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रूपा

MORE BYक़ाज़ी अबदुस्सत्तार

    स्टोरीलाइन

    यह कहानी एक ऐसे शख़्स की है जिसका बाप रजब अवध की गढ़ी की सियासत में काफ़ी फल-फूल गया था। उसने अपने बेटे हुसैन को भी अपनी तरह पहलवान बनाया था। मगर जवानी में उसे अपने बाप के दुश्मन मुनव्वर की बेटी रूपा से मोहब्बत हो जाती है। उस मोहब्बत में रजब की जान चली जाती है, पर हुसैन रूपा को अपने घर लाने में कामयाब रहता है। वह रूपा को ब्याह तो लाया था पर कभी उसके दिल में जगह नहीं बना सका था, क्योंकि रूपा को उसका दुबला-पतला शरीर पसंद नहीं था। फिर अचानक ऐसा कुछ हुआ जिसकी वजह से वह उससे मोहब्बत किए बिना रह न सकी।

    नीम सार से आगे क्रिया के अंधेरे जंगल के निकलते ही गोमती मग़रूर हसीनाओं की तरह दामन उठाकर चलती है... दूर तक फैले हुए रेतीले चमचमाते दामन में नबी नगर घड़ा है जैसे किसी बद-शौक़ रईस-ज़ादे ने अपने बुर्राक़ कपड़ों पर चिकनी मिट्टी से भरी हुई दवात उंडेल ली हो। मिट्टी के टूटे-फूटे मकान बचे खुचे छप्परों की टोपियाँ पहने बड़े फूहड़पने से बैठे हैं।

    यह गाँव अवध के देहातों की ज़िद है। इसके गिर्द तो बाँसी की वो घनी बाढ़ है जिसमें फँस कर सांप मर जाते हैं, छतनार पीपलों और झलदारे बरगदों के वो ख़ामोश शामियाने हैं जिनके कुंजों में गालों के गुलाब और होंटों के शहतूत उगते हैं, वो चौड़े चकले पनघट हैं जहाँ कुकरे बजाती पनिहारिनों के पैरों के बिछुवे अपने घुंघरुओं के डंक उठाए राहगीरों की राह तका करते हैं मगर दूर दूर तक यह गाँव जाना जाता है। यहाँ की भैंसें मशहूर हैं। यहाँ के गद्दी मशहूर हैं। यहाँ का रजब मशहूर है। सारंग आबाद राज का हाथी... वहाँ बड़हल के पेड़ों के झंडे के नीचे तक आकर रुक जाता है... कि हाथी के पैरों बराबर ऊँची दीवारों के पीछे कुलेलें करती हुई ग़रीब रानियों के खुले ढ़ले जिस्मों पर निगाहों की गर्द पड़ जाये।

    (2)

    दस-बारह बरस का रजब अपने बाप के साथ सारंग आबाद राज की भैंसें लगाए गढ़ी जाया करता था। अपनी भूरी भैंसें लगाकर उसने अंगड़ाई ली तो सलीक़े के श्लोके का बटन चट से टूट कर गिर पड़ा। बटन उठाकर निगाह उठाई तो बौखला गया। सरकार खड़े हुए घूर रहे थे उसने जल्दी से सलाम कर लिया।

    क्या नाम है तुम्हारा? सलाम के जवाब में हुक्म हुआ और उसकी आवाज़ के साथ ही रजब के बाप की बाल्टी में गिरती हुई दूध की धार थम गई।

    रजब। उसने हकला कर कहा।

    कौन भैंसें हैं तुम्हारी?

    वा... भूरी

    कितना दूध है इसके नीचे?

    ढ़ाई सेर... पक्के।

    खोल ले जाओ... दूध पियो... और मेहनत लगाओ।

    (3)

    जब रजब को दूध पिलाते-पिलाते भूरी भैंसें बूढ़ी हो गईं और सारंग आबाद राज के सारे पहलवान रुसवा हो गये तब सरकार ने गढ़ी में एक कोठरी दे कर पलंग की पहरे दारी सौंप दी। फिर एक दिन सरकार की ससुराल से आया हुआ हाथी बरझा गया। फ़ीलबानों ने फ़रियाद की तो पुराने जूते ढ़ूँढ़ कार जमा करके मरम्मत का हुक्म दिया। आख़िर जब सारे सारंग आबाद में तहलका पड़ गया और भगदड़ मच गई तब राइफ़ल लेकर सरकार बरामद हुए। मिज़ाज दाँ रजब अपना बल्लम लेकर लपका एक जहाँ हाएँ-हाएँ करता रहा लेकिन वो टूट ही पड़ा। अनगिनत बल्लमों की मार खाकर हाथी तो सीधा हो गया लेकिन रजब को चारपाई उठाकर लाई। ये दूसरी बात है कि ख़ुद सरकार चारपाई के आगे पीछे फिरते थे। फिर रजब के नाम को पर लग गए। दूर-दूर तक फैले हुए गद्दियों के गाँव ख़ुद सारंग आबाद की तरह इसकी जागीर बन गए। देखते ही देखते इसकी जड़ें इतनी गहरी और इतनी मज़बूत हो गईं कि ख़ुद सारंग आबाद राज उसपर हाथ डालते डरने लगा।

    (4)

    जैसे-जैसे रजब गढ़ी की सियासत की दलदल में धँसता गया वैसे-वैसे इकलौते लाड़ले और चूँचाल हुसैनी का क़द ऊँचा होता गया... सारंग आबाद के प्राइमरी स्कूल से दोम पास करते ही हुसैनी की माँ ने वो कड़म धम्म मचाया कि रजब ने अपनी सीने पर फैली हुई सियाह दाढ़ी में कंघी की और रियासत की बंदूक़ कँधे पर रख कर नबी नगर के लिए चल पड़ा। चैत कट रहा था, धूप से बदन में चुंगें पड़ने लगीं थीं लेकिन वो बड़े ठंडे दिल से हर पहलू पर सोचता नबी नगर के नाके पर गया। बड़हल के दरख़्त के नीचे खड़े होकर उसने अपने कँधे से अंगोछा उतारा, चमरौधे जूते में धँसे हुए पैरों पर मोज़ों की तरह चढ़ी हुई गर्द झाड़-झाड़ कर साफ़ किया फिर बड़े रोब से बिल्कुल ज़मींदारों की तरह अपने गाँव में दाख़िल हुआ।

