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तमाशा

मंशा याद

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मंशा याद

MORE BYमंशा याद

    अंधेरे का तवील सफ़र तय करने के बाद वो सूरज तूलूअ’ होने तक दरिया के किनारे पहुंच जाते हैं।

    किनारे पर जगह-जगह अध खाई और मरी हुई मछलियाँ बिखरी पड़ी हैं। छोटा कहता है,”ये लधरों की कारस्तानी लगती है अब्बा।”

    “हाँ पुत्तर।” बड़ा कहता है, “ये ऐसा ही करते हैं। ज़रूरत से ज़्यादा मछलियाँ मार-मार कर जमा करते रहते हैं मगर खाते वक़्त आपस में लड़ पड़ते हैं और शिकार को ख़राब और एक दूसरे को लहूलुहान कर देते हैं।”

    “ये इतनी सारी मछलियाँ!” छोटा कहता है, “एक रात में इतनी मछलियाँ मारते हैं, तो दरिया मछलियों से ख़ाली हो जाएगा?”

    “अगर लधरों की ता’दाद बढ़ती रही तो ऐसा हो सकता है।”

    वो सामान रखकर किनारे पर खड़े हो जाते हैं और उस पार देखते हैं। बस्ती...जहां उन्हें पहुंचना है, उस की मस्जिद के मीनार साफ़ नज़र आते हैं मगर उस तक पहुंचने के लिए पुल है किश्ती... वो परेशान हो कर दरिया की तरफ़ देखते हैं...दरिया हर जगह से एक जैसा गहरा और चौड़ा है। बड़ा कुछ देर ताम्मुल करता है फिर कहता है, “अल्लाह का नाम लेकर ठल पड़ते हैं पुत्तर।”

    “जैसे तुम्हारी मर्ज़ी अब्बा।”

    “अगर डूब गये तो...”

    “तो आइन्दा ऐसी ग़लती नहीं करेंगे।”

    “तू काफ़ी होशियार हो गया है जमूरे”, बड़ा हंसते हुए कहता है।

    “तुम्हारा चेला जो हुआ अब्बा।”

    “ज़रूर ठल पड़ते पुत्तर।” बड़ा कुछ देर सोचने के बाद कहता है, “मगर मुझे रात वाला ख़्वाब याद रहा है।”

    “कैसा ख़्वाब...अब्बा?”

    “बहुत डरावना ख़्वाब था पुत्तर।”

    “क्या देखा था अब्बा?”

    “मैंने देखा जमूरे कि बहुत बड़ा मजमा है। मैं तमाशाइयों के दरमियान कौडियों वाले को गले में डाले खड़ा हूँ। बच्चे तालियाँ बजाते और बड़े ज़मीन पर बिछी चादर पर सिक्के फेंक रहे हैं कि अचानक कौडियों वाला जिसे मैंने तुम्हारी तरह लाड प्यार से पाला है, मेरी गर्दन में दाँत गाड़ देता और अपना ज़हर उंडेल देता है।”

    “फिर क्या हुआ अब्बा?”

    “फिर मेरी आँखों के सामने अंधेरा छाने लगता है, लोगों के चेहरे धुँदला जाते और आवाज़ें डूब जाती हैं। मुझे ऐसा लगता है जैसे में मौत ऐसी नींद के अंधे कुवें में नीचे ही नीचे गिरता चला जा रहा हूँ। डूबते-डूबते रही सही ताक़त जमा कर के चारों तरफ़ फैली हुई तारीकी में आवाज़ का तीर फेंकता और तुम्हें पुकारता हूँ।”

    “फिर?”

    “फिर में अपनी ही चीख़ की आवाज़ सुनकर हड़बड़ा कर उठ बैठा। क्या देखता हूँ कि आधी रात का वक़्त है। चांद डूब चुका है। कुत्ते रो रहे हैं और ओस से बोझल हवा उदास-उदास फिर रही है।”

    “फिर क्या हुआ?”

