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शफ़ीक़ुर्रहमान के हास्य-व्यंग्य
समाज
बचपन में भूतों प्रेतों की फ़र्ज़ी कहानियां सुनने के बाद जब सचमुच की कहानियां पढ़ीं तो उनमें उमूमन एक मुश्किल सा लफ़्ज़ आया करता। सब कुछ समझ में आजाता, लेकिन वो लफ़्ज़ समझ में न आता। वो दिन और आज का दिन, उस लफ़्ज़ का पता ही न चल सका। वो लफ़्ज़ है, “समाज।”
मकान की तलाश में
मकान की तलाश, एक अच्छे और दिल-पसन्द मकान की तलाश, दुनिया के मुश्किल-तरीन उमूर में से है। तलाश करने वाले का क्या-क्या जी नहीं चाहता। मकान हसीन हो, जाज़िब-ए-नज़र हो, आस-पास का माहौल रूह-परवर और ख़ुश-गवार हो, सिनेमा बिल्कुल नज़दीक हो, बाज़ार भी दूर न हो। ग़रज़
क्लब
यह उन दिनों का ज़िक्र है जब मैं हर शाम क्लब जाया करता था। शाम को बिलियर्ड रुम का इफ़्तिताह हो रहा है। चंद शौक़ीन अंग्रेज़ मेंबरों ने ख़ासतौर पर चंदा इकट्ठा किया... एक निहायत क़ीमती बिलियर्ड की मेज़ मँगाई गई। क्लब के सबसे मुअज़्ज़िज़ और पुराने मेंबर रस्म-ए-इफ़्तिताह
फ़िलॉसफ़र
आख़िर इस गर्म सी शाम को मैंने घर में कह दिया कि मुझसे ऐसी तपिश में नहीं पढ़ा जाता। अभी कुछ इतनी ज़्यादा गर्मियां भी नहीं शुरू हुई थीं। बात दरअसल ये थी कि इम्तिहान नज़दीक था और तैयारी अच्छी तरह नहीं हुई थी। ये एक क़िस्म का बहाना था। घर भर में सिर्फ़ मुझे
बड़ी आपा
वो भय्या के साथ अक्सर हमारे हाँ आया करता था। कई साल से दोनों साथ पढ़ते थे। पहले-पहल भय्या जब उसकी बातें किया करते तो मेरे दिल में गुदगुदी सी होने लगती। वो बड़े फ़ख़्र से सीना फुला कर कहते, आज रफ़ीक़ ने ये किया, वो किया, इतने नंबर लिए, फ़ुलां खेल में हिस्सा
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