    छप्पर में खटियाँ तमाशबीनों की तरह खड़ी थीं। तख़्त पर मजलिस की मानिंद बड़ी गंभीरता से बैठा था और सामने एक चमार का लौंडा जो उम्र में हुसैनी से साल दो बरस छोटा ही था, हुसैनी के सीने पर सवार था और हुसैनी रजब का इकलौता बेटा, हुसैनी लड़कियों की तरह दुहाई दे रहा था। रजब की खंकार की आवाज़ से महफ़िल उजड़ गई। चमार का लौंडा अटेड़ी हो गया। हुसैनी रजब से कम बंदूक़ से ज़्यादा लिपटने के लिए लपका लेकिन रजब की आँखें देखकर सहम गया। उसी शाम को गढ़ी में रजब की कोठरी में खटोला बिछ गया और दुबला पतला हुसैनी अपने जल्लाद बाप की टाँग से बंध गया और हुसैनी की माँ शादी की कच्ची हँडिया लिए बैठी और गीली लकड़ियों को फूँक-फूँक कर आँखें लाल करती रही।

    (5)

    अपने बाप की उस्तादी में हुसैनी सारा-सारा दिन मेहनत लगाने लगा लेकिन बदन पर गोश्त चढ़ना था चढ़ा। वो अपने बाप से ऊँचा हो गया, चेहरे पर सुर्ख़ी भी दौड़ गई लेकिन खूंटियों की तरह उभरी हुई रुख़सार की दोनों हड्डियाँ जूँ की तूँ रहीं। मुगदर की जोड़ी और घी के मटरे ने हाथ पैर ऐसे बना दिए जैसे लोहे के मोटे-मोटे तारों को बट दिया गया हो। जब वो डोरिये का कुरता और लाल किनारी की नीची धोती बांध कर खड़ा होता तो रजब का चेहरा धुंदला जाता और वो दिल ही दिल में हुसैनी के लिए दूध की मिक़्दार बढ़ा देने के मस्ले पर ग़ौर करने लगता।

    उस दिन भी वो हुसैनी का रातब बढ़ा देने के मस्अले पर ग़ौर कर रहा था कि गुहार मच गया। वो अपनी लाठी पटकता कोठरी से निकला तो पता चला कि नटों (कमअक़लों) का एक क़ाफ़िला सरकारी बाग़ में ज़बरदस्ती उतर पड़ा। सेरबानों को ख़बर हुई तो इकट्ठा होकर टोकने पहुंचे। जराइम पेशा नटों के सांड ऐसे लौंडों की तू-तकार की कहाँ ताब? बातों में गर्मियाँ बढ़ते ही लाठियाँ बजने लगीं। सेरबान तक़दीर के अच्छे थे कि उसी वक़्त किसी तरफ़ से हुसैनी निकल पड़ा और आते ही सारे नटों को लपेट लिया और सेरबानों को छुट्टी दे दी। अब सेरबान गढ़ी में दहाई जमाए हैं। रजब बग़ल में लाठी मारे दोनों हाथों से साफ़ा बाँधता भागता चला गया। बाग़ की ख़ंदक़ पर पहुँच कर रजब की आँखें फूट गईं। बाँस ऐसा लम्बा हुसैनी पन्द्रह बीस तैयार नटों के हलक़े में उछल-उछल कर लकड़ी मार रहा था और उसकी मार खाए हुए दस-पाँच ज़मीन पर पड़े हुए भौरें बीन रहे थे। दूसरों की तरह रजब को भी हुसैनी ने डाँट कर दूर से तमाशा देखने का हुक्म दिया। थोड़ी देर में फ़ैसला हो गया, नट बांध कर लाए गए और गढ़ी के फाटक पर झुका दिए गए। उस शाम बड़ी देर तक रजब अपनी कोठरी में भंग घोटता रहा और बग़लें बजाती आवाज़ में बिरहे गाता रहा।

    (6)

    एक हाथ में नारियल और दूसरे हाथ में बंदूक़ लेकर रजब गढ़ी की दूसरी मंज़िल पर पहुँचा तो चमकदार सेहन में हल्की चाँदनी बिछी थी। मुरादाबादी पायों के पलंग पर डोरियों से कसा हुआ बे शिकन और बे दाग़ बिस्तर लगा था और सरकार टहल रहे थे। रजब ने उस पत्थर की चौकी पर बंदूक़ रख दी जिसके एक गोशे में चाँदी के कटोरे का ताज रखे और मुँह बंद कलियों के हार पहने कोरी सुराही बैठी थी। सरकार उसके क़रीब आकर ठिटक गए। रजब दालान के सतून की मानिंद खड़ा रहा।

    रजब!

    सरकार!

    मैं... तुम्हारे घरेलू मामले में नहीं पड़ता... मगर... मगर... मैं इतना ज़रूर कहूँगा... कि हुसैनी जवान हो गया है... उसकी शादी करो। रजब ने सरकार के लहजे से वो अनकही बात जो सरकार के लफ़्ज़ों से परे थी लेकिन लफ़्ज़ों के दिल में धड़क रही थी, सुन ली... समझ ली... और उसका सर झुक गया।

    का... सरकार कोई ऐसी वैसी बात?

    नहीं... कोई ख़ास बात नहीं... लेकिन मुनव्वर कह रहा था कि वो उसके घर के चक्कर-वक्कर लगाता है।

    मुनव्वर के घर के चक्कर? मुनव्वर के?

    सरकार पुश्त पर हाथ बांधे हुए नए सलीम शाही को आहिस्ते-आहिस्ते चरमर करते हुए दूसरे किनारे पर पहुँच गए थे। रजब सर झुकाए बैठा रहा। उसकी आँखों के सामने मुनव्वर घूम रहा था। जैसे शहर के ढ़ोल में पहिये लगा दिए गए हों और उसपर तेल का काला मरवा रख दिया गया हो। उसने देखा कि गढ़ी के मोहर्रम में मुनव्वर.. काला... मोटा... भद्दा... मुनव्वर उछल-उछल कर फ्री गदका खेल रहा है। सामने काले चादरे के घूँघट में दोपहरे की आँखें पलकें झुका रही हैं। ग़ज़नीपुर के बाज़ार में मुनव्वर भैंसों के ग़ोल में बैठा आगे धरे हुए रूपये के ढ़ेर को गिन रहा है और उसके अंगूठों पर रोशनाई लगी है। मीरापुर के बाग़ में मीरापुर की पंचायत बैठी है और मीरापुर का चौधरी मुनव्वर रजब की हैबत और रजब की दोस्ती को ताक़ पर रख कर रजब के यारों के ख़िलाफ़ फ़ैसला दे रहा है। रजब की मुट्ठियाँ बंध गईं, दांत भींच गए, दाढ़ी के सख़्त बाल कलफ़ लगे हुए जल्द बदन बने हुए शलवार के पर खड़खड़ाने लगे, जैसे बरझाया हुआ साँड हमला करने से पहले अगले खुरों से ज़मीन खोदता है।

    (7)

    सहालक का ज़माना था। जब देहात में चिड़ियाँ भी गुलगुले करती हैं। गाँव-गाँव लगनें हो रही थीं। बारातें उतर रही थीं, मीरापुर की बस्ती को गर्द के शामियानों ने ढ़ाँप लिया था। धुएँ के लहराते गाओदम मीनार शामियानों को तोड़-तोड़ कर उठ रहे थे।

