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सिन्फ़-ए-लाग़र

MORE BYमुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

    सुनते चले आए हैं कि आम, गुलाब और साँप की तरह औरतों की भी बेशुमार क़िस्में। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि आम और गुलाब की क़िस्म का सही अंदाज़ा काटने और सूँघने के बाद होता है और अगर मार गज़ीदा मर जाये तो साँप की क़िस्म का पता चलाना भी चंदाँ दुशवार नहीं। लेकिन आख़िर-उल-ज़िक्र ख़ालिस मुश्क की तरह, अपनी क़िस्म का ख़ुद ऐलान कर देती हैं।

    एक बुजु़र्गवार, जिन्होंने अपनी उम्र और कमाई रेस कोर्स और “तवाफ़-ए-कु-ए-मलामत” में गँवाई है, अक्सर कहा करते हैं कि घोड़े और औरत की ज़ात का अंदाज़ा उसकी लात और बात से किया जाता है। लेकिन इस क़िस्म के मक़ूलों की हैसियत हारे हुए जुआरी की लफ़्ज़ी फुलझड़ियों से ज़्यादा नहीं जो फ़िज़ा को रोशन करें या करें, आँखों में कुछ देर के लिए ज़रूर चका-चौंद पैदा कर देती हैं।

    फिर उसके बाद तारीकी कुछ और ज़्यादा तारीक मालूम होती है। घोड़े और साँप के ख़साइल की तसदीक़ या तरदीद का हक़ वैसे तो सलोतरियों और सपेरों को पहुंचता है या फिर उन हज़रात को जो डसे जा चुके हैं या दुलत्ती का ज़ाती तजुर्बा रखते हैं। लेकिन हम इतना ज़रूर अर्ज़ करेंगे कि समर-ए-ममनूआ अगर साँप के फन पर भी रखा होता तो वहां भी आदम के हरीस होंट बेधड़क उसे चूम लेते।

    ख़ैर ये तो जुमला मोतरिज़ा था। बात क़िस्मों की हो रही थी और हम कहना ये चाहते थे कि आजकल औरतों को दो क़िस्मों में बाँटा जा सकता है। एक वो जो मोटी हैं, दूसरे वो जो दुबली नहीं हैं। आप कहेंगे, “आख़िर इन दोनों में फ़र्क़ क्या हुआ? ये तो वही अलिफ़ दो ज़बर अन और अलिफ़ नून ज़बर अन वाली बात हुई।”

    मगर आप यक़ीन जानिए कि दोनों क़िस्मों में दुबले होने की ख़्वाहिश के इलावा और कोई बात मुश्तर्क नहीं। उनके हदूद-ए-अर्बा, ख़त-ओ-ख़ाल और नुक़ूश जुदा-जुदा हैं और इसमें कातिब-ए-तक़दीर की किसी इमला की ग़लती का क़तअन कोई शाइबा नहीं। असल फ़र्क़ ये है कि अव्वल-उल-ज़िक्र तबक़ा (जो सही माअनों में एक फ़िर्क़े की हैसियत रखता है) खाने के लिए ज़िंदा रहना चाहता है।

    दूसरा तबक़ा ज़िंदा रहने के लिए खाता है। पहला तबक़ा दवा को भी ग़िज़ा समझ कर खाता है और दूसरा तबक़ा ग़िज़ा को बक़दर-ए-दवा इस्तेमाल करता है। एक खाने पर जान देता है और दूसरा खाने को दौड़ता है। वअला हज़ा अल-क़यास। फ़र्क़ बारीक ज़रूर है, लेकिन अगर आपने कभी फ़न बराए फ़न, ज़िंदगी बराए फ़न, फ़न बराए ज़िंदगी और ज़िंदगी बराए बंदगी वग़ैरा बहस सुनी है तो ये फ़र्क़ बख़ूबी समझ में आजाएगा। इस मज़मून में रू-ए-सुख़न दूसरे तबक़े से है जो दुबला नहीं है मगर होना चाहता है।

    ज़माना-ए-क़दीम में ईरान में निस्वानी हुस्न का मेयार चालीस सिफ़ात थीं (अगरचे एक औरत में उनका यकजा होना हमेशा नक़ज़-ए-अमन का बाइस हुआ) और ये मशहूर है कि शीरीं उनमें से उन्तालीस सिफ़ात रखती थी। चालीसवीं सिफ़त के बारे में मोअर्रखीन मुत्तफ़िक़ा तौर पर ख़ामोश हैं। लिहाज़ा गुमान ग़ालिब है कि इसका ताल्लुक़ चाल चलन से होगा।

