निवेश साहू
ग़ज़ल 24
नज़्म 6
नाराज़गी
मेरी जाँ तुम्हारी ये नाराज़गी मेरे सीने में चुभते हुए कब मिरी ज़िंदगी को निगल जाएगी इस का कोई भरोसा नहीं है
अशआर 10
रोने लगे तो कौन हमें चुप कराएगा
सो इस की एहतियात है हम रो नहीं रहे
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अपने आँगन में परिंदे देख कर
जिस्म की टहनी से उड़ जाते हैं हम
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अगर होता तो ख़ुद को फिर बनाता
मगर अफ़्सोस कूज़ा-गर नहीं हूँ
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तुम को अफ़सोस तुम्हें ठीक बनाया न गया
और इक हम कि अभी चाक पे रक्खे न गए
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होश में आते ही हो जाते हैं चुप
और बे-होशी में चिल्लाते हैं हम
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