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फ़िलॉसफ़र

MORE BYशफ़ीक़ुर्रहमान

    आख़िर इस गर्म सी शाम को मैंने घर में कह दिया कि मुझसे ऐसी तपिश में नहीं पढ़ा जाता। अभी कुछ इतनी ज़्यादा गर्मियां भी नहीं शुरू हुई थीं। बात दरअसल ये थी कि इम्तिहान नज़दीक था और तैयारी अच्छी तरह नहीं हुई थी। ये एक क़िस्म का बहाना था। घर भर में सिर्फ़ मुझे इम्तिहान देना था। हामिद मियां इम्तिहान से फ्रंट हो चुके थे कि अगले साल देंगे। नन्ही इफ़्फ़त को ख़्वाह-मख़ाह अगली जमात में शामिल कर दिया गया था। बाक़ी जो थे वो सब के सब पास या फ़ेल हो चुके थे।

    लाज़िमी तौर पर मेरी नाज़ बर्दारियाँ सबसे ज़्यादा होतीं। तरह तरह के नाशते, ज़रा ज़रा देर के बाद पीने की सर्द चीज़ें, और इधर उधर के कमरों में मुकम्मल ख़ामोशी बच्चों को डराया जाता कि ख़बरदार जो उन से बात की तो... ख़बरदार जो उनके कमरे के नज़दीक से गुज़रे। ख़बरदार जो ये किया जो वो किया। ये इम्तिहान दे रहे हैं। उधर इम्तिहान कमबख़्त ऐसा ज़बरदस्त था कि किसी तरह किताबें क़ाबू में आती थीं। आख़िर तंग आकर मैंने कह ही दिया कि मुझसे यहां नहीं पढ़ा जाता। मतलब साफ़ ज़ाहिर था कि पहाड़ पर जाऊँगा। कई दिनों तक घर में यही ज़िक्र होता रहा। आख़िर एक दिन मुझसे कहा गया कि तैयार हो जाऊं। अब्बा के कोई ख़ां साहब या ख़ान बहादुर की क़िस्म के अज़ीज़ दोस्त एक महीने से पहाड़ पर जा चुके थे। वहां तार भेजा गया और उन्होंने मुझे बुला लिया। घर में दरयाफ़्त करने पर मालूम हुआ कि वहां मेरी हम उम्र एक लड़की भी है। इस पर मेरे कान खड़े हुए, चुनांचे तक़रीबन सारे गर्म सूट ड्राई क्लीन कराने के लिए दे दिए गए। लेकिन फिर पता चला कि वो फ़लसफ़ा पढ़ती है और ऐनक लगाती है। लाहौल वला को चलो उसका भी फ़ैसला हो गया। अब मज़े से पढ़ेंगे, लेकिन अजीब उलझन सी पैदा हो गई। फ़लसफ़ी लड़की इस पर तुर्रा ये कि ऐनक लगाती है।

    मैं वहां पहुंचा। एक साहब मुझे लेने आए। मेरी उम्र के होंगे। बोले, ''मैं हूँ तो रफ़ीक़, लेकिन मुझे रफ़ू कहा जाता है।” उनके मकान तक आठ दस मील की चढ़ाई थी। वो कार में आए थे, लेकिन हमने कार वापस भेज दी कि मज़े मज़े से पैदल चलेंगे। रास्ते में ख़ूब बातें हुईं। पता चला कि वो भी किसी इम्तिहान के फेर में हैं। वो ख़ान साहब (या ख़ान बहादुर) के कुछ चचा के मामूं की भतीजी की ख़ाला के पोते के चचा ज़ाद भाई की क़िस्म के अज़ीज़ थे। काफ़ी देर हिसाब लगाने के पता चला कि वो तक़रीबन उनके भतीजे थे। फिर उन फिलासफ़र साहिबा का ज़िक्र हुआ। शकीला नाम था। हम दोनों से उम्र में दो-तीन साल बड़ी थीं और फ़लसफ़े की कोई बड़ी सारी डिग्री लेने की फ़िक्र में थीं। चलते चलते काफ़ी देर हो गई थी। रफ़ू हाथ से इशारा कर के बोले, ''बस ये मोड़ और रह गया है।”

    सामने बादल ही बादल छाए हुए थे। आगे रास्ता नज़र आता था। रफ़ू बोले, ''एक अजीब बात है। इस मोड़ पर हमेशा या तो बादल होते हैं या धुंद।” अब हम धुंद में से गुज़र रहे थे। आहिस्ता-आहिस्ता धुंद साफ़ हुई तो मोड़ के बाद उनकी कोठी यकलख़्त सामने नज़र आने लगी। बस एक गहरा सा खड था बीच में। लेकिन अभी आध मील का चक्कर और था। हमने देखा कि कोठी के क़रीब दरख़्तों के झुण्ड में एक पत्थर पर कोई ख़ातून खड़ी थीं। छरेरा क़द, लहराते हुए परेशान बाल, हल्का गुलाबी चेहरा और नाक पर काले फ्रे़म की एक ऐनक।

