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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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दो तारे

MORE BYशफ़ीक़ुर्रहमान

    मैंने दोनों बाज़ू ऊपर उठाए, पंजों पर उछला और सर के बल छलांग लगा दी। ख़ुनुक हवा के झोंकों में से गुज़रता हुआ धम से ठंडे पानी में कूदा। मेरी उंगलियां नदी की तह से जा लगीं। फिर उछला और पानी की सतह पर आगया। उधर उधर देखा। गुलदस्ते का कोई पता था। पानी का बहाव काफ़ी तेज़ था। मैं पूरे ज़ोर से तैरने लगा। ज़रा सी देर के बाद मैंने गुलदस्ते को देख लिया जो काफ़ी दूर था। मैं पत्थरों से बचता हुआ बड़ी तेज़ी से तैरता जा रहा था। ख़ूब लंबा सांस लेकर एक ग़ोता लगाया और फूलों के बिल्कुल पास जा पहुंचा।

    यकायक पानी गिरने का शोर सुनाई दिया। फुवार के बादल उठते नज़र आए। आबशार नज़दीक आगई थी। मैंने बेतहाशा तैरना शुरू कर दिया। अगर फ़ौरन ही गुलदस्ता पकड़ लिया तो आबशार में फूलों की पत्ती पत्ती बिखर जाएगी। आख़िर एक और ग़ोते के बाद मैंने गुलदस्ते को जा लिया और शिप से पकड़ लिया। बड़ी हिफ़ाज़त से उसे किनारे तक ले आया। पीछे मुड़ कर देखा। मैं कितनी दूर चला आया था। नदी के मोड़ और चीड़ के दरख़्तों ने उस चट्टान को छुपा दिया था जहां से छलांग लगाई थी। गोल गोल पत्थरों को फलांगता हुआ किनारे के साथ साथ वापस जा रहा था। वो चट्टान भी नज़र आगई। हैरान रह गया कि इतनी बुलंदी से किस तरह कूद गया था। दुबारा कोशिश भी करूँ तो हिम्मत पड़े।

    फिर उस चट्टान पर एक सफ़ेद सा धब्बा भी नज़र आने लगा, जो बड़ा होता गया। ये परवीन थी। मैंने फूलों को फिर से चुना। भला ऐसे फूलों को क्योंकर ज़ाए होने देता। मुस्कुराते हुए रंग बिरंगे मुअत्तर फूल, कितने प्यारे। बिल्कुल परवीन की तरह।

    छोटी पगडंडी कई चक्कर लगा कर पहाड़ पर चढ़ती थी, लेकिन इतनी देर कौन लगाता। मैं सीधा चल दिया। लहलहाते हुए सब्ज़े को रौंदता, ख़ुदरो फूलदार पौदों और झाड़ियों को फलांगता ऊपर चढ़ रहा था। अब परवीन अच्छी तरह नज़र आरही थी। पहाड़ों का चमकीला सूरज अभी अभी जंगलों से तुलूअ हुआ था। सर्द हवाएं अजीब सी ख़ुशबू फैला रही थीं। नीला नीला आसमान, उजले उजले बादल, लहराती हुई टहनियां, और चट्टान पर खड़ी हुई परवीन, सुनहरे बालों और गुलाबी चेहरे वाली... जिसकी लटें हवा के झोंकों से खेल रही थीं और जब मैं उसके पास पहुंच गया तो वो मुस्कुराई। मैंने गुलदस्ता उसे वापस दे दिया। ऐसा अजीब इत्तिफ़ाक़ हुआ। सुबह मैं तैरने के लिए आया और परवीन फूल चुनती हुई मिल गई।

    हम दोनों चुपचाप चल रहे थे। फिर उसने कहा कि मैंने यूंही चंद फूलों के लिए इतनी बुलंदी से छलांग लगा दी। मैंने जवाब दिया कि जब तैरते हैं तो छलांगें भी लगाते हैं। फिर दोनों चुप हो गए। मैंने ड्रेसिंग गाउन की जेब से सिगरेट निकाला, पूछा, ''सिगरेट सुलगा लूं?” वो बोली, ''हाँ।”

    “सिगरेट पी लूं।”

    “हाँ।” फिर ख़ामोशी... मेरा जी चाहता था कि ये बातें करे,

    “ये वादी किस क़दर ख़ूबसूरत है। ऊदे ऊदे पहाड़ों की क़तारें यूं लग रही हैं जैसे समुंदर की लहरें हूँ, और झिलमिल झिलमिल करते हुए चश्मे जैसे चांदी के तार उन सफ़ेद सफ़ेद बादलों ने आसमान में कैसे अजीब गुंबद बना रखे हैं। देखा?”

    “जी।” वो बोली।

    अब हम एक मोड़ से गुज़र रहे थे।

    “बुलंदी पर वो आबशार तो देखी ही नहीं तुमने। कैसी धुँदली सी क़ौस-ए-क़ुज़ह ने उसे मुहीत कर रखा है। चारों तरफ़ फुवार पड़ रही है। ये पानी उन चमकीली चोटियों से रहा है, वो उजली उजली चोटियां जिन पर बर्फ़ जमी रहती है। कभी तुमने ये पानी चखा? ऐसा ठंडा और शीरीं होता है कि क्या बताऊं। अगर तुम कहो तो कल वहां चलें?”

