मिर्ज़ा ग़ालिब हॉस्टल में
(जे़ल में मिर्ज़ा ग़ालिब के तीन ग़ैर मतबूआ मकातीब हैं जो मुस्लिम यूनीवर्सिटी के हॉस्टल एस एम ईस्ट से लिखे गए हैं। उन ख़ुतूत की तवारीख़ ना-मालूम हैं।)
1 - दोस्त के नाम
मेरी जान किन औहाम में गिरफ़्तार है। जहाँ से बी.ए कामयाब किया है वहीं से एम.ए.भी कर डाला। डबल कोर्स एक वह्म है, वाहिमा है। अलीगढ़ आने के ख़्याल को दिल से निकाल, तुझको ख़ुदा जीता रखे। मगर इस राह में तेरे महालात-ओ-एहतिमालात को सूरत-ए-वुक़ूई दे। यहां भलों से भी तवक़्क़ो नहीं है बुरों का क्या ज़िक्र, कुछ बन नहीं आती। आप अपना तमाशाई बन गया हूँ। रंज-ओ-ज़िल्लत से ख़ुश होता हूँ। यानी मैंने अपने को अपना ग़ैर तसव्वुर किया है। जो नोटिस मुझ तक पहुँचता है, कहता हूँ कि लो ग़ालिब के एक और जूती लगी।
बहुत इतराता था कि मैं बड़ा शायर और फ़ारसी-दाँ हूँ। आज दूर-दूर तक मेरा जवाब नहीं है। ले अब तू इन तक़ाज़ों का जवाब दे। सच तो यूँ है कि ग़ालिब अलीगढ़ क्या आया बड़ा मकतूब आया बड़ा मर्दूद आया।
हम अज़-राह-ए-ताज़ीम जैसा बादशाहों को बाद उनके जन्नत आरामगाह-ओ-अर्श-नशेमन ख़िताब देते हैं… चूँकि ये अपने को शाह-ए-क़लमरू सुख़न जानता था, सक़र मक़र और हाविया ज़ाविया ख़िताब तजवीज़ कर रखा है।
आईए नजमुद्दौला बहादुर एम.ए., डी.एफ़.ए., एल.एलबी.। एक नोटिस दाहिने हाथ में है जो मुफ़्त का खाया पिया हलाल कर रहा है। दूसरा बाएँ हाथ में सुतूर क़यामत-ए-नुशूर से इस तरह आरास्ता है कि सारा सिखा सिखाया हाफ़िज़े से बसारत की तरह ज़ाइल हो जाएगा।
मैं उनसे पूछ रहा हूँ, “अजी हज़रत नवाब साहिब! नवाब साहिब कैसे! और ख़ाँ साहिब आप सलजूक़ी और अफ़रास्याबी हैं। ये क्या बेहुरमती हो रही है। कुछ तो उकसो, कुछ तो बोलो... बोले क्या... बेहया, बेग़ैरत, बैरे से चाश्त सहर, डाइनिंग हाल से डिनर, नुमाइश से नान-ओ-कबाब और कैंटीन से चाय बेहिसाब, कॉलेज से यक़लम और कुतुब ख़ाने से कुतुब-हा-ए-जदीद-ओ-क़दीम क़र्ज़ लिए जाता है। ये भी तो सोचा होता कहाँ से दूँगा।”
ग़ालिब
2 - मीर मेह्दी के नाम
“अहा हा हा... मेरा प्यारा मेह्दी आया। आओ भाई मिज़ाज तो अच्छा है? बैठो, अलीगढ़ का ये दार-उल-उलूम जो मशहूर है दार-उस-सुरूर है, जो लुत्फ़ यहाँ है वो कहाँ है। हुजरे से तीन सौ क़दम पर एक चश्मा है, कैंटीन उसका नाम है। बेशुबह चश्मा, चश्मा-ए-आब-ए-हयात की सोत उसमें मिली है। ख़ैर, यूँ भी है, तो भाई आब-ए-हयात उम्र बढ़ाता है लेकिन इतना शीरीं कहाँ होगा।” “तुम्हारा ख़त पहुँचा, तरद्दुद-ओ-अबस, मेरा हुज्रा डाकघर के क़रीब और डाकिया मेरा दोस्त है। न तख़ल्लुस की हाजत न हॉस्टल की। बेविस्वास ख़त भेज दिया कीजिए। यहाँ का हाल सब तरह ख़ूब है और सेहत मर्ग़ूब है। इस वक़्त इससे ज़्यादा नहीं लिख सकता।
ग़ालिब
3 - प्रोवोस्ट1 के नाम
हज़रत, नोटिस आया था। ज़ाहिर है कि मुतालिबा मुझसे बकाए का किया होगा। चूमा चाटा, आँखों से लगाया, जो एक लफ़्ज़ भी पढ़ा हो तो आँखें फूटें। तावीज़ बनाकर तबर्रुकन तकिये में रख लिया है, निजात का तालिब।
ग़ालिब
(1) अलीगढ़ के मुत्तहिदा इक़ामत ख़ानों की वफ़ाक़ी ममलिकत के सद्र को ‘प्रोवोस्ट’ कहा जाता है।
स्रोत:

Ghaalib Se Mazarat Ke Sath (Pg. 106)
- लेखक: अहमद जमाल पाशा
-
- प्रकाशक: नसीम बुक डिपो, लखनऊ
- प्रकाशन वर्ष: 1964
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.