    “यही हैं शकीला।” रफ़ू बोले। मैंने हाथ के इशारे से सलाम किया। उन्होंने सर की जुंबिश से जवाब दिया। इतनी बुरी नहीं थीं जितना मैं समझे बैठा था। अगर वो मोटी सी ऐनक होती तो शायद हसीन कह सकते थे... या कम अज़ कम वो भद्दा सा स्याह फ्रे़म होता। मैं कुन्बे में बहुत जल्द घुल मिल गया। रफ़ू और मैं तो बिल्कुल बेतकल्लुफ़ हो गए, लेकिन शकीला थीं कि ली ही नहीं पड़ती थीं। कभी हमारी बातों में दिलचस्पी लेतीं कभी गुफ़्तगु में शरीक होतीं। हम दोनों उनके सामने बहीतरे टामक टोईए मारते, ऊलजलूल बातें करते, ख़ुशामदें करते, लेकिन उनकी नाक हमेशा चढ़ी रहती। और उनका काम क्या था? सुबह से शाम तक दस दस सेर वज़नी किताबें पढ़ना।

    रात को अँगीठी के सामने बैठी सोच रही हैं। इतनी संजीदगी से जैसे दुनिया के निज़ाम का दार-ओ-मदार उन ही की सोच बिचार पर तो है। कभी उंगली से हवा में लिखने लगती हैं। कभी कुर्सी पर तबला बजने लगता है। कभी झुँझला झुँझला पड़ती हैं। फिर यकलख़्त एक मुस्कुराहट लबों पर दौड़ जाती है और सर हिलने लगता है, जैसे सब कुछ समझ में आगया। दफ़्अतन मुट्ठीयाँ भींच ली जाती हैं और ग़रीब सोफ़े के दो-तीन मुक्के रसीद किए जाते हैं। उधर हम उन्हें देखकर झुँझला उठते। ये तो नीम पागल हैं बिल्कुल।

    ख़ान साहब (या ख़ान बहादुर) और बेगम साहिबा का मुआमला ही और था। वो हमेशा बातें सियासियात, मआशियात, फ़सादियात वग़ैरा की करते जिनमें हमें ज़र्रा भर दिलचस्पी होती। बाक़ी थे बच्चे वो पहले ही से अहमक़ थे, या ख़ासतौर पर अहमक़ बना दिए गए थे। अब भला हम किस से बातें करते? ले दे के यही एक हम उम्र थीं। यही बेहद तन्हाई पसंद और ख़ुश्क मिज़ाज वाक़ा हुई थीं और माशा अल्लाह अपनी ही दुनिया में बस्ती थीं। कभी मिन्नत से कहा, ''हमारे साथ बैडमिंटन खेल लीजिए।” जवाब मिला, ''ऐनक है, ऐनक पर चिड़िया लगेगी।” कहा, ''नहीं हम नहीं लगने देंगे, शॉट नहीं मारेंगे। बस उछाल उछाल कर खेलेंगे।” कहने लगीं, ''तो फिर वो खेल ही क्या हुआ जो बेदिली से खेला जाये। वैसे आप दोनों तो सिंगल्ज़ भी खेल सकते, भला मैं तीसरी क्या करूँगी?”

    फिर किसी दिन कहा, ''हमारे साथ सैर को चलिए।” बोलीं, ''अभी तो मुझे फ़ुर्सत नहीं। बिल्कुल फ़ुर्सत नहीं। जब तक मैं ये थ्योरी समझ नहीं लेती।” पूछा, ''तो कब तक समझ लेंगी आप ये थ्योरी?” जवाब मिला, ''क्या पता, शायद पाँच मिनट में समझ लूं... और समझ में आए तो महीने तक ना आए।” और जो किसी दिन बहुत ख़ुश हुईं तो कहतीं, ''बस अभी चलते हैं सैर को। ज़रा बच्चों से कह दीजिए कि तैयार होजाएं।” बच्चों के नाम पर हमारे रौंगटे खड़े होजाते, और बात वहीं ख़त्म हो जाती। उमूमन मैं और रफ़ू दोनों सैर को जाया करते। कुछ दिनों तक तो यूंही होता रहा। फिर एक दिन हमने तंग आकर बग़ावत कर दी। आख़िर क्यों नहीं शरीक होतीं ये हमारे साथ। जब एक हम उम्र मौजूद है तो फिर हम उसकी रिफ़ाक़त से क्यों महरूम हैं?

    पहले तो तै हुआ कि एक रात चुपके से उनकी सारी किताबें जला दी जाएं या किसी नदी में फेंक दी जाएं। फिर सोचा कि एक दो हफ़्ते तक और किताबें आजाऐंगी। काफ़ी सोच बिचार के बाद एक तजवीज़ रफ़ू के दिमाग़ में आई। बोले, ''तो तुम्हें सज़ा ही देनी है उन्हें?”