    “अच्छा।”

    अब हम घर के नज़दीक पहुंच गए थे। उनकी कोठी पहले आती थी। जी चाहता था कि इस मुख़्तसर से वक़फ़े में बहुत सी बातें हों।

    “ख़ूब, हम तो घर के नज़दीक पहुंच गए। वो सामने सनोबर का ऊंचा दरख़्त नज़र रहा है। आज क्या प्रोग्राम है? दोपहर के बाद सब सैर को चलेंगे ना? नहीं? अब्बा दो बंदूक़ें लाए हैं। एक में ले चलूँगा, परिंदों का शिकार करेंगे। जो इस झुण्ड के पीछे झील है वहां चलेंगे। वहां नाशपातियां भी हैं और सेब भी, शायद स्ट्राबेरी भी हो। तुम कलियों और जंगली फूलों के गुल-दस्ते बनाना, मैं तैयार रहूँगा कि कब वो तुम्हारे हाथ से गिरकर नीचे बहते हुए नाले में जा पड़ें और मैं धम से छलांग लगा दूं।”

    “लेकिन आज दोपहर के बाद तो... आज ज़रा वह... मुझे कुछ पढ़ना था।”

    अब उनका घर आगया था।

    मैंने जल्दी से कहा, “अच्छा लाइए जनाब, हमारा गुलदस्ता वापस कर दीजिए।” और फूल वापस ले लिये।

    वो चली गई। मैं खड़ा देखता रहा।

    फिर एक सर्द शाम को मैं लंबी सैर से वापस आरहा था। दिन भर की दौड़ धूप से बिल्कुल थका हुआ। गले में कैमरा, बंदूक़, थैले और जाने क्या-क्या अला बला। घर अब नज़दीक था। सिर्फ़ दो मोड़ और रह गए थे। यकायक मेरी निगाह चीड़ के दरख़्त की चोटी पर गई जहां बड़ी रोशनी हो रही थी। लंबे लंबे नोकदार पत्तों में से एक बड़ा चमकीला तारा झांक रहा था। मैं वहीं रुक गया और उसे देखने लगा। फिर चक्कर काट कर और ऊपर पहुंचा। हवा के झोंके तेज़ हो गए और ख़ुनकी बढ़ गई। मोड़ से गुज़रते हुए मैंने देखा कि एक और तारा भी चमक रहा था, उतना ही बड़ा, उतना ही प्यारा... पहले तारे के बिलकुल क़रीब।

    मैं मुस्कुराता हुआ एक पत्थर पर बैठ गया और उन दो तारों को देखने लगा। वसीअ आसमान में जहां ला तादाद नन्हे नन्हे तारे चमक रहे थे, वहां ये दोनों रोशन सितारे सब को खैरा किए देते थे। एक दूसरे के बिल्कुल साथ साथ, जैसे हाथ पकड़े हुए हों और फ़िज़ा की ज़ुल्मत में दोश बदोश चल रहे हों।

    कितनी देर तक उन्हें देखता रहा। सोचा कि ये तारे ज़रूर परवीन को दिखाऊँगा। और जब घर पहुंचा तो अजीब ख़ब्त मुझ पर सवार हो गया। सारी रात सो सका। ज़रा ज़रा सी देर के बाद उठता और बाहर निकल कर दोनों तारों को देखता कि दोनों साथ ही हैं, कहीं बिछड़ तो नहीं गए, मगर वो रात भर साथ रहे। जब पिछले पहर धुँदले हुए तब भी इकट्ठे, और साथ ही ग़ायब हो गए।

    अगली शाम को जब हम सब सैर से वापस रहे थे, तो मैंने परवीन को बातों में लगा लिया और हम दोनों पीछे रह गए। सूरज ग़ुरूब हो रहा था। ज़रा सी देर में हम उसी मोड़ पर पहुंचे, जहां सड़क के एक तरफ़ तो ऊंचा पहाड़ था और दूसरी तरफ़ वादी थी। नीचे कहीं इक्की दुक्की रोशनी टिमटिमा जाती और फिर अंधेरा हो जाता। नया चांद आसमान में तैर रहा था। चारों तरफ़ हल्की हल्की चांदनी फैली हुई थी, बिल्कुल फीकी सी। जहां दूसरे तारों की चमक मांद पड़ गई थी वहां वो दोनों तारे बिल्कुल उसी तरह चमक रहे थे बल्कि चांद से भी ज़्यादा रोशन थे।

    “वो तारे देख रही हो?” मैंने इशारा करके कहा। वो लंबी लंबी पलकें उठाए उन्हें देखने लगी। मैं उसके जगमगाते हुए चेहरे को देख रहा था।

    “कैसे साथ साथ हैं।” मैंने कहा।

    “और रात भर में उन्हें देखता रहा। ये यूंही इकट्ठे सफ़र करते रहे, और ग़ुरूब भी इकट्ठे हुए। मुझे ये डर रहा कि कहीं बिछड़ जाएं।”

    और जब उसने बड़ी बड़ी मस्हूरकुन आँखों से मुझे देखा तो मैं बेचैन हो गया। जाने उन निगाहों में क्या पैग़ाम था? वो क्या कहना चाहती थीं? इस मल्गजे दुपट्टे के हाशीए में वो गुलाबी चेहरा एक ख़्वाबीदा फूल दिखाई दे रहा था, जो हवा के झोंकों से अभी अभी खिला हो। यूं लगता था जैसे ये सब कुछ एक रंगीन और सुहाना ख़्वाब है। आसमान पर दमकते हुए तारे यूंही नहीं झिलमिलाते। उनके भी इशारे हैं। रमज़ीं हैं। शब्नम गुल से चुपके चुपके क्या कह जाती है? चांद समुंदर की लहरों से रात भर क्या बातें करता रहता है? कंवल के फूल हवा से क्या सरगोशियाँ करते हैं? ये एक राज़ है।

