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शफ़ीक़ुर्रहमान
कहानी 2
उद्धरण 8
ये मर्द ऐवरेस्ट पर चढ़ जाएँ, समंदर की तह तक पहुँच जाएँ, ख़्वाह कैसा ही ना-मुमकिन काम क्यों न कर लें, मगर औ'रत को कभी नहीं समझ सकते। बाज़-औक़ात ऐसी अहमक़ाना हरकत कर बैठते हैं कि अच्छी भली मोहब्बत नफ़रत में तबदील हो जाती है, और फिर औ'रत का दिल... एक ठेस लगी और बस गया। जानते हैं कि हसद और रश्क तो औ'रत की सरिशत में है। अपनी तरफ़ से बड़े चालाक बनते हैं मगर मर्द के दिल को औ'रत एक ही नज़र में भाँप जाती है।
मेरा ज़ाती नज़रिया तो यही है कि एक तंदुरुस्त इंसान को मोहब्बत कभी नहीं करनी चाहिए। आख़िर कोई तुक भी है इसमें? ख़्वाह-मख़्वाह किसी के मुतअ'ल्लिक़ सोचते रहो, ख़्वाह वो तुम्हें जानता ही न हो। भला किस फार्मूले से साबित होता है कि जिसे तुम चाहो वो भी तुम्हें चाहे। मियाँ ये सब मन-गढ़त क़िस्से हैं। अगर जान-बूझ कर ख़ब्ती बनना चाहते हो तो बिस्मिल्लाह किए जाओ मुहब्बत। हमारी राय तो यही है कि सब्र कर लो।
तंज़-ओ-मज़ाह 14
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