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Waseem Barelvi's Photo'

वसीम बरेलवी

1940 | बरेली, भारत

लोकप्रिय शायर।

लोकप्रिय शायर।

वसीम बरेलवी के शेर

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उन से कह दो मुझे ख़ामोश ही रहने दे 'वसीम'

लब पे आएगी तो हर बात गिराँ गुज़रेगी

अपनी इस आदत पे ही इक रोज़ मारे जाएँगे

कोई दर खोले खोले हम पुकारे जाएँगे

वो झूट बोल रहा था बड़े सलीक़े से

मैं ए'तिबार करता तो और क्या करता

मैं उस को आँसुओं से लिख रहा हूँ

कि मेरे ब'अद कोई पढ़ पाए

हर शख़्स दौड़ता है यहाँ भीड़ की तरफ़

फिर ये भी चाहता है उसे रास्ता मिले

वो ग़म अता किया दिल-ए-दीवाना जल गया

ऐसी भी क्या शराब कि पैमाना जल गया

मुसलसल हादसों से बस मुझे इतनी शिकायत है

कि ये आँसू बहाने की भी तो मोहलत नहीं देते

मैं उस को पूज तो सकता हूँ छू नहीं सकता

जो फ़ासलों की तरह मेरे साथ रहता है

मोहब्बत के घरों के कच्चे-पन को ये कहाँ समझें

इन आँखों को तो बस आता है बरसातें बड़ी करना

कोई इशारा दिलासा कोई व'अदा मगर

जब आई शाम तिरा इंतिज़ार करने लगे

तिरे ख़याल के हाथों कुछ ऐसा बिखरा हूँ

कि जैसे बच्चा किताबें इधर उधर कर दे

तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना खो चुका हूँ मैं

कि तू मिल भी अगर जाए तो अब मिलने का ग़म होगा

हम ये तो नहीं कहते कि हम तुझ से बड़े हैं

लेकिन ये बहुत है कि तिरे साथ खड़े हैं

मोहब्बत में बिछड़ने का हुनर सब को नहीं आता

किसी को छोड़ना हो तो मुलाक़ातें बड़ी करना

आज पी लेने दे जी लेने दे मुझ को साक़ी

कल मिरी रात ख़ुदा जाने कहाँ गुज़रेगी

मैं जिन दिनों तिरे बारे में सोचता हूँ बहुत

उन्हीं दिनों तो ये दुनिया समझ में आती है

मैं बोलता गया हूँ वो सुनता रहा ख़ामोश

ऐसे भी मेरी हार हुई है कभी कभी

इसी ख़याल से पलकों पे रुक गए आँसू

तिरी निगाह को शायद सुबूत-ए-ग़म मिले

रात तो वक़्त की पाबंद है ढल जाएगी

देखना ये है चराग़ों का सफ़र कितना है

जो मुझ में तुझ में चला रहा है बरसों से

कहीं हयात इसी फ़ासले का नाम हो

मुझे पढ़ता कोई तो कैसे पढ़ता

मिरे चेहरे पे तुम लिक्खे हुए थे

हमारे घर का पता पूछने से क्या हासिल

उदासियों की कोई शहरियत नहीं होती

कभी लफ़्ज़ों से ग़द्दारी करना

ग़ज़ल पढ़ना अदाकारी करना

बहुत से ख़्वाब देखोगे तो आँखें

तुम्हारा साथ देना छोड़ देंगी

कुछ है कि जो घर दे नहीं पाता है किसी को

वर्ना कोई ऐसे तो सफ़र में नहीं रहता

आसमाँ इतनी बुलंदी पे जो इतराता है

भूल जाता है ज़मीं से ही नज़र आता है

इन्हें तो ख़ाक में मिलना ही था कि मेरे थे

ये अश्क कौन से ऊँचे घराने वाले थे

किसी से कोई भी उम्मीद रखना छोड़ कर देखो

तो ये रिश्ता निभाना किस क़दर आसान हो जाए

तुम मेरी तरफ़ देखना छोड़ो तो बताऊँ

हर शख़्स तुम्हारी ही तरफ़ देख रहा है

झूट के आगे पीछे दरिया चलते हैं

सच बोला तो प्यासा मारा जाएगा

होंटों को रोज़ इक नए दरिया की आरज़ू

ले जाएगी ये प्यास की आवारगी कहाँ

फूल तो फूल हैं आँखों से घिरे रहते हैं

काँटे बे-कार हिफ़ाज़त में लगे रहते हैं

पाने से किसी के है कुछ खोने से मतलब है