    जब हम वापस रहे थे तो मैं उन्ही तारों का ज़िक्र कर रहा था। मैंने कहा, ''कहते हैं कि इन तारों का हमारी ज़िंदगी से कोई ताल्लुक़ होता है।”

    “पता नहीं।” वो सर्दमेहरी से बोली, ''होता होगा।” वो यकलख़्त घबरा गई, जैसे कोई ख़्वाब देखते देखते डर जाये। उसने फिर मेरी तरफ़ नहीं देखा। मैं कुछ समझ सका। रास्ते में बहुत कम बातें हुईं। देर तक सोचता रहा कि इस फ़ौरी तबदीली की वजह क्या हो सकती है?

    हमें पिक्चर देखे हुए अरसा हो गया था। पंद्रह-बीस मील दूर नीचे एक सिनेमा था। पहले एक मर्तबा वहां जा चुके थे। तै हुआ कि पिक्चर देखी जाये। बुज़ुर्ग हज़रात में से चंद एक ने इख़्तिलाफ़ किया, बाद में वो भी मान गए। कार में मैं आगे बैठा था और परवीन पिछली सीट पर। जब हम एक अंधेरे झुण्ड में से गुज़र रहे थे तो मैंने सामने लगा हुआ शीशा तिर्छा कर दिया। अब मैं परवीन को देख सकता और वो मुझे। पता नहीं कार में क्या बातें होती रहीं? बस में टकटकी बाँधे उसे देख रहा था और वह मुझे। लेकिन देखते देखते जाने वो क्यों चौंक पड़ती और जो निगाहें नीची करती तो मैं तंग जाता। ये मुअम्मा बिल्कुल समझ में आया। नीचे पहुंचे, वहां एक रंग बिरंगा तवील कार्टून दिखाया जा रहा था। उसमें स्नो वाइट एक बड़ी प्यारी लड़की थी और सात छोटे छोटे मसखरे बौने थे। परवीन मेरे साथ बैठी थी। ख़ूब मुस्कुरा रही थी।

    मैंने आपा के कान में कुछ कहा। वो बोलीं, “चुप।” दुबारा कहा। वो बोलीं, “हश्त।” परवीन से कहा। वो चुप हो गई। मैंने पूछा, “कह दूं?” बोली, “कह दीजीए।” मैंने ज़ोर से कहा, “एक स्नो वाइट हमारे साथ भी है।” सब पूछने लगे, “कौन?” मैंने परवीन की तरफ़ इशारा कर दिया। एक क़हक़हा पड़ा और शर्मा गई।

    “किस तरह भला?” किसी ने पूछा। मैंने आहिस्ता से कहा, “शक्ल-ओ-सूरत बिल्कुल मिलती जुलती है। भोली-भाली... और?” आपा ने मुझे बुरी तरह घूरा।

    जब हम वापस आने लगे तो पिछली सीट पर बैठने का मौक़ा मिला। परवीन के साथ एक नन्ही मुन्नी बच्ची बैठी थी। उसके रेशम जैसे बालों से बड़ी अच्छी ख़ुशबू रही थी और एक नीला रिबन लहरा रहा था। हम दोनों के दरमियान यही गुड़िया बैठी थी। नन्ही टकटकी बाँधे परवीन को देख रही थी।

    “क्या देख रही हो?” मैंने उसके एक कान में पूछा।

    “देख रही हूँ कि आपा कितनी प्यारी हैं।” वो बोली और मैंने उसके नन्हे होंट चूम लिए। सामने भागती हुई टहनियों और पत्तों में वही दो चमकीले तारे झांक रहे थे। चांदनी छिटकी हुई थी, लेकिन दोनों उसी तरह दमक रहे थे।

    “वो देखो दो तारे।”

    परवीन टकटकी बाँधे देख रही थी।

    “वो बाएं तरफ़ का तारा तुम्हारा है और दायाँ मेरा।” मैंने कहा। वो मेरी बाएं तरफ़ बैठी थी।

    “जी।” वो आहिस्ता से बोली।

    कार को गैराज में छोड़कर हम दोनों उनके घर की तरफ़ जा रहे थे। सुहानी चांदनी खिली हुई थी। हम गुलाब के तख़्तों में से गुज़रे, जहां फूल, कलियाँ, पत्ते सब सोए पड़े थे। फिर लंबे लंबे सायों और फूलों से लदी हुई बेलों में से गुज़रे। हमें नन्ही नन्ही कलियों ने छुप-छुप कर देखा। तारों के झुरमुट ने हमें इकट्ठे चलते देखा। चांद जो ऊंचे दरख़्तों में से झांक रहा था, हमें देखकर मुस्कुराने लगा और चांदनी कई गुना तेज़ हो गई। मैं बार-बार अपने ख़ुश्क होंटों पर ज़बान फेर रहा था।

    “एक बात है।”

    “क्या?”

    “वो ये है कि मैं एक अर्से से चाहता था कि कह दूं।”

    “कह दीजिए।”

    “और फिर कह देना होता भी अच्छा है, भला छुपाने से क्या फ़ायदा? बात दरअसल ये है कि वो... ।”

    “हाँ हाँ कहिए।” वो मुस्कुराने लगी। मैं घबरा गया।

    “बात दरअसल ये है कि मुद्दत से कहना चाहता हूँ कि...”