    मुनव्वर अपने चारों बेटों के साथ न्योता खाने जा चुका था। रूपा ने दौड़-दौड़ कर अपनी माँ के साथ भैंसों की गोढ़ी को रस्सियाँ पहनाईं। भर-भर कर सानी लगाई। फिर रात गए तक वो दोनों भैंसें लगाती रहें... दूधार फूँकती रहीं जब उपलों ने आग पकड़ ली तब वो दोनों रोटी खाकर पड़ रहीं। एक ही नींद हुई थी कि बड़की (बड़ी भैंस) का डकराना सुनकर माँ चौंक पड़ी, आँखें मल कर लेटे-लेटे देखा तो यहाँ से वहाँ तक भैंसों के सारे छप्पर में खलबली पड़ी थी। उसने हाथ बढ़ाकर जल्दी से रूपा को खसोटा, फिर एक से चादर और दूसरे से रूपा को खसीटती हुई भैंसों के छप्पर में गड़ाप से घुस गई। अब सारे छप्पर में तहलका पड़ गया जैसे जाँबाज़ सूरमाओं के कैंप में शब ख़ून की ख़बर पहुँच गई हो। अब छतों पर से आदमी लाठियाँ लगा लगाकर उतरने लगे। लाँबे-चौड़े... ढ़ाटा बाँधे हुए। भयानक आदमी कोठरी का दरवाज़ा तोड़ रहे थे और रूपा अपनी माँ के कूल्हे से लगी बड़की की नांद के पास बैठी हौल रही थी कि बड़की ने डकराकर रस्सी तुड़ाई और फाँसी देने वाले जल्लाद की तरह झूमती हुई निकली।

    उसके पीछे सारी भैंसें... छोटी-छोटी पड़ियाँ तक कुलेलें करती हुई निकल पड़ीं। आदमियों ने लाठियाँ सूतीं और चाहा कि उनको बाढ़ पर ले लें लेकिन पन्द्रह बीस पागल भैंसों को झेल ले जाना ठट्टा नहीं था। एक ही चपेटे में फ़ैसला हो गया। बड़की ने रजब को आटे की तरह गूँध कर रख दिया। सारे दाव पेच धरे रहगए। जियाले साथियों ने जान पर खेल कर नीम मुर्दा रजब को बाहर निकाला और गाँव वालों से लड़ते भिड़ते गढ़ी तक गये। जब अपनी कोठरी में रजब को होश आया तो हुसैनी पैरों के पास बैठा था। कुछ कहने के लिए मुँह खोला, बात रह गई जान निकल गई।

    (8)

    बाप का घाव भर गया। रूपा के बदन की धार हुसैनी का जिगर उसी तरह काटती रही। जब रात भीग जाती, ढ़ोर ढ़ँकर अपने-अपने खूंटों पर पागुर करते-करते दम साध लेते और पंख पखेरू अपने-अपने कुंजों में सो रहते, कुत्ते चुप हो जाते, चौकीदार लेट रहते, दुखों की मारी बेवा माँ आँगन में पड़ी हुई चारपाई पर कुड़मुड़ा जाती और ढ़ाबली में बंद मुर्ग़े फड़फड़ा कर बांग देने लगते। तब वो पूरे सुकून-ए-क़ल्ब के साथ उन हसीन लम्हों का ख़ज़ाना खोल कर बैठ जाता जिनको रूपा के हुस्न के पारस ने अशर्फ़ियों की तरह जगमगा दिया था। वो उन अशर्फ़ियों पर दीदे गड़ाए बैठा रहता जैसे गाँव के नदीदे लड़के मोतीचूर के लड्डुओं का थाल घूर रहे हों। उन हसीन लम्हों के ख़ज़ाने पर वो साँप की तरह बैठा पहरा दिया करता फिर घुमर-घुमर चक्कियाँ चलने लगतीं। छोटी-छोटी पड़ियाँ अपनी माओं को देखकर रस्सियाँ तुड़ाने लगतीं और धूप मुंडेरों पर बैठकर आवाज़ों के थाल लुढ़काने लगती।

    बूढ़ी माँ झाँकरों की लाँबी झाड़ू लेकर गोबर समेटने लगती, तब वो झूटी अँगड़ाइयाँ लेता हुआ उठता और अपनी लाल आँखों की ज़ख़्मी निगाहों को अम्मां से चुराए हुए भैंस के नीचे जा बैठता और मटरे में दूध की धार बजने लगती। हाथ मशीन की तरह चलते रहते और ज़ेहन गलियों में आवारगी करता रहता जो रूपा के कपड़ों से महक रहीं थीं, जो रूपा के ज़ेवरों से बज रही थीं। जब अम्मां रात की रोटी मट्ठे में मल कर मिट्टी का प्याला उसके सामने रखतीं तो वो भी कभी पेट में उंडेल लेता तो कभी बहाना करके टाल जाता। गोमती के किनारे सरकारी बाग़ की मुंडेर को तकिया बनाकर लेट रहता और सोच नगर की भूल भुलैय्याँ में चक्कर काटा करता। जानवर चरा करते। उसे उस वक़्त होश आता जब किसी खेत में हल्ला होता और खेत वाला उसके जानवरों की माँ-बहनों से अपने जिन्सी तअल्लुक़ात का पूरी आवाज़ से ऐलान करता। ज़िंदगी करने के इस ढ़ब पर जब हुसैनी के यारों की हुसैनी के अज़ीज़ों की निगाह पड़ती तो वो उसके मरहूम बाप की कहानियाँ कहते। फिर अपनी भी गुलू-गीर आवाज़ में अपने दुखों का पिटारा खोलते और ख़ून में लिथड़ी हुई तस्वीरें दिखाते। वो भी सुनता रहता और कभी झुँझलाकर उठ जाता और कंधे पर लट्ठ रख कर सैलानियों की तरह मारा-मारा फिरता।

    (9)

    फिर एक दिन इसके यारों ने उसे घेर लिया। बातें करते-करते उसके पेट में घुस गए और हुसैनी के कलेजे पर बनी हुई रूपा की तस्वीर की रूनुमाई की। हुसैनी के यार बैठे हुए एक दूसरे का मुँह तकते रहे हुसैनी रस्सी लगे हुए चोर की तरह गुम सुम बैठा रहा। उन यारों में भी जिन्होंने हुसैनी के साथ मुगदर घुमाए थे, साथ लकड़ियाँ हिलाई थीं और फ़ौजदारियाँ लड़ी थीं किसी की मजाल थी जो ये कहता कि रूपा उस बाप की बेटी है जिसके आँगन में रजब मारा गया। वो सबके सब सर जोड़े बैठे रहे। बीड़ियाँ फूँकते रहे और सोचते रहे। आख़िर यार अली से रहा गया, उसने तड़ से कह दिया कि वो भुज्जा की बीवी है। उसकी मुराद से बातचीत चल रही है और गाजी से आशनाई की कहानी एक-एक छप्पर में दस-दस मर्तबा सुनी गई है। औरतों को तो उसकी पूरी महाभारत मुँह ज़बानी याद है। वो अपनी माँ से चार चोट की लड़ाई लड़ती है और बाप से ठिठोल करती है। रूपा तो ऐसी है, रूपा तो ऐसी है, जैसी बृज बनी रंडी... जैसी मिट्टी की वो हाँडी जिसमें कुत्ते ने मुँह डाल दिया हो।

