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लोग अपने आप को मदहोश क्यों करते हैं?

सआदत हसन मंटो

लोग अपने आप को मदहोश क्यों करते हैं?

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    इस हक़ीक़त की क्या तौज़ीह हो सकती है कि लोग ऐसी शय इस्तिमाल में लाते हैं जो उन्हें ब-ख़ुद मदहोश बना दें। मिसाल के तौर पर शराब, बीयर, चरस, गाँजा, अफ़ीम, तंबाकू और दूसरी चीज़ें जो ज़्यादा आम नहीं मसलन ईथर, मार्फिया वग़ैरा वग़ैरा... इन मनशियात का इस्तिमाल क्यों शुरू हुआ...? इनका इस्तिमाल इतनी जल्दी क्यों आम हो गया है। मुहज़्ज़ब और ग़ैर-मुहज़्ज़ब लोगों में इनकी खपत क्यों रोज़-ब-रोज़ बढ़ रही है...? ये क्या बात है कि जहां शराब या बीयर नहीं मिलती, वहां अफ़ीम, गाँजा और चरस वग़ैरा का इस्तिमाल आम है और तंबाकू दुनिया के हर कोने में पिया जाता है।

    लोग अपने आपको मदहोश क्यों करते हैं?

    आप किसी से ये सवाल पूछिए कि उसने क्यों पीना शुरू की और ये कि अब वो क्यों पीता है तो वो ग़ालिबन ये जवाब देगा। ''शराब बड़ी ख़ुशगवार चीज़ है... और फिर सभी तो पीते हैं।'' शायद वो ये भी कहे। ''मैं पीता हूँ इसलिए कि मुझे इस से फ़रहत हासिल होती है।’’ और वो लोग जिन्होंने आज तक इस बात पर ग़ौर करने की ज़हमत नहीं उठाई कि शराब बुरी चीज़ है या अच्छी। अपने जवाब में ये कहेंगे कि वो सेहत क़ायम रखने के लिए शराब पीते हैं... ये एक ऐसा बयान है जो आज से बहुत अर्सा पहले बे-बुनियाद साबित हो चुका है।

    किसी तंबाकू पीने वाले से पूछिए कि हज़रत आपने किस ज़रूरत के मा-तहत तंबाकू पीना शुरू किया और अब आप तंबाकू क्यों पीते हैं। तो उसका जवाब भी कुछ इस क़िस्म का होगा। ''वक़्त काटने के लिए हर शख़्स तंबाकू पीता है!''

    वक़्त काटने के लिए, फ़रहत हासिल करने के लिए... वक़्त काटने के लिए फ़रहत हासिल करने के लिए अगर कोई अपनी उंगलियां चटख़ाए, सीटी बजाय, कुछ गुनगुनाए या इसी किस्म की कोई और चीज़ करे तो इस पर कोई एतराज़ नहीं हो सकता। इसलिए कि ऐसा करने से नेचर की दौलत ज़ाएअ नहीं होती और ना कोई ऐसी चीज़ ही ख़र्च होती है, जिसके बनाने पर बेशुमार सरमाया और मेहनत सर्फ़ हुई हो। इसके अलावा उससे ना अपने आपको और ना दूसरों को कोई दुख ही पहुंचता है, लेकिन तंबाकू, चरस, शराब और अफ़ीम बनाने पर लाखों आदमियों की मेहनत ख़र्च होती है और करोड़ों एकड़ ज़मीन भंग, पोस्त, अंगूर और तंबाकू की काश्त के लिए वक़्फ़ कर दी जाती है। अलावा बरीं ये मुसल्लमा नुक़्सानदेह चीज़ें निहायत ही ख़तरनाक बुराइयां पैदा करने का मूजिब होती हैं और लोगों को मुतअद्दी-ए-अमराज़ और जंगों से कहीं ज़्यादा तबाह-ओ-बर्बाद करती हैं। ये तमाम हक़ायक़ रोज़-ए-रौशन की तरह अयाँ हैं। इसलिए ज़ाहिर है कि इनका इस्तिमाल ''वक़्त काटने के लिए, फ़र्हत हासिल करने के लिए'' हरगिज़ हरगिज़ नहीं हो सकता और ना ये बहाना ही चल सकता है कि ''हर शख़्स पीता है।''

    इनके इस्तिमाल की कोई और ही वजह है।

    हम हर रोज़ ऐसे आदमियों से मिलते हैं जो अपने बाल बच्चों से मुहब्बत करते हैं और जो उनके लिए हर क़िस्म की क़ुर्बानी करने के लिए तैयार होते हैं, लेकिन वो इसके बावस्फ़ शराब भांग, अफ़ीम या चरस पर इतना रुपया ख़र्च करते हैं जो उनके ग़ुर्बत-ज़दा अहल-ओ-अयाल की हालत बेहतर बना सकता है या कम-अज़-कम उनको अफ़्लास से नजात दिला सकता है। ज़ाहिर है कि अगर कोई शख़्स अपने अहल-ओ-अयाल की ज़रूरियात और उनकी मुश्किलात पर मदहोश करने वाली चीज़ों को तर्जीह देता है तो कोई और ही माक़ूल वजह कार-फ़रमा होती है। यहां ''वक़्त काटने, फ़रहत हासिल करने के लिए और हर शख़्स पीता है।'' की दलील आइद नहीं हो सकती। कोई ठोस वजह उस फेअल के साथ वाबस्ता है।

    ये ठोस वजह... जैसा कि मैंने इस मौज़ू पर किताबें पढ़ कर दूसरे लोगों का मुशाहिदा कर के और ख़ास तौर पर अपनी इस हालत का अंदाज़ा करने के बाद जब मैं शराब और तंबाकू को पिया करता था। सोचा है, मुंदरजा ज़ैल अलफ़ाज़ में बयान की जा सकती है।

    अगर कोई शख़्स अपनी ज़िंदगी पर नज़र करे तो अक्सर औक़ात वो अपने अंदर दो हस्तियाँ मौजूद पाएगा। एक अंधी और जिस्मानी है। दूसरी बसारत की मालिक है, यानी रुहानी, अव्वल-उज़-ज़िक्र अंधा हैवानी वुजूद खाता है, पीता है, आराम करता है, सोता है, बढ़ता है, हरकत करता है, बिलकुल कोक भरी मशीन के मानिंद और रुहानी वुजूद जो कि देखता है यानी बसारत का मालिक है, हैवानी वजूद से बंधा हुआ है, ये अपने आप कुछ नहीं करता। सिर्फ अपने साथी की हरकात जाँचता रहता है। जब ये हैवानी वजूद के किसी अमल को पसंद करता है तो उसके अंदर घुल-मिल जाता है और जब ये हैवानी वुजूद के किसी अमल को नापसंद करता है तो इससे अलग हो जाता है। इस मुशाहिदा-ओ-मुलाहिज़ा करने वाले वुजूद की तश्बीह कंपास की सूई से दी जा सकती है। जिसका एक सिरा शुमाल की तरफ़ और दूसरा सिरा जुनूब की तरफ़ रहता है। हमको अस्ल सिम्त और उस सूई का फ़र्क़ सिर्फ उसी सूरत में मालूम होता है, अगर हम ग़लत सिम्त जा रहे हों। ठीक इसी तरह रुहानी वुजूद (जिसके इज़हार को हम आम तौर पर ज़मीर कहते हैं) का एक सिरा बुराई की तरफ़ रहता है और दूसरा सिरा अच्छाई की तरफ़, इस रुहानी वजूद की मौजूदगी से बा-ख़बर होने के लिए हमें कोई ऐसा फेअल करना पड़ेगा, जो ज़मीर के ख़िलाफ़ हो क्योंकि हैवानी वजूद का रुख इस मुक़ाम से हट जाएगा जिसकी तरफ़ ज़मीर इशारा करता रहता है।