    “हाँ।”

    “यही कि... यही कि ये तारे बहुत चमकते हैं और फिर तारे भी खुदा ने ख़ूब बनाए हैं। अगर ये हों तो रात को बड़ा अंधेरा रहा करे।”

    अब उनकी कोठी बिल्कुल नज़दीक आगई थी। मैंने फिर हिम्मत की। ऐसे मौके़ बार-बार नहीं आते, जो कुछ कहना है अब भी कह दो। क्या बुज़दिली दिखा रहे हो। मैंने गला साफ़ किया और बोला, “नहीं तारों की बात नहीं है। बात कुछ और है, मुझे डर था कि कहीं तुम बुरा मान जाओ। लेकिन अब कोई डर नहीं, तुम्हें बुरा लगता है तो लगा करे, मैं ज़रूर कहूँगा।”

    “हाँ हाँ कह दीजिए।” वो मुस्कुरा रही थी।

    “यही कि मुझे इतने दिनों से तुमसे... यानी मुझे सचमुच तुमसे...यानी।”

    “हाँ हाँ।”

    “मुझे तुमसे... एक शिकायत है। यही कि तुम इतने सादे लिबास क्यों पहनती हो, जब कि तुम्हारे पास ऐसे अच्छे लिबास हैं।”

    वो हंस दी। अब हम बरामदे में पहुंच गए थे। मुझे यक़ीन हो गया कि मैं हरगिज़ उसे नहीं बता सकता।

    क्या तो वो मुस्कुरा रही थी और क्या बेचैन सी हो गई। वो तेज़ी से अपने कमरे में चली गई। मैं हक्का बका खड़ा रह गया। ये क्या इसरार है? इस रवैय्ये में क्या राज़ पोशीदा है जिसे मैं समझ नहीं सकता। आख़िर ये बेरुख़ी क्या ज़ाहिर करती है? मेरे साथ ये दफ़्अतन रंजीदा क्यों होजाती है? किस क़दर पेचीदा है ये मुअम्मा? और ये पहली मर्तबा नहीं हुआ, हर दफ़ा यही होता है। मुस्कुराते हुए चेहरे पर यकलख़्त ख़ौफ़ के आसार नमूदार हो जाते हैं। कहीं उसे मुझसे नफ़रत तो नहीं? नहीं नहीं नफ़रत नहीं हो सकती। अगर होती तो ये बता देती। मगर बताती किस तरह? क्योंकर कह दे कि मुझे आप अच्छे नहीं लगते, मुझे आपसे हमदर्दी है। शायद ये मुझे सिर्फ़ एक रफ़ीक़ समझती है, एक मुख़लिस रफ़ीक़... बस इससे ज़्यादा कुछ नहीं। अपनी मुहब्बत के क़ाबिल नहीं समझती। मैं सारी रात यही सोचता रहा। कई बार उठ उठकर मैंने तारों को देखा कि कहीं बिछड़ तो नहीं गए। मगर वो बदस्तूर इकट्ठे थे। दिल को इत्मीनान सा हो गया।

    दूसरे रोज़ देखा कि सामने की कोठी में कुछ मज़दूर काम कर रहे थे। चट्टान पर चढ़ कर देखा तो टेनिस का मैदान ठीक किया जा रहा था। लाइनें लगाई जा रही थीं। मेरी राल टपक पड़ी। मुद्दत से टेनिस की शक्ल तक देखी थी। जी में आया कि उन लोगों से वाक़फ़ीयत पैदा की जाये। हमारी और उनकी कोठी के दरमियान एक चौड़ा सा नाला बहता था जिसमें मैं रोज़ नहाया करता था। उसका पुल आध मील परे था। नौकरों ने बताया कि सामने कोई अंग्रेज़ कुम्बा आया है। उनकी एक लड़की हर रोज़ तैरने आती है। मुझे याद आगया। एक अंग्रेज़ लड़की को कभी नाले के दूसरे किनारे पर देखा था, लेकिन बातें करने का इत्तिफ़ाक़ नहीं हुआ था।

    चंद दिनों तक हमारी वाक़फ़ीयत हो गई। उसने मेरे तैरने की तारीफ़ की और मैंने उसकी चुस्ती और लिबास की। हम सुबह इकट्ठे तैरते, पहाड़ पर चढ़ते। वो कहा करती, आप बहुत अच्छा तैरते हैं। आपका जिस्म कितना मौज़ूं है, बिल्कुल स्पोर्टस मैन जैसा। कभी हमारे हाँ भी आइए। मम्मी आपसे मिलकर बहुत ख़ुश होंगी। मैं उमूमन उनसे आपका ज़िक्र किया करती हूँ। हम लोग तन्हाई से तंग आजाते हैं। अब्बा बाहर गए हुए हैं। मम्मी किसी सहेली से मिलने कई मील दूर चली जाती हैं। मैं अकेली घबराती हूँ। हमारे हाँ पिंग पांग भी है और टेनिस भी। मैं मूवी कैमरे से तस्वीर उतारा करती हूँ। हमारे हाँ रंग बिरंगे ख़ूबसूरत परिंदों से पिंजरे भरे हुए हैं। लेकिन मैं टाल मटोल कर जाता। एक दिन प्रोग्राम बना कि दोपहर को मेरे तैरने की फ़िल्म उतारी जाये। वो अपना मूवी कैमरा साथ लाई। मैंने एक ऊंचे पत्थर से छलांग लगाई, और तैरता हुआ दूसरे किनारे पर पहुंच गया।