    “यक़ीनन।” मैंने सर हिला कर कहा।

    “तो क्यों उनसे मुहब्बत की जाये?” वो मेरे कान में बोले।

    हाहाहा... कितनी अच्छी तजवीज़ थी। मुहब्बत के आगे तो भूत भी नाचते हैं, और ये तो हैं महज़ फिलासफ़र, हम दोनों ने हाथ मिलाए। ये बेहतरीन तजवीज़ थी। अब सवाल ये पैदा हुआ कि मुहब्बत कौन करे? हम में से कोई भी इस ज़िम्मेदारी को सर लेना नहीं चाहता था। ऐसी वैसी मुहब्बत होती तो कर भी लेते। फिलासफ़र से मुहब्बत करनी थी। मुआमला ख़तरनाक था। मैंने बड़ी आजिज़ी से कहा, ''भई अब तुम ही करलो।” क्योंकि वो ज़रा दुबले-पतले से थे और उनकी सेहत मुहब्बत करने के लिए ज़्यादा मौज़ूं थी। वो तक़रीबन गिड़गिड़ा कर बोले, ''नहीं नहीं मुझे माफ़ कर दो तो बेहतर होगा। अव्वल तो मैंने अभी तक कुछ पढ़ा नहीं और दूसरे ये कि मुझे ज़ुकाम सा रहता है हर वक़्त। फिर ईमान की बात तो ये है कि मुझे ऐनक से भी डर लगता है।” मैंने भी बड़े बड़े बहाने पेश किए, मगर एक चली। आख़िर फ़ैसला हुआ कि मैं इसी इतवार से मुहब्बत शुरू कर दूं। इसके लिए प्रोग्राम बनाया जाये और रिहर्सल भी बाक़ायदा किए जाएं।

    अगले दिन एक छोटा सा अंग्रेज़ी का अफ़साना शकीला को सुनाने गया। पहले तो वो सुनती ही थीं। बड़ी मुश्किल से उन्होंने मुझे दस मिनट दिए। मैंने अफ़साना शुरू किया कि किस तरह चलती रेल में से एक लड़की दरिया में गिर पड़ी जो नीचे बह रहा था। पुल के नीचे हीरो ने जो किश्ती चला रहा था, लपक कर लड़की को क्रिकेट की गेंद की तरह ‘कैच' कर लिया और चीख़ कर बोला, “हाव अज़ इट?” रेल के गार्ड ने जो ख़ुशक़िस्मती से सब कुछ देख रहा था, एम्पायर की तरह उंगली उठाई और चिल्ला कर कहा, “आउट।” फिर हीरो हीरोइन की आँखें चार हुईं।

    “आँखें चार हुईं?” उन्होंने चौंक कर पूछा।

    “जी नहीं माफ़ कीजिए... आँखें छः हुईं।” मैंने उनकी ऐनक की तरफ़ इशारा करके कहा, ''और अगर हीरो ने भी कहीं चशमा लगा रखा हो तो फिर आँखें आठ हुईं। और निगाहें शीशों को पार करके एक दूसरे से लड़ गईं... और... ।”

    “तुम यूंही फ़ुज़ूल बातें करते हो।” वो उठते हुए बोलीं, “जाओ हम नहीं सुनते।”

    सह पहर को वो कोठी के परे एक छोटे से झरने के पास बैठी फ़लसफ़े की एक फ़र्बा और तंदुरुस्त किताब पढ़ रही थीं। ऐनक उतार रखी थी। मैं भी एक मरियल सी किताब लेकर बैठ गया। वो बदस्तूर चुप बैठी रहीं। मैंने दूर नन्ही सी झील की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, ''वाह वाह क्या नज़ारा है। झील का पानी यूं चमक रहा है जैसे चांदी का... चांदी का शीशा और उस पर उजली उजली मुर्ग़ाबीयों का अक्स कैसा भला लगता है।”

    “क्या?” उन्होंने जेब में हाथ डाला... ऐनक के लिए जो ग़ालिबन वहां नहीं थी।

    “आ हाहाहा, हाहा।” मैंने फिर कहा।

    “तो ख़ूबसूरत नज़ारा है... अच्छा।” वो कोट की जेबें तलाश कर रही थीं, ''अभी देखती हूँ। ये कम्बख़्त ऐनक कहाँ ग़ारत हो गई? तो गोया मुरगाबियां भी हैं... अच्छा।” वो बदस्तूर ऐनक ढूंढ रही थीं, ''ओफ्फो वहां रह गई।” उन्होंने एक पत्थर की तरफ़ इशारा किया, ''ज़रा ला दीजिएगा वहां से।” मैं ऐनक ले आया। उन्होंने साफ़ करके लगाई, ''बहुत ख़ूब, बहुत अच्छा नज़ारा है... लेकिन वो मुरगाबियां कहाँ हैं?”

    “भला वो आपकी ऐनक का इंतज़ार करतीं, कभी की उड़ गईं।” दरअसल वहां मुरग़ाबियां थीं ही नहीं।

    “अच्छा तो उड़गएं... फिर देख लेंगे कभी।” उन्होंने पढ़ना शुरू कर दिया।

    अगले रोज़ मैंने डरते डरते पूछा, ''ज़रा आज मेरे साथ सैर को चलेंगी?”

    बोलीं, ''क्यों आज कोई ख़ास बात है?”

    “जी नहीं, दरअसल मैंने एक नया रास्ता देखा है जो पहाड़ की दूसरी तरफ़ लहराता हुआ उतरता है। वहां इतने दिलफ़रेब नज़्ज़ारे हैं कि क्या बताऊं... उस तरफ़ चलेंगे।”

    “एक तो तुम्हारे इन दिलफ़रेब नज़ारों ने आजिज़ कर दिया, ख़ैर।” वो सोचने लगीं, ''तो गोया नया रास्ता है, नज़्ज़ारे भी हैं... और वो भी दिलफ़रेब... अच्छा चलते हैं।”