    हुसैनी गंभीरता और धीरज से सब सुनता रहा। जब यार अली के पास कहने को कुछ रहा तब उसने गर्दन उठाई, एक-एक की आँखें देखीं और निगाहें टटोलीं और लाठी चलवाने वाली आवाज़ में बोला कि नबी नगर में रूपा उसी तरह पहचानी जाती है जैसे मीरापुर में ये बात मशहूर है पिछले मोहर्रम में रूपा हुसैनी के साथ पकड़ी गई तो भाई मैं तुमसे सच कहता हूँ कि मैंने रूपा का रूप भी आँख भर कर नहीं देखा। मैंने रूपा को उसी तरह देखा जैसे जन्म अष्टमी के त्योहार पर भगवान की झाँकी कि सारी निगाह गहने-पाते में उलझ कर रह जाए और बस फिर मुनव्वर ऐसा पानीदार बाप कि परछाई से लड़ाई लड़ता हो, वो भला ज़िंदा रखता रूपा को ये सब कुछ सुन कर? रह गई भुज्जा की बात तो वो उनके घर का बखेड़ा है। रूपा की भुज्जा से बनती नहीं तो मुनव्वर अपनी अकेली बेटी को परछाईं में लेकर खड़ा हो गया। जिस दिन मुनव्वर ने आँख बदल ली उसी दिन से भुज्जा जी महाराज फ़ारख़्ती लिखकर उठक बैठक लगाने मीरापुर में धरे हैं। यारों ने हुसैनी की बातों के शोले और आँखों की चिंगारियाँ देख कर ज़बान सी ली और दूर से हाथ उठाकर दुआ की सोचने लगे।

    (10)

    एक दिन जवार के सबसे मशहूर नाई गद्दी के इकलौते बेटे का पैग़ाम मुनव्वर के घर पहुँच गया। मुनव्वर को ऐसा लगा जैसे उसके दरवाज़े पर नया ख़रीदा हुआ हाथी झूम रहा हो। मीरापुर के बड़े बूढ़ों के झूट-मूट की पंचायत हुई। भुज्जा से फ़ारख़्ती ली गई और चट मँगनी और पट ब्याह की मसल दोहराई गई। हुसैनी के हमदर्द और दोस्त जो हुसैनी के प्रेम से बौखला गए थे, ब्याह का नाम सुनते ही दम साध कर बैठ गए। रूपा की वो कहानियाँ जिनके दोहराने के ख़्याल से मुँह में पानी भर आता था उसी तरह अपने सीने में दफ़न रहीं, महुए की शराब की मस्ती में उड़ाए हुए लम्हों की तरह कुछ दिन बीत गए। फिर हुसैनी को टोह लगी कि जैसे रूपा उसकी बीवी नहीं है। उनके घर आई हुई ऐसी रहम-दिल मेहमान है जो कभी रात-बिरात उसे अपने पाँव चाटने की इजाज़त दे देती है। ये ज़हरीला ख़्याल उस हुसैनी की छाती से चिपट गया जिसके लिए सारी बिरादरी आँखें बिछाए थी। उस संपोले को मारने के लिए उसने अपने ख़ुद फ़रेबी के तरकश से एक-एक तीर निकाल कर परख लिया लेकिन किसी से जी पूरा हुआ।

    (11)

    आख़िर वो पंडित बुला आए जिनकी जजमानी में नबी नगर था। हुसैनी की माँ ने उनको सीधा और आखत दिया फिर अपनी बिपता कही। पंडित जी ने सायत बिचारी, पत्रा देखा, अल्प काटी और दख्शिना लेकर चले गए। दूसरे दिन शाम होते ही हुसैनी की माँ दस बीस औरतों के साथ उस पीपल को पूजने गई जिसपर बरम राकस रहते थे। सारंग आबाद की पुरानी मस्जिद के इमाम ने तावीज़ दिए थे वो शरबत में घोल कर रूपा को धोके से पिलाए गए। लेकिन हुसैनी की आँखों में सोच की परछाइयाँ उसी तरह तैरती रहीं।

    सारंग आबाद की बाज़ार से हुसैनी ने एक लपलपाते कपड़े का लहँगा, एक चमचमाते कपड़े की कुरती और मेल खाता हुआ दुपट्टा ख़रीदा। अपने कंधे पर से चादर उतार कर जब तमाम चीज़ें बाँध चुका तब सेर भर बर्फ़ी का दोना एक खूँट में बांध लिया और बड़े अरमानों से घर में घुसा। रूपा चूल्हे वाले कमरे में सजी बनी बैठी कोई महीन काम कर रही थी। हुसैनी का इशारा देख कर समझ कर भी अनजान बनी बैठी रही। आख़िर जब हुसैनी की गर्दन के पुट्ठे दुखने लगे तब वो महारानियों की तरह चलती हुई बड़े वक़ार से कोठरी में आई और बे-नियाज़ी से बैठ गई। हुसैनी ने पसीने में डूबी हुई क़मीस का ग़िलाफ़ अपने जिस्म से उतारा तो शाम की ठंडी हवा बहुत अच्छी लगी। वो हवा के रुख़ पर खड़ा हो गया और अपने सीने और शानों पर पसीने की नन्हे-नन्हे क़तरों को उंगली से छूने लगा जैसे खटमल मार रहा है।

    कुर्ता पहन लेओ। रूपा ने शर्मिंदा कर देने वाली ना-गवारी से कहा।

    काहे? हुसैनी सोचती हुई आवाज़ में बोला।

    लिए... कि बरछले हाथ-पाँव देख के जी मतलाने लगता है। रूपा ये कह कर बर्फ़ी का दोना खोलने लगी। हुसैनी बुत बना खड़ा रहा।

    (12)

    पानी थम गया था लेकिन आसमान उसी तरह रुँधा हुआ था। बादल तले खरे थे। गढ़ी दूध पहुँचा कर आते-आते दोपहर होने लगी थी। हुसैनी चलवर दरख़्तों के पास ही था कि उसने देखा बूढ़ी माँ दोनों हाथों में दो गगरे लिए रस्सी पर फिसलते हुए नट की तरह सँभल-सँभल कर चल रही थी। हुसैनी को ऐसा मालूम हुआ जैसे किसी ने बड़ी मोटी गाली दे दी हो। उसका सर सनसनाने लगा और चाल तेज़ हो गई।