    “मुझे आप उस पत्थर पर ले चलिए।” वो एक पत्थर की तरफ़ इशारा करके बोली जो नाले के वस्त में था। उसने अपने दोनों हाथ फैला दिए। मैं झिझक कर पीछे हट गया, लेकिन फिर रुकता हुआ आगे बढ़ा और काँपते हुए हाथों से उस लतीफ़ बोझ को सँभाल लिया। उसने एक बाज़ू मेरी गर्दन में डाल लिया और दूसरे से पानी के छींटे उड़ाने लगी।

    “नहीं, ये पत्थर तो अच्छा नहीं, वो ठीक रहेगा।” उसने एक दूर के पत्थर की तरफ़ इशारा किया, “वहां रोशनी भी तेज़ नहीं है और वहां से तस्वीर भी अच्छी आएगी।”

    मैंने रुख़ बदल दिया और उधर चलने लगा। वो आहिस्ता-आहिस्ता सरगोशियों में बोली, “मुझे ऐसे लड़के बहुत अच्छे लगते हैं, आप जैसे बेपरवाह और ख़ुश-बाश। लेकिन इतनी बेपरवाही भी किस काम की।” उसने सवालिया निगाहों से मुझे देखा, लेकिन मैं तेज़ी से पत्थर तक पहुंचा और जल्दी से उसे उतार दिया। वो ख़ामोश हो गई, लेकिन जल्द ही सँभल गई और मुस्कुराने लगी। उसके बाद देर तक फ़िल्म उतारती रही।

    एक सुबह को मैं सैर से वापस रहा था। बाग़ से गुज़रते हुए रुक गया। परवीन फूलों का गुलदस्ता बना रही थी और नन्ही साथ बैठी थी। जी में आया कि उनकी बातें सुनूँ। आख़िर क्या बातें हो रही हैं? मैं दबे-पाँव पौदों की आड़ में बिल्कुल उनके नज़दीक जा खड़ा हुआ। नन्ही बोली, “तो अब आप हमारे साथ ही रहा करेंगी ना?”

    “हमेशा तो रहती हूँ तुम्हारे साथ, नन्ही गुड़िया?”

    “ऊँ हूँ। मैं पूछती हूँ आप हमारे साथ चलेंगी, हमारी आपा बन कर?”

    परवीन का दमकता हुआ चेहरा एक दम सफ़ेद पड़ गया।

    “बताओ आपा।” नन्ही मचलने लगी।

    “देखो नुज़हत, कैसी रंग-बिरंगी कलियाँ हैं।” परवीन बोली।

    “नहीं हमें कलियाँ नहीं चाहिऐं। आप बताइए कि चलेंगी हमारे साथ या नहीं?”

    “अरे वो देखो कैसी अच्छी तितली उड़ी जा रही है, पकड़ लो तो जानें।”

    और जब नन्ही बैठी रही तो परवीन ख़ुद तितली के पीछे भाग पड़ी। शाम को सैर से वापस आते हुए मुझे मौक़ा मिल गया और मैंने परवीन को अपने साथ ठहरा लिया, “आओ झील तक चलें।” मैंने कहा।

    “देर तो हो जाएगी?”

    “नहीं।”

    हम दोनों एक छोटी सी पगडंडी पर चल रहे थे। ऊदे ऊदे पहाड़ों के पीछे सूरज ग़ुरूब हो रहा था। पहाड़ की चोटी पर चीड़ के दरख़्तों की क़तार यूँ चमक रही थी जैसे सुनहरी संजाफ़ लगी हुई हो। आसमान शफ़क़ की सुर्ख़ी से जगमगा रहा था। परिंदों के ग़ोल के ग़ोल उड़े जा रहे थे। हम दोनों चुपचाप चल रहे थे। मुअत्तर हवाओं के झोंके तेज़ होते गए और हम दोनों मोड़ तक पहुंच गए। मेरी निगाहें आसमान की जानिब उठ गईं। दोनों तारे अभी अभी तुलूअ हुए थे। दिल मसर्रत से लहकने लगा। मैंने परवीन को देखा और निगाहों निगाहों में इतना कुछ कह गया कि ज़बानी कह सकता था। मैंने फ़ैसला कर लिया कि आज उससे सब कुछ पूछूँगा। आज इस मुअम्मे को हल कर के रहूँगा।

    “तुम्हें ये तारे अच्छे लगते हैं ना?” मैंने पूछा।

    “हाँ बहुत।” वो बोली।

    “अरे।” मैं वहीं रुक गया, “तारा टूटा परवीन।”

    उनमें से एक तारा टूटा और नूरानी लकीर बनाता हुआ ग़ायब हो गया। मैं फटी फटी आँखों से परवीन को देख रहा था। वो भी सहम गई थी।

    “कौन सा तारा था?” मैंने पूछा।

    “पता नहीं कौन सा था।”

    बहतेरा याद करने की कोशिश की, मगर पता चला कि कौन सा तारा टूटा था। चीड़ के दरख़्तों की नोकदार चोटियों पर सिर्फ़ एक रोशन तारा जगमगा रहा था। यूं लगता था जैसे उसकी चमक भी मद्धम पड़ती जा रही थी। जब हम वापस रहे थे तो जंगल में सन्नाटा था। फिर वो हक़ीर सा अंदेशा जिसे मैं पहले नज़रअंदाज कर दिया करता, आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता गया और मुझे जाने क्यों यक़ीन सा हो गया कि परवीन को मुझसे नफ़रत थी। शुरू से ही नफ़रत थी और मैं हमेशा उसे ग़लत समझता रहा।