    जिस तरह वो जहाज़-रान जो इस बात से आगाह हो कि वो ग़लत रस्ते पर जा रहा है, अब तक कंपास के मुताबिक़ अपना रुख ठीक ना कर ले या अपनी ग़लती के एहसास को क़तई तौर पर मिटा दे, चप्पू नहीं चला सकता और ना बादबानों ही से काम ले सकता है, ठीक उसी तरह वो इन्सान जो अपने हैवानी वुजूद की हरकात और ज़मीर की आवाज़ की सुई से आगाह हो, सिर्फ इस सूरत में अपना काम जारी रख सकता है, अगर वो उसे ज़मीर के मुतालिबात के साथ हम-आहंग-ओ-मुंज़बित कर दे, या फिर उन इशारात से बिलकुल ग़ाफ़िल हो जाये जो ज़मीर उसके हैवानी वुजूद की ग़लत-रवी पर उस तक पहुँचाता है।

    इन्सानी ज़िंदगी इन दो सरगर्मियों या आमिल कुव्वतों पर मुश्तमिल है,

    (1) अपने अफ़आल को ज़मीर के साथ हम-आहंग करना।

    (2) ज़मीर की आवाज़ पर अपने कान बंद कर लेना ताकि हस्ब-ए-मामूल ज़िंदगी बसर की जा सके।

    बाअज़ हज़रात पहली बात पर अमल करते हैं और बाअज़ दूसरी पर। अव्वल-उज़-ज़िक्र बात सिर्फ अख़लाक़ी रौशनी से हासिल होती है और आख़िर-उज़-ज़िक्र बात के लिए यानी ज़मीर की आवाज़ पर अपने कान बंद कर लेने के लिए दो ज़रिये हैं। एक ख़ारिजी और एक अंदरूनी। ख़ारिजी ज़रिया ये है कि ख़ुद को ऐसे मशाग़िल में मसरूफ़ रखा जाये जो हमारी तवज्जो ज़मीर के इशारात से हटाए रखें और अंदरूनी ज़रिया ये है कि ख़ुद ज़मीर ही की रौशनी को आहिस्ता-आहिस्ता गुल कर दिया जाये और उसमें अंधेरा पैदा कर दिया जाये।

    अपने सामने की चीज़ों को ना देखने के लिए इन्सान के पास दो तरीक़े हैं। एक ये कि निगाहें हटा कर किसी दूसरी चीज़ को देखना शुरू कर दिया जाये, जो ज़्यादा जाज़िब-ए-नज़र हों और दूसरा ये कि अपनी आँखों की बसारत को मसदूद कर दिया जाये, इसी तरह इन्सान ज़मीर की आवाज़ पर अपने कान दो तरीक़ों से बंद कर सकता है। पहला तरीक़ा ख़ारिजी है यानी ये कि वो अपनी तवज्जो मुख़्तलिफ़ मशाग़िल, तफ़क्कुरात, खेलों वग़ैरा की तरफ़ मबज़ूल कर दे और दूसरा तरीक़ा अंदरूनी है यानी ये कि वो तवज्जो पैदा करने वाले अज़्व ही को मुअत्तल कर दे।

    उन लोगों के लिए जिनकी क़ुव्वत-ए-एहसास कुंद होती है और जिनके अख़लाक़ी एहसासात महदूद होते हैं, बेरूनी तफ़रीहात अक्सर औक़ात इस बात के लिए काफ़ी होती हैं कि वो ज़मीर के इशारात ना समझें, लेकिन उन लोगों के लिए जो अख़लाक़ी तौर पर काफ़ी हस्सास होते हैं, ऐसी तफ़रीहात बिलकुल ना-काफ़ी होती हैं।

    बेरूनी ज़राएअ पूरे तौर पर शऊर और ज़मीर की आवाज़ को नहीं दबा सकते और ना वो शऊर के मुतालिबात ही से हमें क़तई तौर पर ग़ाफ़िल कर सकते हैं। इसलिए ज़ाहिर है कि ये एहसास ये शऊर हमारी ज़िंदगी में रोड़े अटकाना शुरू कर देता है। अब वो लोग जो अपने दिन हस्ब-ए-साबिक़ गुज़ारना चाहते हैं, अंदरूनी काबिल-ए-एतिमाद तरीक़े को इस्तिमाल करते हैं। यानी ये कि ज़मीर ही को तारीक बना दिया जाये, चुनांचे इस काम के लिए वो दिमाग़ को मदहोश बनाने वाली चीज़ों से ज़हर-आलूद करते हैं।

    (1)

    शराब, अफ़ीम, चरस, भांग और तंबाकू का आलमगीर इस्तिमाल इसलिए नहीं होता कि ये चीज़ें फ़रहत या दल-बस्तगी का सामान मुहैय्या करती हैं, बल्कि उनका इस्तिमाल सिर्फ इसलिए किया जाता है कि ज़मीर के मुतालिबात से ख़ुद को छुपा लिया जाये।

    मैं एक रोज़ बाज़ार में जा रहा था। मेरे पास से दो गाड़ीवान गुज़र रहे थे। उनमें से एक दूसरे से कह रहा था। ''बे-शक जब हम होश में हो तो ऐसा करते हुए हमें शर्म महसूस होती है।'' जब आदमी होश में हो तो उसे कोई ख़ास काम करते हुए शर्म महसूस होती है और जब वो शराब में मख़मूर हो तो उसे वही काम ठीक मालूम होता है। इन अलफ़ाज़ में वो वजह पोशीदा है जो इन्सानों को मदहोश बनाने वाली अशिया की तरफ़ राग़िब करती है, लोग इन अशिया को या तो इसलीए इस्तिमाल करते हैं कि शर्म के उन एहसासात को दबा दें जो किसी ग़लत काम करने पर पैदा होते हैं या पहले ही से ख़ुद पर ऐसी हालत तारी कर लें जिसमें वो ज़मीर के ख़िलाफ़ काम कर सकते हैं। दूसरे लफ़्ज़ों में वो अपने हैवानी वुजूद की इताअत कर सकते हैं।