    उस ज़माने में एक औरत में उमूमन एक ही सिफ़त पाई जाती थी। इसलिए बा’ज़ बादशाहों को बदरजा मजबूरी अपने हरम में औरतों की तादाद बढ़ानी पड़ी। हर ज़माने में ये सिफ़ात ज़नाना लिबास की तरह सिकुड़ती, सिमटती और घटती रहीं। बिलआख़िर सिफ़ात तो ग़ायब हो गईं, सिर्फ़ ज़ात बाक़ी रह गई। ये भी ग़नीमत है क्योंकि ज़ात-ओ-सिफ़ात की बहस से क़तअ नज़र यही क्या कम है कि औरत सिर्फ़ औरत है। वर्ना वो भी रद्द हो जाती तो हम उसका क्या बिगाड़ लेते?

    आजकल खाते-पीते घरानों में दुबले होने की ख़्वाहिश ही एक ऐसी सिफ़त है जो सब ख़ूबसूरत लड़कियों में मुश्तर्क है। इस ख़्वाहिश की मुहर्रिक दौर-ए-जदीद की एक जमालियाती दरयाफ़्त है, जिसने तंदुरुस्ती को एक मर्ज़ क़रार देकर बदसूरती और बद हैअती से ताबीर किया। मर्दों की इतनी बड़ी अक्सरियत को इस राय से इत्तफ़ाक़ है कि उसकी सेहत पर शुबहा होने लगता है जहां यरक़ान हुस्न के अज्ज़ा-ए-तर्कीबी में शामिल हो जाये और जिस्म बीमार-ओ-तन-ए-लाग़र हुस्न का मेयार बन जाएं, वहां लड़कियां अपने तंदुरुस्त-ओ-तवाना जिस्म से शरमाने और बदन चुरा कर चलने लगें तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए।

    यूं समझिए कि हव्वा की जीत का राज़ आदम की कमज़ोरी में नहीं बल्कि ख़ुद उसकी अपनी कमज़ोरी में मुज़मिर है। अगर आपको ये निचुड़े हुए धान-पान बदन, सुते हुए चेहरे और सूखी बाँहें पसंद नहीं तो आप यक़ीनन डाक्टर होंगे। वर्ना अहल-ए-नज़र तो अब चेहरे की शादाबी को वर्म, फ़र्बही को जलंधर और पिंडली के सुडौल पन को “फ़ीलपा” गरदानते हैं।

    आज फिर फ़र्हाद के हाथ में तेशा है, मगर ये तेशा महमूद है या यूं कहिए कि जब से बुतशिकन ने बुतपरस्ती और बुततराशी इख़्तियार की, हुस्न का मेयार ऐसा बदला कि जब तक क़दीम यूनानी मुजस्समों के पेच-ओ-ख़म और उभार को रन्दे लगाकर बिलियर्ड की मेज़ की तरह सपाट कर दिया जाये, वो आँखों में खटकते हैं।

    अजंता की तस्वीरें और माईकल एंजलो के मुजस्समे भी इसी सुलूक या बदसुलूकी के सज़ावार हैं उनमें भी एक ऐसे भरपूर बदन के ख़ुतूत को उभारा गया है जो अपने आप से शर्मिंदा नहीं लेकिन जिसकी ताब मुज़्महिल बाज़ू और थके हुए आसाब नहीं ला सकते। उस पर अह्द-ए-मुग़लिया के मशहूर शायर बिहारी का ये दोहा सादिक़ आता है,

    अपने अंग के जान के, यौवन नरपत प्रवीन

    स्तन, मन, नैन, नितंब को बड़ो अजा फाकीन

    यानी अपने रूप का अंग जान कर जवानी के ज़हीन बादशाह ने सीना, दिल, आँखों और कूल्हों में बड़ा इज़ाफ़ा किया। देखा गया है कि जवानी का ज़हीन बादशाह बसा-औक़ात उन सनाइअ-बदाए के इस्तेमाल में फ़य्याज़ी से काम लेता है जिसके बाइस जमाल ख़ुद-रौ की क़ता-ओ-बुरीद लाज़िम आती है। शुक्र है कि अब हुस्न ख़ुद को बड़ी हद तक इन हश्व ज़वाइद से पाक कर चुका है। अब औरत अक़्लीदस के ख़त-ए-मुस्तक़ीम की मानिंद है जिसमें तूल है अर्ज़ नहीं।