    ऊंचे ऊंचे दरख़्तों से घिरी हुई झीलों की सतह पर मैंने उदासी देखी। दरख़्तों के काँपते हुए साये देखे। पत्तों की सरसराहाट में सर्द आहें सुनीं। मैंने सोचा कि पानी की ये सतह मेरी रूह की तरह है जिस पर तारीकीयां मुनाकिस हैं, जिस पर दहशतनाक तारीकी छाती जा रही है। मैंने थरथराती हुई टहनियां देखीं। बड़े बड़े उदास फूल देखे जो डंठलों पर झुके हुए थे। यूं महसूस होता जैसे दुनिया निहायत ग़मगीं जगह है। यहां मसर्रत की इतनी सी रमक़ भी तो नहीं। आहें हैं, सिसकियाँ हैं, रंज हैं, फीके फीके ख़्वाबों में वहशत है। मैं चिड़चिड़ा हो गया। एक एक करके सारे मश्ग़ले ख़त्म हो गए। रात को खिड़की में दो रोशनियां नज़र आईं। एक तो उसी तन्हा तारे की चमक और दूसरी रोशनी अंग्रेज़ लड़की लूसी की कोठी से आती।

    मैं बैठा तस्वीर बना रहा था। तरह तरह के रंग सामने रखे थे। धड़ाम से दरवाज़ा खुला और नन्हा अंदर दौड़ता हुआ आया। पीछे पीछे और बच्चे थे। हाथ में क्रिकेट का बल्ला और गेंद थी।

    “आहा हा, तस्वीर बन रही है। कैसी रंग-बिरंगी तस्वीर है। ये कहाँ की है?”

    “कहीं की भी हो, तुम जा कर खेलो।”

    “हम तो ये तस्वीर लेंगे। अभी नहीं, जब ये बन जाएगी तब।”

    “इसी वक़्त दौड़ जाओ, वर्ना पिट जाओगे।”

    “अच्छा आप ये तस्वीर हमें दे देंगे ना?”

    “नहीं हरगिज़ नहीं।” मैंने ग़ुस्सा से कहा।

    “अच्छा तो हमारे साथ क्रिकेट ही खेल लीजिए। आपने वादा किया था कि बोलिंग सिखाएँगे।”

    “इस वक़्त नहीं फिर कभी सही।”

    “आज तो हम आपको ज़रूर ले कर जाऐंगे।”

    “मैं आज हरगिज़ नहीं खेलूंगा।”

    “अच्छा अगर नहीं खेलते तो ये तस्वीर ही...”

    “शैतानो।” मैं चिल्ला कर बोला, ''तुमने मुझे क्या समझा है? मैं तुम्हारा ड्रिल मास्टर हूँ या लँगोटिया दोस्त... लो ये रही तस्वीर।” मैंने तस्वीर के टुकड़े टुकड़े कर दिए। देर तक बैठा पेच-ओ-ताब खाया किया, फिर कोट उठाया और बाहर निकल आया। नौकर को आवाज़ दी कि मोटरसाइकिल ले आए। दो नौकर बैठे आपस में बातें कर रहे थे। मुझे देखकर एक हंसा और दूसरे के कान में कुछ कहा, उसने भी दाँत निकाल दिए।

    “क्या है?” मैंने पूछा।

    “कुछ नहीं।”

    “तुम उससे क्या कह रहे थे?”

    “कुछ भी नहीं।”

    “तो तुम्हें भी हंसी सूझती है, साफ़ साफ़ बताओ क्या बात थी?”

    “मैं ये कह रहा था कि मोटरसाइकिल तो पिछले हफ़्ते आप ही ने मरम्मत के लिए भेजी थी।”

    देर तक कमरे में चुपचाप बैठा रहा। नन्ही की आवाज़ ने चौंका दिया। उसका नन्हा मुन्ना सा हाथ मेरे चेहरे को छू रहा था।

    “भैया।”

    मैं चौंक पड़ा, “ईं?”

    “भैया क्या सोच रहे हैं आप?”

    “कुछ नहीं।”

    “आइए आपा परवीन के हाँ चलें।”

    “नहीं वहां नहीं जाऐंगे।”

    “तो फिर मुझे अपने साथ सैर को ले चलिए।”

    “नहीं और किसी के साथ चली जाओ, मुझे काम है।”

    “कोई भी काम नहीं आपको, आप यूंही रात तक यहां बैठे रहेंगे।”

    “अब जाओ कहा माना करते हैं बड़ों का।”

    “नहीं हम तो सैर को चलेंगे और वहां से आपा परवीन के हाँ।” वो मचल गई। मैंने उसे झिड़क कर कहा, “नन्ही शोर करो।”

    वो चुप रही। उसने बड़ी बेबसी से मेरी तरफ़ देखा। मासूम आँखें धुँदली हो गईं और दो बड़े बड़े आँसू उसके रुख़्सारों पर बहने लगे। वो चुपके से बाहर जाने लगी। मैंने दौड़ कर पकड़ लिया और गोद में उठा कर प्यार करने लगा।