    होश की हालत में मर्द वैश्या के मकान पर जाने से डरता है। चोरी करने से ख़ौफ़ खाता है और किसी को क़त्ल करने की जुर्रत नहीं करता, लेकिन ये तमाम काम करते हुए शराबी को कोई शर्म महसूस नहीं होती। इसलिए ये साबित हुआ कि अगर कोई आदमी अपने ज़मीर के ख़िलाफ़ काम करना चाहे तो उसे ख़ुद को मदहोश करना पड़ता है।

    मुझे उस बावर्ची का बयान याद जाता है जिसने मेरी एक बूढ़ी रिश्तेदार को क़त्ल कर दिया था। उसने अदालत में कहा था कि जब उसने अपनी दाश्ता (एक नौकरानी) को बाहर भेज दिया और काम करने का वक़्त क़रीब गया तो उसने चाक़ू लेकर कमरे ख़्वाब में जाना चाहा, लेकिन उसके दिल में ख़्याल पैदा हुआ कि होश की हालत में वो ये काम नहीं कर सकेगा, चुनांचे वो लौटा और 'वोदका' के दो गिलास पीने के बाद उसने ख़ुद को क़त्ल के लिए बिलकुल तैयार पाया, चुनांचे उसने कमरे में जाकर बुढ़िया को हलाक कर दिया। यहां उसी गाड़ीवान की बात याद जाती है कि ''जब हम होश में हों तो ऐसा करते हुए शर्म महसूस होती है।''

    दस में से नौ जुर्म इसी तरीक़े पर किए जाते हैं, यानी इस बात पर अमल किया जाता है। ''हिम्मत हासिल करने के लिए शराब पियो।''

    वो औरतें जो अपनी इस्मत खोती हैं, उनमें से पचास फ़ीसदी ऐसी होती हैं जो शराब के नशे में अपनी ज़िंदगी का बेहतरीन ज़ेवर उतार कर फेंक देती हैं। वैश्याओं के हाँ अक्सर वही लोग जाते हैं जो शराबी हों, चूँकि लोग शराब के इस असर से वाक़िफ़ हैं कि ये ज़मीर की आवाज़ बिलकुल दबा देती है, इसलिए वो उसे जान-बूझ कर इसी काम के लिए पीते हैं।

    लोग सिर्फ अपने ज़मीर ही की आवाज़ दबाने के लिए शराब नहीं पीते बल्कि दूसरों को भी अपने ज़मीर से ग़ाफ़िल करने के लिए शराब पिलाते हैं। जंग में दो बद्दू लड़ाई के वक़्त फ़ौजियों को आम तौर पर शराब पिलाई जाती है। सबस्तोपोल पर जब फ़्रांसीसी फ़ौजियों ने हमला किया था तो वो सब के सब मख़मूर थे।

    जब किसी जगह पर क़ब्ज़ा किया जाता है और फ़ौजी वहां के बे-यार-ओ-मददगार बच्चों और बूढ़ों को मारने से इनकार कर देते हैं तो आम तौर पर उनको शराब से मदहोश करने के अहकाम जारी किए जाते हैं, मख़मूरी की हालत में वो उस काम के लिए तैयार हो जाते हैं जो उनसे चाहा जाता है।

    ऐसे लोगों की कई मिसालें मौजूद हैं जिन्होंने कोई ग़लत काम करने के बाद शराबनोशी शुरू की। चूँकि वो अपनी नदामत दूर करना चाहते थे इसलिए उन्होंने ख़ुद को मदहोश बनाना शुरू कर दिया और फिर सब लोग जानते हैं कि वो लोग जो बुरी ज़िंदगी बसर करते हैं, मनशियात की तरफ़ जल्द राग़िब होते हैं। चोर उचक्के रहज़न और वैश्याएं बग़ैर शराब के ज़िंदा नहीं रह सकतीं।

    हर शख़्स ये जानता है और तस्लीम करता है कि मदहोश बनाने वाली चीज़ों का इस्तिमाल बाइस है ज़मीर की टीसें और ये कि ज़िंदगी के ग़ैर अख़लाक़ी रास्तों पर चलते वक़्त मदहोश बनाने वाली अशिया का इस्तिमाल सिर्फ इसलिए किया जाता है कि ज़मीर को कुंद बना दिया जाये और ये भी हर शख़्स पर वाज़ेह है कि मदहोश बनाने वाली चीज़ों का इस्तिमाल ज़मीर को कुंद बना देता है और ये कि मख़मूरी की हालत में आदमी वो फेअल भी कर गुज़रता है, जो होश की हालत में वो कभी नहीं कर सकता। बल्कि यूं कहे कि जिसका उसे कभी क़ियास भी नहीं होगा। हर शख़्स इन बातों को तस्लीम करता है, मानता है लेकिन जब मदहोश बनाने वाली अशिया चोरी चकारी, क़त्ल-ओ-ग़ारत या तशद्दुद पर मुंतज नहीं होतीं। जब उनको किसी भयानक जुर्म के बाद इस्तिमाल नहीं किया जाता। जब उनको ऐसे लोग इस्तिमाल में लाते हैं जो मुज्रिम नहीं होते और जब ऐसी चीज़ें थोड़ी थोड़ी मिक़दार में इस्तिमाल की जाती हैं तो आम-तौर पर किसी वजह से ये ख़्याल किया जाता है कि मदहोश बनाने वाली अशिया ज़मीर को कुंद नहीं बनातीं। चुनांचे इसी ख़्याल के मा-तहत ये कहा जाता है कि थोड़ी मिक़दार में शराब, बीयर, अफ़ीम वग़ैरा सिर्फ़ फ़रहत हासिल करने के लिए इस्तिमाल की जाती हैं और यूं उनका ज़मीर पर कोई असर नहीं होता।

    कहा जाता है कि जब मामूली मदहोशी के बाद किसी जुर्म का इर्तिकाब नहीं किया जाता, ना चोरी की जाती है और ना क़त्ल किया जाता है, तो वो बेहूदा और फ़ुज़ूल हरकात जो आम तौर पर देखने में आती हैं, उनका मदहोशी से कोई ताल्लुक़ नहीं होता बल्कि वो ख़ुद-ब-ख़ुद वुक़ूअ पज़ीर होती हैं। ये फ़र्ज़ कर लिया गया है कि जब ये लोग जराइम से मुताल्लिक़ा क़ानून की ख़िलाफ़ वर्ज़ी नहीं करते, तो उन्हें अपने ज़मीर की आवाज़ दबाने की कोई ज़रूरत ही महसूस नहीं हो सकती और ये कि वो ज़िंदगी जो मनशियात के आदी बसर करते हैं, बड़ी अच्छी ज़िंदगी होती है और अगर वो इस आदत को छोड़ दें तो भी उनकी ज़िंदगी वैसी ही अच्छी रह सकती है। ये भी फ़र्ज़ कर लिया गया है कि मदहोश बनाने वाली चीज़ों का मुतवातिर-ओ-मुसलसल इस्तिमाल उनके ज़मीर को क़तई तौर पर तारीक नहीं बनाता।