    ताहम बा’ज़ रजत पसंदों के नज़दीक अब भी मिसाली और मुतनासिब जिस्म वो है जिसमें मुंदरजा बाला चार अनासिर में से पहले और चौथे का मुहीत बराबर हो और कमर का नाप इन दोनों से पंद्रह सोलह इंच कम मसलन 37-21-37इंच। किसी एक्ट्रेस के जिस्म की इससे बेहतर कोई तारीफ़ नहीं हो सकती कि उसे अंग्रेज़ी के 8 हिंदसे से तशबीह दी जाये। ये और बात है कि 24 साल के सिन में जो ख़ातून 8 का हिंदसा नज़र आती हैं वो 42 साल की उम्र में दो चश्मी बन जाएं।

    अगले वक़्तों के लोगों के क़ुवा बिलउमूम इनके ज़मीर से ज़्यादा क़वी होते थे। उस ज़माने में ये अक़ीदा आम था कि दाना मर्द, औरतों को “गिना करते हैं तौला नहीं करते।” सिन्फ़-ए-नाज़ुक के बाब में उनका नज़रिया कमोबेश वही था जो मिर्ज़ा ग़ालिब का आम के मुताल्लिक़ यानी ये कि बहुत हों लेकिन अब हाल ये है कि जब तक अच्छी तरह नाप तौल कर ली जाये किसी को अपनी आँखों पर एतबार नहीं आता।

    बदन की नाप तौल का हक़ पहले सिर्फ़ दर्ज़ी और गोरकन को हासिल था, मगर अब दुनिया की हर ख़ूबसूरत औरत का जुग़राफ़िया जिसमें वज़न और मोहरम का साइज़ नुमायां हैं मालूमात-ए-आम्मा का जुज़ बन गया है और बिलाशुबहा ये वो जुज़ है जो कल पर भारी है

    वज़न हुस्न का दुश्मन है (याद रखिए राय के इलावा हर वज़नी चीज़ घटिया होती है) इसीलिए हर समझदार औरत की ये ख़्वाहिश होती है कि अपनी चर्बी की दबीज़ तहों के खोल को साँप की केंचुली की तरह उतार कर अपनी अज़ीज़ सहेलियों को पहना दे। अक़द-ए-नागहानी के बाद कि जिससे किसी को मफ़र नहीं, हर लड़की का बेशतर वक़्त अपने वज़न और शौहर से जंग करने में गुज़रता है।

    जहां तक ज़न-ओ-शौहर की जंग का ताल्लुक़ है, हम नहीं कह सकते कि शहीद कौन होता है और ग़ाज़ी कौन लेकिन ज़न और वज़न की जंग में पल्ला फ़रीक़ अव्वल ही का भारी रहता है, इसलिए जीत फ़रीक़ सानी की होती है। मुटापे में एक ख़राबी ये है कि तमाम उम्र को गले का हार हो जाता है और बा’ज़ ख़वातीन घर के अंदेशों और हमसायों की ख़ुशहाली से भी दुबली नहीं होतीं।

    “तन” की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं।

    दरअसल गृहस्ती ज़िंदगी की आब-ओ-हवा ही ऐसी मोतदिल है कि मोलसिरी का फूल दो-तीन साल में गोभी का फूल बन जाये तो अजब नहीं।

    मुटापा आम होया हो, मगर दुबले होने की ख़्वाहिश जितनी आम है उतनी ही शदीद भी। आईने की जगह अब वज़न कम करने की मशीन ने ले ली है। बा’ज़ नई मशीनें तो टिकट पर वज़न के साथ क़िस्मत का हाल भी बताती हैं। हमने देखा कि कुछ औरतों की क़िस्मत के ख़ाने में सिर्फ़ उनका वज़न लिखा होता है।

    औरतों को वज़न कम करने की दवाओं से उतनी ही दिलचस्पी है जितनी अधेड़ मर्दों को यूनानी दवाओं के इश्तिहारों से। अगर ये दिलचस्पी ख़त्म हो जाये तो दवाओं के कारख़ानों के साथ साथ बल्कि उनसे कुछ पहले वो अख़बारात भी बंद हो जाएं जिनमें ये इश्तिहारात निकलते हैं।