    कितनी मर्तबा अम्मी ने भी टोका कि ये क्या सारा दिन कमरे में बंद रहते हो। क्या तो सुबह से शाम तक क़हक़हे लगाते फिरते और क्या अब हर वक़्त का बिसूरना रह गया है।

    परवीन के हाँ से हर तीसरे चौथे रोज़ शिकायत आती कि मैं वहां नहीं जाता। एक रोज़ अब्बा बोले, शायद तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं, सामने के पहाड़ पर एक अंग्रेज़ डाक्टर रहते हैं उन्हें दिखाएँगे। उन्होंने जिस मकान की तरफ़ इशारा किया वो लूसी का था। नाले के इस किनारे से देखा लूसी अपने बाग़ीचे में खड़ी थी, सब्ज़ रंग का गाउन पहने। कुछ देर उसे देखता रहा, फिर जाने क्या दिल में आया। झट से शोख़ रंग की सब्ज़ जर्सी पहनी, बाल सँवारे और सीधा चल दिया पुल की तरफ़। लूसी की कोठी और हमारे दरमियान जो नाला था उसका पुल।

    मैंने जल्दी से पुल उबूर किया। लूसी ने मुझे देखा, दौड़ी दौड़ी आई। उसका चेहरा और भी दमकने लगा। मेरी शोख़ जर्सी को देखा और बड़ी तारीफ़ की। फिर मेरे बाज़ुओं को देखती रही। मेरा हाथ मेरे हाथ में लिए रखा। उसकी अम्मी कहीं बाहर थीं। मुझे कोठी का कोना कोना दिखाया, परिंदे दिखाए, फिर सोफ़े पर बिठा कर अपना एलबम दिखाने लगी। वो मेरा सहारा लिए सोफ़े के बाज़ू पर बैठी थी। उसकी मुअत्तर ज़ुल्फ़ें मेरे चेहरे को छू रही थीं। हम ख़ूब क़हक़हे लगाते रहे।

    जब मैं लौटा तो मसरूर था, मुतमइन था, सीटी बजाता हुआ रहा था। मैंने वो पुल उछलते कूदते उबूर किया।

    उसके बाद हम इकट्ठे सैर पर जाते, तस्वीरें उतारते। मेरा ज़्यादा वक़्त उनके हाँ गुज़रने लगा। परवीन जैसे ग़ायब हो गई। क्या हुआ जो कभी-कभार आमना सामना हो गया। रूखा-फीका सलाम हुआ और बस।

    अब मैं फिर हंस हो गया था। चिड़चिड़ापन जाता रहा था। एक दिन मैं और लूसी दोनों सैर से वापस रहे थे। अच्छा-ख़ासा अंधेरा हो चला था। हम इसी मोड़ पर पहुंचे। मेरी निगाहें आसमान की जानिब उठ गईं, चीड़ के दरख़्तों पर एक तन्हा तारा चमक रहा था।

    हम दोनों उसी पत्थर पर बैठ गए, जहां कभी मैं और परवीन बैठे थे। इन लमहात में मैंने अपने आपको किस क़दर तन्हा महसूस किया, वो कौन सी सुलगती हुई चिनगारियां थीं जो भड़क उठीं। मेरा जी भर आया। लूसी शायद कुछ कह रही थी, लेकिन मैं कुछ सुन सका। उस तन्हा तारे को देखता रहा।

    दिन गुज़रते गए और आख़िर वो दिन आगया जब हमें वापस जाना था। अब्बा की छुट्टियां ख़त्म हो चुकी थीं। मेरा कॉलेज भी खुलने वाला था। हम सब वापस जा रहे थे। मेरा जी तो चाहता था कि परवीन के हाँ जाऊं, लेकिन आपा की ख़शमनाक निगाहों ने मजबूर कर दिया। परवीन के अब्बा और अम्मी बेरुख़ी से मिले। उन्होंने ख़ुद ख़त लिखने का वादा किया और मुझे ख़त लिखने की ताकीद की।

    परवीन की अन्ना अपने वतन जा रही थी। स्टेशन तक उसका और हमारा साथ था। पहली कार में सब जा चुके थे। दूसरी में सामान था और मैं और अन्ना। सबसे आख़िर में परवीन से मिलने उसके कमरे में डरते डरे गया, जैसे मुझे वहां जाने का कोई हक़ था।

    “ख़ुदा-हाफ़िज़ परवीन।” मैं चुपके से बोला।

    “ख़ुदा-हाफ़िज़।” उसने सर्द महरी से कहा और खिड़की से सफ़ेद सफ़ेद बर्फ़ानी चोटियों को देखने लगी। मैं चंद लम्हे ठहरा कि शायद वो कुछ कहे, लेकिन वो चुप रही और मैं चला आया। ज़रा सी देर में हम वापस जा रहे थे। कार फ़र्राटे भरती जा रही थी। सामने चीड़ के दरख़्त, ऊदी ऊदी पहाड़ियां, रंग बिरंगे कुंज, चमकीली नदियाँ, सब उड़े जा रहे थे।

    सोचते सोचते मैंने अन्ना से पूछा, “एक बात बताओगी?”

    “क्या है?”

    “अन्ना तुम बहुत अच्छी हो... अब तुम चली जाओगी, फिर जाने कब तुम्हारी ज़ियारत हो।”

    “क्या कहना चाहते हो तुम?” वो ख़फ़गी से बोली।

    “यही कि मैं कैसा हूँ?”