    गौहर शख़्स तजुर्बे की बिना पर जानता है कि शराब और तंबाकू से इन्सान के दिल-ओ-दिमाग़ की हैअत तब्दील हो जाती है, इन चीज़ों के इस्तिमाल से उन अफ़आल पर शर्म महसूस नहीं होती, जिन पर होश की हालत में होनी चाहिए। ज़मीर की हर चुटकी पर इन्सान किसी मदहोश बनाने वाली चीज़ की तरफ़ रुजूअ करता है। नशे की हालत में अपनी ज़िंदगी और अपने हालात का अंदाज़ा नहीं कर सकता, मनशियात का बाक़ायदा और मुसलसल इस्तिमाल वही नफ़्सियाती ख़लल पैदा करता है जो उनका ग़ैर मोअतदिल और बे-क़ाइदा इस्तिमाल पैदा करता है, लेकिन इसके बावजूद उन लोगों को जो तंबाकू और शराब एतिदाल से पीते हैं ये मालूम होता है कि वो ये मनशियात अपने ज़मीर को कुंद बनाने के लिए इस्तिमाल नहीं करते बल्कि सिर्फ़ ज़ाइक़े और फ़रहत के लिए इस्तिमाल में लाते हैं लेकिन इन लोगों को ग़ैर जानिब-दाराना तरीक़े पर बड़ी मितानत और संजीदगी के साथ इस मसअले पर ग़ौर करना चाहिए... ऐसे नहीं सोचना चाहिए गोया सर की बला टाल दी गई है बल्कि उसको समझना चाहिए। अव्वलन ये कि जब मनशियात ज़्यादा मिक़दार में बाक़ायदा इस्तिमाल की जाएं तो ज़मीर को कुंद बना देती हैं तो उनका थोड़ी मिक़दार में बाक़ायदा इस्तिमाल भी ऐसे ही नताइज पैदा करता होगा, सानियन ये कि तमाम मनशियात, ज़मीर को कुंद बनाने की ख़ासियत रखती हैं, दोनों हालतों में उनकी ये ख़ासियत बरक़रार रहती है, ख़्वाहाँ के असर के तहत ऐसे अल्फ़ाज़ ज़बान पर आएं, या ऐसे एहसासात दिल में पैदा हों जो होश की हालत में पैदा नहीं होने चाहिए थे और सालसन ये कि अगर चोरों, डाकूओं और वैश्याओं को अपने ज़मीर कुंद करने के लिए मनशियात की हाजत होती है तो उन लोगों को भी जो अपने ज़मीर के ख़िलाफ़ कोई काम या पेशा इख़तियार करते हैं (ख़ाह ये काम और पेशे आपके नज़दीक बड़े बा-वक़ार और मौज़ूं तरीन हों।) इन चीज़ों की ज़रूरत महसूस होती है।

    मुख़्तसर अलफ़ाज़ में हम इस हक़ीक़त से हरगिज़ हरगिज़ इनकार नहीं कर सकते कि मनशियात का इस्तिमाल ख़्वाह वो थोड़ी मिक़दार में और बाक़ायदा हो। या ज़्यादा मिक़दार में और बे-क़ाइदा। ऊंचे तबक़े में हो या निचले तबक़े में। सिर्फ एक ही ज़रूरत के मातहत अमल में आता है और वो ज़रूरत ज़मीर की आवाज़ को दबाने की है ताकि रास्ते में कोई हाइल ना हो।

    (3)

    सिर्फ उन चंद अलफ़ाज़ में मनशियात-ओ-मुस्किरात और तंबाकू (जो आम पिया जाता है और जो सबसे ज़्यादा मज़र्रत रसाँ है) के आलमगीर इस्तिमाल का राज़ पोशीदा है।

    ये फ़र्ज़ कर लिया गया है कि तंबाकू ताज़गी बख़्शता है, ख़्यालात को साफ़ करता है और लोगों की तवज्जों अपनी तरफ़ ऐसे ही मबज़ूल करता है जैसे दूसरी चीज़ें और ये कि शराब के मानिंद उसका ज़मीर पर कुछ असर नहीं पड़ता, लेकिन अगर बड़े ग़ौर से उन हालतों का मुशाहिदा-ओ-मुताला किया जाये जिनमें तंबाकू पीने की ख़्वाहिश पैदा होती है तो आप पर वाज़ेह हो जाएगा कि ज़मीर पर तंबाकू का वही असर होता है जो शराब का होता है, अगर तंबाकू वाक़ई ताज़गी बख़्शने या ख़्यालात साफ़ करने वाला होता तो इसकी शदीद तलब हरगिज़ हरगिज़ पैदा ना होती। ऐसी तलब जो ख़ास ख़ास मवाक़ेअ पर नमूदार हो और लोग ये हरगिज़ हरगिज़ ना कहते कि हम भूके रह सकते हैं, लेकिन तंबाकू ज़रूर पिएँगे।

    उस बावर्ची ने जिसने अपनी मलिका को क़त्ल कर दिया था, कहा था कि जब कमरे ख़्वाब में दाख़िल हो कर उसने बुढ़िया के गले पर छुरी फेर दी और ख़ून के फ़व्वारे छूटने लगे तो उसकी हिम्मत, उसकी ताक़त जवाब दे गई, ''मैं अपना काम पूरी तरह ख़त्म ना कर सका। उसने अदालत में बयान दिया, चुनांचे कमरे से बाहर निकल कर मैंने सिगरेट सुलगाया।''

    सिगरेट पीकर और ख़ुद को मदहोश करने के बाद वो इस काबिल हुआ कि वापिस जा कर बुढ़िया के सर को तन से जुदा कर दे, ज़ाहिर है कि उस वक़्त उसके दिल में सिगरेट पीने की ख़्वाहिश इसलिए पैदा ना हुई कि वो अपने ख़्यालात को साफ़ करना चाहता था या फ़रहत हासिल करना चाहता था, बल्कि उस वक़्त उसको अपनी वो चीज़ कुंद बनानी थी, जो उस बुरे काम की तकमील से रोक रही थी।

    हर तंबाकूनोश थोड़े से ग़ौर-ओ-फ़िक्र के बाद मालूम कर सकता है कि ऐसे ख़ास लम्हात आते हैं जब वो ख़ुद को तंबाकू से मदहोश बनाना चाहता है, उन दोनों को पेश-ए-नज़र रख कर जब मैं तंबाकू को पिया करता था आपको एक वाक़िया बताता हूँ। जब मुझे उसकी तलब महसूस हुआ करती थी। आम तौर पर में ऐसे लम्हात में तंबाकू पिया करता था जब किसी बात की याद को फ़रामोश कर देना चाहता था। जब मैं किसी चीज़ को भूल जाना चाहता था या सिरे ही से ग़ौर-ओ-फ़िक्र करना नहीं चाहता था।