    अब उगला सवाल उनका बच्चों के मुताल्लिक़ होता। मैंने जल्दी से पेशबंदी कर दी, ''पता नहीं ये बच्चे कहाँ चले गए? बड़ी देर तलाश की, लेकिन एक भी तो नहीं मिला।” उसी दोपहर को मैंने उनकी ऐनक कहीं छुपा दी थी, चुनांचे वो बग़ैर ऐनक के थीं। जो रास्ता पहाड़ के दूसरी तरफ़ उतरता था वो बिल्कुल ख़ुश्क था। हम दोनों काले काले पत्थरों और काँटेदार झाड़ियों में से गुज़र रहे थे। ''ज़रा देखिए तो... कैसे रंग रंग के फूल खिखुले हैं। तख़्ते के तख़्ते दूर दूर तक फैलते चले गए हैं, जैसे क़ालीन बिछे हों।” मैंने चंदा खड़े हुए दरख़्तों की तरफ़ इशारा किया।”

    “कहाँ हैं? उस तरफ़। हाँ... बड़े प्यारे फूल हैं, इतना तो मुझे ऐनक के बग़ैर भी नज़र आजाता है।” वो अपनी कमज़ोरी छुपा रही थीं।

    “और ये उस तरफ़ तो आपने देखा ही नहीं। इस वक़्त कैमरा होता तो तस्वीर लेते। एक पतली सी झिलमिल झिलमिल करती हुई आबशार है पहाड़ की चोटी पर। मोतीयों जैसे चमकीले क़तरे पत्थरों पर नाच रहे हैं।” मैंने एक सूखे हुए पहाड़ की तरफ़ इशारा करते हुए कहा।

    “वाक़ई बहुत प्यारी आबशार है और आवाज़ भी तो बड़ी मद्धम और भली है।” ये आवाज़ उन्होंने ख़्वाह-मख़ाह सुनना शुरू कर दी।

    “अरे।” मैं जैसे चौंक कर बोला, ''ये क़ौस-ए-क़ुज़ह ये क़ौस-ए-क़ुज़ह, इस पहाड़ी से उस पहाड़ी तक चली गई है। एक छोटा सा पुल बन गया है।”

    “और फिर रंग कैसे नुमायां हैं। ख़ासतौर पर सब्ज़ रंग, कल मैं ज़रूर यहां ऐनक लगाकर आऊँगी ताकि ज़रा अच्छी तरह... नहीं, नहीं... बस यूंही ऐनक लगाऊँगी। और अगर भी लगाऊँ तो कौन सा फ़र्क़ पड़ता है। वैसे अब भी सब कुछ नज़र आरहा है।” और दूसरे रोज़ वो ऐनक लगा कर अकेली उसी रास्ते से गईं। जब वापस आईं तो बुरा सा मुंह बना हुआ था और मुझसे दो-तीन दिन तक बात की।

    इतवार की सुबह आई, जब से मुझे मुहब्बत शुरू करनी थी। सारा दिन मौक़ा मिला। रात हुई और चांदनी खिली। पहाड़ों का चमकीला चांद ताबां था। मैं उनके कमरे में गया। कुछ देर तमहीद बाँधी। चाँदनी रात की रूमानी फ़िज़ा की तारीफ़ें कीं, फ़वाइद बताए। फिर कहा, ''काश आप इस वक़्त मेरे साथ चलतीं।”

    वो कुछ देर सोचती रहीं। फिर पेंसिल से नाक खुजा कर बोलीं, ''आपने एक बेमानी सी बात कही है, बिल्कुल बेमानी फ़िक़्रों में। आप चाहते क्या हैं? चाँदनी रात की सैर या मुझसे बातें करना? अगर सैर करनी है तो अकेले फिरना बेहतर होगा क्योंकि जहां तक चाँदनी रात की लताफ़त और रूमानियत का ताल्लुक़ है वहां मेरी कोई ज़रूरत नहीं। अगर मैं साथ हुई तो आप कभी मुझसे बातें करेंगे और कभी फ़िज़ा की तरफ़ मुतवज्जा होने की कोशिश करेंगे। अगर आप मुझसे बातें करना चाहते हैं तो मेरे पास बीस मिनट से ज़्यादा फ़ालतू वक़्त नहीं। इस दौरान में आप जल्दी से बातें कर लीजिए और फिर ख़्वाह चांदनी में फिरिए या अंधेरे में।”

    मैं मुँह बनाए चला आया। बिस्मिल्लाह ही ग़लत निकली।

    फिर एक दफ़ा मैंने उनकी उंगलियां छू कर कहा, ''कितनी प्यारी उंगलियां हैं?”

    “आपका फ़िक़रा समझ में नहीं आया। ये उंगलियां हैं ही प्यारी? या सिर्फ़ आपको प्यारी लगती हैं?”

    “मुझे प्यारी लगती हैं।” मैं ज़रा सहम कर बोला।

    “भला प्यारा लगने की क्या वजह हो सकती है? एक लंबी सी पतली चीज़, ऊपर मामूली खाल, नीचे गोश्त और हड्डी... बस सबकी उंगलियां इसी क़िस्म और बिल्कुल उसी बनावट की होती हैं। आप उन्हें भी तो प्यारी कह सकते हैं।”

    मैं झल्ला उठा... बात बात में फ़लसफ़ा क्या मुसीबत है? रफ़ू से मश्वरा लिया गया। वो बोले, ''घबराने की कोई बात नहीं, आज एक छोटी सी तक़रीर लिख दूंगा और तुम्हें ख़ूब मश्क़ करवा दूँगा। मैं कॉलेज में कई ड्रामे कर चुका हूँ।”