    “फिर मैंने देखा कि तुम ठंड की वजह से सिमटे हुए हो। मैंने तुम्हारे ऊपर चादर डाल दी जैसे अखाड़े में तुम्हारे गले पर छुरी चलाने और तुम्हें दुबारा ज़िंदा करने के लिए डाला करता हूँ। मगर रात के उस उदास पहर में मुझे अपना चादर डालने का ये अंदाज़ बहुत ही नहस मा’लूम हुआ और नींद उड़ गयी।

    “बस!” छोटा कहता है, “इस से तुमने ये नतीजा निकाल लिया कि हमें दरिया में नहीं उतरना चाहिए।”

    “हाँ पुत्तर। आज का दिन हमारे लिए अच्छा नहीं है।”

    वो टांगें फैला कर बैठ जाता और सुस्ताने लगता है। छोटा अभी तक ताज़ा-दम है। दौड़-दौड़ कर टीलों पर चढ़ता-उतरता है और अचानक पुकारता है।

    “अब्बा पुल...मुझे पल दिखाई दे रहा है। ज़्यादा दूर नहीं है।”

    पुल का नाम सुनकर बड़े के बूढ़े जिस्म में ज़िंदगी की ताज़ा लहर दौड़ जाती है। वो उठकर भागता हुआ टीले पर आता है और उस तरफ़ को देखता है जिधर पानी बहता है। फिर ख़ुश हो कर कहता है, “हाँ पुल ज़्यादा दूर नहीं...मगर रास्ता दुश्वार-गुज़ार है।”

    “कोई बात नहीं अब्बा।”

    दोनों अपना-अपना सामान उठा लेते हैं और दरिया के साथ-साथ चलने लगते हैं। रास्ता मुश्किल है। बहुत से नशेब-ओ-फ़राज़। टीले और खाइयाँ। नदी-नाले। घना जंगल। ख़ारदार झाड़ियाँ और पांव लहूलुहान कर देने वाली दूब...मगर वो चलते रहते हैं...चलते रहते हैं। और उनके साथ साथ दूसरे किनारे पर बस्ती की मस्जिद के ऊंचे मीनार भी चलते रहते हैं। चलते-चलते वो थक जाते हैं। सुबह से दोपहर हो जाती है मगर पुल अब भी इतना ही दूर नज़र आता है जितना उस वक़्त नज़र आता था जब वो चले थे। बड़ा कहता है,

    “अ’जीब बात है जमूरे...पुल आगे ही आगे चलता जाता है।”

    “और बस्ती भी अब्बा,” छोटा कहता है, “मीनार हमारे साथ-साथ चल रहे हैं।”

    “अ’जीब बात है जमूरे।”

    “बहुत ही अ’जीब अब्बा।”

    “ये कोई इसरार है पुत्तर।”

    “मेरा ख़्याल है अब्बा”, छोटा कहता है, “हम हर-रोज़ लोगों से मखौल करते हैं आज हमारे साथ मखौल हो रहा है।”

    “अल्लाह ख़ैर करे।”

    चलते-चलते दोपहर ढलने लगती है। वो चल-चल कर निढाल हो जाते हैं। दरिया का गदला पानी पी पी कर उनके होंटों पर पपड़ियाँ जम जाती हैं। ख़ारदार झाड़ियों से उलझ-उलझ कर लिबास तार-तार हो जाता और पांव ज़ख़्मी हो जाते हैं। मगर पुल और बस्ती के मीनार अब भी इतने ही फ़ासले पर नज़र आते हैं।

    “रुक जा पुत्तर।” बड़ा कहता है, “उस पार वाली बस्ती तक पहुंचना शायद हमारे मुक़द्दर में नहीं है, हम इस आगे ही आगे चलते हुए पुल तक कभी पहुंच पाएँगे।”

    “फिर क्या करें अब्बा?”

    “वापस चलते हैं पुत्तर?”

