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मुशायरों में हूटिंग के फ़वाइद

यूसूफ़ नाज़िम

मुशायरों में हूटिंग के फ़वाइद

यूसूफ़ नाज़िम

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    मुशायरे तो बहुत होते हैं लेकिन हर मुशायरा कामयाब नहीं होता और सिर्फ़ कामयाबी भी काफ़ी नहीं होती। ‎मुशायरा अच्छे नंबरों से कामयाब होना चाहिए। ऐसी ही कामयाबी से मुशायरों का मुस्तक़बिल रोशन होता है। ‎मुशायरों की कामयाबी का इन्हिसार अब हूटिंग पर है। हूटिंग मार्के की होगी तो मुशायरा भी मारक तुल आरा ‎होगा। देखा गया है कि बड़े शहरों में जहां तालीम याफ़्ता लोग ज़्यादा पाए जाते हैं हूटिंग का मेयार अच्छा-‎ख़ासा है लेकिन इज़ला के सामईन हूटिंग के मुआमले में अभी पसमांदा हैं। बा’ज़ इज़ला में इस का मेयार ‎ठीक रहा है लेकिन इस सिलसिले में अभी उन्हें बहुत काम करना है। मुशायरों के सीज़न में इज़ला के कुछ ‎मंदूबीन को बड़े शहरों के मुशायरों में हाज़िर रहना चाहिए।

    मुशायरा वर्कशॉप में हिस्सा लिए बग़ैर अच्छी हूटिंग नहीं आती। बड़े शहरों में तो बा’ज़ मुशायरे ऐसे भी हुए हैं ‎कि मुशायरे के दूसरे दिन मुशायरा गाह की छत की मरम्मत करवानी पड़ी है, इसलिए अब ज़ेर-ए-समा ‎मुशायरों का रिवाज बढ़ता जा रहा है। ज़ेर-ए-समा मुशायरों में, शायर तो नहीं लेकिन सामईन समां बाँध देते ‎हैं। एक ज़माना था जब मुशायरों में शायरों के कलाम का मुक़ाबला होता है, अब सामईन के कमाल का ‎मुक़ाबला होता है। मुशायरे भी टिकट से होने लगे हैं जो एक लिहाज़ से अच्छी बात है।

    लंगर और मुशायरे में कुछ फ़र्क़ होना चाहिए। लेकिन अफ़सोस इसका होता है कि बड़ी क़ीमत के टिकट ‎ख़रीदने वाले सामईन, हूटिंग में इतने जोशो ख़रोश से हिस्सा नहीं लेते जितना कि पीछे की सफ़ों में बैठने ‎वाले बाज़ौक़ सामईन मेहनत और मशक़्क़त का मुज़ाहरा करते हैं। दुनिया में हमेशा यही होता आया है। ‎कमज़ोर तब्क़े पर ज़्यादा बार पड़ता है। बा’ज़ मुंतज़मीन मुशायरा जो मुशायरे में सन्नाटा चाहते हैं या जिन्हें ‎हू का आलम पसंद होता है वो ऊँची क़ीमत के टिकट का मुशायरा करते हैं या सिर्फ़ अतियात के ज़रिए ये ‎काम करते हैं।

    ऐसे मुशायरों में भी हाल तो भर जाता है लेकिन मुशायरे का आँखों देखा हाल नाक़ाबिल-ए-बयान होता है। ‎उन क़ीमती मुशायरों के सामईन, मुशायरे में इस तरह बैठते हैं गोया किसी डीलक्स सिनेमा हाल में बैठ कर ‎अंग्रेज़ी फ़िल्म के मकालमे समझने की कोशिश कर रहे हों। मर्द हज़रात बार-बार अपने चश्मे साफ़ करने और ‎ख़वातीन अपने अपने आंचलों को पर्चम बनाने की फ़िक्र में ग़लतां पेचां रहती हैं।