    घर में दाख़िल होते ही उसकी नज़र रूपा पर पड़ी जो छप्पर की थमड़िया से पुश्त लगाए बैठी थी। काले कपड़ों में गोरा बदन कौंदे की तरह लपक रहा था। मोती की उंगलियों के पोरों पर मेहंदी के लाल जुड़े थे। भौंराए सियाह बालों पर कोई डेढ़ पाव चाँदी का छपका रखा था। उसके ज़ानू के पास रंग-बिरंगी मूँज रखी थी और रानी की तमकनत से बैठी हुई डलिया बुन रही थी। जब वो सोचने में मूँज फाँस कर झटका देती तो गट्टे से कुहनी तक भरे हुए चाँदी के ज़ेवर छनछना उठते। हुसैनी की सारी आग बुझ कर रह गई। दूसरी तरफ़ चूल्हे वाले छप्पर में उकडूँ बैठी हुई माँ झूम-झूम कर पीतल का बटला माँझ रही थी। ज़मीन पर पड़े चादरे का कोना मुँह में रखे छोटी सी पड़िया पागुर कर रही थी। हुसैनी ये देखते ही पाँव फटफटाता हुआ लपका। माँ ने चाबा हुआ चादर निहार कर देखा और सर पर डाल लिया।

    बनाने वाले तो मर ही गए... मोई चाब डाली... मैं नँगी घूम लीहों। माँ बड़बड़ाई। रूपा ने मूँज का सिरा दाँत से तोड़ा और पड़ोसन लड़ के अंदाज़ में बोली, काहे नंगी काहे घूमिहो... लाट ऐसा पूत नाईं है बनाने वाला।

    पूत तो तेरे सर मिस्सी भर का नाईं है... मेरा का बनाए दिए।

    रूपा ने डलिया हाथ से रख दी।

    हाँ... माँ का झूट है... जबसे उमरापुर छूटा... पहना खाता छुट गवा। बुढ़िया ने बटला हाथ से रख दिया और सामना करने के लिए घूमी,यहाँ तो भूकी नंगी रहित हो... के नाईं?

    नाहीं... राज करत हूँ यहाँ।

    राज तो उमरापुर में है तेरे बाप का... यहाँ कहाँ राज।

    बुढ़िया... मेरे बाप-दादा का नाम लेहे तो तेरी सात पुश्तें नोच के फेंक दिहों। ये कहते-कहते रूपा तनतना कर खड़ी हो गई। हुसैनी ने देखा कि उसके चितवनों से आग बरस रही थी।

    तू देख रहा है हराम-जादे... यो नाईं होत कि ले किए डंडा।

    कौन... पूत... मोरी उंगली छू लें... तो खून पी जाऊँ।

    हाय रजब के पूत धिक्कार है ... तोई पर।

    बुढ़िया फटफटाती हुई धड़ाक से दरवाज़ा बंद करके निकल गई। रूपा फिर इतमीनान से बैठ कर अपनी डलिया बनाने लगी। हुसैनी के सर से पाँव तक आग लगी हुई थी। वो आतिश बाज़ी के दरख़्त की तरह फुँक रहा था। जब वो लम्बे-लम्बे डग रखता हुआ आँगन से गुज़र गया तब भी उसने अपने मूँजे पर से निगाह उठाई। उसकी उंगलियाँ तो डलिया पर चल रही थीं लेकिन नज़रें कहीं और थीं। हुसैनी गोमती के किनारे चरती हुई भैंसों के रेवड़ को घूरता रहा। घास के तिनके नोच-नोच कर चबाता रहा। जब शाम हो गई, फ़िज़ा की रौशनी गुड़हल के फूलों के रंग में रंग गई, भैंसों की गर्दनों की घंटियाँ बजने लगीं तो वो उस पुजारी की तरह उठा जिसे देवी ने श्राप दे दिया हो। वो सीधा अपने मामूँ के घर गया जहाँ उसकी माँ दूध दूह रही थी। उसने बड़े दुलार से अपनी माँ के कंधे पर हाथ रख दिया।

    का है... हत्यारे। माँ ने भीगी हुई आँखें उठाकर जली हुई आवाज़ में कहा।

    घर... चलो।

    वा बदमास तो है घर मां?

    तुम हो चलो।

    ना... मैं रजब की दुल्हन हूँ... जुवा-जुवाड़न की आँख नाईं देखीं।

    इस जुमले ने हुसैनी के ख़्यालों में बुझी हुई बारूद में आग लगा दी। वो तीर की तरह घर से निकल आया। माँ जानवरों की मिज़ाज-दाँ थी। पहले वो सबकी नाँद में फिरती, फिर किसी को चुमकारती, किसी को डाँटती, किसी को नमक, किसी को गुड़, किसी को दाना देती, किसी को चोकर। ज़िद्दी बच्चों की तरह जानवरों की नाक करती तब दूहने बैठती। रूपा के अजनबी हाथों ने जो थनों को छुआ तो वो घोड़े की तरह भड़क कर लातें चलाने लगीं। वो तो अंगारों की गठरी थी। मर्दों की तरह लाठी लेकर टूट पड़ी। इस तड़ातड़ी में हुसैनी गया।

    मार डालो... भैंसों का मार डालो।

    सबका मार चुकी हूँ... भैंसें बची रहीं ... अब उन्हों का मारे डालत हूँ।

    कौन जाने... के का मार चुकी हो...

    फिर जैसे होश आया हो उसने अपने दोनों हाथ कमर पर रख लिए और ठंडे लहजे में बोली, रजब के पूत... रजब की गर्मी भूल जाओ। मुनव्वर के घर से रजब की लाश निकली है। हुसैनी दाँत पीस कर घूमा और कोने से लाठी खींच ली। लेकिन जब मुड़ा तो उसने रूपा के हाथ में हँसिया देखा जिसे वो तोले खड़ी थी। निकले हुए क़द और दोहरीले पथरीले बदन की ग़ज़ब-नाक रूपा चट्टान की तरह खड़ी थी।

    (13)