    अगर आपको ऑस्कर वाइल्ड की राय से इत्तफ़ाक़ है कि आर्ट का असल मक़सद क़ुदरत की ख़ामकारियों की इस्लाह और फ़ित्रत से फ़ी सबील अल्लाह जिहाद है, तो लाज़िमी तौर पर ये मानना पड़ेगा कि हर बदसूरत औरत आर्टिस्ट है। इसलिए कि होश सँभालने के बाद उसकी सारी तग-ओ-दो का मंशा स्याह को सफ़ेद कर दिखाना, वज़न घटाना और हर सालगिरह पर एक मोमबत्ती कम करना है।

    उम्र की तसदीक़ तो शायद बलदिया के “रजिस्टर पैदाइश-ओ-अमवात” से की जा सकती है लेकिन एक दूसरे के वज़न के मुताल्लिक़ भारी से भारी बोहतान लगाया जा सकता है। राई का पहाड़ और गर्मी दाने का मस्सा बनाना लतरी औरतों के बाएं हाथ का खेल है। वो औरत जिसे ख़ुद अपनी आँखों के गिर्द स्याह हलक़े नज़र नहीं आते, दूसरे की झाइयों पर बेझिजक अपनी बड़े हुए नाख़ुन वाली उंगली उठाते वक़्त ये भूल जाती है कि हर गुल के साथ ख़ार और हर मुँह पर मुहासा है।

    औरतें फ़ित्रतन बहुत रासिख़-उल-अक़ीदा होती हैं और अपने बुनियादी अक़ाइद की ख़ातिर उम्र भर सब कुछ हंसी-ख़ुशी बर्दाश्त करलेती हैं। मसलन सात नंबर पांव में पाँच नंबर का जूता। वज़न कम करने के लिए क्या-क्या जतन नहीं करतीं। ग़ुस्ल-ए-आफ़ताबी, जापानी मालिश, यूनानी जुलाब,अंग्रेज़ी खाना, चहलक़दमी, वरज़िश, फ़ाक़ा...

    पहले चहलक़दमी को लीजिए कि अमृतधारा की तरह ये हर मरज़ की दवा है। सूखे साखे मर्द अपना वज़न बढ़ाने और औरतें अपना वज़न घटाने के लिए टहलती हैं। जिस तरह चाय गर्मी में ठंडक पहुंचाती हैं और सर्दी में हिद्दत, उसी तरह चहलक़दमी दुबले को मोटा और मोटे को दुबला करती है।

    अगर हमारी तरह आपको भी एलफ़िंस्टन स्ट्रीट पर टहलने का शौक़ है तो आपने बा’ज़ मियां-बीवी को उन मुख़्तलिफ़ बल्कि मुतज़ाद अज़ाइम के साथ पाबंदी से “हवाख़ोरी” करते देखा होगा। औरतों का अंजाम हमें मालूम नहीं लेकिन ये ज़रूर देखा है कि बहुत से हवाख़ोर रफ़्ता-रफ़्ता “हव्वा ख़ौर” हो जाते हैं।

    जो औरतें दवाओं से परहेज़ करती हैं, वो सिर्फ़ वरज़िश से ख़ुद को “स्लिम” रख सकती हैं। “स्लिमिंग” के मौज़ू पर औरतों की रहबरी के लिए बेशुमार बा तस्वीर किताबें मिलती हैं जिनके मज़ामीन औरतें पढ़ती हैं और तस्वीरों से मर्द जी बहलाते हैं। उनमें बताया जता है कि मर्द काठ के पुतले की मानिंद है, लेकिन औरत मोम की तरह नर्म है। चुनांचे मर्द को हर साँचे में ढाल सकती है। फिर उसके अपने गोश्त-पोस्त में क़ुदरत ने वो लोच रखा है कि

    सिमटे तो दिल-ए-आशिक़, फैले तो ज़माना है।

    चुनांचे हर अजु-ए-बदन के लिए एक अलाहिदा वरज़िश होती है। मसलन दोहरी ठोढ़ी को एकहरी करने की वरज़िश 51 इंच को 15 इंच बनाने की कसरत। हाथ पांव हिलाए बग़ैर ग़िज़ा हज़म करने की तरकीब। शरई उयूब का हिप्नाटिज़्म से ईलाज वग़ैरा।