    मैं बेकार बैठा होता था। मुझे मालूम होता था कि मुझे काम करना है, लेकिन चूँकि मैं ऐसे ही बेकार बैठा रहना चाहता था इसलिए मैं तंबाकू पीना शुरू कर देता था। मैंने किसी के साथ वाअदा किया होता था कि मैं उसके यहां पाँच बजे ज़रूर आऊँगा लेकिन जब ये वाअदा पूरा ना होता तो उसके एहसास को भुलाने के लिए मैं तंबाकू पीना शुरू कर देता था। तबियत में चिड़चिड़ेपन के बाइस मैं अगर किसी को ना-ख़ुशगवार कलिमात कह देता तो उस ग़लती के एहसास को दूर करने के लिए पाइप सुलगा लिया करता था। ताश खेलने के दौरान में अगर मैं तवक़्क़ो से ज़्यादा रक़म हार जाता तो तंबाकू पीना शुरू देता था। मुझसे अगर कोई बुरी हरकत सरज़द हो जाती थी और इसका एतेराफ़ करने को जी नहीं चाहता था तो पाइप पीने लग जाता था और दूसरों को क़सूरवार ठहराना शुरू कर देता था। कोई मज़मून लिखते वक़्त अगर मुझे पूरी तरह तसकीन हासिल नहीं होती थी और होना ये चाहिए था कि मैं लिखना तर्क कर दूं, लेकिन मैं ज़बरदस्ती उस मज़मून को ख़त्म करना चाहता था। इसलिए मैं तंबाकू नोशी शुरू कर देता था। किसी से गुफ़्तगू करते वक़्त अगर मुझे ये मालूम होता कि हम दोनों एक दूसरे की बात को नहीं समझ रहे, लेकिन चूँकि मैं अपनी राय का इज़हार जारी रखना चाहता था। इसलिए मैं तंबाकू पीना शुरू कर देता था।

    तंबाकू और दूसरी मदहोश बनाने वाली चीज़ों में ये इम्तियाज़ी फ़र्क़ है कि इसके ज़रिये हम बड़ी आसानी के साथ ख़ुद को मदहोश बना सकते हैं। इसके अलावा उसका ब-ज़ाहिर बिलकुल बे-ज़रर और नक़ल पज़ीर होना है। अफ़ीम, भांग और शराब वग़ैरा इस्तिमाल करने के लिए इब्तिदाई तैयारियां करनी पड़ती हैं और दीगर लवाज़िमात की भी ज़रूरत होती है मगर तंबाकू हर वक़्त जेब में रखा जा सकता है और इसके पीने के लिए और लवाज़िमात की ज़रूरत नहीं होती। शराब और गाँजा पीने वालों को देख कर आम तौर पर लोग हैबत-ज़दा हो जाते हैं, लेकिन तंबाकू पीने वाले इस क़िस्म की कैफ़ियत पैदा नहीं करते। लोग उनसे दूर हटने की कोशिश नहीं करते। शराब, अफ़ीम और गाँजा वग़ैरा तमाम हिसयात पर असर अंदाज़ होते हैं और ये असर देर तक क़ायम रहता है मगर तंबाकू से ऐसा नहीं होता। आप कोई ऐसा काम करना चाहते हैं जो आपको नहीं करना चाहिए तो आप सिगरेट पीकर ख़ुद को ब-क़दर-ए-ज़रूरत मदहोश बना लेते हैं, उसके बाद आप फिर होश में जाते हैं और अच्छी तरह सोचने लगते हैं। या फ़र्ज़ कर लिया जाये कि आपने कोई ऐसा काम किया है, जो आपको नहीं करना चाहिए था तो आप सिगरेट पीते हैं और उस ग़लती के एहसास को मिटा कर कोई और काम करने में मश्ग़ूल हो जाते हैं।

    ज़ाहिर है कि तंबाकू ना किसी तलब को पूरा करने के लिए और ना वक़्त काटने के लिए पिया जाता है, बल्कि सिर्फ अपना ज़मीर कुंद बनाने के लिए पिया जाता है और क्या इन तमाम उमूर से ये साबित नहीं होता कि इन्सान की ज़िंदगी और इसके दिल में तंबाकू पीने की ख़्वाहिश के दरमियान एक गहरा रिश्ता है।

    लड़के कब तंबाकू पीना शुरू करते हैं...? आम तौर पर उस वक़्त जब वो अपने बचपन की मासूमियत खो देते हैं। ये क्या बात है जब इन्सान अपनी ज़िंदगी के अख़लाक़ी रास्तों पर गाम-ज़न होता है तो वो तंबाकू की आदत तर्क कर देता है और जब इन रास्तों से हट जाता है तो फिर तंबाकू पीना शुरू कर देता है...? क्या वजह है कि सब क़िमारबाज़ तंबाकू के आदी होते हैं...? वो औरतें जो हमवार ज़िंदगी बसर करती हैं, क्यों बहुत कम तंबाकू पीती हैं...? वैश्याएं और दीवाने सब के सब तंबाकू के आदी क्यों होते हैं...? आदत आदत है, लेकिन तंबाकू-नोशी यक़ीनन ज़मीर को कुंद बनाने वाली ख़्वाहिश से मुताल्लिक़ है और इससे ये ख़्वाहिश पूरी होती है।

    आम तौर पर कहा जाता है (मैं ख़ुद भी यही कहा करता था) कि तंबाकू पीने से दिमाग़ी काम अच्छी तरह होता है, अगर हम दिमाग़ी काम की मिक़दार को पेश-ए-नज़र रखें तो ये बयान बिलाशक-ओ-शुबा सदाक़त पर मबनी है। वो शख़्स जो तंबाकू पीता है और जो अंजाम-ए-कार अपने ख़्यालात को जांचने और परखने की क़ुव्वत खो देता है, आम तौर पर ये ख़्याल करता है कि उसके दिमाग़ में बेशुमार ख़्यालात रहे हैं, लेकिन इसका ये मतलब नहीं होता कि उसके दिमाग़ में वाक़िये बेशुमार ख़्यालात रहे हैं। दर असल बात ये होती है कि उसे अपने ख़्यालात पर क़ाबू नहीं रहता और वो ग़लत नतीजा मुरत्तब कर लेता है।

    जब आदमी काम करने लगे तो उसे अपने अंदर दो वजूदों का एहसास होता है। एक वो वजूद जो काम करता है और दूसरा वो जो जाँचता रहता है। ये जांच जिस क़द्र कड़ी होगी, उसी क़द्र काम सुस्त रफ़्तारी से, मगर अच्छा और पुख़्ता होगा और अगर ये जांच पड़ताल कमज़ोर होगी तो काम जल्दी मगर ख़ाम होगा। जब काम करने वाले पर मदहोशी तारी होती है तो काम की मिक़्दार बढ़ जाती है, मगर इसमें अच्छाई पैदा नहीं होती।

