साहब ने सबकी सिफ़ारिश भी की, सफ़ाई भी दी। लेकिन रामू से तो ख़फ़ा थे ही। राम प्रशाद के मारे जाने का क़िस्सा नमक मिर्च लगाकर बयान कर दिया। रामू पकड़ा गया, पीटा गया। गोरों ने ठोकरें मार-मार कर रजिया, बुधिया और धनिया को बेहाल कर दिया। फिर उनको छप्पर से खींच कर बाहर निकाला और उस में आग लगा दी। थाने में फिर रामू पर ख़ूब बेद पड़े। पुलिस वाले चाहते थे वो उन लोगों का नाम बता दे जो थाने और तहसील के हमले में शरीक थे। रामू ने सारे ज़ुल्म ख़ामोशी से बर्दाश्त कर लिए लेकिन किसी का नाम लिया। उसे सात बरस की सज़ा हो गई और वो नैनी जेल के अस्पताल में पूरे पाँच महीने पड़ा रहा। जब कहीं जाकर इस क़ाबिल हुआ कि आहिस्ता-आहिस्ता चल कर छोटे मोटे काम कर सके।

    इस दर्मियान में ज़िले के और बहुत से लोग पकड़ कर आए। नेता भी छोटे-छोटे कांग्रेसी भी, सच-मुच के बदमाश भी, बेक़सूर नेक-चलन भी। उसे उनकी ज़बानी बहुत से हालात मालूम हुए। अंग्रेज़ी फ़ौज ने कैसे कैसे ज़ुलम तोड़े और हिन्दुस्तानी सिपाहियों ने किस-किस तरह हाथ साफ़ किए, लेकिन किसी से ये मालूम हो सका कि रजिया पर क्या गुज़री, बुधिया के जो बच्चा होने वाला था वो लड़का हुआ या लड़की और धनिया अब कितनी शरीर हो गई है। इसी तरह एक साल गुज़रा, दो साल गुज़रे। तीसरा साल बीता, चौथा साल आया और ख़बर आई कि नेताजी छोड़ दिए गए। फिर ख़बर आई इलैक्शन हो रहा है। फिर ख़बर आई, अपनी क़ौमी हुकूमत हो गई।

    1947 की जनवरी में रामू छूटा। वो रेल से उतर कर गाओं की तरफ़ चला तो यही सोचता रहा कि जाता तो हूँ मगर वहाँ क्या मिलेगा और हुआ भी यही। जब गाओं पहुँचा तो देखा, उसके छप्पर की जगह एक मिट्टी का टीला है और रजिया है धनिया। मालूम हुआ उसने बुधिया को मैके भेज दिया और ख़ुद भी भाई के पास दूसरे गाओं में है। रामू सिर्फ़ चंद घंटे गाओं में ठहरा। वो पलट कर शहर के कांग्रेस मंडल में चला आया। मंत्री से नैनी जेल में मुलाक़ात हो चुकी थी। उन्होंने बड़ी हमदर्दी की। कलैक्टर से ठाकुर साहब पर-ज़ोर डलवाया, रामू की क्यारियाँ उसे वापिस दिलाईं, बल्कि दस बीघे ऊपर से। सरकार की तरफ़ से एक हज़ार मुआवज़ा भी दिलवाया।

    रामू ने रजिया को बुलवाया। बुधिया को जाकर ले आया, वो आई तो साढे़ तीन साल का मनोहर भी आया। अजीब बात थी वही रामू जो राम प्रशाद के मरने पर रोया था, जो अठारह साल की कमाई को अपने हाथ से गंगा में बहा देने पर अश्क बार हुआ था, जिसने बेद खाने, बे-घर होने और क़ैद किए जाने पर आँसू बहाए थे, जब उसने पहली बार पोते को देखा तो उस भोले के मुस्कुरा देने पर इस तरह रोया कि जैसे पोते पर आँख पड़ते ही सारी बर्बादियाँ एक एक करके सामने आती चली गईं।

    आज इस वक़्त भी उसकी आँखों में मिर्चें सी लगने लगीं, वो ठिटक कर आँख साफ़ करने लगा। रजिया ने झुक कर गीली मिट्टी उठाई और उसको मियाँ की नंगी पीठ पर खींच मारा।

    “क्या खड़े सो रहे हो।”

    बुधिया हँसती हुई मुंडेर की तरफ़ लपकी, जिधर मनोहर ताड़ के पत्ते के नीचे से झाँक कर पुकार रहा था, “माता माता जी!”

    और बूढ़ा रामू बैलों को छोड़कर कीचड़ में भरपूर क़दम रखता हुआ वहाँ आया जहाँ रजिया खड़ी हुई उसे तक रही थी। रामू ने हाथ की गीली मिट्टी रगड़ कर छुड़ाई और उसका चूरा बीवी की माँग में भर दिया।

    वो कुछ लजाई, शरमाई, कुछ झुन्झलाई। उसने कहा, “ये क्या मेरे सर भर में मिट्टी पोत दी।”

    रामू ने हंसकर कहा, “अरे मूर्ख इससे पवित्र और कौन सींदूर होगा? ये अपने खेत अपने देश की मिट्टी है!” और रजिया के झुके हुए सर की माँग इस तरह चमकने लगी जैसे वो सच-मुच अफ़्शाँ और संदल से भरी हो।

    स्रोत:

    Hamara Gaon Aur Doosre Afsane (Pg. 180)

    • लेखक: अली अब्बास हुसैनी
      • प्रकाशक: ओरिएण्टल पब्लिशंग हाउस, लखनऊ
      • प्रकाशन वर्ष: 1956

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