    आसमान पर काले-काले बादल मटरगश्ती कर रहे थे जैसे बड़ी-बड़ी मंदिराजी भैंसों के रेवड़ चराई पर निकले हों। चाँद कभी उभर कर दीवारों और मुंडेरों पर क़लई कर देता और कभी डूब कर सारे पर हिज्र का अंधियारा लीप देता जैसे सुनसान दोपहर में तालाब के हरे पानी में रूपा नहा रही हो। नहा कम रही हो और खेल ज़्यादा रही हो। हुसैनी ने आह भर कर निगाह उठाई, सामने पलँगड़ी की अँगूठी पर रूपा शीशे के लाँबे नग की तरह जगमगा रही थी। हुसैनी देखता रहा। राम लाल हलवाई की जलेबियों की तरह गर्म-गर्म, सोंधे-सोंधे, मीठे-मीठे ख़्याल उसके राल टपकाते दिल में घुलते रहे। फिर वो एक दम चौंक पड़ा था जैसे जलेबी की बजाय मुँह में कनखजूरा चला गया हो जैसे जलती हुई लकड़ी पानी में डुबो दी गई हो। उसने गर्दन घुमाकर सारे घर को देखा और देखता ही रहा। उसको ऐसा लगा जैसे ये घर उसका अपना घर नहीं है। ये पूरी एक बस्ती है, उसका अपना एक वतन है जिसे कच्ची उम्र में छोड़ कर वो अपने पेट की रोटी कमाने परदेस चला गया था और आज एक ज़माने के बाद वापस आया है। लाँबे छप्पर में अपने पहलुओं में मुँह दिए बैठी हुई भैंसें उन अज़ीज़ बूढ़ी औरतों की तरह हैं जिनसे उनकी पुश्तैनी अदावत रह चुकी है। ढ़ाबली में मुर्ग़ियाँ कुड़कुड़ा रही हैं जैसे रस्ते चीख़ते हुए खेलते हुए बच्चे उसे पहचान कर उसी तरह चीख़ रहे हों। उसी तरह खेल रहे हों।

    वो टूटा पलंग रजब के चौपाल की तरह उजाड़ पड़ा है। जिसमें अब कभी गाँव की पंचायतों के पंच बैठ कर फ़ैसले नहीं करेंगे। और ये रूपा से भरी हुई रूपा की पलंग ही उसका अपना घर है जिसके सदर दरवाज़े पर मोर्चा खाया हुआ ताला झूम रहा है और वो सोच रहा है कि इसकी कुंजी कहाँ भूल आया है। छप्परों के मोटे-मोटे शहतीर... सरकार के ज़ालिम कारिंदों की तरह उसे घेरे खड़े हैं और बक़ाया का तक़ाज़ा कर रहे हैं। फिर कोने में खड़े हुए हल की नैसी चमक उठी गोया किसी कारिंदे ने अपना बल्लम सीधा कर दिया हो। उस बल्लम की चमक के साथ ही उसके दिमाग़ में दहक और बार कौंद गई जैसे तनी हुई रूपा हँसिया उठाए खड़ी है। उसका जी चाहा कि रूपा के हाथ से हँसिया खींच ले और उसे रूपा के पेट में भौंक दे। रूपा के पेट का ख़्याल आते ही सरकार के क़ासिदान की चाँदी की मसनदी और मख़मलीं तकिए में भरे सरमाई परिंदों के परों का गुदाज़ दोनों उसके ज़ेहन में गढ़-मढ़ हो गये... और चारपाई सिसकियाँ भरती रही। दिन भैंसें लगाते रहे और दूध पहुँचाते रहे... और रातें सोच की नंगी बेरियों के नीचे नंगे पाँव चलती रहीं और कराहती रहीं।

    (14)

    फिर दसहरा गया। सारंग आबाद में लगा, गढ़ी के सामने मैदान में शामियाना खड़ा किया गया। दूर-दूर तक जाजिम का फ़र्श किया गया। हल गाड़ कर गढ़ी की अनगिनत गैस लटकाई गईं। सरकार की चौकी पर सच्चे काम की हरी मसनद बिछाई गई। हरी अत्लस के ग़िलाफ़ों में लपेटे हुए तकिए रखे गए। गाँव-गाँव भंगियों ने डुग्गी पीट कर ऐलान किया कि आज रात वीर अभिमन्यु खेला जाएगा। सारी खिलक़त के दिल गरमा गए। बूढ़े-बूढ़े दिलों पर त्योहार की जवानी टूट पड़ी। हुसैनी सारंग आबाद के बाज़ार से सौदा सुल्फ़ लेकर घर लौटा तो उसका द्वारा जगमगा रहा था जैसे अभी-अभी गोबर से लीपा गया हो। अंदर पहुँचा तो भैंसें नांद से उलझ-उलझ कर खा रही थीं और घंटियाँ बजा रही थीं। उनके छप्पर के कोने में टूटी हुई रोटियों का ढ़ेर लगा था। मुर्ग़ियाँ पर फड़फड़ा कर लड़ रही थीं और कुड़कुड़ा कर खा रही थीं। बीच आँगन में सुतली से बना हुआ जहाज़ी पलँग पड़ा था उसपर क़ालीन बिछा था... एक आदमी... एक दानव... उकडूँ बैठा नारियल पी रहा था। सियाह घनी सख़्त दाढ़ी गर्दन पर छाई हुई थी। ताज़ा बना हुआ ऊपरी होंट चमक रहा था। कल्ले चिरे हुए थे। बड़ी-बड़ी भयानक आँखों पर चौड़े-चौड़े सियाह अब्रू झुके हुए थे। सर के ख़शख़शी सियाह बालों के बीचों बीच एक पान बना था। गोश्त से लदी हुई कलाइयाँ गुनजान बालों में उलझी हुई थीं। हुसैनी को देखते ही पलंग से उतरने लगा। खड़े होकर पहले उसने दाहिनी रान पर धोती बराबर की जिसकी फड़कती मछली पर हुसैनी की निगाह जड़ी हुई थी। फिर डकारा...

    सलाम आलेक।

    वालेकुम

    ये कह कर हुसैनी ने उसकी आँखों में अपनी सवालिया निगाहें रख दीं मगर वो उसी तरह खड़ा हुआ उसी तरह मोहब्बत के साथ नारियल गुड़गुड़ाता रहा जैसे भूका कुत्ता हड्डी चिचोड़ रहा हो। फिर रूपा एक कोठरी से निकली, रंगे हुए पैरों में झाँझें बजाती और कलाइयों में ज़ेवर चमकाती हुई आई और हुसैनी के पास आकर शादी के बाद सुखी ज़माने वाली अलबेली आवाज़ में मुख़ातिब हुई, गाजी भाई हैं।

    अभी हुसैनी उन आँखों पर रखी हुई काजल की ताज़ी धार को परख ही रहा था कि रूपा चूल्हे वाले छप्पर की तरफ़ मुड़ गई और हुसैनी के नथुने नए लहँगे के कलफ़ की ख़ुशबू से भर गए।

    बैठो... आप गाजी भाई बैठो। उसने अंगोछे से सारा सौदा खोल कर दूसरी खटिया पर उंडेल दिया। फिर उसी अँगोछे से पटाख़े दाग़ने वाली आवाज़ में पाँव और जूते साफ़ करने लगा।

    (15)

    रूपा के जहेज़ में आई छोटे से सूती क़ालीन जैसी जा-नमाज़ पर गाजी भाई नमाज़ पढ़ रहे थे जैसे बैठकें लगा रहे हों। छप्पर की थमड़िया में वो पीतल की लालटेन टँगी थी जो आख़िरी बार हुसैनी के ब्याह में क़लई हुई थी। हुसैनी ने कोठरी से कपड़े में लिपटा हुआ मुरादाबादी हुक़्क़ा और सीतापुर का बँधा हुआ नेचा ताज़ा करके जब वो चिलम में आग रखने चूल्हे के पास गया तो दूधार देख कर ठिठक गया। दूधार गले तक भरी पड़ी थी।