    तोंद के लिए माहिरीन का ख़्याल है कि सियासतदां के ज़मीर की मानिंद है। इस की लचक को ज़ेहन नशीन कराने की ग़रज़ से वो अक्सर उसे मौलवी इस्माईल मेरठी के ‘वक़्त’ से तशबीह देते हैं जिसके मुताल्लिक़ वो कह गए हैं कि,

    वक़्त में तंगी फ़राख़ी दोनों हैं जैसे रबड़

    खींचने से खिंचती है,छोड़े से जाती है सुकड़

    हक़ तो ये है कि जदीद साईंस ने इस क़दर तरक़्क़ी करली है कि दिमाग़ के इलावा जिस्म का हर हिस्सा हस्ब-ए-मंशा घटाया और बढ़ाया जा सकता है।

    यही हाल औरतों के रिसालों का है। उनके (रिसालों के) तीन टुकड़े किए जा सकते हैं। अव्वल: आज़ादी-ए-इतफ़ाल और शौहर की तर्बीयत-ओ-निगहदाशत। दोम: खाना पकाने की तरकीबें। सोम: खाना खाने की तरकीबें। इन मज़ामीन से ज़ाहिर होता है कि तशख़ीस सबकी एक ही है। बस नुस्खे़ मुख़्तलिफ़ हैं। परहेज़ बहर-सूरत यकसाँ।

    इस अमर पर सब मुत्तफ़िक़ हैं कि अफ़्ज़ाइशे हुस्न का वाहिद तरीक़ा ये है कि ऐसी ग़िज़ा खाई जाये जिससे ख़ून सालिह पैदा हो और जो जुज़वे-बदन हो सके। हमारी राय में किसी पढ़ी लिखी औरत के लिए इससे सख़्त और कौन सी सज़ा हो सकती है कि उसे चालीस दिन तक उसके हाथ का पका हुआ खाना खिलाया जाये। दुबले होने का इससे बेहतर और ज़ूद-असर तरीक़ा और कोई नहीं हो सकता।

    रिसालों के इस हिस्से में तारीख़ी नाविलों का चटख़ारा और यूनानी तिब्ब की चाशनी होती है, इसलिए निहायत शौक़ से पढ़ा जाता है। चंद उनवानात और टोटके बतौर नमूना पेश किए जाते हैं,

    ज़ुलेख़ा हज़रत-ए-यूसुफ़ के पीछे दौड़ने की वजह से दुबारा जवान हुई। क़लोपत्रा के नाज़ुक इंदाम होने का राज़ ये है कि वो निहार मुँह मिस्री तरबूज़ का पानी और रईयत का ख़ून पीती थी। मलिका एलिज़बेथ इसलिए दुबली थी कि मैरी ऑफ़ स्कॉट ने उसका मोम का पुतला बना रखा था जिसमें वो चाँदनी रात में सूईयां चुभोया करती थी।

    कैथरीन, मलिका रूस के ‘स्लिम’ होने की वजह ये थी कि वो रात को रोग़न क़ाज़ मलकर सोती थी। मलिका नूरजहां बैगन पर जान देती थी। इसकी वजह ये नहीं कि बैगन के सर पर भी ताज होता है, बल्कि उसमें कोई प्रोटीन नहीं होती। मलिका मुमताज़ महल और ताज महल की ख़ूबसूरती का राज़ एक ही है, सफ़ेद रंग। एक्ट्रेस ऑड्रे हैप् बर्न इसलिए मोटी नहीं होती कि वो नाशते में नशास्ते से परहेज़ करती है और फीकी चाय पीती है, जिससे चर्बी पिघलती है।

    चाय की पत्ती से घट सकता है औरत का शिकम

    दुबले आदमी कीनापरवर, साज़िशी और दग़ाबाज़ होते हैं। ये हमारी नहीं बल्कि जुलियस सीज़र की राय है जिसने एक मरियल से दरबारी की हाथों क़त्ल हो कर अपने क़ौल को सच्चा कर दिखाया। गो कि हमारे मोज़े का साइज़ सिर्फ़ ग्यारह और बिनयान का चौंतीस है लेकिन हमें भी इस नज़रिये से इत्तफ़ाक़ है क्योंकि हमने देखा है कि मोटी औरतें फ़ित्रतन मिलनसार, हँसमुख और सुलह पसंद होती हैं।