    पूरा एक दिन रिहर्सल में ज़ाए हो गया। मैंने उन्हें बाग़ में जा पकड़ा। वो बदस्तूर अकेली बैठी पढ़ रही थीं। मुझे देखकर उन्होंने किताब बंद कर दी और घड़ी देखने लगीं जैसे कहना चाहती हों कि ख़्वाह-मख़ाह वक़्त ज़ाए करोगे अब। मैंने तक़रीर शुरू की कि किस तरह कोई किसी के दिल में आकर बस जाता है और फिर निकलने का नाम नहीं लेता... हरदम उसी का ख़्याल सताने लगता है।

    “ख़ूब तो यूं भी हो जाता है कभी?” वो मुस्कुरा कर बोलीं।

    “जी हाँ कई मर्तबा हुआ। होता रहा है। हुआ करता है। हुआ करेगा... और... और अभी हुआ भी है।”

    “मसलन।”

    “मसलन, यही कि मुझे... (दिलेर बन कर) यानी मेरे दिल में हर वक़्त आपका ख़्याल रहता है।” मैं जुरअत कर के कह गया, लेकिन उन पर कोई असर हुआ। वो बदस्तूर मुस्कुरा रही थीं।

    “ग़लत, बिल्कुल ग़लत, दिल में किसी का ख़्याल नहीं रह सकता। जो कुछ हम देखते हैं वो आसाबी निज़ाम के तवस्सुत से दिमाग़ में जाता है। जब हम सोचते हैं तो दिमाग़ में सोचते हैं। दिल का सोचने से कोई ताल्लुक़ नहीं। दिल में ख़्याल व्याल के लिए कोई जगह है। वहां तो बमुश्किल ख़ून समा सकता है।”

    “अच्छा तो यूंही सही कि दिमाग़ में हर वक़्त आपका ख़्याल रहता है।”

    “अगर ये सही है तो ये आपकी दिमाग़ी कमज़ोरी है कि एक मामूली सी चीज़ का असर दिमाग़ के मुख़्तलिफ़ हिस्सों पर इस क़दर हावी हो जाएगी कि किसी वक़्त पीछा छोड़े।”

    “कमज़ोरी ही सही, लेकिन मुझे हर वक़्त...”

    “आप यहां हर वक़्त नहीं कह सकते हैं, क्योंकि जब आप सोते होंगे तो यक़ीनन भूल जाते होंगे। लिहाज़ा आप नींद के घंटों को चौबीस घंटे से निकाल कर ये कह सकते हैं कि मुझे इतने घंटे आपका ख़्याल रहता है, मगर ये भी उसी सूरत में हो सकता है जब आप सारा दिन हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें और एक ही बात सोचते रहें।”

    “ख़ैर कुछ भी हो।” मैंने झल्लाकर कहा, (मैं तक़रीर के अलफ़ाज़ भूलता जा रहा था।) “मैं सोचता हूँ, ख़्वाह दिल में सोचूं या दिमाग़ में या जिगर में। दिन भर सोचूं या रात भर। मगर मैं सोचता हूँ और ख़ूब सोचूँगा, कभी बाज़ नहीं आऊँगा। आपकी फ़िलासफ़ी मुझे मुतास्सिर नहीं कर सकती। मैं आपके लिए सब कुछ कर सकता हूँ। अगर आप चाहें तो मैं जाने क्या-क्या कर बैठूँ। (मैं फिर भूल गया) आप चाहें तो सर के बल इस नदी में छलांग लगा दूं, और (पुरजोश लहजे में) आप चाहें तो ये भारी पत्थर वहां रख आऊँ और (ज़रा बुलंद आवाज़ से) अगर आप कहें तो इस पौदे को जड़ से उखेड़ दूं, और... ।”

    “फिर आपकी दिमाग़ी कमज़ोरी ज़ाहिर हो रही है। भला मुझे क्या पड़ी है जो दरख़्त उखड़वाती फिरूँ या पत्थरों को उनकी जगह से हिलवाऊँ। ऐसे ख़्यालात महज़ आपके दिमाग़ की इख़्तिरा हैं और ज़ाहिर है कि इस क़िस्म के ख़्यालात तंदुरुस्त दिमाग़ में कभी नहीं आसकते।”

    उन्होंने अपनी ऐनक उतार दी और साफ़ करने लगीं। मैं तक़रीबन सारी तक़रीर भूल चुका था। यकायक मुझे एक दौरा सा उठा, “देखिए अगर आप चाहें तो मैं पल भर में ऐनक के शीशे साफ़ कर सकता हूँ या उस ऐनक को तोड़ कर एक नई ऐनक ला सकता हूँ।”

    “चच चच... ओफ़्फ़ो, दिमाग़ी कमज़ोरी के मज़ीद सबूत मिल रहे हैं। ऐनक के शीशे साफ़ करना एक मामूली सा काम है, और फिर एक साबित चीज़ को ज़ाए करके वैसी ही नई लाने में कहाँ की अक़लमंदी है? ये सब बातें ज़ाहिर करती हैं कि इस वक़्त आपके दिमाग़ में किसी अजीब जज़्बे के तहत अजीब सा तूफ़ान बपा है।”