    का दूध कहूँ से आवा है? हुसैनी ने अंगारे की राख झाड़ते हुए रूपा को देखे बग़ैर पूछा।

    नाहीं तो... घर का है

    हुसैनी ने तड़ से महसूस किया कि आज मुद्दत के बाद इस आवाज़ में बरछी की तरह खिंची हुई ख़फ़गी नहीं है इससे तो तिलक की मिठास टपक रही है। उसने गर्दन मोड़ कर बे यक़ीनी से रूपा को देखा जो पीतल के बटले में पीतल का चम्मच घुमा रही थी जैसे कलाई को नचा रही हो। हुसैनी देखता रह गया। रूपा के चेहरे पर अपनाईयत की वो नर्मी चमक रही थी जो मौसम की पहली बारिश की फुवार में होती है... जिसके इंतज़ार में उसके दिन सूख कर काँटा होगये... उसकी रातें जल कर कोयला हो गईं थीं। उसके दिल के थाल में रखे हुए... बुझे हुए सब दीए यकबारगी जल उठे जैसे नाचते मोर के पैरों के चाना चमक उठे हों। उसने गाजी भाई के पट्टी से हुक़्क़ा लगा दिया और गाजी भाई से बातें करने पर आमादा हो गया जिसका क़ियाफ़ा हमेशा उसके दिल में शुबहे जगाता रहा जिसका नाम रूपा की बद-नामियों के आँचल से बंधा था।

    हाँ तो सब खैर सल्ला है गाजी भाई?

    सब अल्लाह का सुकर है।

    घर से आए रहे हो सीधे?

    हाँ कल... मुनव्वर चाचा बोले कि तनी रूपा की खैर खबर ले आओ... तो हम कहा कि चले जाएँ।

    हूँ... अच्छा कियो...

    चार पहाड़ ऐसे लड़कों में से एक को भी इतनी छुट्टी थी कि वो रूपा की ख़ैर सला ले जाता। वो दिल में सोचता रहा। गोबर से लिपे हुए चौके में बटले और चम्मच लिए रूपा बैठी रही। देर के बाद गाजी भाई और हुसैनी नहाकर आए। सर से पानी के छोटे-छोटे क़तरे टपकाते हुए चौके में बैठ गए। रोटियों के चिए (अंबार) मट्ठे की हाँडी आलू की भाजी और अंडों की तरकारी सब देखते ही देखते उड़न छू हो गई। गाजी भाई के बाद हुसैनी एक लम्बी डकार लेता हुआ उठा और ताक़ में रखे हुए तम्बाकू के काले-काले डिब्बे को उठाए छप्पर में आया तो उसने खुले हुए दरवाज़े से देखा कि रूपा कोठरी में बाँस का पिटारा खोले खड़ी खदर बदर कर रही है।

    कड़वे तेल की मीठी रौशनी ने कोरी हाँडी ऐसे चेहरे पर पतुरियों (रंडियों) के गालों पर लगाने वाली लाली फेर दी है। काला मोटा दुपट्टा शानों पर सो रहा है, सर के ज़ेवर की चाँदी धीमी-धीमी चमक रही है। गर्दन के चौड़े चकले तौक़ की लम्बी-लम्बी झालर के नीचे सर उठाकर खड़ी बेपनाह जवानी हाथ हिला-हिला कर हुसैनी को बुलाने लगी। उसने तम्बाकू का बकोटा चिलम में जमा दिया और गाजी भाई को कनखियों से देखा जो दूसरे छप्पर की दहलीज़ पर बैठे वुज़ू कर रहे थे और ऊँची आवाज़ में खंकार कर आँगन का कलेजा हौला रहे थे। हुसैनी तिरछा-तिरछा चल कर एक हाथ रूपा के शानों पर रख दिया। धीरे-धीरे काँपते हाथों का लम्स महसूस करते ही रूपा चमक धड़क रही थी। चितवनों से वही जान को हलकान कर देने वाली लापरवाई बरस रही थी जिसने हुसैनी की रातें उजाड़ दी थीं और नींदें लूट ली थीं। क़ब्ल इसके हुसैनी की सनसनाती हुई कनपटियाँ मामूल पर आएं वो जा चुकी थी।

    (16)

    गाजी भाई को नमाज़ पढ़ते मुद्दत हो गई। जानवरों की घंटियाँ सो गईं। गढ़ी के शामियाने में बजते हुए नक़्क़ारों की कड़म-धड़म हुसैनी के आँगन में कुदकड़े लगाने लगी। नबी नगर से जाने वालों की टोलियाँ गलियारे में लाठियाँ पटकती और गालियाँ बकती दूर निकल गईं। तब हुसैनी को होश आया। अलगनी से चादर उतारी, झाड़ कर कंधे पर डाली, मेहंदी से रंगी और लोहे से बँधी लाठी बग़ल में दाबी और गाजी भाई के क़ालीन लगे पलँग के पास पड़ी हुई अपनी खरी चारपाई के पास खड़ा हो गया।

    तो का गाजी भाई तुम...

    गाजी भाई ने लेटे-लेटे बात उचक ली, नाईं हुसैनी भैया... जोड़-जोड़ टूटा हुआ है... तुम देख आओ नौटंकी, मैं का सोवे देव। रूपा छप्पर में झूलते छींके पर पतीली बैठा रही थी। हुसैनी की आवाज़ से चौंक पड़ी, दरवाजा बंद करलेव... मैं रात उतरने आए जियों।

    (17)

    नौटंकी का मस्ख़रा हाथों के इशारों और आवाज़ के घटते बढ़ते हजम से फ़ुहश मज़ाक़ कर रहा था और सामईन लोटन कबूतर बने हुए थे। चाँदी के पेचवान से शग़ल करते हुए सरकार तक मसनद पर पहलू बदल-बदल कर दाद दे रहे थे कि नबी नगर के नौजवानों की छुट्टियाँ भर्रा मार कर खड़ी हो गई। मजमे को फाड़ कर शामियाने के बाहर गई और इस ख़ामोशी से नबी नगर के रास्ता पर हो ली जैसे वहाँ डाका डालने जा रही हो। यार अली के पहलू में चलता हुआ हुसैनी ख़ला में देख रहा था कि वो अपने इस मकान को जिसके दरवाज़े पर मोर्चा लिपटा हुआ पंसेरी भर का क़ुफ़्ल झूल रहा है और जिसकी कुंजी वो कहीं रख कर भूल गया है... इस मकान को मिट्टी का तेल छिड़क-छिड़क कर फूँक रहा है और इस आदमी को जो मकान की तन्हाई में अपने गुनाहों की पोट खोल बैठा है, साँप की तरह कुचल रहा है।