    वो ख़ुद लड़ती हैं और मर्द उनके नाम पर तलवार उठाते हैं। मुम्किन है कोई साहिब इस का यह जवाज़ पेश करें कि चूँकि ऐसी गज गामिनी की नक़्ल-ओ-हरकत बग़ैर जर्र-ए-सक़ील के मुम्किन नहीं लिहाज़ा वो डट कर लड़ सकती है और मैदान छोड़कर भाग सकती है, लेकिन तारीख़ शाहिद है कि आज तक किसी मोटी औरत की वजह से कोई जंग नहीं हुई।

    ख़ुदा-न-ख़्वास्ता इसका ये मतलब नहीं कि हम हुस्न में हार्स पावर के मुतलाशी हैं और अखाड़े की रौनक़ को छप्पर खट की ज़ीनत बनाने की सिफ़ारिश कर रहे हैं। हमारे ज़ेहन में हुस्न बेपर्वा का ये सरापा नहीं कि हर ख़त बदन एक दायरा बना रहा है।

    पेट पर टावर बंधा हुआ है। चेहरे से लगता है कि अभी अभी भड़ों ने काटा है। अगर ये सही है कि उस बेचारी का सीना अरमानों का मदफ़न है तो ये साफ़ ज़ाहिर है कि मरहूमीन की तादाद कुछ ज़्यादा ही थी। खुले हुए गले के ब्लाउज़ का ये आलम कि कोई शीरख़्वार बच्चा देख पाए तो बिलबिला उठे। तंगपोशी का ये हाल कि कूज़े में दरिया बल्कि पहाड़ बंद। टांगें जैसे बूढ़े हाथी की सूंड जिन पर ग़रारा भी चूड़ीदार पाजामा मालूम होता है।

    ऐसी ही चौड़ी चकली ख़ातून का लतीफ़ा है कि उन्होंने बस ड्राईवर से बड़ी लजाजत से कहा, “भय्या, ज़रा मुझे बस से उतरवा दे।” ड्राईवर ने मुड़ कर देखा तो उसका चेहरा फ़रिश्तों की तरह तमतमा उठा। उन फ़रिश्तों की तरह जिन्होंने बार-ए- ख़िलाफ़त उठाने से इनकार कर दिया था।

    फिर ख़ुद ही बोलीं, “मेरी आदत है कि दरवाज़े से उल्टी उतरती हूँ मगर तुम्हारा उल्टी खोपड़ी का कंडक्टर समझता है कि चढ़ रही हूँ और हर दफ़ा ज़बरदस्ती अंदर धकेल देता है। तीन स्टॉप निकल गए।”

    हम यहां ये प्रचार नहीं कर रहे कि हुस्न और वज़न में चोली-दामन का साथ है। इसलिए अब ख़ुद इस मिसाली रिश्ते के बंद टूट चुके हैं। हम तो सिर्फ़ क़ारईन-ए- कराम को इत्मीनान दिलाना चाहते हैं कि तंदुरुस्ती कोई लाइलाज निस्वानी मर्ज़ नहीं है। हमें कमज़ोरी में जब तक वो अख़लाक़ी हो, बज़ाहिर कोई दिलकशी नज़र नहीं आती। उसी तरह फ़ाक़ाकशी सिर्फ़ दो सूरतों में जायज़ है। किसी शरई ज़रूरत या बतौर सत्याग्रह। मगर वज़न घटाने की ग़रज़ से जो फ़ाक़ाकशी की जाती है उसकी मुहर्रिक कोई रुहानी हाजत या सियासी मस्लिहत नहीं बल्कि ख़ुदाए मजाज़ी की पसंद है। उस पैकर-ए-तस्वीर के ख़ुतूत की बेकैफ़ सादगी और फीकापन मर्द के इज्ज़-ए-तसव्वुर के फ़र्यादी हैं। ये कहना तो ज़्यादती होगी कि हुस्न-ए-बीमार के पीछे एक छके-छकाये थके हुए हुस्नपरस्त की जिन्सी उकताहट कारफ़रमा है। लेकिन इसमें शक नहीं कि मर्द की पसंद वो पुल सिरात है जिस पर कोई मोटी औरत नहीं चल सकती।

    स्रोत:

    Charagh Tale (Pg. 142)

    • लेखक: मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी
      • प्रकाशक: हुसामी बुकडिपो, हैदराबाद
      • प्रकाशन वर्ष: 1984

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