    ये भी कोई मुशायरा सुनना हुआ, शायर आता है जाता है, वो पढ़ता है या गाता है किसी को पर्वा नहीं होती। ‎हत्ता कि मिज़ाहगो शायर भी बेबाक से बेबाक शे’र सुना कर यूं नाकाम, नामुराद लौटता है जैसे शब-ए-ग़म ‎गुज़ार कर जा रहा हो। सामईन में से किसी की भी ज़बान पर जूं नहीं रेंगती। किसी के दहन मुबारक से एक ‎आवाज़ आह या वाह की नहीं निकलती। पता ही नहीं चलता कि ये मुशायरा है या कोई जलसा-ए-ताज़ियत। ‎उस ख़ामोश मुशायरे और एक ताज़ियती जलसे में एक नुमायां फ़र्क़ ये होता है कि सामईन एहतिरामन सर ‎झुकाकर दो मिनट के लिए खड़े नहीं होते। कम से कम यही करें। शायरों को पता तो चले कि हाल में जो ‎लोग तशरीफ़ फ़र्मा हैं ज़िंदा हैं और ज़िंदा हैं तो बीमार नातवां नहीं हैं।

    मदऊईन, अतिया और अतिया दहंदगान हज़रात इतने लिए दिए रहते हैं कि उनके पास देने को कुछ होता ‎नहीं है, शोअरा साहिबान तो ताज़ियती कलमात को कलमात-ए-ख़ैर समझते हैं। कोई भी शायर तबअन क़ुनूती ‎नहीं होता, लेकिन अगर सामईन, शोअरा से ख़ौफ़ज़दा हो कर दम साधे बैठे रहें तो मुशायरे के उठने की बात ‎तो दूर रही, ख़ुद शायरों का अपने आप पर से एतिमाद उठ जाता है। शायरों के कानों में कोई कोई आवाज़ ‎पड़नी ही चाहिए। आवाज़ हो या आवाज़ा, इसके लिए उसकी समाअत का दरवाज़ा खुला रहता है।

    सही माअनों में मुशायरा वो होता है जब मुशायरा गाह में ज़िंदगी रवाँ-दवाँ हो, मुशायरा गाह में कैफ़ियत कुछ ‎ऐसी होनी चाहिए, जिससे ये मालूम हो कि शायरों को सुनने सामईन नहीं आए, सामईन का मोर्चा आया हुआ ‎है। ख़ूबसूरत पंडाल, जगमगाता शह नशीन और जगह जगह एक हज़ार कैंडल पावर के क़ुमक़ुमे ये सब बेकार ‎हैं। असल चीज़ है हूटिंग। मुशायरों में ये हो तो मुंतज़मीन मुशायरा मायूस होजाते हैं। उनके सारे किए ‎कराए पर पानी फिर जाता है। जिस तरह शायर मुशायरे की तैयारी करते हैं, अपनी ग़ज़ल की धुन बनाते हैं। ‎उसके कई रिहर्सल करते हैं, उसी तरह सामईन को भी बाज़ाब्ता तैयारी करनी चाहिए। मुशायरों में यकरुख़ी ‎तरीक़ा इख़्तियार करना अदब दुशमनी है।

    मुशायरों में हूटिंग की इब्तिदा कब और कहाँ हुई इसके बारे में मुख़्तलिफ़ रिवायतें हैं लेकिन ये ज़रूर कहा जा ‎सकता है कि मुशायरा ख़ुद और मुशायरे के दीगर लवाज़मात (जिनमें हूटिंग शामिल है) शुमाली हिंद की देन ‎हैं। अलबत्ता ये कहना मुश्किल है कि इसकी रस्म-ए-इजरा कहाँ अंजाम दी गई। तहक़ीक़ इस बात की करनी ‎चाहिए कि टिकट से पहला मुशायरा किस जगह मुनाक़िद हुआ? उसी मुशायरे में सामईन ने शोर मचाया ‎होगा। उसी एहतिजाज ने बाद में हूटिंग की शक्ल इख़्तियार की। जब ये शुरू हुई तो मंज़ूरे नज़र मुंतज़मीन ‎मुशायरा थे। अब तवज्जो का मर्कज़ शायर हैं। ताहम अब भी कहीं कहीं ऐसे वाक़िआत हुए हैं जिनमें सामईन ‎ने शोअरा को नज़रअंदाज कर दिया बल्कि उनकी क़ीमत बढ़ाई कि आप अपना कलाम सुनाते रहिए हमें तो ‎उनकी तलाश है जो आपको यहां लाए हैं।

