फ़ैज़ : ज़िन्दान में एक आज़ाद रूह
फ़ैज़ मूलतः रूमानी शायर हैं। रूमानियत उनका स्वभाव है। वो ज़िंदगी की उलझनों परेशानियों और तल्ख़ियों का सामना एक हस्सास शायर की तरह करते हैं लेकिन न बग़ावत पर उतरते हैं और न नारे लगाते हैं बल्कि उन तल्ख़ियों को सहते हुए उस ज़हर को अमृत बना देते हैं। आइए इस कलेक्शन सीरीज़ में शामिल फ़ैज़ के बहुचर्चित शेरों का लुत्फ़ लीजिए
गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
व्याख्या
इस शे’र का मिज़ाज ग़ज़ल के पारंपरिक स्वभाव के समान है। चूँकि फ़ैज़ ने प्रगतिशील विचारों के प्रतिनिधित्व में भी उर्दू छंदशास्त्र की परंपरा का पूरा ध्यान रखा इसलिए उनकी रचनाओं में प्रतीकात्मक स्तर पर प्रगतिवादी सोच दिखाई देती है इसलिए उनकी शे’री दुनिया में और भी संभावनाएं मौजूद हैं। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण ये मशहूर शे’र है। बाद-ए-नौ-बहार के मायने नई बहार की हवा है। पहले इस शे’र की व्याख्या प्रगतिशील विचार को ध्यान मे रखते हुए करते हैं। फ़ैज़ की शिकायत ये रही है कि क्रांति होने के बावजूद शोषण की चक्की में पिसने वालों की क़िस्मत नहीं बदलती। इस शे’र में अगर बाद-ए-नौबहार को क्रांति का प्रतीक मान लिया जाये तो शे’र का अर्थ ये बनता है कि गुलशन (देश, समय आदि) का कारोबार तब तक नहीं चल सकता जब तक कि क्रांति अपने सही मायने में नहीं आती। इसीलिए वो क्रांति या परिवर्तन को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि जब तुम प्रगट हो जाओगे तब फूलों में नई बहार की हवा ताज़गी लाएगी। और इस तरह से चमन का कारोबार चलेगा। दूसरे शब्दों में वो अपने महबूब से कहते हैं कि तुम अब आ भी जाओ ताकि गुलों में नई बहार की हवा रंग भरे और चमन खिल उठे।
शफ़क़ सुपुरी
व्याख्या
इस शे’र का मिज़ाज ग़ज़ल के पारंपरिक स्वभाव के समान है। चूँकि फ़ैज़ ने प्रगतिशील विचारों के प्रतिनिधित्व में भी उर्दू छंदशास्त्र की परंपरा का पूरा ध्यान रखा इसलिए उनकी रचनाओं में प्रतीकात्मक स्तर पर प्रगतिवादी सोच दिखाई देती है इसलिए उनकी शे’री दुनिया में और भी संभावनाएं मौजूद हैं। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण ये मशहूर शे’र है। बाद-ए-नौ-बहार के मायने नई बहार की हवा है। पहले इस शे’र की व्याख्या प्रगतिशील विचार को ध्यान मे रखते हुए करते हैं। फ़ैज़ की शिकायत ये रही है कि क्रांति होने के बावजूद शोषण की चक्की में पिसने वालों की क़िस्मत नहीं बदलती। इस शे’र में अगर बाद-ए-नौबहार को क्रांति का प्रतीक मान लिया जाये तो शे’र का अर्थ ये बनता है कि गुलशन (देश, समय आदि) का कारोबार तब तक नहीं चल सकता जब तक कि क्रांति अपने सही मायने में नहीं आती। इसीलिए वो क्रांति या परिवर्तन को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि जब तुम प्रगट हो जाओगे तब फूलों में नई बहार की हवा ताज़गी लाएगी। और इस तरह से चमन का कारोबार चलेगा। दूसरे शब्दों में वो अपने महबूब से कहते हैं कि तुम अब आ भी जाओ ताकि गुलों में नई बहार की हवा रंग भरे और चमन खिल उठे।
शफ़क़ सुपुरी
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टैग : फ़ेमस शायरी
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मिरी जान आज का ग़म न कर कि न जाने कातिब-ए-वक़्त ने
किसी अपने कल में भी भूल कर कहीं लिख रखी हों मसर्रतें
तुम आए हो न शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है
तलाश में है सहर बार बार गुज़री है
व्याख्या
इस शे’र को प्रायः टीकाकारों और आलोचकों ने प्रगतिशील विचारों की दृष्टि से देखा है। उनकी नज़र में “तुम”, “इन्क़िलाब”, “शब-ए-इंतज़ार” द्विधा, शोषण और अन्वेषण का प्रतीक है। इस दृष्टि से शे’र का विषय ये बनता है कि क्रांति करने का प्रयत्न करने वालों ने शोषक तत्वों के विरुद्ध हालांकि बहुत कोशिशें की मगर हर दौर अपने साथ नए शोषक तत्व लाता है। चूँकि फ़ैज़ ने अपनी शायरी में उर्दू शायरी की परंपरा से बग़ावत नहीं की और पारंपरिक विधानों को ही बरता है इसलिए इस शे’र को अगर प्रगतिशील सोच के दायरे से निकाल कर भी देखा जाये तो इसमें एक प्रेमी अपनी प्रेमिका से कहता है कि न तुम आए और न इंतज़ार की रात गुज़री। हालांकि नियम ये है कि हर रात की सुबह होती है मगर सुबह के बार-बार आने के बावजूद इंतज़ार की रात ख़त्म नहीं होती।
शफ़क़ सुपुरी
व्याख्या
इस शे’र को प्रायः टीकाकारों और आलोचकों ने प्रगतिशील विचारों की दृष्टि से देखा है। उनकी नज़र में “तुम”, “इन्क़िलाब”, “शब-ए-इंतज़ार” द्विधा, शोषण और अन्वेषण का प्रतीक है। इस दृष्टि से शे’र का विषय ये बनता है कि क्रांति करने का प्रयत्न करने वालों ने शोषक तत्वों के विरुद्ध हालांकि बहुत कोशिशें की मगर हर दौर अपने साथ नए शोषक तत्व लाता है। चूँकि फ़ैज़ ने अपनी शायरी में उर्दू शायरी की परंपरा से बग़ावत नहीं की और पारंपरिक विधानों को ही बरता है इसलिए इस शे’र को अगर प्रगतिशील सोच के दायरे से निकाल कर भी देखा जाये तो इसमें एक प्रेमी अपनी प्रेमिका से कहता है कि न तुम आए और न इंतज़ार की रात गुज़री। हालांकि नियम ये है कि हर रात की सुबह होती है मगर सुबह के बार-बार आने के बावजूद इंतज़ार की रात ख़त्म नहीं होती।
शफ़क़ सुपुरी
हम अहल-ए-क़फ़स तन्हा भी नहीं हर रोज़ नसीम-ए-सुब्ह-ए-वतन
यादों से मोअत्तर आती है अश्कों से मुनव्वर जाती है
ऐ ज़ुल्म के मातो लब खोलो चुप रहने वालो चुप कब तक
कुछ हश्र तो उन से उट्ठेगा कुछ दूर तो नाले जाएँगे