    लोग आम तौर पर कहते हैं ''अगर मैं तंबाकू ना पियूँ तो लिख ही नहीं सकता। शुरू करता हूँ मगर लिख ही नहीं सकता'' मैं भी यही कहा करता था, लेकिन सोचना ये है कि इसका मतलब क्या है...? मेरा ख़्याल ये है कि इसका मतलब या तो ये है कि आप लिखना ही नहीं चाहते हैं फिर ये होना चाहिए कि आपके शऊर में लिखने की ख़्वाहिश अभी तक ख़ाम है, इसकी सिर्फ धुँदली सी सूरत आपकी नज़रों के सामने रही है। जिसकी ख़बर आपके अंदर वाला नक़्क़ाद बशर्ते कि वो मदहोश ना हो, आपको पहुंचा देता है, अगर आप तंबाकू ना पियें तो आप यक़ीनन या तो लिखने का ख़्याल ही छोड़ देंगे या फिर उस धुँदले ख़्याल की तैह तक पहुंचने की कोशिश करेंगे ताकि वो पुख़्तगी इख़्तियार करे और आपकी नज़रों के सामने सही शक्ल में जाये, लेकिन अगर आपने तंबाकू पी लिया और आपके अंदर वाला नक़्क़ाद मदहोश हो जाएगा और वो रोक जो आपके रास्ते में थी हट जाएगी। तंबाकू पीने से पहले जो ख़्याल आपको बिलकुल मुब्हम और फ़ुज़ूल नज़र आता था, तंबाकू पीने के बाद एहमियत इख़्तियार कर लेता है, वो रुकावटें जो आपके रास्ते में हाइल थीं, दूर हो जाती हैं। आप लिखना शुरू कर देते हैं और ज़्यादा तेज़ी के साथ...

    (4)

    लेकिन क्या मामूली और हक़ीर सा नशा जो शराब और तंबाकू के मोअतदिल इस्तिमाल से पैदा होता है, अहम नताइज का बाइस होता है...? अगर कोई शख़्स गाँजा और शराब पीकर गिर पड़े और अपने हवास खो दे तो यक़ीनन अहम नताइज पैदा हो सकते हैं, लेकिन अगर तंबाकू और गाँजा वग़ैरा थोड़ी सी मिक़दार में इस्तिमाल किया जाये जो मामूली नशा पैदा करे तो इससे ख़तरनाक नताइज बरामद नहीं हो सकते... ये बयान आम तौर पर सुनने में आता है और फ़र्ज़ कर लिया गया है कि मामूली सी मदहोशी बुरा असर पैदा नहीं करती, ये तो ऐसा ही है, अगर ये ख़्याल कर लिया जाये कि पत्थर पर घड़ी को पटक देने से उसको नुक़सान पहुँचेगा, लेकिन मामूली सा गर्द-ओ-ग़ुबार उसको कोई नुक़्सान नहीं पहुंचा सकता।

    ये ख़्याल रखना चाहिए कि इन्सान की ज़िंदगी को वो काम हरकत या उकसाहट नहीं बख़्शता जो हाथों, पैरों या पीठ से किया जाये बल्कि वो काम हरकत बख़्शता है जो ज़मीर करे। हाथों और पैरों से अगर कोई काम शुरू किया जाये तो शऊरी एहसास में रद्द-ओ-बदल का होना ज़रूरी है और यही रद्द-ओ-बदल बाद की हरकात को वाज़ेह और मुमय्यज़ करता है, हालाँकि ये बिलकुल मामूली और ना-क़ाबिल-ए-इदराक होता है।

    बरोलोफ़ (रूस का एक मशहूर-ओ-मारूफ़ मुसव्विर 1799-1852) ने एक रोज़ अपने शागिर्द की खींची हुई तस्वीर की इस्लाह की। इस्लाह-शूदा तस्वीर को देखकर शागिर्द एका-एकी बोल उठा। ''आपने ब्रश से सिर्फ छोटे छोटे निशान बनाए लेकिन इसमें जान पैदा कर दी।'' बरोलोफ़ ने जवाब दिया। ''आर्ट वहीं से शुरू होता है जहां से ये छोटे छोटे निशान शुरू होते हैं।''

    बरोलोफ़ का कहना बिलकुल दरुस्त है। सिर्फ आर्ट ही के बारे में नहीं बल्कि तमाम ज़िंदगी पर इस का इतलाक़ हो सकता है। हम बिला-ख़ौफ़-ओ-तरदीद कह सकते हैं कि सही ज़िंदगी का आग़ाज़ वहीं से होता है, जहां से उन छोटी छोटी चीज़ों का होता है। जहां हमारे क़ियास के मुताबिक़ ना-क़ाबिल-ए-इदराक तब्दीलियां पैदा होती हैं। अस्ल ज़िंदगी वहां बसर नहीं की जाती जहां बड़े बड़े ख़ारिजी इन्क़िलाब आते हैं। जहां लोग चलते फिरते हैं, लड़ते हैं और एक दूसरे को क़त्ल करते हैं... बल्कि वहां बसर की जाती है जहां बिलकुल नन्ही नन्ही तब्दीलियां पैदा होती हैं।

    नन्ही नन्ही तब्दीलियां... लेकिन इन्ही से निहायत हौलनाक और निहायत अहम नताइज वाबस्ता होते हैं। किसी काम का इरादा करने से लेकर उसके कर गुज़रने तक बहुत सी माद्दी तब्दीलियां पैदा हो सकती हैं... घर के घर तबाह-ओ-बर्बाद हो सकते हैं, धन-दौलत का सत्यानास हो सकता है और इन्सानों की ग़ारत-गरी अमल में सकती है, लेकिन इस से ज़्यादा अहम चीज़ वो है जो इन्सान के शऊर में छुपी हुई है। इम्कान यानी हो सकने की तहदीद शऊर ही करता है।

    शऊर के अंदर छोटी से छोटी तब्दीली भी ना-क़ाबिल-ए-क़ियास नताइज पैदा करने का मूजिब हो सकती है। आप कहीं ये ना समझ लें कि जो कुछ मैं कह रहा हूँ। इसका इन्सान की इख़्तियारी क़ुव्वत या अक़ीदा-ए-जब्र यानी जबरीयत से कोई ताल्लुक़ है। इस पर बहस करना बिल्कुल फ़ुज़ूल है। इस सवाल का फ़ैसला किए बग़ैर कि आया इन्सान अपनी ख़्वाहिश के मुताबिक़ काम कर सकता है या नहीं (ये सवाल मेरे नज़दीक दरुस्त नहीं है) मैं सिर्फ ये कहना चाहता हूँ कि जब इन्सानी सरगर्मियां और शऊर की ख़फ़ीफ़-तरीन तब्दीलियां लाज़िम-ओ-मल्ज़ूम हैं तो इस बात की ज़रूरत होती है (हम इख़्तियारी क़ुव्वत की मौजूदगी को तस्लीम करें या ना करें) कि हम ख़ास तौर पर उन हालात का जायज़ा लें जिनके तहत ये ख़फ़ीफ़-तरीन तब्दीलियां पैदा होती हैं। कोई चीज़ तोलते वक़्त हमें तराज़ू के पलड़ों का खासतौर पर ध्यान रखना पड़ता है।

    हमें हत्त-अल-इमकान इस बात की कोशिश करना चाहिए कि अपने आपको और दूसरों को ऐसे हालात से दूर रखें जो ख़्याल की इस नज़ाकत और सफ़ाई पर असर-अंदाज़ होते हों। जिनके बग़ैर शऊर अपना काम सही तौर पर नहीं कर सकता। दूसरे लफ़्ज़ों में हमें मनशियात का इस्तिमाल हरगिज़ हरगिज़ नहीं करना चाहिए। इसलिए कि वो ज़मीर-ओ-शऊर के काम में दख़ल-अंदाज़ी करता है।