    और मैंने रफ़ू से आकर कह दिया कि, “मुझसे ये नहीं हो सकता, क़ियामत तक नहीं हो सकता। बात बात में मीन मेख़ निकलती है। एक एक फ़िक़रे का पोस्टमार्टम होता है। बात कुछ करने जाओ और सुनके आओ कुछ, मैं इन फिलासफ़र साहिबा से कभी नहीं जीत सकता।”

    मगर रफ़ू थे कि बराबर कह रहे थे, “घबराओ मत, आहिस्ता-आहिस्ता सब ठीक हो जाएगा।” एक तो उनकी इस आहिस्ता-आहिस्ता ने मार रखा था। जब जा कर शिकायत करो, यही जवाब मिलता कि आहिस्ता-आहिस्ता सब दुरुस्त हो जाएगा। दरअसल नाउम्मीद वो भी हो चले थे।

    रफ़ू के बार-बार मजबूर करने पर मैं हर-रोज़ दो-चार बातें शकीला से ऐसी कर जाता जिन पर देर तक फ़लसफ़े के लेक्चर सुनने पड़ते। मगर एक तबदीली उनमें आती जा रही थी। परेशान बाल अब सँवारे जाते थे। कपड़ों का ख़ास ख़्याल रखा जाता। ऐनक भी बदल दी गई। अब बग़ैर फ्रे़म की नाज़ुक सी ऐनक आगई थी जिससे चेहरा बेहतर मालूम होता था। मगर उनकी बातें बदस्तूर वैसी ही थीं।

    आख़िर एक दिन मैंने फिर हिम्मत की और सर पर कफ़न बांध कर इज़हार-ए-मोहब्बत के लिए तैयार हो गया, जो कुछ होगा देखा जाएगा। ज़्यादा से ज़्यादा यही हो सकता है कि एक डाँट मिल जाएगी। बड़ी मेहनत और मुख़्तलिफ़ किताबों की मदद से एक रूमानी तक़रीर तैयार की गई। उसे ख़ूब रट कर आख़िरी हमले के लिए तैयार हो गया। इज़हार के लिए शाम का दिलफ़रेब वक़्त चुना गया। जब शफ़क़ से सारा आसमान जगमगा रहा हो और ठंडी मुअत्तर हवा के झोंकों से शकीला के बाल लहरा रहे हों।

    पहले दिन तो शाम को बारिश हो गई इसलिए सब कुछ मुल्तवी करना पड़ा। दूसरे दिन सुबह से रफ़ू ने मुझे तरह तरह की चीज़ें लाकर दीं। इतनी कि मैं पीते पीते तंग आगया। हॉर्लिक्स का दूध, सेनाटोजिन, लोहे का टॉनिक, चंद चमचे मछली का तेल, दोपहर को मा उल लहम पिलाया गया। सारा दिन वो मुझे तसल्ली देते रहे कि शाबाश घबराना मत, मामूली सी बात है और फिर कोई रोज़ रोज़ तो नहीं करनी होगी। ख़ैर शाम हुई। मैंने शकीला को हस्ब-ए-मामूल बाग़ में एक पत्थर पर पढ़ते पाया। बग़ैर किसी तमहीद के मैंने तक़रीर शुरू कर दी।

    “आज की बातें शायद आपको बुरी लगें। अगर लगती हैं तो लगा करें, लेकिन मैं कहूँगा और ज़रूर कहूँगा।” मैं एक घुटने के बल झुका और दाहिना हाथ बढ़ा कर बोला, “आप नहीं जानतीं कि मेरी ज़िंदगी किस क़दर उदास और तन्हा है। (उन्होंने नफ़ी में सर हिलाया जैसे कहती हों कि नहीं जानती।) मैं अंधेरे में भटकता रहा हूँ। मैंने क़दम क़दम पर ठोकरें खाई हैं, लेकिन अब ज़िंदगी के इस बेपायाँ समुंदर में मेरी तन्हा किश्ती का कोई बादबान बन गया। तारीक उफ़ुक़ पर एक रोशन सितारा तुलूअ हुआ... और... ।”

    “ये तो बड़ी ख़ुशी की बात है।” वो पैंसिल को बालों में फेरते हुए बोलीं।

    “और... और मेरे मुरझाए पज़मुर्दा दिल में...।”

    “ग़ालिबन मुरझाए हुए और पज़मुर्दा का एक ही मतलब है। है ना? बेहतर होता आप उनमें से फ़क़त एक इस्तेमाल करते...।”

    “अच्छा चलिए पज़मुर्दा सही... तो मेरे पज़मुर्दा दिल में फिर ज़िंदा रहने की तमन्ना पैदा हुई।”

    “ये कब का ज़िक्र है?”

    “अभी का ज़िक्र है, हाल ही का।” मैंने जल्दी से कहा, (मुझे डर था कि कहीं याद किए हुए फ़िक़रे भूल ना जाऊं।) “जी, और यूं लगता है जैसे किसी ने मेरा हाथ थाम लिया हो।”

    “ये आप किस से कह रहे हैं?”

    “आपसे कह रहा हूँ, लाहौल वला कुवत, आप सुनती रहिए, टोकिए मत, हाँ, तो मैं क्या कह रहाथा, भला?”