    और मुनव्वर वाले? किसी ने उसके अंदर से सवाल किया। उसने भन्नाकर कोई मोटी सी गाली तजवीज़ की। चलवर के दरख़्तों के पास सब खड़े हो गये।

    यार अली... तुम पहुँच घर घेर लियो... बस। हुसैनी कुएँ से बोला। यार अली ने गर्दन हिलाकर उन पन्द्रह-बीस आदमियों को देखा जो मरने मारने पर तुले हुए थे। सबसे पहले हुसैनी ने अपने घर के चारों तरफ़ घूम फिर इतमीनान कर लिया कि कहीं गाजी की छुट्टिया वाले छुपे तो नहीं बैठे हैं। फिर अपने सदर दरवाज़े के सामने पहुँच कर उसने कमर से वो बारह इन्ची चाक़ू निकाला जिसपर कई आदमियों के लहू ने धार रखी थी। जब यार अली ने सब इंतज़ाम से फ़ारिग़ होकर गर्दन को हिलाया तब हुसैनी दरवाज़े के ताक़ पर पाँव रख कर खड़ा हुआ और गर्दन ऊँची करके चोरों की तरह अपने मकान का जाइज़ा लिया।

    (18)

    सेहन के बीचों बीच पलंग पर क़ालीन लेटा सो रहा था। उसके दोनों पहलुओं पर एक-एक चारपाई बे-सुद्ध पड़ी थी। अपनी साँसों को संभाल कर उस छप्पर को देखा जिसमें रूपा की कोठरी थी। दोनों किवाड़ों के बीच एक बालिश्त चौड़ी लालटेन की रौशनी की झालर टँगी थी। हुसैनी ताक़ से पाँव उतार नीचे आया। ज़मीन पर बैठ गया। हिरन मार्का बीड़ी का बंडल निकाला, चुपके से दियासलाई जलाई। चार ही कश में बीड़ी को खा गया। आख़िरी कश का धुआँ अपने सीने पर छोड़ा जहाँ भंगुरे लगे थे। चाक़ू की धार एक बार फिर टटोली और दिवार पर चढ़ कर सेहन में बिल्ली की तरह उतर गया।

    पुल-ए-सिरात पर चलता हुआ कोठरी के दरवाज़े पर पहुँच गया। साँसों की धौंकनी बंद कर दी। दिल की धड़कन के बजते हुए घंटे को थामा और निगाह उठाई और शीशम की गाउदम रान के शहतीर पर रूपा लेटी थी। काजल लगी आँखों से ऐसी मन मोहनी बातें कर रही थी जिनको सुनने के लिए हर रात हुसैनी ने ख़्वाबों की फ़सल बोई थी और हर सुबह टेड़ी दिल ने बिसयारा चुन लिया था। गाजी भाई की उंगलियाँ जैसे मरखने बैलों को बाँधने वाले खूँटे... ऐसी उंगलियाँ करती की चुनट, लहँगे के भंवर और आँचल की मिठाई... सबकी ख़ैरियत पूछती चल रही थी... हुसैनी के बदन का सारा ख़ून उछल कर उसके सर में तड़पने लगा और कानों पे बिजलियाँ सी गिर पड़ीं।

    रजब के बेटे... धिक्कार है तोई पर।

    धड़ाक से दरवाज़ा खुल गया। रूपा घुपनी (गोफन) के ढ़ेले की तरह उड़ी और कोने में खड़ी हुई आदमी भर ऊँची मठौर से चिपक गई। गाजी भाई इस झगड़े से बरझा गए जैसे हाथी की ख़ल्वत में कोई आदमी चला जाये। गाजी भाई कोठरी में इस तरह खड़े हो गये जैसे नियाम से जिधर निकलता है। गाजी भाई ने इकहरे बदन के हुसैनी को ख़ाली हाथ देखा तो अंदर ही अंदर खिल गए जैसे आधी लड़ाई जीत ली हो। फिर वो गैंडे की तरह उछले फुर्तीला हुसैनी बाज़ू में हो गया और वो अपने ज़ोर में तोप के गोले की तरह कोठरी से निकल गए। फिर हुसैनी की बाँहों में गये। लोहे के मोटे-मोटे तारों से बनी हुई बाँहों में गये। इस दाँव से उलझे हुए हुसैनी ने देखा कि रूपा दहलीज़ पर खड़ी है। लालटेन की रौशनी में जगमगा रही है। फिर उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे ख़ाली रूपा नहीं सारा नबी नगर सारंग आबाद सारी दुनिया इस नामी रजब के इकलौते बेटे की आख़िरी कुश्ती देख रही है।

    इस ख़्याल के आते ही उसके बदन में आग भर गई। उसने अपनी उम्र भर की सारी ताक़त और रजब की ज़िन्दगी भर की कमाई को पुकार कर ज़ोर किया और गाजी भाई को... दानव को अपने सर तक ऊँचा उठा लिया था और हुसैनी की कनखियों ने देखा कि रूपा की आँख, कान तक चरी हुई आँखें फट गईं... वो इस देव को उठाए हुए इस तरह चलता सदर दरवाज़े तक पहुँच गया जिसके दोनों पट खुले हुए थे और उसकी दहलीज़ पर यार अली पिस्तौल लिए खड़ा था। हुसैनी ने दरवाज़े की चौखट ही से गाजी भाई को फेंक दिया। जैसे कुएं की गरारी तक खींचे हुए जहाज़ी गगरे की रस्सी टूट जाए... हुसैनी थोड़ी देर तक साकित खड़ा रहा।

    फिर जब मुड़ा तो उसके पाँव नहीं उठ रहे थे। दोनों बाज़ू झूल गए थे जैसे उनकी हड्डियाँ टूट गईं हों। होंटों पर गर्म-गर्म नमकीन नमी रेंग रही थी। कोठरी की दहलीज़ पार करते ही अपने आपको पलंग पर फेंक देने के लिए वो झुका लेकिन रास्ते ही में उसे रूपा ने संभाल अपना चादरा उतार कर हुसैनी के होंटों का ख़ून पोंछा। जब उसका हाथ हुसैनी के पखोड़े से छू गया और वो बे-क़रार हो कर चीख़ उठा तो वो चौंक पड़ी। नादिम-नादिम निगाहों से उसे देखने लगी... अपने सफ़ेद शीशे के हाथों से हुसैनी के सीने को सहलाने लगी... जैसे वो हुसैनी का उभरती हुई हड्डियों वाला सपाट सीना नहीं विलायती शीशे का फ़ानूस हो... हुसैनी आँखें फाड़े देख रहा था... कि विलायती शीशे का फ़ानूस रूपा के चेहरे की मशाल से जगमगा उठा।

    स्रोत:

    Aaina-e-Ayyam (Pg. 192)

    • लेखक: क़ाज़ी अबदुस्सत्तार
      • प्रकाशक: एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1995

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