    हूटिंग अब शौक़ या शुग़्ल नहीं है एक फ़न है और इसमें भी वही सनाएअ बदाए होने चाहिऐं जो शायरी में ‎मुस्तमिल हैं। हूटिंग में इस्क़ाम का पाया जाना मायूब है। कुछ लोगों ने अमली तन्क़ीद की तरह अमली ‎हूटिंग की भी कोशिश की है और बा’ज़ मुक़ामात पर शायरों की सरकूबी के लिए अमली हूटिंग से काम लिया ‎गया है, लेकिन उन वारदातों में एल्डर्स ने कभी हिस्सा नहीं लिया। उन वारदातों को यूथ फेस्टिवल समझ कर ‎शायरों की तारीख़ से हज़्फ़ कर देना चाहिए। हूटिंग दिलचस्पी की चीज़ है, दिल शिकनी का हर्बा नहीं। इसी ‎लिए अमली हूटिंग मक़बूल नहीं हो सकी। मुशायरों में आलात-ओ-ज़रूफ़ इस्तेमाल नहीं किए जा सकते। ‎म्युनिस्पल कारपोरेशन के इजलास की बात और होती है।

    चंद मुशायरे ऐसे भी होते हैं जिनमें मुशायरा बाद में शुरू होता है, हूटिंग पहले शुरू होजाती है। इसकी वजह ये ‎होती है कि शायरों और सामईन के दरमियान सदर-ए-मुशायरा हाइल होजाते हैं। नस्र के जलसों में हमेशा ये ‎होता है कि सदर-ए-जलसा सबसे आख़िर में तक़रीर करता है लेकिन मुशायरों का क़ायदा मुख़्तलिफ़ है। यहां ‎सदर को पहले मौक़ा दिया जाता है और जब सदर ये भूल जाता है कि ये महफ़िल-ए-मुशायरा है तो सामईन ‎मजबूर होजाते हैं कि सदर को ज़्यादा देर खड़ा रहने दें और कुछ ही देर में सदर-ए-मुशायरा को पसपा हो ‎कर बैठ जाना पड़ता है।

    सदर-ए-मुशायरा की पसपाई मुशायरे की कार्रवाई पर भी असर-अंदाज़ होती है। सदर कई मिनट तक बहाल ‎नहीं हो पाता और जब शायर उससे कलाम सुनाने की इजाज़त तलब करता है तो वो इस तरह इजाज़त देता ‎है जैसे उसका बड़ा भारी माली नुक़्सान हो रहा हो। सदर-ए-मुशायरा पर अगर हूटिंग हो जाए तो इब्तिदाई ‎दो-तीन शायरों को ख़ाली हाथ वापस होना पड़ता है। हाल में ख़ामोशी तो नहीं होती लेकिन जो कुछ होती है, ‎उसे हूटिंग का नाम नहीं दिया जा सकता। उसे अज़ सर-ए-नौ शुरू करने में ज़रा देर लगती है।

    दो-चार शायर यूँ ही गुज़र जाते हैं और मुशायरे की तम्हीद अच्छी नहीं होती लेकिन जब पांचवां शायर ‎मैदान-ए-कार-ज़ार में आता है तो मुशायरा अचानक जाग पड़ता है और सारे सामईन इत्तिफ़ाक आरा और ‎ब-आवाज़-ए-बुलंद उस शायर की फ़र्माइश करते हैं जो अपना एक मिसरा तहत में एक तरन्नुम में सुनाता है। ‎अब मुक़ाबला आराई होती है सामईन में और अनाउंसर में। यही अनाउंसर की आज़माइश का वक़्त होता है। ‎इस क्राइसिस में वही अनाउंसर सुर्ख़रु होता है जिसे अच्छे अच्छे अशआर और लताइफ़ याद हों। अनाउंसर ‎अभी आलात-ए-हर्ब से सामईन को ज़ेर करता है और माईक्रोफ़ोन पर ईस्तादा शायरों को सुनवा कर ही दम ‎लेता है।