    “नहीं अब्बा। वापस जा कर क्या करेंगे। हमारी मंज़िल तो उस पार की बस्ती है और फिर अब्बा... वापस पलट जाना मर्दों का काम नहीं है।”

    “हाँ पुत्तर। तुम ठीक कहते हो...हमारी तो ज़नानियां भी दरिया की बिफरी हुई लहरों से नहीं डरतीं... कच्चे घड़ों पर ठल पड़ती हैं।”

    “वाह अब्बा...क्या बात कही है...चलो ठल पड़ते हैं।”

    “नहीं पुत्तर... तुम थक जाओगे...और फिर हमारे पास सामान है।”

    “तुम मेरी फ़िक्र करो अब्बा...और सामान का क्या है वहां जा कर नया बना लेंगे।”

    बड़ा कोई जवाब नहीं देता। सामान नीचे रखकर दरिया की तरफ़ देखता रहता है। फिर गाने लगता है, “नें वी डोहनघी तुला शीनहां तां पतन मिले।

    (नदी गहरी और किश्ती पुरानी है और घाट पर शेरों का पहरा है)

    छोटा लुक़मा देता है, “मैं वी जानाँ झोक रानझन दी नाल मेरे कोई चले।”

    (मुझे भी महबूब की बस्ती पहुंचना है,कौन साथ चलेगा)

    अचानक कुत्तों के भूँकने और मवेशियों के डकराने की आवाज़ें सुनाई देती हैं।

    “ये आवाज़ें?” छोटा कहता है, “इस जंगल ब्याबान में?”

    “मेरा ख़्याल है यहां क़रीब ही कोई आबादी है कोई दूसरी बस्ती।”

    “ऐसा ही मा’लूम होता है।”

    “पुत्तर क्यों आज की रात यहीं इस बस्ती में गुज़ार लें। सुब्ह-सवेरे ताज़ा दम हो कर चलेंगे।”

    “जैसे तुम्हारी मर्ज़ी अब्बा।”

    बड़ा कुछ देर सोचता रहता है फिर आवाज़ों के तआ’क़ुब में चलने लगता है। छोटा पलट-पलट कर दरिया के उस पार वाली बस्ती की तरफ़ देखता उसके पीछे-पीछे चलने लगता है। दरिया का किनारा लहज़ा-लहज़ा दूर होता जाता है और वो छोटी सी एक बस्ती के क़रीब पहुंच जाते हैं।

    अचानक बड़ा ठिटक कर खड़ा हो जाता है और बैरी के दरख़्त की तरफ़ देखकर कहता है, “ये क्या तमाशा है जमूरिया।”

    जमूरा बैरी की तरफ़ देखता है। ज़मीन से मिट्टी का ढेला उठा कर मारता है फिर ज़मीन से बैर उठा कर चखता और थूक देता है।

    “तुम्हारा शक ठीक है अब्बा...धरकोने (निबोलियां )ही हैं कड़वे ज़हर।”

    “रब ख़ैर करे। बैरी के साथ धरकोने।” बड़ा कहता है, “कोई इसरार है पुत्तर।”

    छोटा कोई जवाब नहीं देता। आसमान की तरफ़ मुँह उठा कर देखता रहता है। बड़ा पूछता है, “क्या देख रहे हो पुत्तर, अबाबीलें हैं?”

    “हाँ अब्बा...पूरा लश्कर है।”

    “दाना दुनका ढूंढ रही होंगी पुत्तर।”

    “क्या पता कुछ और ढूंढ रही हों अब्बा।”

    “और क्या पुत्तर?”