    चूँकि इन्सान ब-यक वक़्त रुहानी और हैवानी मख़लूक़ है, इसलिए हो सकता है कि वो कभी उन अशिया से मुतास्सिर हो जाये जो उसकी रुहानी फ़ित्रत पर असर अंदाज़ होती हैं और कभी उन अशिया से मुतास्सिर हो जाये जो उसकी हैवानी फ़ित्रत पर असर अंदाज़ होती हैं जैसा कि क्लाक सूइयों के ज़रिये से भी मुतहर्रिक हो सकता है और बड़े पहिए के ज़रिये से भी हरकत में सकता है। जिस तरह बेहतर सूरत ये है कि क्लाक को उसकी अंदरूनी मशीनरी के ज़रिये से मुंज़बित किया जाये। ठीक इसी तरह इन्सान ख़ुद को ज़मीर-ए-बा-शऊरी के ज़रिये से बा-ज़ाब्ता बना सकता है।

    (5)

    लोग वक़्ती तौर पर उदासी दूर करने के लिए या फ़रहत हासिल करने के लिए शराब नहीं पीते और ना ही इसलिए पीते हैं कि ये ख़ुशगवार शैय है बल्कि अपने अंदर अपने ज़मीर की आवाज़ ग़र्क़ करने के लिए पीते हैं। ज़ाहिर है कि इससे बहुत हौलनाक नताइज बरामद होते होंगे। ज़रा इसी इमारत के नक़्शे का तसव्वुर कीजिए जिसकी दीवारें और कोने ज़रूरी आलात की मदद के बग़ैर तैयार किए गए होंगे। क्या ऐसी इमारत पायदार हो सकती है।

    लेकिन लोग फिर भी अपने आपको मदहोश करते हैं। जब ज़िंदगी ज़मीर के साथ हम-आहंग नहीं होती तो ज़मीर को तोड़-मरोड़ कर उसके साथ मुंज़बित कर दिया जाता है।

    ज़मीर को मदहोश बनाने की सही एहमियत मालूम करने के लिए आप अपनी ज़िंदगी के हर दौर के रुहानी लम्हात को पेश-ए-नज़र रखिए। आपको याद जाएगा कि हर दौर में आपके सामने कोई ना कोई अख़लाक़ी सवाल था, जिसको आप हल करना चाहते थे और जिसके हल होने से आपकी ज़िंदगी की बेहतरी वाबस्ता थी। इस सवाल को हल करने के लिए तवज्जो के इज्तिमा-ओ-इर्तिकाज़ की ज़रूरत थी, हर मेहनत-ओ-मशक़्क़त से मुताल्लिक़ काम करने में और खासतौर पर उसके शुरू करते वक्त ऐसे लम्हात आते हैं, जब ये मुश्किल और तकलीफ़-देह मालूम हुआ करता है और जब इन्सानी कमज़ोरी ये ख़्वाहिश पैदा करती है कि इसको छोड़ दिया जाये। जिस्मानी काम तकलीफ़-देह मालूम होता है और दिमाग़ी काम इससे भी ज़्यादा तकलीफ़देह महसूस होता है। जैसा कि झ़ोंग कहता है कि लोग आम तौर पर उस वक़्त सोचना बंद कर देना चाहते हैं। जब कोई ख़्याल मुश्किल महसूस होता है, लेकिन मैं कहूँगा कि यहीं जहां से ये मुश्किल शुरू होती है, सोचना यानी ग़ौर-ओ-फ़िक्र बार-आवर होना शुरू होता है जब आदमी ये महसूस करता है कि उसके पेश-ए-नज़र सवालात के तस्फ़ीए पर मेहनत सर्फ़ होगी जो आम तौर पर तकलीफ़-देह होती है तो उस के दिल में इस उलझन से नजात हासिल करने की ख़्वाहिश पैदा होती है, अगर उसके पास ख़ुद को मदहोश बनाने वाले ज़राएअ ना होते तो वो अपने ज़मीर से उन सवालात को कभी ख़ारिज ना कर सकता। जो उसके दरपेश थे, लेकिन चूँकि उसको ऐसे ज़राएअ मालूम नहीं जिनसे उन ख़्यालात को भगाया जा सकता है। इसलिए वो बे-वक़्त ज़रूरत उन्हें इस्तिमाल करता है।

    जूं ही हल तलब सवालात उसको दिक़ करना शुरू करते हैं, दुख देने लगते हैं। वो झट से उन ज़राएअ की तरफ़ रुजूअ करता है और उन तकलीफ़-देह सवालों की पैदा-कर्दा परेशानी से नजात हासिल कर लेता है। उसका नतीजा ये होता है कि ज़मीर उन सवालों का हल तलब करना बंद कर देता है और ये ग़ैर हल-शुदा सवाल आइन्दा रुहानी लम्हात तक ग़ैर हल-शुदा रहते हैं और जब ये लम्हात आते हैं तो फिर वो उन्ही ज़राएअ को इस्तिमाल करता है और अंजाम-ए-कार वो अपनी ज़िंदगी इसी तरह गुज़ार देता है और अख़लाक़ी सवालात जो उसके दर-पेश थे, वैसे के वैसे हल तलब रहते हैं। हालाँकि इन सवालात के हल होने ही में ज़िंदगी की सारी हरकत पोशीदा है।

    ऐसे लोगों की मिसाल बिलकुल उस इन्सान के मानिंद है, जो गदले पानी के पास खड़ा हो और उसके अंदर दाख़िल हो कर मोती निकालने से घबराता हो, चुनांचे बार-बार जब कि पानी पुर-सुकून और शफ़्फ़ाफ़ होने लगे तो वो उसे हिला कर फिर गदला बना दे।

    अगर आप उस ज़माने को पेश-ए-नज़र रखें जब आप तंबाकू और शराब पिया करते थे या दूसरे पीने वालों के मुताल्लिक़ अपने तजुर्बे पर नज़र करें तो आपको मनशियात के आदी लोगों और मनशियात से परहेज़ करने वालों के दरमियान एक मुस्तक़िल मुन्क़सिम लकीर नज़र आएगी लोग जिस क़दर ज़्यादा मनशियात को इस्तिमाल करेंगे, उसी क़दर वो अख़लाक़ी तौर पर ग़ैर हस्सास होते चले जाऐंगे।

    (6)

    जैसा कि आम तौर पर कहा जाता है अफ़ीम और गाँजा के नताइज बड़े हौलनाक होते हैं जैसा कि हम जानते हैं पक्के शराबियों के लिए शराब निहायत मोहलिक नताइज का मुजिब होती है और इससे ज़्यादा शराब, बीयर, तंबाकू वग़ैरा का मोअतदिल इस्तिमाल जो बिलकुल बे-ज़रर समझा जाता है, हमारी सोसाइटी के लिए हौलनाक नताइज का बाइस होता है।