    शायर मज़कूर की रवानगी के बाद सामईन उस शायरा की फ़र्माइश करते हैं जो ज़र के बॉर्डर की रेशमी साड़ी ‎में मलफ़ूफ़ डाइस पर कुछ इस तरह बैठी होती है कि साफ़ मालूम होता है कि उन्हें किसी पहलू क़रार नहीं ‎आरहा है। यहां अनाउंसर बकमाल होशियारी, सुलह जुई से काम लेता है और ख़ैरसगाली के तौर पर ज़र के ‎बॉर्डर की रेशमी साड़ी में मलफ़ूफ़ शायरा ही को आवाज़ देता है जो अपनी मुस्कुराहट के गुल और समर ‎तक़सीम करती क़दमरंजा फ़रमाती हैं और आधे से ज़्यादा सामईन रेशा ख़त्मी हो कर रह जाते हैं (ये वही ‎सामईन होते हैं जिन्होंने ऊंची क़ीमत के टिकट ख़रीदे हैं) बाक़ी के निस्फ़ सामईन को हूटिंग का फ़र्ज़ निभाना ‎पड़ता है, क्योंकि शायरात भी हूटिंग की मुस्तहिक़ होती हैं।

    मर्दों और औरतों के मुसावियाना हुक़ूक़ का मुशायरों में भी ख़्याल रखना पड़ता है लेकिन शायरात के हिस्से ‎की हूटिंग अलग नमूने की होती है। दबी दबी आवाज़ें बेहतर मानी गई हैं। घुटी घुटी आहें भी सूदमंद होती हैं, ‎ये सारे अंदाज़ हूटिंग ही के हैं। कहा जाता है इन दिनों ख़ाना-ए-बर अंदाज़-ए-चमन क़िस्म की शायरात ‎अह्ल-ए-सुख़न शायरात के मुक़ाबले में ज़्यादा मक़बूल हो रही हैं। हूटिंग भी सलीक़े की हो रही है। उन ‎शायरात को मुशायरे से वापसी में बड़ी मुश्किलात का सामना करना पड़ता है, परवानों को ये फ़िक्र मारे ‎डालती है कि शम्मा जाती किधर है।

    कभी कभी ये भी होता है कि ख़ुद शायर को हूटिंग का सहारा लेना पड़ता है। उनकी हूटिंग दो क़िस्म की ‎होती है। मशहूर ये है कि एक मुशायरे में किसी गोशे से बच्चे के रोने की आवाज़ आई तो शायर ने अपना ‎शे’र दरमियान में ही रोक लिया और फ़िल बदीह ये पूछा कि “नक़्श फ़र्यादी है किस की शोखी-ए-तहरीर का”, ‎ये भी एक तरह की हूटिंग हुई लेकिन बिलवास्ता शीरख़्वार बच्चा दरमियान में था। बिला वास्ता हूटिंग के भी ‎मवाक़े आए हैं लेकिन उन मकालमों में फ़िल्मी रंग जाता है और शायर को अपने अशआर की री टेक में ‎बड़ी दिक़्क़त होती है। बा’ज़ सूरतों में शायर बहुत नाराज़ होजाता है और अनाउंसर को सीज़ फ़ायर की ‎तजवीज़ पेश करनी पड़ती है। इस मौक़े पर कोई लतीफ़ा कारगर नहीं होता। हूटिंग में जारिहाना अंदाज़ ‎मुशायरे के आदाब के मुनाफ़ी है, शायर अपने आपको हूट होता तो देख सकता है लेकिन शूट होता नहीं देख ‎सकता।

    हूटिंग को ज़ेहनियत का नहीं, ज़हानत का मुज़ाहरा माना गया है। अगर शायर मुशायरे में अपनी कई मर्तबा ‎की आज़मूदा नज़्म सुनाना चाहे तो सामईन को हक़ है कि वो शायर से फ़र्माइश करें कि वो अपनी इससे ‎ज़्यादा कुहना नज़्म सुनाए। कोई शायर अगर अपने अशआर डाइस पर बैठे हुए मुख़्तलिफ़ शोअरा की नज़र ‎कर रहा हो तो सामईन इस अमल पर भी तहदीद आइद कर सकते हैं बल्कि ख़ुद शोअरा साहिबान को भी ‎इस क़िस्म के नज़राने क़बूल नहीं करने चाहिऐं।

