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Abdul Ahad Saaz's Photo'

अब्दुल अहद साज़

1950 - 2020 | मुंबई, भारत

मुम्बई के प्रख्यात आधुनिक शायर, संजीदा शायरी पसंद करने वालों में लोकप्रिय।

मुम्बई के प्रख्यात आधुनिक शायर, संजीदा शायरी पसंद करने वालों में लोकप्रिय।

अब्दुल अहद साज़ के शेर

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नींद मिट्टी की महक सब्ज़े की ठंडक

मुझ को अपना घर बहुत याद रहा है

ला से ला का सफ़र था तो फिर किस लिए

हर ख़म-ए-राह से जाँ उलझती रही

अब के क़लम के पहलू में सो जाती हैं बे-कैफ़ी से

मिसरों की शोख़ हसीनाएँ सौ बार जो रूठती मनती थीं

आई हवा रास जो सायों के शहर की

हम ज़ात की क़दीम गुफाओं में खो गए

दोस्त अहबाब से लेने सहारे जाना

दिल जो घबराए समुंदर के किनारे जाना

बचपन में हम ही थे या था और कोई

वहशत सी होने लगती है यादों से

मिरी रफ़ीक़-ए-नफ़्स मौत तेरी उम्र दराज़

कि ज़िंदगी की तमन्ना है दिल में अफ़्ज़ूँ फिर

मुफ़्लिसी भूक को शहवत से मिला देती है

गंदुमी लम्स में है ज़ाइक़ा-ए-नान-ए-जवीं

जिन को ख़ुद जा के छोड़ आए क़ब्रों में हम

उन से रस्ते में मुढभेड़ होती रही

यादों के नक़्श घुल गए तेज़ाब-ए-वक़्त में

चेहरों के नाम दिल की ख़लाओं में खो गए

शिकस्त-ए-व'अदा की महफ़िल अजीब थी तेरी

मिरा होना था बरपा तिरे आने में

शोलों से बे-कार डराते हो हम को

गुज़रे हैं हम सर्द जहन्नम-ज़ारों से

शेर अच्छे भी कहो सच भी कहो कम भी कहो

दर्द की दौलत-ए-नायाब को रुस्वा करो

जीतने मारका-ए-दिल वो लगातार गया

जिस घड़ी फ़त्ह का ऐलान हुआ हार गया

मैं बढ़ते बढ़ते किसी रोज़ तुझ को छू लेता

कि गिन के रख दिए तू ने मिरी मजाल के दिन

घर वाले मुझे घर पर देख के ख़ुश हैं और वो क्या जानें

मैं ने अपना घर अपने मस्कन से अलग कर रक्खा है

नेक गुज़रे मिरी शब सिद्क़-ए-बदन से तेरे

ग़म नहीं राब्ता-ए-सुब्ह जो काज़िब ठहरे

दाद-ओ-तहसीन की बोली नहीं तफ़्हीम का नक़्द

शर्त कुछ तो मिरे बिकने की मुनासिब ठहरे

प्यास बुझ जाए ज़मीं सब्ज़ हो मंज़र धुल जाए

काम क्या क्या इन आँखों की तिरी आए हमें

हर क़दम इस मुतबादिल से भरी दुनिया में

रास आए तो बस इक तेरी कमी आए हमें

ख़याल क्या है जो अल्फ़ाज़ तक पहुँचे 'साज़'

जब आँख से ही टपका तो फिर लहू क्या है

मुशाबहत के ये धोके मुमासलत के फ़रेब

मिरा तज़ाद लिए मुझ सा हू-ब-हू क्या है

अबस है राज़ को पाने की जुस्तुजू क्या है

ये चाक-ए-दिल है उसे हाजत-ए-रफ़ू क्या है

'साज़' जब खुला हम पर शेर कोई 'ग़ालिब' का

हम ने गोया बातिन का इक सुराग़ सा पाया

शायरी तलब अपनी शायरी अता उस की

हौसले से कम माँगा ज़र्फ़ से सिवा पाया

बोल थे दिवानों के जिन से होश वालों ने

सोच के धुँदलकों में अपना रास्ता पाया

बयाज़ पर सँभल सके तजरबे

फिसल पड़े बयान बन के रह गए

बाम-ओ-दर की रौशनी फिर क्यूँ बुलाती है मुझे

मैं निकल आया था घर से इक शब-ए-तारीक में

ज़मानों को मिला है सोज़-ए-इज़हार

वो साअत जब ख़मोशी बोल उठी है

ज़माने सब्ज़ सुर्ख़ ज़र्द गुज़रे

ज़मीं लेकिन वही ख़ाकिस्तरी है

जैसे कोई दायरा तकमील पर है

इन दिनों मुझ पर गुज़िश्ता का असर है

ख़बर के मोड़ पे संग-ए-निशाँ थी बे-ख़बरी

ठिकाने आए मिरे होश या ठिकाने लगे

मैं एक साअत-ए-बे-ख़ुद में छू गया था जिसे

फिर उस को लफ़्ज़ तक आते हुए ज़माने लगे

बे-मसरफ़ बे-हासिल दुख

जीने के ना-क़ाबिल दुख

नज़र की मौत इक ताज़ा अलमिया

और इतने में नज़ारा मर रहा है

बुरा हो आईने तिरा मैं कौन हूँ खुल सका

मुझी को पेश कर दिया गया मिरी मिसाल में

वो तो ऐसा भी है वैसा भी है कैसा है मगर?

क्या ग़ज़ब है कोई उस शोख़ के जैसा भी नहीं

मिरे मह साल की कहानी की दूसरी क़िस्त इस तरह है

जुनूँ ने रुस्वाइयाँ लिखी थीं ख़िरद ने तन्हाइयाँ लिखी हैं

नज़र तो आते हैं कमरों में चलते-फिरते मगर

ये घर के लोग जाने कहाँ गए हुए हैं

पस-मंज़र में 'फ़ीड' हुए जाते हैं इंसानी किरदार

फ़ोकस में रफ़्ता रफ़्ता शैतान उभरता आता है

रात है लोग घर में बैठे हैं

दफ़्तर-आलूदा दुकान-ज़दा

ख़िरद की रह जो चला मैं तो दिल ने मुझ से कहा

अज़ीज़-ए-मन ''ब-सलामत-रवी बाज़-आई''

मैं तिरे हुस्न को रानाई-ए-मा'नी दे दूँ

तू किसी शब मिरे अंदाज़-ए-बयाँ में आना

तुम अपने ठोर-ठिकानों को याद रक्खो 'साज़'

हमारा क्या है कि हम तो कहीं भी रहते हैं

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