    “जैसे आपने किसी का हाथ थाम लिया हो।” उन्होंने लुक़मा दिया।

    “शुक्रिया, मैंने नहीं बल्कि किसी ने मेरा हाथ थाम लिया हो और मैं भटकते भटकते फिर रास्ते पर आगया हूँ।”

    “लेकिन जहां आप भटक रहे थे उसे भी तो हम रास्ता कह सकते हैं क्योंकि रास्ता वो जगह है जहां से गुज़रा जाये। भटकने वटकने की कोई शर्त नहीं है बीच में। आपका फ़िक़रा ग़लत है। यूं कहिए कि आप भटकते भटकते राह़-ए-रास्त पर आगए हैं।”

    “ख़ैर, यूँही सही। मैं राह-ए-रास्त पर आगया हूँ और अब मेरी ज़िंदगी...”

    “मगर वो है कौन जिसने ये सब हरकतें आपके साथ की हैं?”

    “नहीं बताते।” मैंने बच्चों की तरह मुँह बनाकर कहा।

    “हम तो ज़रूर सुनेंगे कि वो कौन है।” वो बोलीं।

    “वो कौन हैं? आप सचमुच नहीं जानतीं क्या? वो यहां हैं, (मैंने दिल पर हाथ रख दिया।) वो यहां बस्ती हैं... नहीं नहीं, मेरा मतलब है कि (सर पकड़ कर) यहां बस्ती हैं।”

    “कुछ अता-पता भी तो मालूम हो उनका?”

    मैं घबरा गया। दिल बेतहाशा धड़क रहा था, हलक़ ख़ुश्क था। मैंने सौ गज़ की दौड़ की तैयारी की और छलांग लगाते हुए बोला, “वो... आप... हैं।” और कुलाँच मार कर भागा। कुछ दूर जा कर मुझे चंद अलफ़ाज़ याद आगए जिन्हें भूल गया था। भागते भागते रुक गया और पीछे मुड़कर ज़ोर से बोला, “ज़रा सुन लीजिए। आप बिल्कुल शगुफ़्ता दरख़्त... नहीं नहीं... शगुफ़्ता पौदे की तरह लगती हैं। आपका चेहरा गुलाब के पत्ते की तरह, यानी फूल की तरह है... और... मैं आपके लिए तोहफ़ा लाऊँगा। यानी आप मेरे लिए तोहफ़ा लाएँगी। यानी कि अँगूठी... यानी कि...” आगे तो बिल्कुल भूल गया।

    वापस आते ही मेरे सर में सख़्त दर्द शुरू हो गया। जाने दिन में रफ़ू ने क्या क्या अला बला खिला दी थी। इसका नतीजा शदीद दर्द निकला। कमबख़्त एस्प्रीन वग़ैरा से भी क़ाबू में आया। रात के ग्यारह बजे थे। सब के सब मेरी मिज़ाजपुर्सी करके जा चुके थे। रफ़ू को उनके किसी दोस्त ने बाहर मदऊ कर रखा था। मैं कमरे में अकेला लेटा खिड़की से पहाड़ की चोटी को देख रहा था जिसके पीछे उजली उजली रोशनी शाहिद थी कि अभी चांद निकलेगा। यकायक दरवाज़ा खुला। ख़ुशबू का एक झोंका आया और कपड़ों की सरसराहाट सुनाई दी। एक ख़ूबसूरत सा कोट पहने शकीला दाख़िल हुईं और मेरे सर में दुगुना दर्द शुरू हो गया। अब ये ख़ूब धमकाएं गी। मैंने आँखें मूंद लीं और दुबक गया। लेकिन उन्होंने धमकाया नहीं, चुपके से सिरहाने बैठ गईं और मुलायम हाथों से सर को आहिस्ता-आहिस्ता दबाने लगीं। मैंने सोचा कि ये तमहीद बाँधी जा रही है। यही मुलायम हाथ ज़रा सी देर में कानों तक पहुंचा चाहते हैं। ज़रा आँख खोली तो शामत आजाएगी।

    उन्होंने मेरे माथे पर हाथ फेरा और पूछा, “क्या वाक़ई बहुत दर्द है?”

    मैंने डरते डरते देखा। वो मुस्कुरा कर बोलीं, “शरीर कहीं के, अब भुगतो शरारतों के नतीजे।” उन्होंने चुपके से मेरी हथेली पर कोई चीज़ रख दी। एक अँगूठी हल्की फुल्की सी। मैं चौंक पड़ा।

    “मगर... ये अँगूठी... ज़रा वो...” मैं उन्हें वापस देने लगा।

    “चुप।” वो मेरे होंटों पर उंगली रखकर बोलीं, “जब सर में दर्द हो तो बोला नहीं करते।”

    मैं चुप हो गया। वो बदस्तूर बैठी सर दबाती रहीं। चांद निकल आया था। कुछ शुआएं खिड़की में से गुज़रती हुई उनके चेहरे से खेलने लगीं। उनका चेहरा जगमगा उठा। मैंने कनअँखियों से देखा। उनकी बड़ी बड़ी आँखें झिलमिला रही थीं। शीशों का चुमकारा होगा, मैंने दिल में सोचा और जब वो शब-बख़ैर कह कर चली गईं तो दफ़्अतन यूं लगा जैसे सर का दर्द जो कुछ देर के लिए ग़ायब हो चुका था, फिर शुरू हो गया है। देर तक मैं अँगूठी के सफ़ेद जगमगाते हुए रंग को देखता रहा।