    नताइज फ़ित्री तौर पर हौलनाक और ख़तरनाक होने चाहिए, इस हक़ीक़त के पेश-ए-नज़र कि सोसाइटी की मुआशरती, फ़िक्री, साइंटीफ़िक अदबी और फ़न्नी सरगर्मियां ज़्यादा-तर उन लोगों से मुताल्लिक़ हैं जो ग़ैर मोतदिल होते हैं यानी जो शराब पीते हैं।

    आम तौर पर फ़र्ज़ कर लिया जाता है कि वो लोग जो खाना खाने के बाद शराब पीते हैं दूसरे रोज़ काम के औक़ात में बिलकुल ठीक और मोअतदिल हालत में होते हैं। लेकिन ये बहुत बड़ी ग़लती है। वो लोग जो शराब बीयर या किसी और नशीली चीज़ के एक दो गिलास पीते हैं, दूसरे दिन उन पर ग़ुनूदगी की हालत तारी होती है और वो ख़ुद को उदास उदास महसूस करते हैं जिसका बिल-आख़िर नतीजा ये होता है कि वो मुश्तइल हो जाते हैं। उनकी दिमाग़ी पज़मुर्दगी और ना-तवानी को तंबाकू नोशी और भी ज़्यादा बढ़ा देती है। तंबाकू और शराब को एतिदाल के साथ इस्तिमाल करने वाले अगर अपने दिमाग़ को असली हालत में लाना चाहें तो कम-अज़-कम एक हफ़्ता दरकार होगा मगर ऐसा शाज़ो नादिर किया जाता है।

    चुनांचे साबित हुआ कि हमारे दरमियान जो कुछ भी होता है (ख़्वाह उसकी ज़िम्मेदारी उन लोगों के सर पर हो, जो हुकूमत करते हैं या दूसरों को सबक़ देते हैं। ख़्वाह उसकी ज़िम्मेदारी उन लोगों से मुताल्लिक़ हो, जो महकूम हैं और दूसरों से सबक़ लेते हैं) संजीदा-ओ-मतीन हालत में नहीं होता।

    अगर मैं ये कहूं कि हमारी ज़िंदगियों के इंतिशार और उनके ज़ोअफ़ का बाइस मदहोशी की वो मुस्तक़िल हालत है, जिसमें कि अक्सर लोग रहते हैं तो आप उसे मज़ाक़ ना समझिएगा, अगर लोग मदहोशी की हालत में ना हो तो हमारे इर्द-गिर्द जो कुछ हो रहा है क्या किसी के वहम-ओ-गुमान में सकता है। एफिल टावर बनाने से लेकर फ़ौजी मुलाज़िमत इख़्तियार करने तक।

    किसी ज़रूरत के बग़ैर एक कंपनी बनाई जाती है, सरमाया इकट्ठा किया जाता है, लोग मेहनत-ओ-मशक़्क़त करते हैं, हिसाब लगाते हैं, स्कीमें तैयार करते हैं। लाखों टन लोहा एक मीनार बनाने पर सर्फ कर दिया जाता है। इस मीनार की तामीर दूसरे लोगों के दिलों में इस से बड़े मीनार बनाने की ख़ाहिश पैदा करती है, ज़रा ग़ौर फ़रमाईए क्या सही दिमाग़ी हालत में ऐसी फ़ुज़ूल बातें सूझ सकती हैं।

    एक और मिसाल लीजिए। योरोपी अक़्वाम कई बरसों से ऐसे उम्दा तरीक़े ईजाद करने पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र कर रही हैं जिनसे इन्सानों को हलाक किया जा सके और लाखों नौजवानों को बालिग़ होने के साथ ही क़त्ल-ओ-ग़ारत के तरीक़े सिखाय जाते हैं, हर शख़्स जानता है कि अब बर्बरी लोगों के हमलों का कोई ख़तरा नहीं रहा, लेकिन ये जंगी तैयारियां मुतमद्दिन-ओ-मुहज़्ज़ब अक़्वाम अमल में लाती हैं, जो ईसाई मज़हब रखती हैं और फिर वो एक दूसरे से नबर्द-आज़मा होने की कोशिशें करती हैं... सब लोग जानते हैं कि ये तकलीफ़देह, ज़रर रसां, सुकून शिकन, तबाहकुन और अख़लाक़-ओ-इदराक के ख़िलाफ़ है, लेकिन इसके बावजूद सब बाहमी क़त्ल-ओ-ग़ारत का सिलसिला जारी रखते हैं।

    बाअज़ सियासी तदबीरें सोचते हैं कि कैसे, किस-किस के साथ मिलकर और किसको तबाह-ओ-बर्बाद करना चाहिए, बाअज़ उन लोगों की तंज़ीम करते हैं जिनको क़त्ल-ओ-ग़ारतगरी के सबक़ दिए जा रहे होते हैं, बाअज़ अपने ज़मीर अपने इदराक और अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ क़त्ल-ओ-ग़ारत की इन तैयारियों के सामने अपना सर झुका देते हैं। क्या मतीन-ओ-संजीदा लोग ऐसा कर सकते हैं...? सिर्फ शराबी ही ऐसे काम कर सकते हैं जो संजीदगी-ओ-मतानत की सही हालत तक कभी नहीं पहुंचते।

    मेरा ख़्याल है कि आज से पहले लोग कभी ऐसी ज़िंदगी बसर नहीं करते थे। जिसमें ज़मीर और अफ़आल के दरमियान इस क़दर फ़ासिला हो कि इन्सानियत एक जगह गड़ गई है। रुक गई है। ऐसा मालूम होता है कि किसी ख़ारिजी सबब ने उसे फ़ित्री हालत इख़्तियार करने से रोक रखा है जो उसे मिन हैस-इल-अलालत इख़्तियार करना चाहिए था और ये सबब... अगरचे ये अकेला ही ना हो यक़ीनन जिस्मानी तौर पर ख़ुद को मदहोश करता है और ये सबसे बड़ा सबब है जिसके ज़रिये से लोग अपने आपको दिन-ब-दिन कमज़ोर और ज़ईफ़ बना रहे हैं।

    इन्सानियत की तारीख़ में वो दिन क़ाबिल-ए-यादगार होगा जब इस ख़तरनाक बुराई से नजात हासिल की जाएगी और वो दिन दूर नहीं इसलिए कि इस बुराई के नताइज से लोग अच्छी तरह आगाह हो चुके हैं। मदहोश बनाने वाली अशिया के मुताल्लिक़ लोगों का नज़रिया बहुत हद तक तब्दील हो चुका है और इन अशिया के ख़तरनाक नुक़सानात से लोग अच्छी तरह वाक़िफ़ हो गए हैं। अब वो दिन बहुत नज़दीक है, जब ये बेदारी लोगों को इन मदहोश बनाने वाली चीज़ों से हमेशा के लिए नजात दिला देगी और उनकी आँखें खोल देगी ताकि वो अपने ज़मीर के मुतालिबात देख सकें और उन पर ग़ौर कर सकें।

    स्रोत:

    Manto Ke Mazameen (Pg. 254)

    • लेखक: सआदत हसन मंटो
      • प्रकाशक: साक़ी बुक डिपो, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1997

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