    “अच्छे भले हो।”

    “तो फिर परवीन को मुझसे नफ़रत क्यों थी? यानी मैं उसे बुरा क्यों लगता था?”

    “मुझे कुछ पता नहीं।”

    “तुम्हें सब पता है। फ़क़त ये बता दो कि इस नफ़रत की वजह क्या थी? इतनी कोशिशों के बावजूद उसके पत्थर से दिल पर कोई असर हुआ और वो हमेशा अजनबी ही रही। आख़िर क्यों?”

    “सुनना ही चाहते हो तो सुन लो। तुम उसे मुहब्बत कहते हो? ये ख़ुदग़रज़ी है या मुहब्बत? तुम जैसा ख़ुदग़रज़ तो कहीं भी होगा। तुम्हें कभी भी उसका ख़्याल नहीं था।”

    “नहीं नहीं, ये मत कहो।”

    “क्यों कहूं? तुम ज़रा सी दिलचस्पी जताकर ये चाहते थे कि वो तुम्हें पूजने लगे। तुमने उसे दिया क्या था जो बदले में इतनी तवक़्क़ो रखते थे। कभी अपने रवय्ये पर भी ग़ौर किया? तुमने उसे किस क़दर रंज पहुंचाए हैं?”

    मैं पागलों की तरह उसके चेहरे को देख रहा था।

    “आज से दो बरस पहले ऐसे ही दिन थे। हम गर्मियों में यहां आए हुए थे। परवीन यहां मैना की तरह चहकती थी। कितनी चंचल थी, कितनी हँसमुख। सब उसकी शोख़ियों से पनाह मांगते। उस का मंगेतर भी यहीं था।”

    “मंगेतर?”

    “हाँ बेगम का भतीजा या भांजा अजीब सा लड़का था। ऐसा बातूनी कि सुबह से शाम तक बोलता रहता। बचपन से रिश्ता तै हुआ था। परवीन ने होश सँभाल कर सिर्फ़ उसे ही देखा था।”

    “वो लड़का कैसा था? मेरा मतलब है शक्ल सूरत में?” मैंने बेचैन हो कर पूछा।

    “यूंही मुनहनी सा था। ख़ास बुरा भी नहीं था लेकिन उसका मंगेतर था। वो हर वक़्त ख़ुश रहती थी, कितनी भोली सी तो है। फिर उसकी ज़िंदगी में बड़ा मनहूस दिन आया। वो लड़का कहीं चला गया और फिर कभी लौटा। ख़बर आई कि उसने किसी निहायत मालदार लड़की से शादी कर ली। दरअसल उसे परवीन के अब्बा की जायदाद से दिलचस्पी थी, परवीन का कोई ख़्याल था। वो दिन और आज का दिन मैंने इस लड़की को कभी ख़ुश नहीं देखा। सदा ग़मगीं रहती है। मुस्कुराती है तो ठंडा सांस भर कर, उसकी हंसी में आँसू छुपे हैं। एक शोख़ तितली की जगह अब संजीदा और अफ़्सुर्दा परवीन रह गई है। उसके नाज़ुक दिल को इस सदमे से ऐसी ठेस लगी कि वो कभी सँभल सकी। उसके दिमाग़ में ये ख़्याल बैठ गया कि सब के सब उससे नफ़रत करते हैं। एक एक करके सब उसे छोड़कर चले जाऐंगे और ये अकेली रह जाएगी।

    ये तुम्हें कितना अच्छा समझती थी, उसका अंदाज़ा शायद तुम कर सको। मुझसे तुम्हारी बातें किया करती। तुम्हारी खूबियां, तुम्हारे ख़ुलूस की तारीफ़ें। जिस दिन तुम्हें देख पाती उसे चैन आता। लेकिन उसे यही अंदेशा था कि कहीं तुम भी उसे छोड़कर चले जाओ, चुनांचे तुमने यही किया। तुमने उसके रहे सहे सहारे को भी छीन लिया। वो बेचारी हमेशा झिझकती रही। उसे तुम्हारी बातों पर एतबार था, लेकिन वो झिझकती थी... और तुम ऐसे ख़ुद ग़रज़ निकले कि उस की ज़रा पर्वा की और आख़िरी दिनों में जब तुमने उससे बोलना छोड़ दिया तो वो बहुत उदास रहने लगी। जब तुम लूसी की कोठी...”

    उसके होंट हिल रहे थे। वो कुछ कह रही थी। मैं खोई खोई निगाहों से उसे देख रहा था। कोई मेरे दिल को मसोस रहा था। जब मैं उस भयानक ख़्वाब से चौंका तो सूरज ग़ुरूब हो चुका था। फ़िज़ा में मातम सा था। हवा के उदास झोंके साएँ साएँ कर रहे थे। मेरे सामने चीड़ के दरख़्त, पत्थरों के ढेर, पहाड़ियां सब उड़े जा रहे थे। कार फ़र्राटे भरती जा रही थी। मैं हथेली पर ठोढ़ी रखकर शफ़क़ को देखने लगा। दरख़्तों के झुण्ड पर एक गुलाबी बदली के पास एक चमकीला तारा जगमगाता रहा था। धुँदली धुँदली निगाहों से देखता रहा... उसी तन्हा तारे को।

    मैं फिर भी समझ सका कि कौन सा तारा टूटा था।

    स्रोत:

    शगूफ़े (Pg. 16)

    • लेखक: शफ़ीक़ुर्रहमान
      • प्रकाशक: किताब वाला, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1994

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