    अगले रोज़ सुबह सुबह घर से तार आगया। एक मेहरबान प्रोफ़ेसर साहब ने मुझे दो हफ़्ते पहले वापस आने की ताकीद की थी। इम्तिहान की तैयारी के लिए शाम तक सामान बांधना पड़ा। दूसरे दिन जाना था। अगली सुबह मैं और रफ़ू पैदल रवाना हुए। नीचे उतरती हुई सड़क मुड़ती तड़ती दुबारा कोठी के बिल्कुल पास से गुज़रती थी। अभी हम उस मोड़ से ज़रा दूर थे, जहां से उनका बाग़ बिल्कुल सामने आजाता था।

    मैं यही सोच रहा था कि कहीं मेरी बातों पर वो बुरा मान गई हों। मगर उनके ख़ुश्क फ़लसफ़ी दिल पर क्या असर हुआ होगा। लेकिन बग़ैर फ्रे़म की ऐनक... वो ख़ुशनुमा मलबूस... और अँगूठी का तोहफ़ा... क्या उनका मतलब कुछ नहीं? नहीं, ग़ालिबन कोई मतलब नहीं।

    “मुझे तो हर दम यही डर रहता था कि कहीं हमें धमका दिया जाये। बाज़ औक़ात तो हमने बहुत ज़्यादती की।” रफ़ू कहने लगे।

    मैं चौंक पड़ा, ''ईं, क्या?”

    “और फिर जिस दिन तुम्हें इज़हार-ए-मोहब्बत करना था, उस रोज़ मैं तो बहुत डरा। ये फ़िलासफ़ी भी अजीब मुसीबत है। अगर शकीला की जगह कोई और लड़की होती, तो या तो अच्छी तरह तुम्हारे कान खींचती, या तुमसे मुहब्बत करने लगती... लेकिन उन पर कोई असर नहीं हुआ।”

    “बस ख़ैरीयत रही कि कान नहीं मरोड़े गए।”

    “मगर, कुछ अंदेशा सा है मेरे दिल में।” वो सोच कर बोले, “और जो उन्हें तुमसे मुहब्बत हो गई हो, तो?”

    “हश्त, मुहब्बत और उन्हें? भला फिलासफ़र भी मुहब्बत करते हैं कहीं? और फिर ऐनक वाले फिलासफ़र।”

    हम दोनों हंस दिए, उन्होंने जेब से अख़बार निकाला और पढ़ने लगे। हम दोनों उसी मोड़ से गुज़र रहे थे। सामने उनका बाग़ था, बिल्कुल नज़दीक। बस बीच में एक खड था। यकायक मेरी निगाह सामने के पत्थर पर गई जहां शकीला खड़ी थीं। उनका गुलाबी चेहरा फूल की तरह चमक रहा था। बग़ैर फ्रे़म की ऐनक के शीशों से दो बड़ी बड़ी आँखें मुझे देख रही थीं। वो कितनी अच्छी दिखाई दे रही थीं।

    रफ़ू बदस्तूर अख़बार पढ़ रहे थे। मैंने शकीला को सलाम किया। उन्होंने सर की जुंबिश से जवाब दिया। जाने उनके चेहरे पर इतनी अफ़्सुर्दगी क्यों थी। शीशों के पीछे उनकी आँखें झिलमिला रही थीं। कहीं ये आँसू तो नहीं? नहीं, वैसे ही शीशों का चुमकारा होगा, यूंही धोका हुआ।

    अब हम मोड़ को तै कर रहे थे। धुंद बढ़ती जा रही थी। दो-चार उजले उजले बादलों के टुकड़े हमारी तरफ़ भागे आरहे थे। मैं शकीला को देख रहा था। धुंद बढ़ती गई। बादल के टुकड़े हमारे सामने आगए और सब कुछ आँखों से ओझल हो गया।

    “क्या था?” रफ़ू चौंक कर बोले।

    “कुछ नहीं।”

    फिर रास्ते में हमने क़ौस-ए-क़ुज़ह देखी जो नीचे वादी में एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी तक चली गई थी। बादलों से चंद शुआएं झाँकने लगीं और क़ौस-ए-क़ुज़ह में बेशुमार पानी के क़तरे मोतीयों की तरह चमकने लगे। हम एक आबशार के पास से गुज़रे, पानी की फुवार दूर दूर तक फैली हुई थी। पत्थरों पर हमने नन्हे मुन्ने क़तरे देखे जो बड़ी मसर्रत से नाच रहे थे।

    एक तंग रास्ते से गुज़रते हुए मेरी कुहनी एक जंगली गुलाब को छू गई, टप, टप, टप, टप। शबनम के चंद क़तरे मेरी आसतीन पर आकर गिरे। मैंने क़तरों को कोट से झाड़ा नहीं, यूंही रहने दिया। फिर मेरी निगाह उंगली की अँगूठी पर जा पड़ी, जो शकीला ने मुझे दी थी। जगमग-जगमग करता हुआ सफ़ेद नग। मुझे यूं लगा जैसे कोई आँसू जम गया हो। नग की झिलमिलाहट में आँसू की लर्ज़िश दिखाई दी। मैंने जल्दी से हाथ जेबों में डाल लिए।

    शायद रफ़ू का अख़बार ख़त्म हो चुका था। उन्होंने फिर बातें शुरू कर दीं।

    स्रोत:

    शगूफ़े (Pg. 53)

    • लेखक: शफ़ीक़ुर्रहमान
      • प्रकाशक: किताब वाला, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1994

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