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दिलावर फ़िगार

1929 - 1998 | कराची, पाकिस्तान

प्रख्यात और लोकप्रिय हास्य-व्यंग शायर

प्रख्यात और लोकप्रिय हास्य-व्यंग शायर

दिलावर फ़िगार के शेर

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औरत को चाहिए कि अदालत का रुख़ करे

जब आदमी को सिर्फ़ ख़ुदा का ख़याल हो

वहाँ जो लोग अनाड़ी हैं वक़्त काटते हैं

यहाँ भी कुछ मुतशायर दिमाग़ चाटते हैं

के बज़्म-ए-शेर में शर्त-ए-वफ़ा पूरी तो कर

जितना खाना खा गया है उतनी मज़दूरी तो कर

जूते के इंतिख़ाब को मस्जिद में जब गए

वो जूतियाँ पड़ीं कि ख़ुदा याद गया

पूछी जो उस की वज्ह तो कहने लगे जनाब

सर्दी बहुत शदीद थी मिस्रा सिकुड़ गया

मुर्दमाँ बिसयार होंगे और जा-ए-क़ब्र तंग

क़ब्र की तक़्सीम पर मुर्दों में छिड़ जाएगी जंग

एक रिवायत ये भी है वो ब्याह के क़ाबिल था

वर्ना लैला को भगा लेना कोई मुश्किल था

पकड़ी गई रदीफ़ तो फ़ौरन ये कह दिया

लिखना कभी था और मैं यहाँ लिख गया अभी

हमारा दोस्त तुफ़ैली भी है बड़ा शाएर

अगरचे एक बड़े आदमी का चमचा है

पायान-ए-कार ख़त्म हुआ जब ये तज्ज़िया

मैं ने कहा हुज़ूर तो बोले कि शुक्रिया

सियाह ज़ुल्फ़ को जो बन-सँवर के देखते हैं

सफ़ेद बाल कहाँ अपने सर के देखते हैं

कहीं गोली लिखा है और कहीं मार

ये गोलीमार लिक्खा जा रहा है

ग़ज़ल चुरा के कभी ख़िदमत-ए-अदब कर ली

पकड़ गए तो वहीं माज़रत तलब कर ली

सुना ये है कि वो सूफ़ी भी था वली भी था

अब इस के बा'द तो पैग़म्बरी का दर्जा है

एक शादी तो ठीक है लेकिन

एक दो तीन चार हद कर दी

इक रिवायत ये भी है लैला की माँ थी बद-चलन

वो तो बनना चाहती थी ख़ुद ही मजनूँ की दुल्हन

इग़वा ही करना था तो कोई कम थे लख-पति

किस ने कहा था रोड से कंगला उठाइए

ख़ुश-क़िस्मती से हम हैं सवार उस जहाज़ पर

साहिल पे जिस जहाज़ का कप्तान रह गया

इस का क्या होगा ये जो उनवान आधा रह गया

ये भी लेते जाएँ जो सामान आधा रह गया

सोचा था आदमी का क़सीदा लिखेंगे हम

मतला कहा ही था कि गधा याद गया

मैं भी था हाज़िर बज़्म में जब तू ने देखा ही नहीं

मैं भी उठा कर चल दिया बिल्कुल नया जूता तिरा

एक अच्छा-ख़ासा मर्द ज़नाने में घुस पड़ा

गोया कि एक चोर ख़ज़ाने में घुस पड़ा

कल चौदहवीं की रात थी आबाद था कमरा तिरा

होती रही धिन-ताक-धिन बजता रहा तबला तिरा

यूँ भी इक दफ़्तर ने मुझ पे ख़ौफ़ तारी कर दिया

बिल रक़ीबों का था मेरे नाम जारी कर दिया

ग़ज़ल की शक्ल बदल दी है ऑपरेशन से

सुख़न-वरी है अगर ये तो सर्जरी क्या है

बस में बैठी है मिरे पास जो इक ज़ोहरा-जबीं

मर्द निकलेगी अगर ज़ुल्फ़ मुँडा दी जाए

इस को कहते हैं ख़ुदा की देन ये होती है देन

अब सिवल-सर्जन बनेगा जानशीन-ए-तान-सेन

मौत भी उस शख़्स तक आते हुए घबराएगी

जिस के सर पर नज़अ में डफ़ली बजाई जाएगी

ये लिस्ट चोरों की वक़्ती इत्तिफ़ाक़ी है

वरक़ तमाम हुआ और मदह बाक़ी है

एक शौहर एक बेगम एक भावज एक नंद

बे-तकल्लुफ़ एक ही खोली में हो जाते हैं बंद

इख़्तिलाज-ए-क़ल्ब की वाहिद दवा है आज कल

'बेकल-उत्साही' से सुनिए मिरी जान-ए-ग़ज़ल

सिर्फ़ ज़िंदों ही को फ़िक्र-ए-ऐश-ओ-आसाइश नहीं

अब तो इस दुनिया में मुर्दों की भी गुंजाइश नहीं

घर की तहज़ीब और है दफ़्तर का कल्चर और है

घर के अंदर और हैं हम घर के बाहर और हम

मैं ने कहा कलाम-ए-'रविश' ला-जवाब है

कहने लगे कि उन का तरन्नुम ख़राब है

इस लिए हम ने बनाया है ये मेनी-फ़ेस्टो

''मन तिरा अहमक़ बगोयम तू मुरा अहमक़ बगो''

ठेले पर दीवान लाया है ये शख़्स इस से मिलो

इस की ग़ज़लों का नया मजमूआ दो रूपे किलो

ये इदारे भी होंगे जब तो है इस का भी डर

चलती-फिरती शाएरी होगी यहाँ हर रोड पर

वस्ल की रात जो महबूब कहे गुड नाईट

क़ाएदा ये है कि इंग्लिश में दुआ दी जाए

हर बात पर जो कहता रहा मैं बजा बजा

उस ने कहा कि यूँ ही मुसलसल बजा करो

क़ब्ज़ के मारे हुए बीमार को कर दो ख़बर

एक ठुमरी में है इत्रिफ़ल ज़मानी का असर

आप को मरना है तो पहले से नोटिस दीजिए

या'नी जुर्म-ए-इंतिक़ाल-ए-ना-गहाँ मत कीजिए

तुम्हारे घर में मैं कूदा ज़रूर हूँ लेकिन

विसाल-ओसाल की निय्यत से मैं नहीं आया

कितने ग़ालिब थे जो पैदा हुए और मर भी गए

क़द्र-दानों को तख़ल्लुस की ख़बर होने तक

जुनूँ ये और बढ़ेगा तो रंग लाएगा

ये आदमी कभी कुत्ते को काट खाएगा

कोई दोस्त हमदम आश्ना हबीब

उसी से ख़ौफ़ ज़ियादा जो है ज़ियादा क़रीब

शायर थे बंद एक सिनेमा के हाल में

पंछी फँसे हुए थे शिकारी के जाल में

क्या बताऊँ में तुम्हें इस शहर का जुग़राफ़िया

बम्बई है इक ग़ज़ल गड़-बड़ है जिस का क़ाफ़िया

ख़ुदी बुलंद हो बे-शक यही थी मेरी राय

ये कब कहा था कि क़व्वाल इस में हाथ लगाए

अफ़्सोस कि इक शख़्स को दिल देने से पहले

मटके की तरह ठोंक बजा कर नहीं देखा

जाँ देने को पहुँचे थे सभी तेरी गली में

भागे तो किसी ने भी पलट कर नहीं देखा

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