    “हाथियों को अब्बा।”

    “नहीं पुत्तर...ये वो अबाबीलें नहीं हैं। ये तो हाथियों पर बैठ कर चहचहाने और चोग बदलने वाली अबाबीलें हैं।”

    “यहां से निकल चलें अब्बा...ये ठीक जगह नहीं है।”

    “रब ख़ैर करेगा पुत्तर।” बड़ा कहता है, “कुछ धंदा कर लें। रात बसर कर के सुब्ह-सवेरे निकल चलेंगे।”

    “जैसे तुम्हारी मर्ज़ी अब्बा।”

    बस्ती में दाख़िल होते ही वो एक खुली जगह पर सामान रखकर आस-पास का जायज़ा लेते हैं। फिर छोटा ज़मीन पर चादर बिछा कर उसके एक कोने पर बैठ जाता है और बड़ा बाँसुरी और डुगडुगी निकाल कर बजाने लगता है।

    देखते ही देखते बहुत से बच्चे उनके गिर्द जमा हो जाते हैं। दोनों के चेहरे ख़ुशी से खिल उठते हैं बड़ा छोटे की तरफ़ देखकर सर हिलाता है, जैसे कह रहा हो,

    अब रात बसर करने का अच्छा बंदोबस्त हो जाएगा।

    बड़ा बाँसुरी और डुगडुगी बजाता रहता है, जब थक जाता है तो कहता है,

    “पुत्तर जमूरिया...ये बस्ती भी अ’जीब है। डुगडुगी बजाते-बजाते मेरा बाज़ू शल हो गया है और बाँसुरी में फूंकें मारते-मारते मेरा अन्दर सखनां (ख़ाली) हो गया है मगर अभी तक किसी बालिग़ मर्द या औरत ने जिसके खीसे में पैसे हों इधर का रुख नहीं किया।”

    “क्या पता अब्बा।” छोटा कहता है, “यहां के लोग बहरे हों या उन्होंने कानों में रुई ठूंस रखी हो।”

    “वो क्यों पुत्तर?”

    “वो इसलिए अब्बा कि जब बंदा कभी भी ख़ैर की ख़बर सुने तो आहिस्ता-आहिस्ता उसका दिल इक्का सुनने ही से उचाट हो जाता है।”

    “वाह जमूरे तू ने सबक़ ख़ूब पकाया हुआ है, अच्छा ये बता तुझे कैसे पता चला कि इन लोगों ने कभी ख़ैर की ख़बर नहीं सुनी?”

    “मैंने उन नयानों (कमसिनों) की सूरतों से अंदाज़ा लगाया है अब्बा।”

    “तू बहुत होशियार हो गया है जमूरे।”

    “तुम्हारा चेला जो हुआ अब्बा।”

    “वाक़ई पुत्तर...ऐसा लगता है जैसे ये सारे यतीम हैं।”

    “मुझे तो ऐसा लगता है अब्बा जैसे इन्होंने अपने बापों को शहर-बदर कर दिया हुआ है।”

    “शायद हम ग़लत जगह गये हैं।”

    “हाँ अब्बा।”

    “देखना पुत्तर...सारी बस्ती में कोई एक भी बालिग़ मर्द-औरत नहीं। ऐसा लगता है जैसे वो सब भी हमारी तरह दूसरी बस्तियों में तमाशा दिखाने गये होंगे।”

    “फिर तो उनकी वापसी का इंतिज़ार ज़रूर करना चाहिए अब्बा।”

    “क्यों पुत्तर?”

    “ये देखने के लिए कि वो बड़े मदारी हैं या तुम?”

    “नहीं जमूरिया मुझे इन बच्चों से ख़ौफ़ आने लगा है। अ’जीब से बच्चे हैं।”

    “तो फिर यहां से चलते हैं अब्बा।”

    “हाँ पुत्तर...चले जाना ही अच्छा है मगर तू ज़रा इन छोटों से ये तो पूछ इनके बड़े कहाँ हैं?”

    “हम ख़ुद बड़े हैं। मजमे में से एक बच्चे की आवाज़ आती है, “क्या हम तुम्हें छोटे नज़र आते हैं?”

    बड़ा और छोटा चौंक कर एक दूसरे की तरफ़ देखते हैं और अभी अपनी हैरत पर क़ाबू पाने की कोशिश कर रहे होते हैं कि छोटी उम्र का एक और बच्चा निहायत पुख़्ता लहजे में कहता है, “मुंशी ठीक कहता है...तुम लोग जल्दी-जल्दी खेल दिखाओ और अपनी राह लो...हम ऐसे लोगों को जो ख़ुद को हमसे बड़ा समझते हैं बस्ती में ज़्यादा देर रुकने की इजाज़त नहीं देते।”

    “तो क्या इस बस्ती में पूरे क़द का कोई आदमी नहीं रहता?”