ये दुनिया है इसे तो कुछ कुछ होने से मतलब है

तमाम दिन की तलब राह देखती होगी

जो ख़ाली हाथ चले हो तो घर नहीं जाना

रख देता है ला ला के मुक़ाबिल नए सूरज

वो मेरे चराग़ों से कहाँ बोल रहा है

आज पी लेने दे साक़ी मुझे जी लेने दे

कल मिरी रात ख़ुदा जाने कहाँ गुज़रेगी

मैं ने चाहा है तुझे आम से इंसाँ की तरह

तू मिरा ख़्वाब नहीं है जो बिखर जाएगा

ग़म और होता सुन के गर आते वो 'वसीम'

अच्छा है मेरे हाल की उन को ख़बर नहीं

सभी रिश्ते गुलाबों की तरह ख़ुशबू नहीं देते

कुछ ऐसे भी तो होते हैं जो काँटे छोड़ जाते हैं

वो दिन गए कि मोहब्बत थी जान की बाज़ी

किसी से अब कोई बिछड़े तो मर नहीं जाता

शर्तें लगाई जाती नहीं दोस्ती के साथ

कीजे मुझे क़ुबूल मिरी हर कमी के साथ

उसूलों पर जहाँ आँच आए टकराना ज़रूरी है

जो ज़िंदा हो तो फिर ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है

थके-हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें

सलीक़ा-मंद शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है

उसी को जीने का हक़ है जो इस ज़माने में

इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए

लहू हो तो क़लम तर्जुमाँ नहीं होता

हमारे दौर में आँसू ज़बाँ नहीं होता

जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटाएगा

किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता

व्याख्या

इस शे’र में कई अर्थ ऐसे हैं जिनसे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वसीम बरेलवी शे’र में अर्थ के साथ कैफ़ियत पैदा करने की कला से परिचित हैं। ‘जहाँ’ के सन्दर्भ से ‘वहीं’ और इन दोनों के सन्दर्भ से ‘मकाँ’, ‘चराग़’ के सन्दर्भ से ‘रौशनी’ और इससे बढ़कर ‘किसी’ ये सब ऐसे लक्षण हैं जिनसे शे’र में अर्थोत्पत्ति का तत्व पैदा हुआ है।

शे’र के शाब्दिक अर्थ तो ये हो सकते हैं कि चराग़ अपनी रौशनी से किसी एक मकाँ को रौशन नहीं करता है, बल्कि जहाँ जलता है वहाँ की फ़िज़ा को प्रज्वलित करता है। इस शे’र में एक शब्द 'मकाँ' केंद्र में है। मकाँ से यहाँ तात्पर्य मात्र कोई ख़ास घर नहीं बल्कि स्थान है।

अब आइए शे’र के भावार्थ पर प्रकाश डालते हैं। दरअसल शे’र में ‘चराग़’, ‘रौशनी’ और ‘मकाँ’ की एक लाक्षणिक स्थिति है। चराग़ रूपक है नेक और भले आदमी का, उसके सन्दर्भ से रोशनी रूपक है नेकी और भलाई का। इस तरह शे’र का अर्थ ये बनता है कि नेक आदमी किसी ख़ास जगह नेकी और भलाई फैलाने के लिए पैदा नहीं होते बल्कि उनका कोई विशेष मकान नहीं होता और ये स्थान की अवधारणा से बहुत आगे के लोग होते हैं। बस शर्त ये है कि आदमी भला हो। अगर ऐसा है तो भलाई हर जगह फैल जाती है।

शफ़क़ सुपुरी

ये किस मक़ाम पे लाई है मेरी तन्हाई

कि मुझ से आज कोई बद-गुमाँ नहीं होता

'वसीम' ज़ेहन बनाते हैं तो वही अख़बार

जो ले के एक भी अच्छी ख़बर नहीं आते

तहरीर से वर्ना मिरी क्या हो नहीं सकता

इक तू है जो लफ़्ज़ों में अदा हो नहीं सकता

जिस्म की चाह लकीरों से अदा करता है

ख़ाक समझेगा मुसव्विर तिरी अंगड़ाई को

Recitation

Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

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