    मिसरे अगर गिर रहे हों तो सामईन शायर से कह सकते हैं कि ये मिसरे नहीं उठाए जा सकते। मिसरा अगर ‎न उठ सके तो सामईन को हक़ है कि वो शायर ही को उठा दें और अगर शायर खड़ा हो तो उसे बिठा दें। ‎उसे एक लिहाज़ से बदक़िस्मती ही समझना चाहिए कि आला दर्जे की हूटिंग करने वाले सामईन को नाम ‎बनाम शोहरत कभी नसीब नहीं हुई। उन्होंने दरअसल काम छोड़ा है कहीं नाम नहीं छोड़ा है लेकिन जहां तक ‎शायरों की तरफ़ से हूटिंग का ताल्लुक़ है, इस ज़िम्न में कई नाम लिए जाते हैं और मौलाना हसरत मोहानी ‎का नाम तो ख़ासतौर पर बड़े एहतिराम से लिया जाता है।

    एक मुशायरे में कलाम सुनाते वक़्त जब मौलाना को अपने शुरू के दो-तीन अशआर पर दाद नहीं मिली बल्कि ‎सामईन ने चुप साध ली तो मौलाना ने काग़ज़ तह किया और ये कह कर बैठ गए कि बाक़ी के अशआर भी ‎ऐसे ही हैं।

    ये एक तरह की हूटिंग ही थी, इसलिए कहा गया है कि अच्छी और मेयारी हूटिंग किसी भी महाज़ से हो ‎सकती है। यूं भी मुशायरों में तो कोई हिज़्ब-ए-मुखालिफ़ होता है सरकारी पंच। मुशायरा गाह में सिर्फ़ ‎शायरों और सामईन के दरमियान शोख़ी-ए-कलाम और अंदाज़-ए-बयान का दोस्ताना मुक़ाबला होता है। ‎मुक़ाबला कितना ही कड़ा क्यों हो, मुशायरा तो शायर ही लूटते हैं, सामईन बिलउमूम ख़ाली हाथ लौटते हैं। ‎वो हूटिंग भी करते हैं तो अपनी गिरह से इसकी क़ीमत भी अदा करते हैं। इस तरह उनके ज़ौक़ की सही ‎शौक़ की तकमील तो हो जाती है।

    बा’ज़ मुशायरों में शायर और सामईन घर बैठे हूटिंग कर लेते हैं। इस तरीक़ा-ए-कार में उन दोनों के ‎दरमियान देर से आने का मुक़ाबला होता है और इसमें फ़रीक़ैन की अदम मौजूदगी ही उनको कही हूटिंग ‎समझा जाता है। ये मुशायरे होते ज़रूर हैं लेकिन उस वक़्त शुरू होते हैं जब उनके इख़्तिताम का वक़्त तुलू ‎होता है। इस क़िस्म के मुशायरे मुंतज़मीन मुशायरे को रूपोशी पर मजबूर करते हैं। मुंतज़मीन इंतिख़ाब में ‎जीतने वाले उम्मीदवारों की तरह कई साल तक अपने हलक़े में नज़र नहीं आते।

    अच्छा कलाम, उम्दा इंतज़ाम और मुनासिब हूटिंग का एहतिमाम, ये तीन अनासिर हैं जिनसे मुशायरा बनता ‎है। अच्छे कलाम की ज़िम्मेदारी शायरों की होती है (इसलिए बा’ज़ शायर, दूसरों का कलाम ले आते हैं) उम्दा ‎इंतज़ाम का हार मुंतज़मीन पर होता है (यह ऐसा गन्ना होता है जिसमें लज़्ज़त नहीं होती सिर्फ़ खिफ्फ़त ‎होती है) और हूटिंग का कारनामा सामईन को अंजाम देना होता है। कभी कभी सामईन की फ़ौज बेक़ाइदा ‎वाक़ई काम कर जाती है। ये सह जमाती टीम होती है और इस इत्तिहाद-ए-सलासा का एक फ़रीक़ भी कमज़ोर ‎पड़ जाये तो मुशायरा बिगड़ता नहीं उखड़ जाता है और बे जड़ के पौदे कहीं पनपे हैं जो मुशायरा पनपेगा। ‎तीन पाँव की दौड़, सारी दौड़ों में मुश्किल तरीन दौड़ होती है। कहने को पाँव से काम लेना पड़ता है लेकिन ‎असल में सर ज़्यादा इस्तेमाल होता है।‎

    स्रोत:

    Daaman-e-Yusuf (Pg. 265)

    • लेखक: यूसूफ़ नाज़िम
      • प्रकाशक: दिलरस एजुकेशनल कल्चरल सोसाइटी, औरंगाबाद
      • प्रकाशन वर्ष: 2003

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