    “हम रहने ही नहीं देते...” एक बच्चा हंसकर कहता है, “ठिकाने लगा देते हैं।”

    “तो ये बस्ती?” बड़ा हकला जाता है।

    “हाँ ये बस्ती...ये हमारी बस्ती है और मैं यहां का सरदार हूँ। लेकिन तुम वक़्त ज़ाए करो।अगर तुमने कोई अच्छा करतब दिखाया तो हम तुम्हें ज़रूर इनाम देंगे...चलो तमाशा दिखाओ।”

    “अभी तो हम ख़ुद देख रहे हैं।” छोटा कहता है।

    “तमीज़ से बात करो लड़के।” सरदार ग़ुस्से से कहता है, “वर्ना!

    “अरे।” छोटा हँसता है, “तुम तो वाक़ई सरदार के बेटे लगते हो।”

    “सरदार का बेटा नहीं...मैं ख़ुद सरदार हूँ।”

    “हाँ हाँ...ये सरदार है।” बहुत सी आवाज़ें आती हैं। छोटा हँसता चला जाता है फिर बड़े के क़रीब आकर कहता है, “मेरा ख़्याल है हम बौनों की बस्ती में गये हैं।”

    “मदारी...ये क्या बकवास है।” सरदार चिल्ला कर कहता है, “ये हमें बौना कहता है इस बदतमीज़ बच्चे को चुप कराओ वर्ना बस्ती से निकल जाओ।”

    बड़ा शश्दर खड़ा चारों तरफ़ देखता है। फिर आहिस्ता से कहता है, “जमूरे चुप हो जा...ये कोई इसरार है।”

    “क्या इसरार है अब्बा...ये बच्चे?”

    “ये बच्चे नहीं हैं पुत्तर।” बड़ा उसकी बात काट कर कहता है।

    “फिर क्या हैं अब्बा?”

    “ग़ौर से देख जमूरे...इनके बाल सफ़ेद हैं और इनके चेहरों पर झुर्रियाँ हैं। इनकी उमरें ज़्यादा हो गई हैं मगर इनके ज़ेह्न नाबालिग़ रह गये हैं। ये निहायत ख़तरनाक हो सकते हैं।”

    “अ’जीब बात है।”

    “बहुत ही अ’जीब पुत्तर...रब ख़ैर करे।”

    अचानक चंद बच्चे बहुत सी चारपाइयाँ और मोंढे उठाए आते हैं और सरदार बच्चे समेत बहुत से दूसरे तमाशाई बच्चे इन चारपाइयों और मोंढों पर बैठ जाते हैं। सरदार तहक्कुमाना लहजे में कहता है, “खेल शुरू किया जाये।”

    बड़ा परेशान हो कर तमाशाइयों पर एक नज़र डालता है। फिर थैले में से चीज़ें निकालने लग जाता है।

    सबसे पहले वो तीन गोले निकाल कर ज़मीन पर रखता है फिर उन्हें तीन प्यालों से ढाँप देता है। कुछ पढ़ कर फूंक मारता और बारी-बारी सारे प्याले उठा कर दिखाता है। गोले ग़ायब हो चुके हैं।

    वो तमाशाइयों की तरफ़ दाद तलब नज़रों से देखता है मगर वो तालियाँ नहीं बजाते, दाद नहीं देते, चुप-चाप खड़े रहते हैं।

    फिर वो प्यालों को औंधा कर के बारी-बारी ऊपर उठाता है अब हर प्याले के नीचे एक एक गोला दिखाई देता है वो दुबारा सरदार और दूसरे तमाशाइयों की तरफ़ देखता है मगर वो अब भी ख़ामोश रहते हैं।

