जब हाथी नहाते हैं
जब हाथी नहाते हैं उस वक़्त
हम देखते हैं सिर्फ़
एक छतरी जैसी स्याह पुश्त
और एक उभरी हुई सूंड
पाइप की तरह
अब मछली शुरूअ' करती है रक़्स
उस के क़वी-उल-जुस्सा पैरों के अतराफ़
घास-फूस
गुदगुदाती है उस की भीगी खाल को
अपने चीतों भेड़ियों
और लार्क परिंदों के साथ जंगलात
उस की छोटी छोटी आँखों में
समा जाते हैं
सुर्ख़ धूल उस की पुश्त पर चमकती है
जैसे ताँबे के साथ सोना
शामिल हो
गदला तालाब बहता है साफ़ सुथरा हो कर
जैसे एक जंगली आबजू
जब हाथी नहाते हैं
तो हमें अपने तेहवार निहायत मा'मूली
दिखाई देते हैं
मुरस्सा ज़ीन पहन कर हाथी ख़ुश नहीं होते
आप देख सकते हैं उन्हें
तेहवार के जुलूस में भी आँसू बहाते
हाथियों और इंसानों की तक़दीरों
का मातम करते
जब हाथी नहाते हैं
तो उन की सूंड से गुज़र कर
मौसम-ए-गर्मा ग़ाएब हो जाता है
और फिर आता है मानसून
जंगली चाँदनी गुज़रती है
उन की आँखों से हो कर
तालाब में डूबे हुए उस के जिस्म से
पानी गाने लगता है राग हिंडोल
फूलों से पुर-बहार हुए
जंगल की शदीद ख़ुशबू
दीवाना बना देती है इंसानों को
मोहब्बत तोड़ती है अपनी ज़ंजीरें
आज़ादी बिगुल बजाती है
और हर्फ़-ए-तहज्जी उठाता है अपनी सूंड
मौसम-ए-बहार को
ख़ुश-आमदीद कहने
स्रोत:
लुकनत (Pg. 104)
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- प्रकाशक: मकतबा शेर-ओ-हिकमत, हैदराबाद
- प्रकाशन वर्ष: 2007
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