    फिर वो जेब से एक रुपये का सिक्का निकालता है, एक के दो और दो के चार बनाता है और कहता है, “मेहरबान...क़द्र-दान...मैं जादूगर नहीं हूँ। ये महज़ हाथ की सफ़ाई है जादूगर होता तो यहां होता घर में बैठा सिक्के बना रहा होता।”

    “हमें मा’लूम है, तुम खेल दिखाओ।” सरदार उसे टोकता है।

    “तो फिर तुम ख़ुद ही मैदान में जाओ।” जमूरा तंज़ करता है।

    “मदारी...ये लड़का।” सरदार ग़ज़बनाक हो जाता है।

    “मैं माफ़ी चाहता हूँ सरदार।” बड़ा कहता है और इशारे से जमूरे को ख़ामोश रहने की तलक़ीन करता है और बारी-बारी बहुत से खेल दिखाता है। ख़ाली गिलास पानी से भर जाता है और भरा हुआ गिलास औंधा करने से पानी नहीं गिरता।

    मुट्ठी में बंद कर के निकालने से रूमाल का रंग तब्दील हो जाता है। जलता हुआ सिगरेट निगल कर कानों की तरफ़ से धुआँ निकालता है। कौडियों वाले से डसवाता और उसे गर्दन में डाल लेता है। मुँह के रास्ते पेट में ख़ंजर उतार कर निकाल लेता है।

    मगर सरदार समेत कोई तमाशाई ताली नहीं बजाता, दाद नहीं देता।वो परेशान हो जाता है। फिर ऐ’लान करता है,

    “अब आख़िर में मैं जमूरे के गले पर छुरी चलाऊंगा और इसे ज़बह कर के दुबारा ज़िंदा कर दिखाऊँगा।”

    सरदार समेत सारे तमाशाई ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ पीटते हैं। वो बेहद हैरान होता है। आ’म तौर पर तमाशे के आख़िर में जब वो इस खेल का ऐलान किया करता है तो बहुत से तमाशाई इस खेल को नापसंद करते और उसे मना कर देते हैं मगर पता नहीं ये कैसे सफ़्फ़ाक तमाशाई हैं कि छुरी चलाने की बात सुनकर तालियाँ पीटने लगे हैं।

    वो जमूरे को ज़मीन पर लिटाता है, उसके ऊपर उसी तरह चादर डालता है जैसे हमेशा डाला करता है। फिर थैले में से छुरी निकाल कर उसकी धार पर हाथ फेरते हुए कहता है, “साहिबान...क़दर दान... कोई बाप अपने बेटे की गर्दन पर छुरी नहीं चला सकता... ही अल्लाह के पैग़म्बरों के सिवा किसी में इतनी हिम्मत और हौसला हो सकता है...ये सब कुछ एक खेल है...नज़र का धोका...इस पापी पेट की ख़ातिर।”

    “हमें मा’लूम है।”

    “हम जानते हैं।”

    “बातों में वक़्त ज़ाए करो।” सरदार कहता है।

    “छुरी चलाओ...” एक तरफ़ से आवाज़ आती है।

    “छुरी चलाओ...छुरी चलाओ।” तमाशाई शोर मचाते हैं।

    वो अपनी घबराहट पर क़ाबू पाने की कोशिश करता और जमूरे के क़रीब आकर छुरी चलाता है।

    तमाशाई ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ और सीटियाँ बजाते हैं, सिक्के फेंकते और बकरे बुलाते हैं और जमूरे के दुबारा ज़िंदा होने का खेल देखे बग़ैर खिसकने लगते हैं।

    देखते ही देखते सारा पड़ ख़ाली हो जाता है।

    वो जमूरे को आवाज़ देता है, “उठ पुत्तर...पैसे जमा कर।”

    मगर जमूरा कोई जवाब नहीं देता।

    वो घबरा कर चादर हटाता है। क्या देखता है कि जमूरा ख़ून में लत-पत है और उसकी गर्दन सच-मुच कटी पड़ी है। उसकी चीख़ें सारी बस्ती में गूँजने लगती हैं।

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